राम कथा हिंदी में लिखी हुई-54 ram katha notes
और सुनो राम जी के मन में भी
तुम्हारे समान प्रेमपात्र कोई दूसरा नहीं है। लक्ष्मण, राम
और सीता की सारी रात तुम्हारे प्रशंसा करने में बीती। मैंने प्रयाग में स्नान करते
उनके मर्म को जाना कि शरीर तो सितासित नीर में मग्न हो रहा है पर मन तुम्हारे
अनुराग में मग्न था।
प्रयागराज में जब पंडों ने संकल्प
पढ़ा “जम्बू द्वीपे भरतखण्डे" तो ज्योंही प्रभु के कानों में 'भरत'
शब्द पड़ा त्योंही वे तुम्हारे प्रेम में डूब गये। जमुनाजी का श्याम
रंग देखकर तुम्हारी याद कर जल में डूबकी ले बार-बार गोता लगाने लगे। उस समय
लक्ष्मण जी ने उन्हें बाँह पकड़कर स्थिर किया, डूबने से
बचाया, उनका आप में ऐसा अगाध प्रेम है। भारद्वाज मुनि भरत जी
से कह रहे हैं-
तुम्ह
तो भरत मोर मत ऐहू । धरे देहजनु राम सनेहू ॥
तुम तो मेरे मत से शरीरधारी 'रामप्रेम'
ही हो । राम-भक्ति रस साक्षात अमृत है। भरद्वाज जी को रामजी ने
भक्ति का वरदान तो दे दिया परंतु सिखला नहीं सके-
अब
करि कृपा देहु वर एहू । निज पद सरसिज सहज सनेहू।
परंतु उन्हें Practical सिखलाने के भक्ति गुरू भरत ही हुए। भरत की भक्ति को देखकर भरद्वाज जी की
प्रेम समाधि लग गई ।
“कहि अस प्रेम मगन मुनि भयऊ॥”
उस रामभक्ति रस जो साक्षात् अमृत है
उसकी स्थिति भरत यश रूपी चन्द्र में सदा रहेगी। क्योंकि तुम्हारा यश निर्मल नवीन
चन्द्र है निर्मल शब्द से कलंक रहित होना कहा। नवीन से द्वीज का चन्द्र
नित्यवर्द्धन शील होता है। यह कभी घटता नहीं जैसे पूर्णमासी का चन्द्र घटने लगता
है। यह दिन-दिन बढ़ता ही जाता है, इस चन्द्र का प्रचार तो आकाश में है पर
भरत यशचन्द्र का प्रचार सम्पूर्ण संसार में होगा।
भरत तुम्हारा दर्शन पाया, इस
दर्शन से मैं कृतार्थ हुआ और प्रयागराज भी कृतार्थ हुए। श्रीराम दर्शन के फल का
भोग है उनकी भक्ति करना उनमें प्रेम करना। आज वह फल प्राप्त हुआ और उस फल का रस
चखा नहीं, खाया नहीं तो वह फल निष्फल होता है, तात्पर्य यह है कि श्रीरामजी में कैसा प्रेम करना चाहिये वह Practical
आपसे मिला। आपने हमें दिखा दिया कि राम भक्ति इस प्रकार करनी चाहिए।
उस फल का स्वाद हमको आपके द्वारा मिला, हमने जान लिया कि
रामजी ऐसे प्रेम के बस हैं। प्रयाग दूसरों को कृतार्थ करता है आज वह भी आपके दर्शन
से अपने को कृतार्थ मानता है।
मोरे
मन प्रभु अस विश्वावा । राम ते अधिक राम कर दासा ॥
तुम्हारी कीर्ति रूपी चन्द्र से जगत
का अतना बड़ा उपकार हुआ जितना न तो गंगाजी से हुआ और न स्वयं रामावतार से हुआ।
तुम्हारे कीर्तिचन्द्र द्वारा सब देश में, सब काल में श्रीराम के
प्रेम का दर्शन सुलभ हो गया । भरत तुम धन्य हो । जगत को अपने यश से जीत लिया। भरत
जी भारद्वाज मुनि की प्रसन्नता के लिए वहां पर रात भर सबके साथ विश्राम किया।
प्रातः काल भरत जी ने तीर्थराज में स्नान किया और समाज सहित मुनि को दंडवत प्रणाम
कर उनसे आजा ले राघव जी से मिलने के लिए चित्रकूट की तरफ चल दिये।
रास्ते में रहने वाले स्त्री-पुरुष
सुनकर घर के काम काज छोड़कर दौड़ पड़ते थे और सब लोग उनके रूप और स्नेह को देखकर
जन्म लेने का फल पाकर प्रसन्न हो जाते थे। भरतजी का भाईपन, भक्ति
और आचरण कहते और सुनते दु:ख और दूषण का नाश होता है। जब भरत जी को पता चल गया कि
प्रभु का निवास स्थान सन्निकट है अतः राम दर्शन की लालसा बढ़ी हुई है। उस समय राम
सखा ने सुंदर पर्वत शिरोमणि को दिखलाया-
चित्रकूट
वह आ गया,
भरत देखिये तीर ।
वास करें सीता सहित, जहाँ लखन रघुवीर ॥
देखकंर सब लोग जानकी जीवन राम की जय
कहकर दण्डवत प्रणाम करने लगे। भरत जी रास्ते में नौ जगह भी विश्राम लिए। (१)
तमसातीर (२) गोमती तीर (३) सईतीर (४) श्रृंगवेरपुर (५) भरद्वाज आश्रम (६) यमुना के
मार्ग में (७) यमुना तट (८) कामदगिरि दीखने से पहले पूर्व रास्ते में (९)
सूर्यास्त हो जाने पर अब बस दसवें दिन श्रीराम भरत भेंट होगी।
लक्ष्मण-क्रोध
प्रसंग
उहाँ
राम रजनी अवसेषा । जागें सीय सपन अस देखा ॥
सहित समाज भरत जनु आये । नाथ वियोग ताप तनताए ॥
सज्जनो इधर माता सीता रात में देखे
हुए स्वप्न को श्री रामचंद्र जी से कहने लगीं। हे प्रभु मैने स्वप्न में देखा है
कि आपके वियोग में भरत बहुत दुखी हैं। वह समाज सहित आपके पास मिलने के लिए आए हैं।
सब दीन और दु:खी हो रहे हैं और देखा था सास जैसी थीं, वैसी
नहीं हैं। उनके वस्त्र बड़े अजीब थे यह सुनकर राम-लक्ष्मण से बोले-
लखन
सपन यह नीक न होई। कठिन कुचाह सुनाइहि कोई।।
अस कहि बंधु समेत नहाने। पूजि पुरारि साधु सनमाने।।
स्वप्न अच्छा नहीं है ऐसा कहकर भाई
लक्ष्मण के साथ स्नान किया,
और शंकरजी की पूजा करके साधुओं का सत्कार किया | स्वप्न की यथा साध्य शांति करके प्रभु श्री राम बैठकर उत्तर दिशा की ओर
देखने लगे। आकाश में धूल छा रही है। बहुत से पक्षी और पशु व्याकुल होकर भागे हुए
प्रभु के आश्रम आ रहे हैं। प्रभु श्री रामचंद्र जी यह देखकर उठे और सोचने लगे कि
यह क्या कारण है? इसी समय कोल भीलों ने आकर सब समाचार सुनाया
की महाराज भरत आपके पास आ रहे हैं। यह सुनकर प्रभु राघव सोच में पड़ गए कि भरत
मेरे चरणों का प्रेमी है, वह अयोध्या के राज्य को अगर
स्वीकार नहीं किया तब मेरे पिता के वचन का क्या होगा? इसी
समय लक्ष्मण जी ने देखा प्रभु को गहरे विचार में खोये हुए तो कहने लगे।
नाथ
सुहृद सुठि सरल चित, सील सनेह निधान ।
सब पर प्रीति प्रतीति जियँ, जान्हिअ आप समान ॥
हे नाथ आप तो बिना कारण ही सबका परम
हित करने वाले,
सरल हृदय और सील के भंडार हैं। इसीलिए आप सबको अपने ही समान जानते हैं।
जो जैसा होता है वैसा ही संसार को देखता है। पर विषयी जीव जब प्रभुता पा जाते हैं
तो वे मूढ़ अज्ञान के वश अपने को ही जानते हैं। भरतजी नीतिरत हैं, सुजान साधु हैं उनकी प्रभु के चरणों में प्रीति है। यह सारा संसार जानता
है पर वे भी आज राज्यपद पाकर धर्म की मर्यादा को मिटाने चले हैं। जो कुटिल कुबन्धु
होते हैं वे कुअवसर देखने वाले होते हैं, आपको वन में अकेला
जानकर सेना इकट्ठी करके लाये हैं। यदि इनके मन में कपट कुचाल न होती तो रथ,
घोड़ा, हाथियों और सेना की क्या आवश्यकता थी ?
भरत को दोष कौन दे ? राज-पद पाने पर सभी
उन्मत्त हो जाते हैं।
लक्ष्मण जी अत्यंत क्रोध में आकर अपने धनुष बांण उठा लिए कहने लगे
हे प्रभु जैसे सिंह हाथियों के झुंड को कुचल डालता है। वैसे ही आज मैं भरत को सेना
सहित और छोटे भाई शत्रुघ्न को मैदान में पछाडूंगा, यदि भगवान
शंकर जी भी आकर उनकी सहायता करें, तो भी मुझे राम जी की
सौगंध है मैं उन्हें युद्ध में अवश्य मार डालूंगा। लक्ष्मण जी को अत्यंत क्रोध से
तमतमाया हुआ देखकर, उनकी सत्य सौगंध सुनकर सब लोग भयभीत हो
जाते हैं और लोकपाल घबराकर भागना चाहते हैं। सारा जगत भय में डूब गया। तब लक्ष्मण
जी के अपार बाहुबल की प्रशंसा करते हुए आकाशवाणी हुई। हे- तात तुम्हारे प्रताप और
प्रभाव को कौन कह सकता है और कौन जान सकता है?
अनुचित
उचित काजु किछु होऊ। समुझि करिअ भल कह सबु कोऊ।।
सहसा करि पाछैं पछिताहीं। कहहिं बेद बुध ते बुध नाहीं।।
आप अनंत हैं, अनंत
के प्रभाव और प्रताप का ज्ञान ही किसी को नहीं हो सकता - "जय अनंत जय
जगदाधारा" पर अनुचित उचित का विचार करके ही करना चाहिए यही नियम है। यहाँ
अनुचित होने जा रहा है "अनुचित उचित काज किछु होहू" इसी से उसे पहले
कहा। एकाएक कोई काम नहीं कर बैठना चाहिए क्योंकि अविवेक बड़े भारी आपदा का कारण है
–
"सहसा बिदधीत् न क्रियाम विवेकः परमापदां पदम् ॥”
नीति रस लक्ष्मणजी भूल गये उसे देवता
याद दिलाते हैं कि जो बिना विचारे भाव में बेसमय काम कर बैठता है। उसे पीछे
पछिताना होता है ऐसा कार्य आपके योग्य नहीं है। देवताओं के बचन सुनकर लक्ष्मण जी संकुचित
हो गये।
राम सीता ने उनका आदर के साथ सम्मान किया और कहा कि तात तुमने सुंदर
नीति कही, राजमद सबसे कठिन है।
कनक
कनक ते सौगुनी मादकता अधिकाय ।
यह खाये बौरात है वह पाये बौरात ||
लक्ष्मण ने कहा था “जग बौराय राजपद
पायें" इसी की पुष्टि राम कर रहे हैं। पर वही मद वाले होते हैं जिन्होंने
साधु सभा का सेवन नहीं किया, लक्ष्मण सुनो !
भरत सा भला
वृह्म सृष्टि में न कोई सुना गया न देखा गया।
प्रभुता मद कारिणी होती सदाँ, रघुवंश परन्तु न
ऐसा है भाई ।
भरताग्रज
सा नहीं भक्त कोई,
इस वक्त हमें पड़ता न दिखाई ॥
तुम संशय शोच तजो मनका, यह सेना नहीं लड़ने
हित आई ।
कहीं चन्द चकोर से युद्ध करै, रवि- राजिव की
कहीं होती लड़ाई ॥
हे लक्ष्मण! यह कतिपय देश का राज्य
क्या वस्तु है?
जो कि नदी, देश, पर्वतादि
से सीमित है। विधि, हरि, हर का अधिकार
असीम हैं। जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड पर चलता है। सो उनका पद यदि अकेले भरत को मिल
जाय तो भी उन्हें राज्य मद नहीं हो सकता। थोड़े दूध पर खटाई डालने से दूध फट जाता
है, पर उसका कुछ भी प्रभाव क्षीर सिंधु पर नहीं पड़ सकता।
विधि हर हरि पद भी भरतरूपी अगाध क्षीर सिंधु के लिये खटाई है, इससे उनमें विकार आ नहीं सकता।
तिमिर
तरुन तरनिहि मकु गिलई । गगनु मगन मकुमेघहिं मिलई ॥
गोपद
जल बूढ़हिं घट जोनि । सहज क्षमा वरु छाड़इ छोनी ॥
मसक फूँक मकु मेरू उड़ाई । होइन नृप मदु भरतहिं भाई ॥
सज्जनों यहां पर प्रभु श्री राम ने
लक्ष्मण जी से भरत के स्वभाव को लेकर पांच दृष्टांत दिए हैं। जो बड़े अदभुत हैं।
ये पाँच द्रष्टांत पाँच तत्व के हैं-
“छिति जल पावक गगन समीरा"
ये सृष्टि के मूल हैं ये अपनी
मर्यादा को नहीं छोड़ेंगे। छोड़ें तो सृष्टि ही न रह जाय। इनमें कभी विकार नहीं
होता,
केवल सृष्टि के प्रारम्भ में तथा प्रलय के समय विकार होता है।
बंधुओं तेज का स्वभाव है, वह अंधकार को नष्ट कर देता है।
अंधकार तेज के सामने ठहर नहीं सकता सो तेज पुंज मध्याह्न के सूर्य को चाहे
अंधकारग्रस ले। आकाश सबको अवकाश प्रदान करता है सो वह संकुचित होकर मेघ में मिल
जाय, और अगस्त्य जी समुद्र का शोषण कर गये थे सो गोपद का जल
ऐसा रूप धारण करे कि अगस्त जी को ही डुबो दे ।
पृथ्वी की क्षमा से ही
संसार चल रहा है वह सब कुछ सहन किया करती है। वह भी चाहे अपनी स्वाभाविक क्षमा का
परित्याग कर दे। मच्छर की फूँक से रुई के कण में भी गति नहीं देखी गई वह फूँक यदि
मेरू को उड़ा दे ऐसा भारी परिवर्तन हो जो कि असम्भव है पर भरत को राजमद नहीं हो
सकता ।