F राम कथा हिंदी में लिखी हुई-49 ram katha book - bhagwat kathanak
राम कथा हिंदी में लिखी हुई-49 ram katha book

bhagwat katha sikhe

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-49 ram katha book

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-49 ram katha book

 राम कथा हिंदी में लिखी हुई-49 ram katha book

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-49 ram katha book

दृष्टान्त - एक विद्यार्थी परीक्षा में फेल होकर शोकातुर चारपाई पर पड़ा था। मन की भावनाएं उठती थीं—‘“अब पढ़ना छोड़ दूंगा। अब पुनः मेरी सफलता की कोई आशा नहीं है।'' इतने में क्या देखता है कि एक छोटी-सी चींटी एक चावल को मुख में पकड़कर दीवाल पर चढ़ रही है और अपने बिल में चावल को ले जाना चाहती है। चावल के सहित चींटी बारम्बार दीवाल पर से गिर पड़ती है, फिर भी वह उसे पकड़कर दीवाल पर चढ़ती है । इस प्रकार चावल लेकर चढ़ते और गिरते चींटी को पचासों बार हो गये, किन्तु उसका बल नहीं थकता है, साहस नहीं कम होता है। वह बारम्बार उसे लेकर चढ़ती है। निदान वह एक बार चावल को लेकर दीवार पार करते हुए अपने बिल में पहुंच जाती है। इस दृश्य को देखकर विद्यार्थी के मन में विवेक होने लगा - जब तुच्छ चींटी में इतना साहस तथा इतनी निश्चय-शक्ति है कि वह पचासों बार की विफलता पर भी हार नहीं मानती, अपने निश्चित कर्तव्य को कर ही लेती है, तब मैं सर्वश्रेष्ठ प्राणी मनुष्य हुए भी क्यों हार मानूं !

अतएव निश्चय-उत्साह सहित साधक को साधना करते रहना चाहिए । पुरुषार्थ अनुसार विलम्ब - अविलम्ब शांति मिलेगी। शांति केवल प्रभु के भजन में है प्रभु के नाम में है, संसार से हम कभी सुख शांति प्राप्त नहीं कर सकते।

नहिं साथी कोई जगत में, जिनको मानि भुलाय।
निज निज स्वारथ तक सभी, प्रीति करै मन लाय।।

जिनको तुम अपना हित मित्र, स्त्री पुत्र, कुल कुटुम्ब, समाज, दास दासी मानकर धर्म भक्ति सत साधना से रहित होकर इस झूठे जगत में भूल रहे हो। वह अपना कोई साथी नहीं है। केवल अपने-अपने स्वार्थ के लिए ही सब कोई तुमसे प्रेम करते हैं। इस असार संसार में कोई किसी का सच्चा साथी नहीं है, सच्चा साथी सिर्फ राघव रामचंद्र भगवान हैं।

चैत्र शुक्ल दशमी को वनवास हुआ, एकादशी को श्रंगवेर पुर ठहरे, द्वादशी को सुमंत्र को विदा किया, त्रयोदशी को भरद्वाज जी के आश्रम में प्रभु ठहरे, चतुर्दशी को निषादराज लौटे, देखा तो सुमंत्र जी रथ के साथ अभी वहीं हैं, मंत्री सुमंत्रजी निषादराज को देखते ही विकल हो गये, रही सही आशा भी टूट गयी, सम्भावना थी कि घोर वन देखकर सीताजी डरेंगी तब रामजी उन्हें लौटा देंगे, वह भी नहीं हुआ, निषाद भी दुःखी होकर लौटे थे, एक दूसरे को देख दोनों रो पड़े।

सुमंत्र जी के दशा वर्णन नहीं हो सकता, राम-राम, लक्ष्मण और सीता ऐसा पुकारते हुए पृथ्वी पर भारी व्याकुल होकर गिरे। इधर घोड़े अनाथ होकर दक्षिण की ओर देखकर अलग रो रहे हैं उनका हिनहिनाना ही रोना है ऐसे दीन हो रहे हैं जैसे बिना पंख के पक्षी होते हैं ।

नहिं तृन चरहिं न पियहिं जल, मोचहिं लोचन वारि ।
व्याकुल भयेउ निषाद सब, रघुवर बाजि निहारि ॥

निषादराज गुह ने जब यह दृश्य देखा तो विचार करने लगे कि जिनके वियोग में पशुओं की यह दशा है। घोड़े हिनहिना हिनहिना के रो रहे थे घास का ढेर घोड़े के सामने रखा था लेकिन घोड़ा एक तिनका भी नहीं खाये। श्वेत रंग के घोड़े श्याम रंग से दीखने लगे हैं। उनके आंखों से आंसुओं की धारा चल रही है। गुह सोच रहा है जिन राम के वियोग में अयोध्या के पशुओं की यह दशा है वहां के मनुष्यों की क्या दशा होगी?

गुह धैर्य धारण करके अनेक कथा कहते हुए सुमंत्र को अयोध्या के निकट पहुँचाकर लौट आये। मंत्रीजी सोच रहे हैं कि जब अवध के लोग व्याकुलता से दौड़कर मुझसे पूँछेंगे तब कलेजे पर वज्र रखकर मुझे जबाब देना होगा। दीन दु:खी मातायें पूछेंगी तो मैं उन्हें क्या जबाब दूंगा? जब दुःख से दीन महाराज पूछेंगे जिनका जीवन ही राम के अधीन है उनको कौन मुँह से जबाब दूँगा कि कुँअर को भाई सीता सहित बन पहुँचाकर मैं कुशल से लौट आया।

महाराज सुमंत्र अपने आप को धिक्कार रहे हैं। कीचड़ का प्रियतम जल है क्योंकि वही उसके अस्तित्व का कारण है उससे बिछोह होते ही कीचड़ सूखकर फट जाता है। उसी भाँति प्रियतम रामजी के बिछुड़ते ही मेरे हृदय को फट जाना था परंतु नहीं फटा इससे अनुमान होता है कि ब्रह्मा ने मुझे यातना शरीर दे रखा है। नगर में प्रवेश करते हुए मंत्री को ऐसा संकोच होता था मानों उन्होंने गुरू ब्राह्मण और गाय की हत्या की है। यहाँ रामगुरू, लक्ष्मण ब्राह्मण, सीता गऊ तीनों का त्याग बन में पहुँचा आना तीनों के बध के समान है। किसी का मत है कि रामजी ब्राह्मण के स्थान पर हैं “मम मूरति महिदेव मयी है" लक्ष्मणजी गुरू हैं क्योंकि ये जीवों के आचार्य हैं, मानों इन्हें ये तीनों हत्यायें लग गईं, अत: इन्हें नगर प्रवेश में परम संकोच है क्योंकि हत्या करने वाले को समाज में मुख दिखाने लायक नहीं माना जाता और जिसने तीन किये हों उसका तो कहना ही क्या है।

अँधेरे में सुमंत्र ने नगर में प्रवेश किया, रथ को द्वार पर छोड़कर तुरंत राजभवन में घुस गये। जिसमें किसी से सामना न हो, फिर भी कुछ लोगों को समाचार लग गया कि सुमंत्र जी लौट आये, रथ द्वार पर खड़ा है।

सचिव आगमनु सुनत सबु, विकल भयउ रनिवास।
भवनु भयंकर लाग तेहि, मानहु प्रेत निवास ॥

सब रानियाँ पूछ रही हैं पर उनको कोई उत्तर देते नहीं बन रहा है, वाणी विकल हो गई कुछ कहते नहीं बनता, ज्ञानेन्द्रियों ने ठीक काम करना बंद कर दिया न तो आँख से सूझ पड़ रहा है कि कौन मुझसे पूछ रहा है और न कान से सुनाई पड़ता है कि क्या पूछ रहा है, यही सबसे पूछ रहे हैं कि महाराज कहाँ हैं, दासियों ने मंत्री की विकलता देख उन्हें कौशल्या के महल में लिवा ले गयीं। जाकर सुमंत्र ने राजा को देखा जैसे अमृत विहीन चन्द्रमा विराजमान हो । न आसन, न शैया न गहने अत्यंत मलिन होकर पृथ्वी तल पर पड़े हैं क्षण-क्षण में सोच से छाती भर लेते हैं जैसे बिना पंख का विहग दीन हो जाता है। उसके सोच का भी पारावार नहीं रहता, वही गति महाराज की हो रही है।

सुमंत्र जी महाराज से जय जीव कहकर दंडवत प्रणाम किया। सुनते ही राजा व्याकुल होकर के उठे और पूछने लगे सुमंत्र कहो राम कहां है? बतलाओ मेरा राम कहां है? कहां है जानकी? कहां है लक्ष्मण? महाराज दशरथ ने सुमंत्र को हृदय से लगा लिया। अपने पास बिठाकर रोते रोते पूंछ रहे हैं। मेरे सखा श्री राम की कुशल कहो? बताओ श्री राम लक्ष्मण और जानकी कहां है? उन्हें लौटा लाए हो कि वह वन चले गए? यह सुनते हैं सुमंत्र जी के नेत्रों से भी आंसुओं की धारा चलने लगी। वह कुछ कह ना सके।

महाराज दशरथ कहने लगे। हे सुमंत्र मेरे सखा। मैं राजा होने की बात सुनाकर वनवास दे दिया, यह सुनकर के भी जिस राम के मन में हर्ष और विषाद नहीं हुआ। ऐसे पुत्र के बिछड़ने पर भी मेरे प्राण नहीं गए। तब मेरे सामान बड़ा पापी कौन होगा। महाराज दशरथ रो करके सुमंत जी से कह रहे हैं- कि हे सखे श्री राम जानकी और लक्ष्मण जहां है मुझे भी वहां पहुंचा दो, नहीं तो मैं सत्य कहता हूं कि मेरे प्राण अब निकलना चाह रहे हैं।

मंत्री सुमंत्र ने धैर्य धारण करके देखा कि महाराज का ज्ञान शोक से अपहृत हो गया है अत: उन्हें अपने स्वरूप का स्मरण दिलाना चाहिये, सो कहते हैं महाराज आप पंडित एवं ज्ञानी हैं, वीर एवं धीरों में धुरंधर हैं आपने सदैव साधु समाज की सेवा की है, आपको यह मोह कहाँ से आया ? जन्म-मरण सब दुःख-सुख के योग, हानि-लाभ, प्रिय-मिलन तथा उनका वियोग ये सब कर्म के फल के विपाक से होते हैं नहीं चाहने से ये हटते नहीं, रात-दिन की भाँति बलपूर्वक होते हैं किसी के रोके ये नहीं रुकते।

सुख स्थानन्तरे दुःखं दुःखस्यानन्तरे सुखम्।

इस ईश्वर की नियति को कोई अन्यथा नहीं कर सकता। सुख-दुःख दोनों में आगमापायी हैं अनित्य हैं इनके लिये सहन करने का विधान है, जिसे दुःख-सुख पीड़ा नहीं देता ऐसे धीर पुरुष अमृतत्व के योग्य होता है आप सबके हित करने वाले हैं आप सोच को छोड़िये, सबके हित में बाधा पड़ेगी।

सुमंत्र का वचन सुनते ही महाराज पृथ्वी पर गिर गये, उनके हृदय में दारुण दाह हुआ, तड़फने लगे, विरह को ज्वाला हृदय में भभक उठी, विलाप करके सब रानियाँ रोने लगीं।

( दशरथ मरण प्रसंग )

प्रान कंठगत भयउ भुआलू । मनि बिहीन जनु व्याकुल व्यालू ॥
इंद्रीं सकल बिकल भइँ भारी। जनु सर सरसिज बनु बिनु बारी।।

महाराज के प्राण कंठगत थे, इन्द्रियाँ विकल थीं, आँखें बंद थीं, तड़फ रहे थे। पर अपनी प्रिया कौशल्या का बचन सुनकर आँखें खोल दीं। कुछ आश्वासन मिला। जिसे बिना जल के तड़फती हुई मछली को कोई ठंडे पानी से सिंच करे तो उसकी वेदना में तात्कालिक कमी हो जाय । धैर्य धारण कर महाराज उठ बैठे और बोलेसुमंत्र बतलाओ कि कृपालु राम कहाँ हैं, लक्ष्मण कहाँ हैं। प्रिय पुत्रवधू वेदेही कहाँ है ? राजा विकल होकर अनेक प्रकार से विलाप करने लगे ।

महाराज दशरथ धरती पर हा राम ,हा राम करते हुए पड़े हैं। अचानक से उठकर के महाराज दशरथ कहने लगे देखो, सुमंत्र मेरे सामने यह दो लोग कौन दिखलाई पढ़ रहे हैं? सुमंत्र जी ने कहा महाराज कोई नहीं है। महाराज दशरथ ने कहा नहीं, मुझे दिखलाई दे रहे हैं देखो वह मुझे श्राप दे रहे हैं। बंधु माताओं मरते समय महाराज दशरथ को श्रवण कुमार के अंधे माता-पिता दिखलाई देने लगे।

तापस अंध साप सुधि आई | कौशल्यहि सब कथा सुनाई ॥
भयउ बिकल बरनत इतिहासा। राम रहित धिग जीवन आसा।।

महराज एकदम चीख चीख कर रोने लगे। मरते समय मनुष्य को अपने जीवन के पाप ही स्मरण आते हैं। सज्जनो और आप विचार कीजिए अनजाने में किया हुआ पाप जब इतना रुला रहा है, तो जानबूझकर किया गया पाप कितना कष्टदाई होगा। महाराज दशरथ कौशल्या माता को श्रवण कुमार की कथा सुनाने लगे।

( श्रवण कुमार प्रसंग )

श्रवण कुमार के माता-पिता अंधे थें, जिनका नाम शांतनु व ज्ञानवंती था। अंधे होने की वजह से शांतनु और ज्ञानवंती ने बड़ी मुश्किलों और कठिनाइयों से लड़ते हुए श्रवण को पाला। और जब श्रवण कुमार बड़े होकर लायक बनें, तो वह अपने माता पिता की सेवा निस्वार्थ भाव से करने लगे। एक बार की बात है, श्रवण के माता-पिता ने तीर्थ धाम यात्रा की इच्छा जाहिर की। इतना सुनते ही श्रवण कुमार ने बांस की दो बड़ी-बड़ी टोकरियां बनाईं और दोनों टोकरियों को एक मजबूत लकड़ी से बांध दिया।

इस तरह वे एक तराजू की तरह बन गए, जिसमें उन्होंने एक टोकरी में अपनी माता को और दूसरी टोकरी में अपने पिता को बिठाया। और उस तराजू रूपी कांवड़ को अपने कंधे पर उठाकर माता-पिता को तीर्थ धाम की यात्रा पर लेकर चल दिए। जब लोगों ने देखा कि एक बेटा अपने अंधे माता पिता की इतने समर्पण से सेवा कर रहा है, तो उनका नाम मातृ पितृ भक्त श्रवण कुमार के रूप में प्रसिद्ध हुआ। तीर्थ धाम यात्रा के दौरान श्रवण हर रोज़ जंगल में कहीं न कहीं उचित स्थान देखकर ठहरते और वे अपना चूल्हा जलाने के लिए जंगल से लकड़ियां बटोर कर लाते। और फिर वे अपने माता पिता के लिए खाना बनाते।

यात्रा के दौरान जब एक दिन श्रवण कुमार आयोध्या पंहुचे उसी दौरान उनके अंधे माता-पिता ने उनसे पानी पिने की इच्छा बताई। इसके बाद श्रवण घड़ा लेकर सरयू के तट पर पानी लेने गए। जब श्रवण कुमार पानी भर रहे थे, तो उनके घड़े से ऐसी आवाज निकल रही थी जैसे कोई जानवर पानी पी रहा हो।
ठीक उसी समय, अयोध्या के राजकुमार दशरथ शिकार खेलने जंगल आए थे। राजकुमार दशरथ के पास शब्दभेदी बाण चलाने की विशेष कला थी, जिसमें वह केवल ध्वनि सुनकर अपने बाण को सटीक निशाने पर मार सकते थें। श्रवण कुमार अपने माता-पिता के लिए पानी भर रहे थे और उनके बर्तन से निकलने वाली ध्वनि राजकुमार दशरथ के कानों तक पहुंची। राजकुमार दशरथ को लगता है कि कोई जानवर पानी पी रहा है और उन्होंने उसी ध्वनि की ओर अपना बाण छोड़ दिया। जब बाण श्रवण कुमार के शरीर पर लगा तो उन्होंने जोर से चिल्लाया। श्रवण के चिल्लाने की आवाज सुनकर राजकुमार दशरथ को आभास हुआ कि उन्होंने किसी मनुष्य पर बाण चला दिया है। फिर उन्होंने उन्हें धीरज बंधाते हुए श्रवण के पास गए और पूछा कि वह कौन हैं। श्रवण कुमार ने अपने अंतिम क्षण में उन्हें पूरी कहानी सुनाई, और फिर उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए।

राजकुमार दशरथ शर्म से अपना मुंह निचे किए जल पात्र लेकर उनके माता-पिता के पास पहुंचे। वहां पहुंचकर जब दशरथ उनसे जल पीने के लिए कहते हैं, तब वे दोनों दशरथ से पूछते हैं वे कौन हैं और उनका बेटा श्रवण कहां है। तब मन में दुखी होते हुए ग्लानि से भरपूर इक्ष्वाकु वंशज के राजकुमार दशरथ उन्हें सारा वृतांत बताते हैं। दशरथ ने कहा, वे उनके अपराधी हैं और उनके भूल की वजह से उनके पुत्र श्रवण कुमार की मृत्यु हो गई है।

अपने इकलौते पुत्र की मृत्यु की खबर सुनकर दोनों माता-पिता बुरी तरह से रोने लगे। पुत्र वियोग में रोते-रोते श्रवण कुमार की माता ने अपने प्राण त्याग दिए। और तब श्रवण के पिता शांतनु ने राजकुमार दशरथ से कहा कि उन्होंने किसी दोषी के कारण अपना पूरा परिवार खो दिया। पहले उनका पुत्र श्रवण मर गया और अब उनकी पत्नी ने भी प्राण त्याग दिए। अब वे भी अपने प्राण त्यागने जा रहे हैं। लेकिन, उससे पहले मुनि शांतनु ने राजकुमार दशरथ को श्राप दिया। उन्होंने कहा, आज जिस तरह से मैं पुत्र वियोग में मर रहा हूँ, ठीक उसी प्रकार तुम्हारी मृत्यु भी पुत्र वियोग के कारण होगी। और उसके बाद श्रवण के पिता ने भी अपने प्राण त्याग दिए।

 राम कथा हिंदी में लिखी हुई-49 ram katha book

Ads Atas Artikel

Ads Center 1

Ads Center 2

Ads Center 3