राम कथा हिंदी में लिखी हुई-41 ram katha hindi mein
सुमंत्र ने बाहर निकल सबका समाधान
किया और "गयेउ जहाँ दिनकर कुल टीका" जहाँ सूर्यकुल के टीका थे वहाँ गये, राम
ने पिता की भाँति उनका आदर किया, राजा की आज्ञा कह सुनाई और
रघुकुल दीपक को साथ लिवाकर चले, राजा का शोक रूपी तम निवारण
करने वाले चले हैं अत: ‘दीपक' कहा भानु न कहा।
क्योंकि सम्पूर्ण शोक दूर न करेंगे, दर्शन
से कुछ प्रसन्नता होगी, सूर्य स्वयं उदित होते हैं दीपक
दूसरे के यत्न से प्रकाश करता है। जैसे ही यहाँ रामजी स्वतः नहीं गये सुमंत्र के
लिवा जाने पर गये जब उस भवन में दीपक का प्रकाश पहुँचेगा तब सब कुछ प्रकाश में आ
जावेगा।
"ज्ञान दीपेन भास्वता"
पुनः भाव कि अपने ज्ञान, वैराग्य,
त्याग, पितृ भक्ति इत्यादि गुण रूप प्रकाश से
श्रीराम रघुकुल को विशेष प्रकाशित करेंगे, दीपक के चले जाने
पर अँधेरा हो जाता है वैसे ही राम वन गमन से रघुकुल में अँधेरा छा जायेगा।
प्रथम 'दिनकर
कुल टीका'
दूसरी बार 'रघुकुल दीपा' अर्थात् टीका तिलक से केवल शोभा होती है पर दीपक का प्रकाश पराधीन रहता है
वह पवन से बुझ सकता है, स्त्रियाँ भी अंचल वायु से उसे बुझा
सकती हैं "अंचज वात बुझावइ दीपा" कैकई रूपिणी विपत्ति अपने
सुखरूपी अंचल के वचन रूपी वायु से उसे बुझाने का प्रयास करेगी यही जानकर यहाँ कवि
ने 'मणि' कहा। मणि स्वयं प्रकाशवान
होती है किसी के बुझाने पर नहीं बुझती, अतः राम जी का मन जरा
भी विचलित न होगा, ज्ञानरूपी प्रकाश और विरागरूपी तेज अटल
रहेगा। राम का स्वभाव करुणामय और मृदु है पहले पहल दु:ख देख रहे हैं उन्होंने दुःख
कान से भी नहीं सुना था धैर्य धारण कर माँ कैकई से ही पूछा- "मोहि कहु मातु तात दुःख कारन" माँ मुझे
पिताजी के दुःख का कारण बता, उसके निवारण का यत्न किया जाय ।
कैकई बोली राम सुनो सब कारण तो यह है मूल कि राजा का तुम पर अत्यधिक स्नेह है,
मुझे दो वरदान देने को कहा था, सो मुझे जो
अच्छा लगा, माँगा, राजा को उससे बड़ा
शोक हुआ क्योंकि उसके देने में तुम्हारा साथ छोड़ना पड़ेगा और इनका किया यह होता
नहीं है, ईश्वर बेटे का स्नेह उधर बचन का पाश, देने में तुमसे प्रेम तोड़ना पड़ेगा। न देने से प्रतिज्ञा भंग होती है,
अब काम तुम्हारा है यदि तुम स्वयं प्रसन्नतापूर्वक उस आदेश को
शिरोधार्य करोगे तो सब संकट कटा ही हुआ है। दो वरदान विषयक सब कथा रघुपति को
सुनाकर निष्ठुरता शरीर धारण करे बैठी है। 'रघुपति' कहने का भाव कि अब दशरथ जी तो रघुपति रहे नहीं उन्होंने वरदान द्वारा
राज्य भरत को दे दिया। कैकई भरत को रघुपति बनाना चाहती है पर वे भी रघुपति नहीं
होंगे, श्रीराम ही 'रघुपति' होंगे। वे ही इस कुल दीप प्रतिष्ठा की रक्षा करेंगे अतः 'रघुपति' कहलाया गया।
भगवान को जब पता चला कि मेरे कारण
मेरे पिता की इस प्रकार हालत हुई है तो वह बहुत दुखी हुए। कहने लगे कैकेयी माता से
मां आप मुझको बुलाकर कह दी होती मैं अभी तक वन को चला गया होता। मां वह बेटा तो भाग्यशाली
होता है,
जिनको माता-पिता के आज्ञापालन का अवसर प्राप्त होता है।
सुनु
जननी सोइ सुतु बड़भागी। जो पितु मातु बचन अनुरागी।।
तनय मातु पितु तोषनिहारा। दुर्लभ जननि सकल संसारा।।
वह बेटे तो भाग्यशाली होते हैं जिनको
माता-पिता की आज्ञा के पालन का अवसर मिलता है। माँ आप मुझसे कह दी होती मैं वन को
चला गया होता। और मां मुझे वन जाने पर तो सर्व प्रकार से लाभ है। माँ मैं तो शुरू
से यही चाहता था कि मेरे प्राणों से प्यारा भरत राजा बने। वन में विशेष रूप से
मुनियों का मिलन होगा जिसमें मेरा सभी प्रकार से कल्याण है। उसमें भी फिर पिताजी
की आज्ञा और जनानी तुम्हारी सम्मति और प्राण प्रिय भरत राज्य पाएंगे इस सभी बातों
को देखकर यह प्रतीत हो रहा है कि आज विधाता सब प्रकार से मुझसे प्रसन्न हैं, मेरे
अनुकूल है।
दर्शन कीजिए सज्जनों ऐसे हैं मेरे
राम। जो प्रतिकूलता में भी अनुकूलता खोज लें वह हैं राम। राम जी कहने लगे हे माता
मुझे एक ही दुख विशेष रूप से हो रहा है वह महाराज को अत्यंत व्याकुल देखकर इस
थोड़ी सी बात के लिए ही पिताजी को इतना भारी दुख हो। हे माता मुझे इस बात पर
विश्वास नहीं होता क्योंकि महाराज तो बड़े धीर और गुणों के अथाह समुद्र हैं, अवश्य
ही मुझसे कोई बड़ा अपराध हो गया है जिसके कारण अब महाराज मुझसे कुछ नहीं कहते?
तुम्हें मेरी सौगंध है माता तुम सच-सच कहो क्या बात है?
माता कैकेयी ने कहा हे राम मैं तुम्हारी शपथ खाकर कहती हूं, भरत की सौगंध खाकर कहती हूं इसके अलावा महाराज के दुख का कारण और कोई
दूसरा नहीं है। हे राम!
तुम्ह
अपराध जोगु नहिं ताता। जननी जनक बंधु सुखदाता।।
तुम अपराध के योग्य नहीं हो, तुमसे
माता-पिता का अपराध बन पड़े यह संभव नहीं, तुम तो माता-पिता
और भाइयों को सुख देने वाले हो। आज रामजी बड़े भावुक हैं और पिताजी से कहने लगे-
उठिये पिता
शोच की बात है क्या,
निज माता की आज्ञा निभाऊँगा मैं ।
शुभ पुण्य प्रभाव जगे बन में, मुनि दर्शन लाभ
उठाऊँगा मैं ||
भरताग्रज
प्राण पियारे हमें,
नृप देख उन्हें सुख पाऊँगा मैं ।
बस चौदह वर्ष बिता करके, झट लौट अरण्य से
आऊँगा मैं ॥”
“गइ मुरछा रामहिं
सुमिर नृप फिर करवट लीन्ह। महाराज दशरथ
बार-बार राम उच्चारण किया क्योंकि राम नाम अमृत है। जैसे ही महाराज दशरथ जी ने राम
को देखा है लिपट गए हैं राम से।
रामहि
चितइ रहेउ नरनाहू। चला बिलोचन बारि प्रबाहू।।
सोक बिबस कछु कहै न पारा। हृदयँ लगावत बारहिं बारा।।
आंखों से अविरल अश्रु की धारा चल रही
है, महाराज शोक विवश हैं कुछ कह नहीं सके बार-बार राम को हृदय से लगा रहे हैं।
मन ही मन विधाता से मनाते हैं कि रामजी बन न जायें, "विधिहि
मनाव" कहने का भाव कि कोई ऐसी विधि बैठा दें कि मेरी बात भी न जा सके और
रामजी भी बन न जायें। शंकरजी से प्रार्थना कर रहे हैं आप सबके हृदय के प्रेरक हो,
ऐसी बुद्धि रामजी को दो कि मेरे बचन को हटाकर शील स्नेह को छोड़कर
घर रह जायें चाहे संसार भर में मेरी अपकीर्ति हो, नरक भोगना
पड़े मुझे सब दुःसह दुःख सहाओ पर ये राम मेरी आँखों से ओट न होवें ।
भगवान राम ने बड़े सहजता से कहा कि
पिताजी आप एक भी चिंता ना करिए, आप तनिक भी दुखी मत होइए। जितना भगवान
धैर्य धारण करा रहे हैं दशरथ जी उतना ही फूट-फूट कर रो रहे हैं। कहने लगे मैं
जानता था मेरा राम मुझे एक शब्द भी नहीं कहेगा कुछ। विधाता से आर्त भाव से पुकार
कर रहे हैं कि किसी विधि से मेरे राम को मेरे आंखों से ओलट ना जाने दो मैं राम के
बिना नहीं जी सकता। भगवान राम जी ने कहा पिताजी बस 14 वर्ष
की तो बात है आपका आशीर्वाद से बहुत जल्दी यह समय पूरा हो जाएगा। लोटन ओट' इस शोच को छोड़िये और मेरी ओर कल्याण की दृष्टि करके प्रसन्न होकर आज्ञा
दीजिये। आज्ञापालन करके जन्म का फल पाकर के शीघ्र ही लौटूंगा, अब आज्ञा हो, माता से विदा माँग आऊँ तब फिर चरणों
में प्रणाम करके वन जाऊँगा। ऐसा कहकर राम चले गये राजा ने शोक के वश होकर कोई
उत्तर न दिया। नगर में सब जगह यह तीखी बात व्याप्त हो गई की राम जीवन को जाएंगे,
सुनकर सब नर-नारी विकल हो गये, रामजी माता
कौशल्या के पास पहुँचे। इस रघुवंश के मां के चरित्र का दर्शन करिए बंधुओं माता
कौशल्या आज इतनी प्रसन्न हैं कि मेरा बेटा आज राजा बनेगा। मैं अपने बेटे को राजा
बनते हुए देखूंगी।
सज्जनो किसी मां के बेटे को इतना
बड़ा सम्मान मिले तो इससे ज्यादा एक मां को प्रसन्नता का और कोई दिन नहीं हो सकता।
जैसे ही माता कौशल्या ने राम को देखा है पुकारा हे राम सुन आज तेरा राज्याभिषेक है
बड़ी लंबी क्रिया चलेगी तू भूखा नहीं रह पाएगा। देखिए मां के हृदय में यही रहता है
कि मेरा बेटा भूखा ना रह पाए। माता कौशल्या कह रही हैं पुत्र राम कुछ दूध पी लो, फल
खा लो। भगवान श्री राम मन में विचार कर रहे हैं कि मैं अपनी मां को अब कैसे बताऊं
कि अब मेरा राज्याभिषेक नहीं होगा। अब मुझे वन जाना पड़ेगा। प्रभु राघव दोनों हाथ
जोड़कर माता के चरणों में गिर पड़े हैं प्रणाम किए हैं। माता कौशल्या ने राघव जी
को उठाकर हृदय से लगाकर उनका मुख चुमा है। राम जी माता कौशल्या से कहने लगे-
पिता
दीन्ह मोहि कानन राजू। जहाँ सब भाँति मोर बड़ काजू ॥
आयसु देहि मुदित मन माता। जेहिं मुद मंगल कानन जाता।।
पिताजी ने मुझे बन का राज्य दे दिया, बन
की व्यवस्था बहुत बिगड़ी हुई है वहाँ बिना मेरे काम बन नहीं सकता, इस भाँति राम ने पिता के सत्य की तथा सद्भावना की रक्षा की जो कुछ रामजी
ने कहा वह सत्य प्रिय और हित था । माँ तू प्रसन्न मन से आज्ञा दे जिससे वन जाते
मुझे आनंद मंगल हो । प्रेमवश होकर भूलकर भी मत भयभीत हो क्योंकि तेरे अनुग्रह से
ही सब आनंद होगा। 14 वर्ष वन में रहकर पिताजी के वचन को सत्य
कर फिर लौट कर तेरे चरणों का दर्शन करूंगा तू मन को दुखी ना कर। रघुकुल मणि राम जी
के यह बहुत ही नम्र व मीठे वचन माता के हृदय में बांण के समान लगे। माता कौशल्या
एकदम सहम गई, हृदय में ऐसा विषाद हुआ शरीर थर-थर कांपने लगा।
नेत्रों में जल भर आया। फिर माता कौशल्या धीरज धरकर राम जी से कहने लगीं की हे राम
तुम तो पिता को प्राणों के सामान प्रिय हो, तुम्हारे
चरित्रों को देखकर वह नित्य प्रसन्न होते थे, राज्य देने के
लिए उन्होंने ही शुभ दिन का विचार करवाया था फिर अब किस अपराध से वन जाने को कहा
है? मुझे इसका कारण सुनाओ। कौशल्या जब यह प्रश्न करती हैं कि
सूर्यकुल के लिये आग कौन हुआ? इस पर सुमंत राम का रुख पाके
कहने लगे-
सुनि
प्रसंगु रहि मूक जिमि दसा बरनि नहिं जाइ।।
यह सुन कौशल्याजी सन्न रह गयीं बोलने
के लिये शब्द न मिले न रख सकती हैं न जाने को कहती हैं क्योंकि- दोनों तरह से हृदय
में दारुण दाह है। धर्म और स्नेह ने बुद्धि को घेर लिया, बेटे
को रोकने से धर्म जाता है और बंधु विरोध भी खड़ा होता है और जाने को कहती हूँ तो
भी बड़ी हानि होती है इस भाँति संकट व शोच के विवश महारानी हो गयीं। महाराज का
प्रेम रामजी पर है उनके बन जाने में स्वयं महाराज के प्राण संकट में पड़ जायेंगे।
यह सब अघटित घटना विचार मन में आ रहे हैं।
माता कौशल्या कहने लगी राम जी से की
हे राम अगर केवल तेरे पिता की आज्ञा होती तो मैं तुझे वन जाने से रोक लेती।
क्योंकि जितना पुत्र पर पिता का अधिकार होता है उससे कई गुना ज्यादा एक मां का भी
अधिकार होता है। लेकिन इसमें तेरी कैकेयी माता की भी आज्ञा है। हे राम कैकेयी तेरी
सौतेली माता नहीं है,
तेरा पूरा बचपन उसी कैकेई के गोद में ही बीता है। केवल तेरे पिता की
आज्ञा नहीं है माता और पिता दोनों की आज्ञा है तो है राम तुझे वन जाना चाहिए।
जौं केवल पितु आयसु ताता। तौ जनि जाहु जानि बड़ि माता।।
जौं पितु मातु कहेउ बन जाना। तौं कानन सत अवध समाना।।
पिता माता दोनों ने वन जाने को कहा हो तो वन तुम्हारे लिए सैकड़ो
अयोध्या के समान है। वन के देवता तुम्हारे पिता होंगे और वन देवी तुम्हारी माता
होगी। वहां के पशु पक्षी तुम्हारे चरण कमल के सेवक होंगे। राजा के लिए अंत में तो
वनवास करना उचित ही है केवल तुम्हारी सुकुमार अवस्था देखकर ह्रदय में दुख होता है।