राम कथा हिंदी में लिखी हुई-48 ramkatha notes
( चित्रकूट
निवास प्रसंग )
प्रभु श्री राम वाल्मीकि ऋषि के
द्वारा बताए जाने पर चित्रकूट पर पधारे हैं।
चित्रकूट
रघुनंदनु छाए। समाचार सुनि सुनि मुनि आए॥
श्री रघुनाथजी चित्रकूट में आ बसे
हैं, यह समाचार सुन-सुनकर बहुत से मुनि आए। रघुकुल के चन्द्रमा श्री
रामचन्द्रजी ने मुदित हुई मुनि मंडली को आते देखकर दंडवत प्रणाम किया॥ चित्रकूट
वस्तुतः पर्वतों में जो परमेश्वर की विभूति मेरू पर्वत है उसका ही शिखर है। एक बार
मेरू के गर्व से क्रुद्ध होकर वायुदेव ने उसे उड़ाने की ठान ली, भगवान ने उसकी सहायता के लिये गरुड़ को भेजा उसने मेरू को अपने दोनो पंखो
से आच्छादित कर लिया । अतः वायु के प्रचंड वेग से भी मेरू की कोई हानि नहीं हुई,
मेरू ने कहा कि गरुड़जी ! मुझे तो कुछ पता नहीं चल रहा है वायु कुछ
बल दिखा रहे हैं कि नहीं, गरुड़ ने कहा कि बोलो मत । दुबके
पड़े रहो। बड़ी आपत्ति है, मेरू ने कहा कि तनिक सा मुझे भी
सामना करने का अवसर दो ।
गरुड़जी ने थोड़ा सा पंखो खिसका दिया, तो
दो श्रंग उड़ गये, एक वृन्दावन में गिरा जिसका गोवर्धन नाम
है, दूसरा विंध्य श्रंखला में जा गिरा जिसे चित्रकूट = कामद
गिरि कहते हैं। ये दोनों महामहिम श्रंग देवताओं के विहार स्थान मेरु के ही हैं अतः
पर्वतों में इनकी महिमा है। दोनों भाइयों ने सीता सहित मंदाकिनी में स्नान किया,
वहाँ देवता कोल किरात के वेष में आकर पत्ते और तृणों से दो घर सुंदर
एक बड़ा एक छोटा बना गये, यदि देवता अपने ही वेष में आते तो
प्रभु सेवा न लेते।
देवता, नाग, किन्नर और दिकपाल उस समय चित्रकूट आये, रामजी ने
सबको प्रणाम किया, देवतागण नेत्र का फल पाकर प्रसन्न हुए।
समाचार पाकर मुनिवृन्द आने लगे । उनको भी श्रीराम ने दण्डवत प्रणाम किया, मुनि लोग रामजी को कलेजे से लगा लेते हैं वाणी की सफलता के लिये उनको
आशीर्वाद देते हैं, सीता, लक्ष्मण और
रामजी की छवि देखकर अपने साधनों को सफल मान रहे हैं। अब वे पूर्ण स्वच्छंदता से
अपने-अपने आश्रमों में योग, यज्ञ, जप,
तप करने लगे। क्योंकि पहले वे निशाचरों से डरते थे, स्वच्छंदता नहीं थी, यज्ञ छिप कर हो नहीं सकता और अब
श्रीरामजी के पहुँचने से उन्हें किसी का डर नहीं। प्रभु राघव के आने का समाचार जब
वहां के कोल भीलों ने पाया तो-
यह
सुधि कोल किरातन्ह पाई। हरषे जनु नव निधि घर आई॥
कंद मूल फल भरि भरि दोना। चले रंक जनु लूटन सोना॥
कोल भील, आदिवासी,
गिरिवासी यह सब सुनते ही भागे-भागे चले आए। भगवान ने इनको देखा तो
वह आश्चर्यचकित हो गए। लक्ष्मण जी से बोले लक्ष्मण यह कौन लोग हैं? जरा पता करो? लक्ष्मण जी ने कहा कि हे प्रभु आप इतना
चौक क्यों रहे हैं? राम जी ने कहा हे लक्ष्मण चौकने का तो
कारण है ही। भगवान राम ने कहा लक्ष्मण आज तक संसार में जो भी मेरे पास आया है वह
फल मांगने आया है। पता करो यह कौन लोग हैं जो फल देने आए हैं।
वहाँ के कोल किरातों ने भी श्रीराम जी की सेवा कंद, मूल, फल, दोना भर-भर के बड़ी
सेवा की । वे ऐसे प्रसन्न हुए मानों नवों निधि घर में आ गयी हों, भेंट सामने रखकर जोहार करते हैं और विनीत वचन हाथ जोड़कर बोलते हैं। हम सब
तो सकुटम्ब धन्य हो गये क्योंकि तुमको आँख भर देख रहे हैं, हम
सब आपकी यहाँ सब तरह से सेवा करेंगे ।
वेद
बचन मुनि मन अगम ते प्रभु करुना ऐन।
बचन कितरातन के सुनत, जिमि पितु बालक बैन ॥
जो बेद के लिये बचन से अगम्य हैं, मुनि
के लिये मन से अगम्य हैं वे करुणायतन किरातों की बातें इस भाँति सुन रहे हैं जैसे
बाप बच्चों की बात सुनता है। क्योंकि-
रामहि
केवल प्रेमु पिआरा। जानि लेउ जो जान निहारा॥
रामजी को तो केवल प्रेम ही प्यारा है, रामजी
ने भी उन सबको अपने बचनों से संतुष्ट किया । भाव यह है कि आश्वासन देकर तो
श्रीरामजी ने देवताओं को विदा किया, सम्मान करके मुनियों को
विदा किया, अब प्रेम से परिपुष्ट करके कोल-किरातों को विदा
किया। प्रभु की निकाई कहते सुनते आये थे और अब प्रभु के गुण कहते सुनते घर लौटते
हैं। दरबार लगा रहता है कभी देवता, कभी मुनिगण, कभी कोल किरात हाजिर होते रहते हैं इस भाँति प्रभु श्रीरामजी वन में
सीता-भाई सहित सुखी होकर बसते हैं। वहाँ के बसने पर बन भी मंगलदायक हो गया।
पक्षियों का कलरव, हाथी सिंह, बाराह और
मृग बैर छोड़कर एक संग विचर रहे हैं।
जो बड़े-बड़े दिव्य पर्वत समूह थे वह
चित्रकूट की भूरि भूरि प्रशंसा करते हैं। उदयांचल और अस्ताचल सूर्य नारायण से
सम्बद्ध है,
कैलाश = उमा शिवजी का निवास है, मंदर और मेरू
तो सब देवताओं का निवास है, हिमालय पर्वत के राजा ही ठहरे ये
सब छोटे चित्रकूट का यशोगान कर रहे हैं क्योंकि वह आज प्रभु का निवास स्थान हो गया
है। विंध्याचल के आनंद का तो कोई ठिकाना नहीं क्योंकि बिना परिश्रम उसे इतनी बड़ाई
मिली।
एक बार उसने अपनी परिक्रमा सूर्य के
द्वारा कराने की इच्छा की। सूर्य के मना करने पर इतना ऊँचा बढ़ा कि सूर्य की रोशनी
ही पृथ्वी पर न पड़े इसे देख अगस्त्यजी के आते ही उसने दण्डवत की उन्होंने कहा ऐसे
ही पड़े रहो जब तक मैं दुबारा आऊँ तब से वे ऐसे ही पड़े हैं, उनका
सब श्रम ही व्यर्थ हो गया बढ़ने का। सो इस समय बिना श्रम ही इतनी बड़ी बड़ाई कि
साक्षात भगवान उस पर निवास कर रहे हैं ।
राम सीता लक्ष्मण तीनों मूर्तियाँ
वनवास काल में चित्रकूट में हैं चित्रकूट में कामगिरि को दीपदान का बड़ा महत्व है, सीताजी
कामदनाथ को दीपदान करती हुई मनौंती कर रहीं हैं - हे कामदानाथ ! यदि आपने मेरा
मनोरथ पूरा कर दिया तो सीता सर्वदा चित्रकूट में कल्पवास करेगी।
सीताजी का रामजी के चरणों में ऐसा
अनुराग है कि सहस्त्र अयोध्या की भाँति वन प्रिय लग रहा है। रात-दिन प्रसन्न हैं
दुःख का लेश नहीं। पत्रों की कुटी प्यारी लग रही है पशु-पक्षी प्रिय परिवार हो रहे
हैं मुनि लोग और उनकी स्त्रियाँ ससुर-सास सम लग रहे हैं कंद मूल फल का भोजन अमृत
के समान जान पड़ता है। वह परमात्मा श्री राम नर लीला कर रहे हैं, वह
परमात्मा निराकार से नराकार का रूप लिए हैं। तो जो एक मनुष्य के भीतर संवेदनाएं व
जो प्रेम होता है, भगवान राघव भी उससे परिपूर्ण हैं।
कभी एकांत में भगवान चले जाते हैं, किसी
पत्थर पर बैठकर फूट-फूट कर रोने लगते हैं। क्योंकि उनको अयोध्या की याद आती है।
अयोध्या वासी निरंतर प्रभु राघव को याद करते रहते हैं, इसलिए
भगवान को भी उनकी निरंतर याद आती है। भगवान का तो यह स्वभाव है कि जो उनको याद
करता है वह उन्हें अवश्य ही याद करते हैं।
ये
यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
यह भगवान का कथन है कि मेरा भक्त
मुझे जिस भाव से भजते हैं मैं भी उनको उसी भाव से भजता हूं। सारे अयोध्या वासी
भगवान को रो-रो करके याद करते हैं, इसलिए प्रभु राघव भी एक
शिला पर बैठकर के रो रहे हैं। उनको याद कर रहे हैं। कैसी है हमारी अयोध्या?
कैसे हैं हमारे पिता? उनको छोड़कर के मैं आया
था। मेरी माताएं किस प्रकार अपने आप को संभाले होगी? अयोध्या
के बच्चे से बूढ़े तक कैसे होंगे? उस समय प्रभु राघव तो कठोर
हृदय करके अयोध्या छोड़कर वन में चले आए थे, लेकिन आज
अयोध्या को याद कर बहुत रोये हैं मेरे प्रभु। सज्जनो बाबा तुलसीदास जी को लिखना
पड़ा है अयोध्या को प्रभु राघव कैसे याद करते हैं?
जब
जब रामु अवध सुधि करहीं। तब तब बारि बिलोचन भरहीं॥
सुमिरि मातु पितु परिजन भाई। भरत सनेहु सीलु सेवकाई॥
चित्रकूट में जब-जब श्रीराम को अबध
का स्मरण हो आता है तब-तब करुणावरुणालय के कमल दल नेत्र सजल हो जाते हैं और जननी
जन्म भूमि जनक तथा बंधु के स्नेह में मग्न हो जाते हैं। सज्जनों इधर भगवान रो रहे
हैं अयोध्या को याद करके,
उधर अयोध्या में माता कौशल्या भी राघव जी को याद करके बहुत रोती है।
प्रभु राघव के याद में माता कौशल्या एकदम सूख गई है। जिस रास्ते से जिस मार्ग से
राम वन को गए थे माता कौशल्या टकटकी लगाये उसी मार्ग को निहारती बैठी रहती हैं कि
मेरा लाल मेरा राम इस मार्ग से कब आएगा?
माता कौशल्या का प्रभु से ऐसा प्रेम
है कि उसका वर्णन करना संभव नहीं। प्रभु राघव जब मिथिला से विवाह करके अयोध्या आए
थे तो माता कौशल्या भगवान को देख करके रोने लगी थी। कहने लगी हे विधाता मेरे जीवन
से उन दिनों को निकाल देना जिन दिनों में मैं अपने राघव का दर्शन नहीं कर पाई हूं।
मेरे जीवन के वह दिन व्यर्थ है जिन दिनों में मैं राम को देख नहीं पाई हूं। इस
प्रकार माता कौशल्या का प्रभु के स्मरण में एक एक क्षण बीत रहा है। और यहां प्रभु
राघव चित्रकूट पर वास कर रहे हैं।
एक चित्रकूट की बड़ी सुंदर लीला
भगवान राघव एक दिन एक लता कुंज के नीचे बैठे हुए थे। (लता कुंज मतलब- जब लता चारों
तरफ से वृक्ष को घेर लेती है वह लता कुंज होती) प्रभु यह सोच रहे हैं की जानकी कुछ
कहती तो नहीं है लेकिन उसके मन में यह बात आती तो होगी कि मेरे पिता ने किसके साथ
मेरी शादी कर दी?
आज प्रभु राघव जानकी जी की महिमा का वर्धन करने के लिए। उस लता कुंज
में बैठे हैं जिस वृक्ष को लताओं ने घेरा हुआ है और वह जानकी जी को अपने पास बुलाए
हैं।
और कहने लगे देखो जानकी यह वृक्ष
कितना भाग्यशाली है जिनको इतनी सुंदर लताओं ने घर करके रखा हुआ है। प्रभु राघव
कहने लगे हे जानकी मैं हूं वृक्ष और तुम हो लता और मैं इतना भाग्यशाली हूं कि तुम
मुझे लताओं के रूप में मिली तुम ना होती तो यह वृक्ष किसी काम का नहीं होता। यहां
राघव जी जानकी जी की महिमा का संवर्धन कर रहे हैं लेकिन जानकी जी कोई सामान्य
स्त्री तो है नहीं। वह जनक नंदिनी है साक्षात जगदंबा हैं। जानकी जी ने कहा कि
प्रभु मुझे तो कुछ और ही लगता है। भगवान ने पूछा आपको क्या लगता है? जानकी
जी ने कहा कि प्रभु मुझे लगता है कि यह वृक्ष भाग्यशाली नहीं है, भाग्यशाली तो यह लतायें हैं। सज्जनो यहां पर जानकी जी भगवान की महिमा को
बढ़ा रही हैं। जानकी जी कह रही हैं हे प्रभु इस लता को आप जैसा वृक्ष न मिला होता,
आप जैसा आधार ना मिला होता, आप जैसा स्तंभ ना
मिला होता तो यह लतायें धरती पर पड़ी रहती।
तो इन लताओं को जंगली जानवर कुचल
कुचल कर समाप्त कर देते। भाग्यशाली तो जानकी है जिसको राम जैसा आधार जीवन पर
प्राप्त हुआ। इसलिए भाग्यशाली लता है। भगवान कह रहे हैं वृक्ष भाग्यशाली है और
जानकी जी कह रही हैं लता भाग्यशाली है तो अब इसका निर्णय कौन करे? जंगल
पर कोई और तो है नहीं बस बचे लक्ष्मण जी तो प्रभु राघव लक्ष्मण जी को बुलाए हैं और
लक्ष्मण जी से प्रभु राम और माता जानकी ने अपनी अपनी बात कही, तो लक्ष्मण जी ने हाथ जोड़कर निवेदन किया।
हे प्रभु ना यह वृक्ष भाग्यशाली है, ना
यह लता भाग्यशाली है, भाग्यशाली तो यह लक्ष्मण है जो इन
दोनों के छांव में अपने जीवन को बड़े आनंद से बिता रहा है। हे भगवन यह लक्ष्मण
भाग्यशाली है जो भगवान और भक्ति के कृपा रूपी छांव में अपने जीवन को सार्थक कर रहा
है।
बोलिए लखन लाल
की जय
सज्जनो हम सब का जीवन भी तभी सार्थक
होगा जब हम भी सीता रामचंद्र भगवान के भक्ति रूपी छांव पर अपने आप को रखेंगे। उसके
लिए आवश्यक है निश्चल प्रेम भाव से उनका हम भजन करें। और भक्ति का मार्ग इतना सरल
नहीं है पग पग पर कठिन चुनौतियां हमारे सामने आएँग परंतु उनसे प्रभावित होकर हमें
इस भजन मार्ग को नहीं छोड़ना चाहिए।