F राम कथा हिंदी में लिखी हुई-53 shri ram katha - bhagwat kathanak
राम कथा हिंदी में लिखी हुई-53 shri ram katha

bhagwat katha sikhe

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-53 shri ram katha

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-53 shri ram katha

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राम कथा हिंदी में लिखी हुई-53 shri ram katha

इतना कहते ही बाँयी ओर छींक हुई तब एक शकुन जानने वाले वृद्ध ने कहा-

देखो पहले भरत मन, लीजै मिलकर जाय ।
प्रेम - बैर सम भाव का, पीछे करो उपाय ॥

निषाद को भी उन वृद्ध का परामर्श अच्छा लगा वह स्वयं जाते हैं। दूर से ही मुनिराज वशिष्ठ जी को देखकर अपना नाम कहकर दण्डवत किया। मुनिराज ने नाम सुना था कि निषाद राज गुह रामजी का प्रेमी है और रामजी भी उस पर प्रेम करते हैं। सो गुरूजी ने भरत जी को बताया कि भरत यह निषाद राम जी के प्रेमी भक्त हैं लेकिन भगवान श्री राम ने इनको अपना शखा माना है।

यह सुनते ही कि यह रामजी का सखा है, सखा से भाव कि प्रभु रामजी की बराबरी का दर्जा है। अतः भरतजी ने उसके आदर के लिये रथ का त्याग करके उसकी ओर पैदल चल पड़े कि निषाद राज दूरी पर थे चलने समय हृदय में अनुराग उमड़ रहा था। अपनी ओर भरत को आते देखकर निषादराज ने पहले ही अपने परिचय निवास, जाति की घोषणा की क्योंकि वह अपने को अस्पृश्य समझ रहा था तब पृथ्वी पर सिर रखकर जौहार करता है जिसमें स्पष्ट हो जाये कि वह अछूत है। दण्डवत देख उसे भरत ने छाती से लगाकर कहने लगे।

पूँछत सखहि सो ठाउँ देखाऊ। नेकु नयन मन जरनि जुड़ाऊ।।
जहँ सिय रामु लखनु निसि सोए। कहत भरे जल लोचन कोए।।

जहां पवित्र अशोक के वृक्ष के नीचे श्री राम जी ने विश्राम किया था, भरत जी ने वहां अत्यंत आदर पूर्वक दंडवत प्रणाम किया। उनकी सांथरी के निकट दो-चार सोने के घुँघरू गिरे हुए थे अतः भरत ने तुरंत जान लिया कि ये भगवती के हैं अत: उन्हें सीता के समान जानकर उन्हें सिर पर रख लिया। उनका पृथ्वी पर पड़ा रहना सहन न कर सके। लक्ष्मणजी की साँथरी वहाँ न देखी इससे भरत समझ गये कि लक्ष्मण जी सोये ही नहीं प्रभु का पहरा देते थे अत: कहते हैं कि लक्ष्मणजी पहरा देने योग्य नहीं है।

लालन जोगु लखन लघु लोने । भे न भाइ अस अहहि न होने ॥
पुरजन प्रिय पितु मातु दुलारे । सिय रघुवीरहिं प्रान पियारे ॥

वे तो लाड़-प्यार के योग्य हैं इतिहास पुराणों में भी ऐसे भाई सुनने को नहीं मिले जो राज्य छोड़कर भाई के साथ बन चला जाय। इस समय भी लक्ष्मण सा भाई कहीं नहीं हैं न भविष्य में सम्भावना है। मुझ पापसिंधु भाग्य रहित को धिक्कार है जिसके लिये ये सब उत्पात हुए विधाता ने मुझे कुल कलंक पैदा किया और कुमाता ने मुझे स्वामी द्रोही कर दिया। इन बातों को सुन निषादराज समझाते हैं कि जब स्वामी को सेवक प्रिय है और सेवक को स्वामी प्रिय हैं तब स्वामी - द्रोही की बात कहाँ से आई ? बस समय की फेर से यह सब हुआ। काल चक्र कठिन है, जिसने माता को पागल बना दिया, उसका स्वभाव पलट दिया- "भयेउ बाम विधि फिरेउ सुभाऊ" माता ऐसी थी नहीं और न अब ऐसी है बीच में ही अकस्मात उसके स्वभाव में घोर परिवर्तन हो गया। रामजी को तुमसे अधिक प्रिय कोई नहीं है।

क्योंकि जब पहले पहल साँथरी पर सोये तो उस समय आपकी प्रशंसा करते थे। जिसमें आपकी कीर्ति को कलंक पन स्पर्श न कर सके। जो सुख प्रारम्भ में बिष की भाँति होता है पर परिणाम उसका अमृत के समान होता है। वही सात्विक सुख है। निषादराज कहते हैं- (१) रामजी अन्तर्यामी हैं उनसे कुछ छिपा नहीं = 'तुमते कछु न छिपी करुना निधि तुम हो अन्तर्यामी ॥' भीतर की सब बात जानते हैं तब निर्दोष को भय क्या? (२)प्रभु का संकोची स्वभाव है "कहुँ न राम सम स्वामि संकोची" रामजी कभी शील नहीं छोड़ेंगे बात बनी बनाई समझिये। (३) प्रेमी हैं आपके सामना की देर है प्रेम रोके न रुकेगा। (४) कृपायतन हैं आपको दु:खी देखकर कृपा करेंगे।

इस भाँति चार कारण धैर्य धरने का देकर निषादराज कहते हैं कि आप किसी भी प्रकार का मन में संशय ना रखिए। राघव जी आपसे बहुत स्नेह करते हैं।
प्रभु राघव से मिलने के लिए भरत जी निषाद राज को साथ में लेकर चल दिए। निषादराज ने सोचा अपने राज्य की सीमा से बाहर बन में चल रहे हैं इसलिये इन्तजाम बदल गया। सबसे पहले गुरूजी की सवारी चलती थी सो सुरक्षा की दृष्टि से सबसे पीछे है चली। सबसे आगे सेना चल रही है। उससे भी आगे रास्ता दिखाने के लिये निषादगण चल रहे हैं। माताओं की रक्षा भरत ने शत्रुघ्न के साथ निषादराज के सुपुर्द की। उसके बाद ब्राह्मणों के साथ गुरूजी चले। सबसे पीछे भरतजी, पैदल चले जा रहे हैं। सेवक बार-बार कह रहे हैं प्रभु आप घोड़े पर ही सवार हो जायें । भरत ने कहा मेरे स्वामी श्री राम पैदल चले हैं और मेरे लिए रथ हाथी घोड़ा सेवक का यह धर्म नहीं है मेरा कर्तव्य तो यह है कि जिस पथ से राम जी मेरे स्वामी पैदल चले हो तो उनका आशीर्वक भारत सर के बाल चल के जाए।

सिर भर जाउँ उचित अस मोरा । सबते सेवक धर्म कठोर ॥

सब लोग बहुत पहले प्रयाग पहुँच गये, पर भरतजी तीसरे पहर में प्रयाग पहुँचे ज्येष्ठ का महीना है ये पैदल पाँव बिना जूते के चल रहे थे, रेत धूप से जल रही थी अत: चलने में अधिक कठिनता थी।

भरत तीसरे पहर कहँ कीन्ह प्रबेसु प्रयाग।
कहत राम सिय राम सिय उमगि उमगि अनुराग।।

यहाँ यह भी दिखाया कि प्रेम में नेम नहीं होता ‘सियाराम' कहने का नियम का क्रम है ये प्रेम में उल्टा ‘रामसिय' कह रहे हैं यह प्रेम की दशा है । श्री भरत जी प्रयागराज त्रिवेणी में पहुंचकर श्यामल धवल हिलोरें देखने से भरतजी को श्रीराम जानकी लक्ष्मण का स्मरण हो उठा। अत: शरीर पुलकायमान हो गया। और लगा कि उनका ही दर्शन हुआ, जमुना जल का रंग श्याम होता है, गंगाजी का श्वेत, सो श्याम रंग से श्रीराम के रूप का और श्वेत से लक्ष्मण और सीताजी का स्मरण हो आया। इस त्रिवेनी संगम में विधिपूर्वक स्नान किया, संकल्प कराने वाले ब्राह्मणों को दान दिया और हाथ जोड़कर कहने लगे हे तीर्थराज ! आप सब कामनाओं को देने वाले हैं। मैं अपना धर्म छोड़कर भीख माँगता हूँ। भरतजी को तो ‘रामपदरति’ की आवश्यकता है और उसी के लिये आर्त है अतः प्रयागराज से सुजान, सुदानी समझकर कि ये जैसे होगा तैसे याचक की वाणी निष्फल नहीं होने देंगे उनसे ही 'रामचरणरति' की भिक्षा मांग रहे हैं।

अरथ न धरम न काम रुचि, गति न चहहुँ निर्वान ।
जनम जनम रति राम पद, यह वरदान न आन ॥

मुझे ना अर्थ की रुचि है, ना धर्म की, ना काम की और ना मैं मोक्ष ही चाहता हूं। जन्म-जन्म में मेरा श्री राम जी के चरणों में प्रेम बना रहे बस यही वरदान मांगता हूं दूसरा कुछ नहीं। जनम-जनम रति राम पद' का भावार्थ कि भरतजी माँगते हैं कि श्रीरामजी के साथ मेरा जनम हो अर्थात् मेरा जन्म भी हो क्योंकि मोक्ष मैं चाहता नहीं तो जन्म अवश्य होगा। उसमें श्रीरामजी साथ रहे उनमें प्रेम बना रहे। अत: इन चारों पदार्थों का निषेध पहले ही कर दिया कि कहीं यही न हमको दे दें।

सीता राम चरन रति मोरे । अनुदिन बढ़उ अनुग्रह तोरे ॥

वरदान में भरतजी एकांगी प्रीति माँगते हैं, रामजी चाहे प्रेम करें चाहे न करें, भले ही मुझे कुटिल मान कर घृणा करें मुझे स्वीकार है। चातक मेघ से प्रेम करता है। एक स्वाती बूंद भर चाहता है पर वह उस पर पत्थर, बज्रं, ओले गिराता है तो भी वह अपना प्रेम नहीं छोड़ता उसका नियम है रट लगाये रहना। इस नियम को नहीं घटने देता चाहे कितना भी कष्ट मेघ क्यों न दें। यदि वह पत्थर गिराने पर चातक रटन छोड़ दे या कम कर दे तो उसकी प्रीति न ठहरी वह प्रेमी नहीं कहा जा सकता है।

वैसे ही श्रीरामजी के कुटिल जानने से या लोगों के अपवाद से मुझमें प्रेम कम हो जाये तो वही प्रेम नहीं कहाजा सकता वह प्रेम आदर्श नहीं वैसा प्रेम मुझे नहीं चाहिए । मेरा प्रेम दिन-दिन वृद्धि को प्राप्त होता रहे। इसी में मेरा भला है। सोना जिस आग में तपाया जाता है तैसे दूना रंग चढ़ता है। वैसे ही प्यारे के पद में कष्ट सहन कर प्रेम निबहने में ही प्रेम की शोभा है, मुझे ऐसे प्रेम का निर्वाह दीजिये। भरतजी के यह बचन सुनकरमध्य त्रिवेणी अर्थात् संगमरूपी सिंहासन से बचन सुनाई पड़ा, स्वयं त्रिवैनी बोल रही है-

तात भरत तुम सब विधि साधू। राम चरन अनुराग अगाधू ॥
बादि ग्लानि करहु मन माँही । तुम्ह सम रामहिं कोउ प्रिय नांही ॥”

हे तात भरत! तुम सब प्रकार से साधु हो श्री रामचंद्र जी के चरणों में तुम्हारा अथाह प्रेम है। तुम व्यर्थ ही मन में ग्लानि कर रहे हो। श्री रामचंद्र को तुम्हारे सामान प्रिय कोई नहीं है।

पर उपकार बचन मन काया । संत सहज स्वभाव खगराया ॥

तुम में स्वार्थ कहाँ? साधु समाज में तुम्हारी रेखा और राम भक्तों में तुम्हारी लेखी है तुम्हें स्वयं अगाध अनुराग है राम चरणों में। मैं क्या दूँ? केवल तुम्हारे संदेह मिटाने के लिये निषादराज की भाँति निषादराज के ही शब्द दुहराये देता हूँ- "नाथ करिय का बाद विषादू" और "राम तुम्हहि प्रिय तुम प्रिय रामहिं || देवता लोग भरतजी को धन्य धन्य कह रहे हैं और पुष्पवर्षा कर पूजन कर रहे हैं। भरत के साथ सेना भीड़ भाड़ की खबर से वानप्रस्थ, ग्रहस्थ, उदासी सब प्रसन्न हुए। उदासी से यहाँ सन्यासी से तात्पर्य है यहाँ सभी आश्रयों के लोग बसते हैं अत: भरतजी को देखने के लिये सभी प्रकार के लोग वहाँ आ गये। भरतजी स्नेह और शील वर्णन के बाद प्रसंग प्राप्त श्रीरामजी का गुण-गान करते हुए, सुनते हुए भरद्वाजजी के आश्रम पर आ गये। प्रयाग में भरद्वाज जी का दर्शन प्रधान है क्योंकि वे जंगम तीर्थराज हैं, प्रयागराज के देवताओं की भाँति ये भी अंगभूत हैं-

प्रयागं माधवं सोमं भरद्वाजं च बासु किम् ।
वन्दे अक्षय बटं शेलंप्रयागंतीर्थ नामकम् ॥

जब भरत को मुनि ने दण्डवत प्रणाम करते देखा तो अपना बड़ा भाग्योदय माना "पूर्वजन्म कृतं कर्मं तद्देवामित कथ्यते ॥ " अतः भरतजी को मूर्तिमान पूर्वजन्म कृत पुण्य माना और रामजी को वर्तमान जन्म का किया हुआ पुण्य माना –

लोचन गोचर सुकृत फल, मनहु किये विधि आन ॥

भरतजी ने दूर से ही साष्टांग प्रणाम किया था अतः मुनिजी दौड़ पड़े, इतने बड़े भागवत का दण्ड की भाँति भूमि में पड़ा रहना सह न सके उन्हें उठाकर अपनी छाती से लगा लिया। भरतजी इस सत्कार से कृतार्थ हुए पर सिर झुकाकर संकोच में सोच की मुद्रा में, आसन दिये जाने पर बैठ गये, यह बड़ा सोच था कि मुनिजी कुछ पूँछेंगे। मुनिजी भरत के शील संकोच को देखकर बोले- भरतजी ! सुनो मुझे सब पता लग गया है, विधाता के किये हुए को कौन मिटा सकता है ?

तुम्ह गलानि जिय जनि करहु, समुझि मातु करतूति ।
तात कैकहि दोषु नहिं, गई गिरा मति धूति ॥

मुनिजी को देवताओं के रहस्यों का पता है अत: कहते हैं कि ब्रह्म का रुख पाकर ही सरस्वती ने देवताओं की विनय को स्वीकार किया। अतः ये सब विधि की करणी है तुम व्यर्थ ग्लानि न करो। अब तुमने बहुत अच्छा किया तुम्हारे लिये यही उचित राय थी कि राम के चरणों में प्रेम होना इस संसार में सब सुमंगलों का मूल है। यदि राज्य भी करते तो वह भी धर्मानुकूल होता परंतु तुमने रामचरणानुराग को आगे करके, राज्य का त्याग करके श्रेय का ग्रहण किया अतः यह बहुत ही भला हुआ, तुम्हारे जैसे साधु पुरुषों के योग्य कार्य हुआ।

सो सब कर्म धर्म जरि जाऊ । जहँ न राम पद पंकज भाऊ ॥
जोग कुजोग ज्ञान अज्ञानू । जहँ नहि राम प्रेम परिधानू ॥

अतः रामजी के चरणों में स्नेह ही सब मंगलों का मूल है। 

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