F राम कथा हिंदी में लिखी हुई-52 shri ram katha class - bhagwat kathanak
राम कथा हिंदी में लिखी हुई-52 shri ram katha class

bhagwat katha sikhe

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-52 shri ram katha class

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-52 shri ram katha class

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राम कथा हिंदी में लिखी हुई-52 shri ram katha class

माँ कौशल्या भरत जी के आंसू पोंछ रही हैं। तभी गुरुदेव का आगमन हुआ। इसके बाद गुरुदेव की आज्ञा से सरजू के तट पर महाराज की चिता सजाई गई है। भरत जी ने माता कौशल्या से कहा है मां शोक छोड़ो मैं तुम्हें वचन देता हूं पिता की अंतिम क्रिया करके मैं तुमको साथ ले चलूंगा भैया राम से मिलवाने के लिए। बंधु माताओं स्वर्ग की सीढ़ी नुमा महाराज दशरथ की चिता सजाई गई है, पूरी अयोध्या की प्रजा आंसू बहाते हुए खड़ी है। भरत जी के हाथ में अंत्येष्टि के लिए अग्नि दी गई है। वैदिक मंत्र ब्राह्मण गण उच्चारण कर रहे हैं। भरत जी ने पिताजी के पार्थिव शरीर को अग्नि लगाई है।

सब वैदिक विधि से दाह क्रिया की गई, स्नान करके तिलांजलि दी। प्राण निकल जाने पर भी यावत् देह पूर्ण रूपेण नष्ट नहीं होता जब तक जीवात्मा का मृत शरीर से सम्बन्ध बना रहता है। यहाँ तक कि शरीर को जलने से जीव को ताप होता है। दाह क्रिया के बाद दस दिनों तक दशगात्र विधान होता है, जिससे वह सम्पूर्ण शरीर वाला होकर स्वर्ग में आनंद करता है। अथर्ववेद कहता है कि हे पितरों पितृलोक जाते समय जो आपके जिस अंग को अग्नि ने जलाया है, उस अंग को फिर पुष्ट करता हूँ जिसमें सम्पूर्ण अंग वाले होकर आप स्वर्ग लोक में आनंद करें। दशगात्र विधान में त्रुटि होने से वह पुरुष विकलांग होकर स्वर्ग में पूर्ण सुख का भागी नहीं हो सकता।

अत: दशगात्र विधान के सुसम्पन्न करने में भरतजी ने बड़ी सावधानी से काम लिया। श्रुति, स्मृति, पुराण के समन्वय से दशगात्र विधान किया। इसमें प्रतिदिन पिण्डदान किया जाता है। गरुड़ पुराण में लिखा है इसी पिंड के द्वारा क्रम से प्रेत का शरीर बनता है पहले पिंड से सिर दूसरे से आँख, नाक, कान इत्यादि बनते हैं दसवें दिन शरीर पूरा हो जाता है। दस दिनों की क्रिया से आप्तिवाहिक देह निर्मित होती है जिससे वह जीव कर्मानुसार लोक लोकान्तर में पापपुण्य का फल भोगने के लिये जाता है।

( अबध में प्रथम दरबार )

शुभ दिन सोध कर वशिष्ठ वामदेव आदि मुनियों ने मंत्रियों सहित भरत को राज्य समर्पण करने के भारी महत्व के कार्य का विचार और निर्णय सभा में करना है इस उद्देश्य से भरत और शत्रुघ्न को भी बुलवा लिया ।

महाराज दशरथ के अंत्येष्टि के बाद आज पहली बार अयोध्या में राज्यसभा बैठी है। मंत्री, सेनापति, गुरुजन, प्रजाजन सभी उस सभा पर उपस्थित हुए हैं। महाराज भरत गुरुदेव व तीनों माताएं आज पहली बार सफेद साड़ी में सभा में प्रवेश की हैं। जो जहां था वहीं पर फूट-फूट कर रोने लग गया माताओं के वेश को देखकर। भरत जी भी रोते ही जा रहे हैं, तभी गुरुदेव वशिष्ठ भरत जी के पास आए हैं। सज्जनों दर्शन कीजिए कोई सामान्य मनुष्य नहीं छोड़ गया है संसार। कितने महान रहे होंगे महाराज दशरथ? वशिष्ठ जी भरत जी को आश्वासन दे रहे हैं, भरत जी को समझा रहे हैं। बंधु माताओं गुरुदेव वशिष्ठ जैसे ज्ञानी भी समझाते समझाते स्वयं रोने लगे।

सुनहु भरत भावी प्रबल बिलखि कहेउ मुनिनाथ।
हानि लाभु जीवन मरनु जसु अपजसु बिधि हाथ।।

गुरुदेव ने बिलखकर कर रोते हुए कहा- हे भरत सुनो! भावी बड़ी बलवान है। हानि लाभ, जीवन मरण और यश अपयश यह सब विधाता के हांथ है।

सोचनीय नहिं कोसलराऊ। भुवन चारिदस प्रगट प्रभाऊ।।

आप विचार कीजिए कैसे रहे होंगे महाराज? जिनके मरने के बाद वशिष्ठ जी जैसा ज्ञानी ऋषि कांप जाए। रोने लगे। गुरुदेव वशिष्ठ जी ने कहा हे भरत दशरथ जी सोच करने योग्य नहीं हैं। जिनका प्रभाव चौदहों लोकों में प्रकट है। हे भरत तुम्हारे पिता जैसा राजा ना तो हुआ है और ना अब होगा।

बड़भागी दशरथ नृपति, ज्यों जमदग्नि ययाति ।
पितृ भक्त पाये तनय, राम-भरत की भाँति ॥

वशिष्ठ जी ने कहा भरत तुम्हारे बड़े भाई राम पिता की आज्ञा का पालन करते हुए वन में चले गए। अब तुम भी वचनानुसार अयोध्या का राज्य भार अपने हाथों में लो और राज्य का संचालन करो। मंत्री हाथ जोड़कर कहते हैं कि अवश्य गुरु की आज्ञा का पालन कीजिये, राम के लौटने पर जैसा उचित हो वैसा कीजिये। कौशल्या भी धैर्य धारण कर बोलीं बेटा ! गुरू की आज्ञा पथ्य है उसका आदर करो और हित मानकर आचरण करो, विषाद छोड़ो ।

माता की सरल वाणी सुनने से भरतजी व्याकुल हो गये, नेत्रों से आँसुओं की धारा चली जिससे हृदय भीज गया। मानों जो नये विरह के अंकुर उगे हैं उन्हें वह अश्रुधारा से सिंचन कर रही है, भरतजी की प्रेम की वह दशा देखने से सभी लोग प्रेम में मग्न हो गये। अपने देह की भी सुधि-बुधि न रही, मन के सँभलने पर भरत के परम प्रेम की सराहना करते हैं। भरत बोले- आप सभी ने जो शिक्षा मुझे दी है बड़ी अच्छी पर उसका अधिकारी मैं नहीं।आप सभी बड़े हैं आपको उत्तर देना अपराध है और मैं उत्तर दे रहा हूँ, इसके लिये क्षमा प्रार्थी हूँ।

देत उचित उत्तर सबहिं।

गुरुजी लगता है आप भी मोहग्रस्त हो गए हैं। जिसका नाम लेने से अयोध्या अनाथ हो गई। अगर उसकी गद्दी पर बिठा देंगे तो यह अयोध्या रसातल में चली जाएगी। और सुनिए वैष्णव परंपरा को कलंकित करना चाहते हैं? अरे मैं श्री राम जी का दास हूं, भक्त हूं। दास खुद झूठी प्रसादी पाता है, भगवान को झूठन नहीं देता है। आपको क्या लगता है मैं राजगद्दी झूठी करके भगवान को दूंगा? मैं झूठी नहीं कर सकता। इसमें केवल मेरे प्रभु श्री राम का अधिकार है। दूसरी बात - माँ ने माँगा-

"देउ एक वर भरतहिं टीका। माँगउँ दूसर वर कर जोरी
तापस वेष विशेष उदासी । चौदह बरस राम वनवासी ॥

इस क्रम से माँगा तो जो पहला वर माँगा उसे दूसरे वरदान से पीछे देने की बात आप सभी कर रहे हैं, आप सबने पहले वरदान देने की कोशिश क्यों नहीं की, जिसमें मुझे राज्य मिलना था। मुझे पहले ही राज्याभिषेक कराते जैसा कि माँ ने माँगा। फिर मेरा कर्तव्य कि राम को वन भेजने वाला कौन था। ये झंझट उसी समय कट जाना चाहिये था । अब तो केवल एक ही बात शेष रह गई है-

एकहिं आँक इहइ मन मांही। प्रातकाल चलिहौं प्रभु पांही ॥

पहले आज्ञा माँगी थी, अब स्पष्ट ही कह रहे हैं कि मैं तो सवेरा होते ही प्रभु के पास चल दूँगा। अब मैं अधिक देर नहीं कर सकता, मेरा निश्चय तो प्रभु के पास जाने का है, यद्यपि मैं अपराधी हूँ मेरे कारण ही ये सब अनर्थ हुआ पर शरण में आया हुआ देखकर प्रभु क्षमा कर विशेष कृपा करेंगे । और मैं आप सबसे यही प्रार्थना करूंगा अगर आप मेरी बात से सहमत हो एक बार राजतिलक का सामान सजाया जाए, गुरुदेव आप भी चलिए, माताएं आप भी चलें और भी जो जाना चाहते हैं वह सब साथ चलें, हम जंगल में ही भगवान का राज्याभिषेक करेंगे।

बंधु माताओं अयोध्या में एक क्षण के लिए आनंद पुनः उपस्थित हो गया। यहां भरत जी सबको भगवान श्री राम से मिलायेंगे। इसीलिए भरत जी संत कहे गए हैं। संत वही है जो भगवन्त से मिला दे। आज पूरी अयोध्या को लेकर भरत जी अपने भैया को मनाने के लिए चल पड़े।

भरत चला रे अपने राजा को मनाने
भरत चला रे अपने राजा को मनाने
राजा को मनाने, राजा को मनाने
राजा को मनाने, राजा को मनाने
भगत चला रे प्रभु दर्शन पाने
राम दरश की उर अभिलाषा
बोले नयन प्रेम की भाषा
राम स्वाती जल भरत पपीयरा
स्वाती बूंद बिन तृप्त न दियरा
वियोगी चला रे जी की जरन मिटाने
अवध राम को अर्पण करने
प्रभुता प्रभु चरणों मे धरणे
राज तिलक के साज सजाके
माताए चली संघ प्रजा के
राजा का अधिकार राजा को लौटाने
भरत चला रे अपने भईया को मनाने
राजा को मनाने, भईया को मनाने
भरत चला रे अपने राजा को मनाने

( चित्रकूट प्रसंग )

पहले वशिष्ठजी अरुन्धती और अग्निहोत्र का सब सामान सहित रथ पर चढ़े, फिर ब्राह्मण अनेकों वाहनों पर चढ़कर चले नगरवासी सजकर चित्रकूट को चल पड़े। सुंदर पालकियों में सभी मातायें चढ़कर चलीं। सुचि सेवकों को नगर सौंपकर और आदर के साथ सबको रवाना करके श्रीराम-जानकी के चरणों का स्मरण करके दोनों भाई भरत - शत्रुघ्न चले ।

भरत शत्रुघ्न को पैदल चलते देख उनका स्नेह देखकर पुरवासियों तथा अन्य लोगों को अनुराग हुआ । वह भी घोड़े, हाथी, रथ से उतरकर पैदल चलने लगे। तब श्रीरामजी की माता ने अपनी पालकी रोकली, राम की माँ हैं सबके कष्ट को नहीं देख सकती, भरत के पास आकर उनसे बोलीं- लाल तुम्हारे पैदल चलने से सारी प्रजा पैदल चल रही है, वैसे भी यह राम के वियोग में सब दुर्बल और दुखी हैं इसीलिए तुम दोनों रथ पर बैठ जाओ।

माँ की आज्ञा को शिरोधार्य करके उनके चरणों में सिर नवाकर दोनों भाई रथ पर चढ़कर चले पहले दिन तमसा तीर निवास करके दूसरे दिन गोमती के किनारे निवास किया।

पय अहार फल असन एक, निसि भोजन एक लोग ।
करत राम हित नेम व्रत, परिहरि भूषन भोग ॥

बंधु माताओं कोई दूध ही पीते, कोई फलाहार करते और कुछ लोग रात को एक ही बार भोजन करते हैं। भूषण और भोग विलास को छोड़कर सब लोग श्री रामचंद्र जी के लिए नियम और व्रत करते हैं। तीसरे दिन सई नदी के किनारे वास कर सबेरे ही चले तो चौथे दिन श्रृंगवेर पुर के पास पहुँचे क्योंकि साथ में सेना भी थी। गुह निषाद ने जब समाचार पाया तो निषादों के साथ गुहराज मन में विचार करने लगा, भरत चतुरंगिणी सेना लेकर जा रहे हैं, राम के अनिष्ट की आशंका से निषाद ने कहा।

सनमुख लोह भरत सन लेऊँ। जिअत न सुरसरि उतरन देऊँ।।

सैनिकों भरत न बढ़ पावें आगे बढ़ो रोको राह। बार-बार तुम्हें रामकी दुहाई है । यदि भरत के मन में कपट न होता तो साधारण रीति से चले जाते, पर भारी सेना साथ लेकर चलने की क्या बात थी? निषाद ने कहा निष्कारण कोई कार्य होता नहीं, सेना का साथ होना ही कुटिलता का प्रमाण है। भरत के हृदगत भाव तक निषाद नहीं पहुंच सका और उसने समझा कि चौदह वर्ष के बनवास से इनको पेट न भरा, अब भाई सहित रामजी को मारकर सुखी होकर निष्कंटक राज्य करने की मनसा से सेना लेकर आ रहे हैं।

यह सुन निषादगण बोले धनुष बाण हमारे पास भी है एक बार तो हम काल को भी भगा डालेंगे और जीते जी गंगा पार नहीं होने देंगे। ऐसा विचार कर गुह के पास सेना तो कोई थी नहीं उसके जाति भाई ही उसके सेना थे। उनसे कहा तैयार होकर घाट को रोक लो और सब लोग मरने का साज साजो, सन्मुख भरत से लोहा मैं लूँगा और जीते जी गंगा नहीं उतरने दूँगा। 

युद्ध में वीरगति तिस पर गंगा का किनारा और राम के कार्य के लिये, रण में युद्ध करूँगा। भरत उनके भाई हैं राजा हैं मैं नीच सेवक हूँ बड़े भाग्य से ऐसी मौत मिलती है। मेरे दोनों हाथों में आनंदके लड्डू हैं। 

परहित लागि तजहिं जे देही । संतत संत प्रसंसहि तेही ॥

परिहित के लिये शरीर त्याग से संत समाज में गणना होगी और रघुनाथ के निहोरे वीरगति प्राप्त होने से राम-भक्तों में मेरी रेखा होगी।

 राम कथा हिंदी में लिखी हुई-52 shri ram katha class

 

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