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राम कथा हिंदी में लिखी हुई-50 notes for ram katha

bhagwat katha sikhe

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-50 notes for ram katha

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-50 notes for ram katha

 राम कथा हिंदी में लिखी हुई-50 notes for ram katha

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-50 notes for ram katha

अंधे तपस्वी का इतिहास वर्णन करने में उसका पुत्र शोक स्मरण करके भारी ताप हुआ। राम के वियोग में विकल हुए महराज कहने लगे कि राम के न होने पर जीने की आशा को धिक्कार है। ऐसा जीवन मैं नहीं चाहता, यदिराम के बिना शरीर रह गया तो मेरा प्रेम झूठा हो जायेगा ।

हा रघुनंदन प्रान पिरीते। तुम्ह बिनु जिअत बहुत दिन बीते।।
हा जानकी लखन हा रघुबर। हा पितु हित चित चातक जलधर।

हा प्राण प्यारे रघुनंदन तुम्हारे बिना जीते बहुत दिन हो गये। दशमी को राम बन गये छठे दिन सुमंत्र जी लौटे सो छः दिन महाराज को बहुत दिन मालूम हो रहे हैं। राम लक्ष्मण वैदेही को स्मरण कर रहे हैं। अब महाराज दशरथ अंतिम बार प्राण प्रिय राम का स्मरण किए हैं-

राम राम कहि राम कहि राम राम कहि राम।
तनु परिहरि रघुबर बिरहँ राउ गयउ सुरधाम।।

मृत्यु को सामने देखकर दशरथ जी नें छ: बार राम का स्मरण किया। और श्री राम के विरह में शरीर त्याग कर सुरलोक को सिधार गए। महाराज दशरथ के मरण को देखकर पूरा समाज रोने लग गया है, रानी शोक के मारे व्याकुल होकर रो रही हैं। बाबा तुलसी को आज जरूर संतोष हुआ है। कैसा संतोष?

जिअन मरन फलु दसरथ पावा। अंड अनेक अमल जसु छावा।।
जिअत राम बिधु बदनु निहारा। राम बिरह करि मरनु सँवारा।।

जीने और मरने का फल तो महाराज दशरथ ने ही पाया जिनका निर्मल यश अनेकों ब्रह्मांडों में छा गया। जीते जी तो रामचंद्र जी के सुंदर मुख का दर्शन और श्री राम के बिरह को निमित्त बनाकर अपना मरण सुधार लिया। सज्जनों हम सबको भी परमात्मा से बस यही प्रार्थना करना चाहिए। कैसी प्रार्थना?

इतना तो करना स्वामी जब प्राण तन से निकले
गोविंद नाम लेकर तब प्राण तन से निकले।

महाराज दशरथ मरने से पहले छह बार राम-राम उच्चारण करने के बाद प्राणों को त्यागा इसके पीछे संतों के कई भाव हैं। एक-एक नाम स्मरण से एक- एक चक्र का बेध किया (१) मूलाधार (२) स्वाधिष्ठान (३) मणिपुर (४) अनाहत (५) विशुद्ध (६) आज्ञाचक्र। ये छ: चक्र शरीर में हैं इनके बेधन से सहस्त्रासार में गति होती है जहाँ ब्रह्म साक्षात्कार होता है, अथवा छः दिन प्रभु का वियोग रहा, इसलिये छ: बार नाम लिया, अथवा षट विकार जीते, पंचविषय और मन को जीता, पाँचों तत्व पाँचों में मिले छठा आत्मा परमात्मा में मिला, कहि, कहि, कहि तीन बार कहा क्योंकि कर्म, ज्ञान उपासना तीनों का यह सिद्धान्त है अथवा वेदत्रयी का सिद्धान्त यही है, अथवा त्रिवाचा रघुवर से ही राम अलख निरंजन ही कहा। अनेकों भाव महानुभावों ने कहे हैं।

स्मरण रहे कि "सगुण उपासक मोक्ष न लेहीं ॥" वे तो सदा प्रभू के साथ लीला में रहना चाहते हैं। परम धाम क्यों न गये? यह शंका व्यर्थ है क्योंकि दशरथजी जीव कोटि में नहीं हैं ईश्वर कोटि में हैं। मनु महाराज भगवान के ही अवतारों में से एक हैं। वे लोक हितार्थ देह धारण करके जहाँ चाहे वहाँ रहें वे सदा आनंद मूर्ति हैं। वे ही दशरथ रूप से अवध में रहे, आकांक्षा राम को राज्याभिषेक देखने की थी, अत: जहाँ घर में साक्षात् भगवान हों और उनकी आकांक्षा की पूर्ति न हो यह कैसे हो सकता है। जीवित रहने पर तो कुछ क्षण या दिन ही देखते पर स्वर्ग में रहकर जब तक राम राज्य करेंगे वहीं से देखेंगे और प्रभु के साथ ही परम धाम को जायेंगे। सभी रानियाँ विलाप करने लगीं, रूप, शील, बल और तेज का बखान करके अनेक प्रकार से विलाप कर रही हैं और पृथ्वी तल पर बार-बार गिर रही हैं, दासी-दास, पुरूवासी सब रो रहे हैं, आज सूर्य कुल के सूर्य अस्त हो गये। जो धर्म के अवधि और गुणरूप के निधान थे, सब कैकई को गालियाँ देती हैं जिसने सबको नेत्र रहित कर दिया, इस प्रकार रात बीती, तब वशिष्ठजी आये।

तब वशिष्ठ मुनि समय सम, कहि अनेक इतिहास ।
शोक निवारेउ सबहि कर, निज विज्ञान प्रकाश ॥

वशिष्ठ जी ने नाव में तेल भरवा कर राजा के शरीर को उसमें रखवा दिया। फिर दूतों को बुलवाकर उनसे कहा कि तुम लोग जल्दी जाओ भरत के पास। उनको महाराज की मृत्यु का समाचार नहीं देना। बस इतना ही कहना कि दोनों भाइयों को गुरु जी ने शीघ्र ही बुलाया है। यह सुनते ही दूत कैकय देश को गए। इधर सज्जनों जब से अयोध्या में अनर्थ प्रारंभ हुआ। तभी से भरत जी को अपशगुन होने लगे। वे रात को भयंकर सपने देखते थे और जागने पर उन सपनों के कारण व अनेकों तरह की बुरी बुरी कल्पनाएं किया करते थे।

वह अनिष्ट शांति के लिए प्रतिदिन ब्राह्मणों को भोजन व दान किया करते थे। अनेकों विधि से रुद्राभिषेक करते। महादेव जी को हृदय में मनाकर उनसे माता-पिता, कुटुंबी व भाइयों की कुशल छेम मांगा करते थे। यहां भरत जी चिंता करते बैठे ही थे की दोनों दूत आ पहुंचे और उन्होंने संदेश दिया कि गुरु जी ने दोनों भाइयों को शीघ्र ही अयोध्या बुलाया है। भरत जी महाराज तुरंत भाई शत्रुघ्न के साथ तैयार होकर अयोध्या के लिए चल पड़े। उनका रथ हवा के बेग के समान आगे को बढ़ रहा था फिर भी भरत जी महाराज अपने हृदय पर सोच रहे हैं कि उड़कर पहुंच जाऊँ।

एक निमेष बरस सम जाई। एहि बिधि भरत नगर निअराई।।
असगुन होहिं नगर पैठारा। रटहिं कुभाँति कुखेत करारा।।

एक-एक निमेष वर्ष के समान बीत रहा है, इस प्रकार भरत जी नगर के निकट पहुंचे। नगर में प्रवेश करते समय अपशगुन होने लगे। कौवे बुरी जगह बैठकर बुरी तरह से कांव-कांव करने लगे। गधे और सियार विपरीत बोल रहे हैं। यह सुन सुनकर भरत जी के मन में बड़ी पीड़ा हो रही है। तालाब, नदी, वन, बगीचे सब शोभाहीन हो रहे हैं। और नगर शमशान सा दिखाई पड़ रहा है। नगर के लोग मिलते हैं पर कुछ कहते नहीं, भरत जी को देखकर के अपना मुंह फेर लेते हैं। भरत जी का रथ कांपते हुए सीधे कैकेयी जी के भवन तक पहुंचा है। और सज्जनो यहां पर भरत जी ने कैकई माता के भवन के पास रथ को रोका है, इसलिए नहीं कि वह उनकी जन्म देने वाली मां हैं।

भरत जी जानते हैं कि कैकेयी मां के पास ही प्रभु श्री राम भगवान रहते हैं और जहां प्रभु श्री राम होंगे वहीं पर सब होंगे इसलिए यहीं पर सबका मिलन होगा। इस भावना से भरत जी का रथ सीधे कैकेयी माता के भवन पर रुका है। मंथरा तो प्रतीक्षा ही कर रही थी, दौड़ करके गई चिल्लाने लगी हे कैकेयी आरती सजाओ भरत अ गया। देखिए सज्जनों को कुसंग का कैसा प्रभाव होता है? अयोध्या अनाथ हो चुकी है, माताएं विधवा हो चुकी हैं, महाराज का पार्थिव शरीर तेल की नौका में रखा है और मंथरा कह रही है आरती की थाल सजाओ। भरत जी सीधे कैकेयी माता के भवन पर आए हैं, माता ने सिंहासन पर भरत जी को बिठाया है और आरती उतारने लगी।

भरत जी के मन में यही चल रहा है कि आज अयोध्या मैं इतना सन्नाटा क्यों था ? भरत जी ने कैकेयी माता से पूछा है की मां पहले यह बतलाओ की अयोध्या में इतना सन्नाटा क्यों है? मुझे देख करके अयोध्या के लोग मुंह क्यों फेर रहे थे माँ? मुझसे कोई अपराध हो गया क्या मां? मैं तो सोचा था इतने दिन बाद पिता जी से मिलने आ रहा हूं, तो गाजे बाजे के साथ स्वागत किया जाएगा। और यह अयोध्या कैसी लग रही है मां? इतनी वीरान, इतना सन्नाटा मैंने पहले कभी नहीं देखा। बोलो मां और तुम यह किस प्रकार के श्वेत परिधान धारण की हुई हो? मां इन वस्त्रों में तुम एक भी अच्छी नहीं लग रही हो। कहां हैं मेरे पिताजी? कहां है मातायें? कहाँ हैं मेरे प्राणों से प्यारे मेरे भैया राम।

कहु कहँ तात कहाँ सब माता। कहँ सिय राम लखन प्रिय भ्राता।।

कहां हैं मेरे पिताजी? कहां है मेरी मां? और कहां है मेरे प्यारे भैया राम? भरत जी यह बोलते बोलते एकदम अधीर हो गए। कांपने लगे। माता कैकेयी ने जब भरत जी की स्थिति को देखा, विचार करने लगी इसको बताना पड़ेगा, कहीं यह अपने ही प्राण न त्याग दे। तब माता कैकेयी भरत जी से कहने लगी- हे पुत्र सुनो! हे तात मैंने सारी बात बना ली थी, बेचारी मंथरा सहायक हुई पर विधाता ने बीच में जरा सा काम बिगाड़ दिया। वह यह कि राजा देवलोक को पधार गए।

कछुक काज विधि बीच बिगारेउ।

थोड़ा सा काम विधाता ने बिगाड़ दिया। देखिए यहां पर कैकेयी महाराज के मरने को थोड़ा सा काम कह रही है, यह विधवा हो चुकी है लेकिन अभी कह रही है की विधाता ने थोड़ा सा काम बिगाड़ दिया। कुसंग का ज्वर इतना भयानक होता है कि जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।

कैकेयी बोली- हे भरत तेरे पिताजी अब संसार पर नहीं रहे। वह स्वर्ग सिधार गए। भरत जी यह सुनते ही एकदम धडाम से पृथ्वी पर गिर पड़े। जैसे बिना जल के मछली तड़पती है वैसे भरत तड़पने लगे।

तात तात हा तात पुकारी। परे भूमितल ब्याकुल भारी।।
चलत न देखन पायउँ तोही। तात न रामहि सौंपेहु मोही।।

हा तात, हा तात पुकारते हुए अत्यंत व्याकुल होकर जमीन पर गिर पड़े और विलाप करने लगे। हे तात मैं आपको स्वर्ग जाते समय देख भी ना सका। मां ऐसे कैसे हो सकता है? अभी तो पिताजी एकदम स्वस्थ थे। मां यह बताओ उनको मरते समय भरत की याद आयी की नहीं? भरत जी एकदम अधीर हैं, कह रहे हैं मां कम से कम मुझे बुला लिया होता मेरा हांथ पकड़ कर भैया राम के हाथों मुझे सौंप गए होते। भरत जी धीरज धर के संभल कर उठे और बोले माता-पिता के मरने का कारण बताओ? क्योंकि मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि अयोध्या के राजमहल पर एक बहुत बड़ा षड्यंत्र हुआ है। बतला मां महाराज की मृत्यु कैसे हुई?

माता कैकेयी ने विचार किया कि अब भरत से सब कुछ बताना पड़ेगा। सो शुरू से लेकर किस प्रकार महाराज से दो वरदान में भरत को राज्याभिषेक और राम को 14 वर्ष का वनवास मांगा और फिर कैसे महाराज दशरथ राम के वियोग में प्राणों को त्याग दिए यह सब कथा कह सुनाई। बंधु माताओं भरत जी जैसे ही राघव जी के 14 वर्ष वनवास की बात को सुना वह पिता मरण के दुख को भूल गए। और राघव भैया का वन गमन की भयंकर दुख रूपी अग्नि की ज्वाला से उनका रोम रोम जलने लगा।

भरतहि बिसरेउ पितु मरन सुनत राम बन गौनु।
हेतु अपनपउ जानि जियँ थकित रहे धरि मौनु।।

वह छटपटाने लगे अपने आप को धिक्कारने लगे की बाह रे अभागा भरत तेरे कारण देवता समान भाई जंगल चले गए। 

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