राम कथा हिंदी में लिखी हुई-51 shri ram katha notes
इस सारे अनर्थ का कारण अपने को ही
जानकर वे मौन होकर स्तंभित रह गए। पुत्र को व्याकुल देख कर कैकेयी समझाने लगी। हे
पुत्र तुम जैसे धीर वीर के लिए इस प्रकार शोक करना उचित नहीं। जो इस संसार में आता
है उसको जाना पड़ता है कोई पहले जाता है कोई बाद में जाता है। तुम दुख का त्याग कर
राज्य की सत्ता अपने हाथ में लेकर इसका पालन करो। राजकुमार भरत जी यह सुनते ही
एकदम सहम गए,
मानो पके घाव पर अंगार छू गया हो। उन्होंने धीरज धरकर बड़ी लंबी
सांस लेते हुए कहा।
सज्जनो अब जो भरत जी ने वचन बोला है।
यद्यपि व्यासपीठ से बोलना कठिन होता है। किसी बेटे के लिए सामान्य सांसारिक बुद्धि
से विचार करेंगे तो आपको अटपटा लगेगा की कोई बेटा अपनी मां को ऐसे कैसे बोल सकता
है। लेकिन भरत जी केवल बेटे नहीं है। और भरत जी वो हैं-
जाके प्रिय
न राम बैदेही। तजिय ताहि कोटि बैरी सम्।
यद्यपि परम सनेही।
जो राम का नहीं है वह मेरा नहीं हो
सकता। चाहे वह मेरी मां हो! पिता या कोई भी हो! जो राम का नहीं है वह किसी काम का
नहीं है। भरत जी! कैकेयी माता से कहने लगे तु मेरी मां नहीं हो सकती है। मेरे सीधे
साधे पिताजी राम वन गमन वचन सुनकर तेरे पैरों पर कितना गिडगिडाये होंगे इसकी मैं
कल्पना कर सकता हूं। अरे तूने तो माँ पद को कलंकित कर दिया।
मम
मातुश्च मातुश्च मध्यस्था त्वं न शोभसे ।
गङ्गायमुनयोर्मध्ये कुनदीव प्रवेशिता ।।
मेरी माता (कौशल्या) एवं माता
(सुमित्रा) के बीच में बैठी हुई तुम उसी भाँति अच्छी नहीं लगती जिस प्रकार गंगा और
यमुना के बीच में आ जाने वाली कोई क्षुद्र नदी अच्छी नहीं मालूम पड़ती । कैकेयी
बोली बेटा मैंने क्या किया?
बस मैंने तो अपने पुत्र का भला चाहा था। हर मां अपने पुत्र को सुखी
देखना चाहती है। भरत बोले- क्या कहती हो कि मैंने क्या किया ?
अरे मुझे अपकीर्त्ति से युक्त किया ।
देवता समान भाई राम को वल्कल पहनाया। बेचारे राजा जिन्हें योगयुक्त हो वन में
प्राण देना चाहिये था वे घर में ही मृत्यु के शिकार हुए। पशुपक्षियों समेत सारी
अयोध्या रुला दी। लक्ष्मण को वन में मृगों का सहचारी बनाया । पुत्रों को प्यार
करने वाली माताओं को पति एवं पुत्र के शोक से युक्त किया । पतोहू को वन में पैदल
चलाकर खेदयुक्त किया और बहुत क्या कहू।
अरे पापिनी कैकेयी तूने यह क्या किया? तूने
पूरी तरह से कुल का नाश कर दिया। भरत जी दुख और शोक की ज्वाला से जल रहे हैं। भरत
जी शत्रुघ्न जी का हाथ पकड़े और बोले भैया मुझे माता कौशल्या के कक्ष में ले चलो।
आज के बाद मैं इस कैकेयी के कक्ष में, जहाँ मेरा पूरा बचपन
बीता इस भवन को मुड़कर के भी नहीं देखूंगा। यह कैकेयी मेरी मां नहीं हो सकती है।
भरत जी अपने भाई शत्रुघ्न से लिपटकर बहुत रोए हैं, शत्रुघ्न
जी के भी आंखों से आंसू नहीं रुक रहे हैं।
बंधु माताओं भरत जी आज के बाद कभी
कैकेयी को मां नहीं कहा। राज्याभिषेक के बाद का एक चरित्र आता है। कि एक दिन कैकेयी
माता धीरे से भगवान श्री राम के पास आई। भगवान ने माता को प्रणाम किया तो कैकेयी
ने कहा राम तुम मुझे प्रणाम मत किया करो, मुझे अच्छा नहीं लगता।
प्रभु श्री राम ने कहा मां तुम कैसी बातें कर रही हो? तुम तो
मेरी सबसे प्यारी मां हो! कैकेयी माता को भगवान श्री रामचंद्र जी हृदय से लगा लिए।
भगवान राम बोले हे माता आपको वही अज्ञानी दोष देंगे, आपको
वही गलत समझेंगे जिन्हें गुरु से सच्चा ज्ञान प्राप्त नहीं होगा। भगवान कभी कैकेयी
माता को दोष नहीं दिए, ना उन्हें दोषी समझा। श्री रामचंद्र
जी ने पूछा की मां बोलो कैसे आना हुआ आपका? यह सुनते ही
कैकेयी माता फूट-फूट कर रोने लगी।
कहने लगी हे राम मेरी एक इच्छा पूरी
कर दे और अब कोई और इच्छा जीवन में बची नहीं। मैं तो कुछ कहने योग्य भी नहीं हूं
तुझे। प्रभु श्री राम ने कहा अरे माता बोलो क्या चाहती हो? कैकेयी
माता ने कहा राम एक बार भरत से कह दो, कि मुझे सिर्फ एक बार
मां कहकर के बुलाये। भगवान राम कहने लगे अरे मां क्या भरत आपको मां कहकर के नहीं
पुकारता है? माता कैकेयी ने कहा नहीं राम 14 वर्ष हो गए, भरत ने मुझे मां नहीं बोला।
किसी मां के लिए इससे ज्यादा पीड़ा उसके जीवन में क्या हो सकती है
कि उसका पुत्र उसको मां ना बोले। जिसने 9 महीने तक अपने कोख
पर उसको पाला वही पुत्र उसको मां न कहे इससे ज्यादा पीड़ा और एक माँ को क्या हो
सकती है। कैकई माता ने कहा राम जिस दिन उसको यह पता चला कि मेरे कारण अयोध्या में
यह सब कुछ हुआ, तब से लेकर आज तक उसने मुझे माँ नहीं कहा।
राम जी के नेत्र सजल हो गए कहने लगे मां तुम चिंता मत करो मैं भरत जी को समझाऊंगा।
माता कैकेयी को भगवान के कक्ष से निकलते हुए जब भरत जी ने देखा तो समझ गए कि आज
भगवान कुछ तो मुझे कहेंगे। राम जी देखते ही भरत से बोले भरत इधर आओ, एक बात तुमसे पूछना है। भरत जी ने कहा हे प्रभु आप जो मुझसे बात कहने जा रहे
हैं मुझे पता है।
भरत जी की आंखों से आंसू की धारा चल
पड़ी बोले- मैं चाहता तो हूं कैकेयी को मां बोलूं लेकिन क्या करूं मेरे मुख से मां
कैकेयी के लिए निकलता ही नहीं है। जिसके कारण अयोध्या अनाथ हो गई, आप
14 वर्ष तक वन में कष्ट को सहकर रहे उसके लिए मां शब्द नहीं
निकल रहा मेरे मुख से। भगवान ने कहा भरत मेरा आदेश है कि तुम कैकेयी माता को मां
बोलो, तब भरत जी ने पहली बार कैकई माता को माँ कहा।
सज्जनो इधर दोनों भाई कैकेयी माता के
भवन को छोड़कर कौशल्या माता के भवन की तरफ बढ़े हैं। रास्ते में मंथरा दिख गई तो
एकदम शत्रुघ्न जी आवेश में आ गये। मंथरा को मारने के लिए बढ़ने लगे। भरत जी संत
हृदय हैं उन्होंने रोका है की रहने दो शत्रुघ्न इसको मारने से क्या होगा? शत्रुघ्न
जी ने यहां पर एक सिद्धांत स्थापित किया! उन्होंने कहा भैया यह घर की दुश्मन है,
बाहर के दुश्मन को एक बार छोड़ देना चाहिए लेकिन घर में बैठा हुआ
दुश्मन को जरूर दंड देना चाहिए। और शत्रुघ्न जी ने क्रोध में आकर जोर से कुबडी के
ऊपर प्रहार किया है।
दोनों भाई रोते बिलखते कौशल्या माता
के द्वारा तक आए और वही पछाड़ खाकर गिर गए। कौशल्या माता सावधान हुई, विचार
की लगता है भरत आ गया मेरा। माता कौशल्या दौड़ी हैं भरत शत्रुघ्न को देखकर अपने
हृदय से लगा लिया। माता कौशल्या कहने लगी भरत मैं तो तेरी ही प्रतीक्षा कर रही थी,
अब मेरे जीने का कोई लाभ नहीं। भरत जी ने कहा माता ऐसी बातें मत
करो। सबसे पहले मुझे मेरे पिताजी का दर्शन कराओ।
मातु
तात कहँ देहि देखाई। कहँ सिय रामु लखनु दोउ भाई।।
कैकइ कत जनमी जग माझा। जौं जनमि त भइ काहे न बाँझा।।
हे मां मुझे पिताजी का दर्शन कराओ? मेरे
दोनों भाई राम लक्ष्मण कहां है उन्हें दिखा दो? भरत जी
रोते-रोते कहने लगे। हे मां मुझे रघुवंश जैसा उत्तम कुल मिला। भैया राम जैसे देवता
समान भाई मिले। महाराज दशरथ जैसे धर्मात्मा पिता मिले। लेकिन कैकेयी जैसी नीच
पापिन की कोख से मुझे जन्म क्यों मिला? मां तुझ जैसी माता का
कोख मुझे क्यों नहीं मिला? तीनों लोकों में मेरे समान अभागा
कौन होगा? जिसके कारण माता तुम्हारी है दशा हुई। पिताजी
स्वर्ग में हैं और राम जी वन में हैं।
भरत जी की ऐसे वचन सुनकर माता
कौशल्या प्रेम विह्वल हो हृदय से लगा लिया। भरत जी को देख कर उनको ऐसा लगा मानो
राम ही लौटकर के आ गए हों। फिर लक्ष्मण के छोटे भाई शत्रुघ्न जी को हृदय से लगाई।
और दोनों को वह समझा रही हैं। भरत धीरज धारण करो बुरा समय जानकर शोक का त्याग दो।
काल और कर्म की गति अमिट है, किसी को दोष मत दो। विधाता मुझको सब
प्रकार से उल्टा ही जान पड़ता है, जो इतने दुख पर भी मुझे
जीवित रखा हुआ है। हे पुत्र पिता की आज्ञा से रघुवीर ने भूषण वस्त्र त्याग दिए और
वत्कल वस्त्र पहन लिए। वन को जाते समय उनके हृदय में ना कुछ विषाद था ना हर्ष।
मुख
प्रसन्न मन रंग न रोषू। सब कर सब बिधि करि परितोषू।।
चले बिपिन सुनि सिय सँग लागी। रहइ न राम चरन अनुरागी।।
उनका मुख प्रसन्न था। मन में न
आशक्ति थी,
ना रोष। सबको सब तरह से संतोष करा कर वे वन चले। उनके साथ सीता चली।
प्रभु श्री राम का जाना सुनकर लक्ष्मण भी उनके साथ चले गए। राम लक्ष्मण जानकी वन
को चले गए, मैं ना तो साथ ही गई और ना मैंने अपने प्राण ही
उनके साथ भेजे। इन्हीं आंखों के सामने मेरा राम मेरे से दूर चला गया और मैं अब भी
जी रही हूँ। अरे जीना और मरना तो तेरे पिता ने जाना है।
जिऐ
मरै भल भूपति जाना।
जीवन जिए तो राम जी के सम्मुख और राम
जी के जाते ही उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए। कौशल्या जी के वचनों को सुनकर भरत
सहित सारा रनिवास व्याकुल होकर विलाप करने लगा, राजमहल मानो शोक का निवास
बन गया।
हे भरत सुनो मेरे मन में विचार आ रहा है कि अब मेरा जीना बहुत कठिन
हो गया है। और मैं विचार किया है कि तेरे पिता के अंतिम संस्कार के समय मैं भी
तेरे पिता के साथ चिता में लेट कर सती हो जाऊंगी तू अयोध्या संभल गुरुजी के साथ
मां इतना रोने लगी यह कहते-कहते कि उनके मुख से वचन नहीं निकल रहा भरत यह सुनते ही
एकदम से माता कौशल्या के चरण पकड़ लिए बोले मन यदि विचार बदल सकती हो तो ठीक है
नहीं तो एक मेरा भी निवेदन सुन लो यदि तुमने तय कर लिया है कि पिता के साथ सती
होना है मुझे अब आगे भरत और शत्रुघ्न को छोड़कर क्यों जा रही हो गोद में एक और भरत
को बिठा लो और एक और शत्रुघ्न को बिठा लो हमको मत छोड़ो हम भी नहीं जीना चाहते हैं
यह सुनते ही माता बाइबल हो गई गोद में दोनों को बिठाकर हृदय से लगने लगे कहने लगे
लाल ऐसा मत बोलो वात्सल्य प्रेम भाव के कारण माता की रक्षा स्थल से दुग्ध की धारा
बहने लगे।
बिलपहिं
बिकल भरत दोउ भाई। कौसल्याँ लिए हृदयँ लगाई।।
भाँति अनेक भरतु समुझाए। कहि बिबेकमय बचन सुनाए।।
दोनों भाइयों को हृदय से लगाकर माता
कौशल्या ने बहुत प्रकार से उनको समझाया है। इसके बाद भरत जी माता से रोते हुए कहने
लगे। माता मैं एक बात तुमसे कहना चाहता हूं! कि कैकेयी के किए हुए ऐसे अनर्थ में
यदि मेरा किंचित भी मत हो तो, कर्म वचन और मन से होने वाले जितने भी
छोटे-बड़े पाप हैं वे सब पाप मुझे लगें। माता कौशल्या कहने लगी भरत मुझे पता है
तुम स्वभाव के ही सच्चे सरल हो। तुम्हें राम प्राणों से भी बढ़कर के प्रिय हैं और
यह भी सुन लो की राम को भी तुम प्राणों से अधिक प्यारे हो । भरत सुनो चंद्रमा चाहे
विष बरसाने लगे। कोहरा चाहे आग बरसाने लगे और ज्ञान हो जाने पर भी चाहे मोह ना
मिटे पर तुम श्री रामचंद्र के प्रतिकूल कभी नहीं हो सकते इसमें तुम्हारी सम्मति है
जगत में ऐसा कोई अगर कहता है तो वह स्वप्न में भी सुख और शुभ गति नहीं पा सकता।