F राम कथा हिंदी में लिखी हुई-55 sri ram katha nots - bhagwat kathanak
राम कथा हिंदी में लिखी हुई-55 sri ram katha nots

bhagwat katha sikhe

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-55 sri ram katha nots

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-55 sri ram katha nots

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राम कथा हिंदी में लिखी हुई-55 sri ram katha nots

सज्जनों भाव यह है कि पंचभूतों में विकार हो जाय पर भरत के स्वभाव में विकार नहीं आ सकता ।

भरत स्वभाउ सुशीतलताई । सदा एकरस बरनि न जाई ॥

अतः हे भाई लक्षमण ! भरत पर कुटिल, कुबन्धु का आरोप न करो, तुमसा प्यारा कोई नहीं, पिता सा पूज्य कोई नहीं, सो मैं दोनों की सपथ लेकर कहता हूँ कि- भरत जैसा पवित्र सुबन्धु कोई नहीं, भाईपन के नाते तुम भी वैसे नहीं, तुम्हें तो राज्य छूटने का क्रोध है। भरत राज्य को मन में भी नहीं लाता। हम लोगों के कष्टों को सोचकर दुःखी हुआ जा रहा है। गुण रूपी दूध और अवगुण रूपी जल मिलाकर ब्रह्मा ने इस संसार को रचा है, सूर्यवंश रूपी तालाब में भरत हंस हैं।

भरत हंस रविवंश तड़ागा। जनामि कीन्ह गुन दोष विभागा॥
गहि गुन पय तजि अवगुन वारी। निज जस जगत कीन्ह उजियारी।।

इस तरह भरत के गुण, शील और स्वभाव को वर्णन करते-करते प्रेम के समुद्र में श्रीरामजी मग्न हो गये । रामजी की वाणी सुनकर और भरतजी के प्रेम को देखकर सब देवतागण सराहने लगे। सज्जनों यहां भरत जी मंदाकिनी के तट पर स्नान किया है, नदी के तीर पर सब लोगों को ठहरा कर तथा माता गुरूओं और मंत्रियों से आज्ञा मांगकर भरतजी वहाँ चले जहाँ सीता रामजी थे। उनके साथ निषाद राजगुह और शत्रुघ्न भी थे। निषादराज देखते हैं कि भरतजी कुछ सोच कर ठहर जाते हैं यदि मलिनमन जान कर त्याग करके या सेवक मान कर सम्मान करें मेरे लिये तो रामजी की जूती ही शरण है, ऐसा सोच प्रसन्न होकर चल पड़ते हैं। सज्जनों यहां पर महाराज भरत जी के भाव चरित्र का दर्शन करिए।

भरत कहते थे कि मैं पापी हूँ और राम कहते हैं कि भरत ! मेरा यह निर्णय है कि संसार में तुम्हारे समान कोई पुण्यवान नहीं है।

तीन काल त्रिभुवन मत मोरे। पुण्य सिलोक तात तर तोरे ॥

और भरत कहते हैं कि-

मो समान को पाप निवासू । जेहि लागि सीय राम बनवासू॥

मेरे पापों के कारण देवता के समान मेरे भाई राम वनवास को चले गए। और राम जी बाल्मीकजी से कहते हैं-

तात बचन पुनि मातु हित, भाइ भरत अस राउ।
मों कहुँ दरस तुम्हार प्रभु, सब मम पुण्य प्रभाउ॥

यह मेरे पुण्यों का प्रभाव है जो आप जैसे ऋषि मुनियों का दर्शन हो रहा है। यानी भरत के पाप का फल = बन गमन और भगवान राम के पुण्य का फल = बन गमन। तो बंधु माता को ध्यान दीजिएगा! जिसके पाप का फल भगवान के पुण्य के, फल के बराबर हो तो उन भरत जी के पुण्य के फल का तो कहना ही क्या है।

सज्जनों लक्ष्मण जी को जब शक्ति लगी उस समय का एक बहुत प्यारा प्रसंग है। हनुमानजी प्रभु राघव से बोले महाराज! संसार में यह तो मैंने सुना था कि ज्ञान के द्वारा भ्रम दूर होता है। पर भ्रम के द्वारा भ्रम की बात दूर होने की देखने को भरतजी के पास मिली। आपने कहा कि भरत को भ्रम हुआ, परंतु मैं तो यही कहूँगा कि उनके भ्रम ने मेरा सारा भ्रम दूर कर दिया। क्योंकि भरतजी ने बांण न मारा होता तो मुझे भ्रम हो जाता कि लक्ष्मण जी मूर्छित हो गये, पर मुझे मूर्च्छित करने वाला कोई नहीं वह भ्रम भी दूर हो गया।

दूसरा मुझे यह भी भ्रम हो जाता कि अगर मैं न होता तो लक्ष्मण जी के लिये दवा कौन ले आता। तो वह भ्रम दूर हो गया कि दवा लिये हुए भी मैं स्वयं अपने को मूर्छा से नहीं बचा पाया तो फिर दूसरे की मूर्छा क्या दूर करता? और यह भी भ्रम हो जाता कि यह जो दवा का पर्वत है इसको मैंने उठा रखा है, मैं न होता तो इसको कौन उठाता ?

लेकिन भरतजी का बांण लगने के बाद जब मैं भूमि पर गिरा और वह पर्वत ऊपर ही रह गया, तो मेरा भ्रम जाता रहा। मैंने सोचा कि पर्वत अगर मैंने उठाया होता तो मेरे साथ पर्वत भी गिर जाना चाहिए था। और महाराज भरतने कहा कि मेरे बांण पर बैठ जाइये मैं अभी श्री राम जी के पास पहुँचाता हूँ। श्री हनुमान जी ने प्रभु राघव से कहा महाराज आप तो मरने पर अपने पास बुलाते हैं अपने भक्तों को।

स्वयं मरने के बाद जीव का मिलन आपसे होता है। पर भरत जी के पास ऐसा बांण है जो जिंदा को ही शीघ्र आपसे मिला देता है। इसलिये भरत का भ्रम इतना बढ़िया कि जिसने मेरे सारे भ्रम को दूर कर दिया।


बंधु माताओं रामायण में वर्णन आता है सुनयना जी ने अपने पतिदेव महाराज जनक से कहा महाराज ! आप तो महान तत्वज्ञ हैं श्रीभरतजी के विषय में कुछ सुनाइये? तो महाराज जनक ने कहा महारानी, मेरी बुद्धि का धर्म में, राजनीति में, वेदान्त में बहुत प्रवेश है।

धर्म राज नय ब्रह्म विचारू । इहाँ जथामति मोर प्रचारू ॥

पर देवी !

सो मति मोरि भरत महिमां ही । कहैं काह छति छूअति न छांही ॥

मेरी बुद्धि भरत को तो क्या भरत की छाया को भी छूने में असमर्थ है। श्रीभरत का प्रेम तो रहस्यमय है उसे मैं नहीं जानता। एकमात्र राम ही जानते हैं। "जानहिं राम" लेकिन "न सकहिं बखानी"।

जिस समय भरत बन में राम को मनाने चले तो सबसे अधिक आतंकित देवता थे और गुरू बृहस्पति से पूछा कि अगर भरत राम से लौटने की कहेंगे तो श्रीराम लौट जायेंगे या नहीं? गुरु ने कहा इसमें कोई संदेह नहीं कि अगर एक बार भी भरतजी के मुख से यह शब्द निकल गया कि प्रभु! आप लौट चलिये तो श्रीराम अवश्य लौट जायेंगे। इसे सुन इन्द्र तो घबड़ा गये, तब गुरू ने हँसकर कहा कि जैसे मैं नहीं डर रहा हूँ तुम भी मत डरो।

पहले यह सोचे कि भरत राम से लौटने को कहेंगे कि नहीं कहेंगे? उन्होंने सूत्र दे दिया - श्रीभरत तो श्रीराम की छाया हैं। इस सूत्र से स्पष्ट है कि भरत के व्यक्तित्व की सार्थक व्याख्या और कुछ नहीं हो सकती। यद्यपि छाया में प्रत्येक क्रिया दिखाई देती है लेकिन इतना होते हुए भी छाया में न स्वयं अपना मन है, न अपनी बुद्धि है, न अपना चित है और न ही अपना अहंकार है। वह तो केवल व्यक्ति के प्रतिबिम्ब में गतिशील हो रही है।

इसी प्रकार श्रीभरत ने अपने व्यक्तित्व को श्रीराम के व्यक्तित्व की छाया बना दिया है। उन्होंने तो भगवान राम के अन्तर्मन में, बुद्धि में, चित्त में, अहंकार में अपने आपको इतना विलीन कर दिया है कि उनका कोई अलग व्यक्तित्व, कोई अलग विचार, कोई अलग माँग दिखाई ही नहीं देता है और यही श्रीभरत के व्यक्तित्व की विशेषता है। समुद्र में तो केवल चौदह रत्न ही निकले। पर भरत जी के चरित्र से जितने रत्न निकले, उनकी गणना करना सम्भव नहीं है। सज्जनो श्री भरत जी आश्रम के निकट आ गए। यह सूचना जैसे ही राघव जी के कानों में पड़ी।

उठे राम सुनि प्रेम अधीरा। कहुँ पट कहुँ निसंगधनु तीरा ॥

राघवेन्द्र के कान में भरत के शब्द आते ही प्रभु अधीर होकर उठे। बंधु माताओं प्रभु श्री राम और भरत जी का मिलन अदभुत मिलन है। भरत भगवान की ओर चले उनका 'हर्ष शोक सुख दुःख' समाप्त हो गया और जब राम-भरत से मिलने चले तो उन्होंने सोचा कि अगर दुपट्टे का आवरण बीच में रहेगा तो मैं और भरत कैसे मिलेंगे? हाथ में धनुष और बाण रहेगा तो पूर्ण मिलन कैसे हो पायेगा? इसलिये भगवान ने तीनों को फेंक कर भरत की ओर बढ़े।

बात यह है कि हम लोग तो भगवान से कुछ न कुछ लेने जाते हैं इसलिये भगवान कुछ लेकर ही हमसे मिलते हैं। जब भरत से मिलने के लिये चले तो सोचा कि इन्हें तो केवल मेरी ही आवश्यकता है इसलिये राघवेन्द्र ने भी "कहुँ पटकहुँ निषांगधनु तीरा ॥" का परित्याग कर दिया और उसकी पराकाष्ठा तब हुई जब श्रीराम भरत को हृदय से लगाते हैं। लोगों को आशा थी कि राम भरत से कुशल पूछेंगे लेकिन प्रभु तो बोल ही नहीं पा रहे। पार्वती ने शंकर से कहा महाराज ! इतनी लम्बी यात्रा करके भरत आये पर राम तो कुशल भी नहीं पूछ रहे हैं। शंकर ने कहा पार्वती, इस समय तो वह स्थिति है कि “परम प्रेम पूरन दोउ भाई" गुसाईं को ‘प्रेम' शब्द से संतोष नहीं हुआ अतः कहते हैं अंत में "परम प्रेम" का प्राकट्य हुआ।

किसी पाठक ने पूछा महाराज ये नहीं बोल रहे तो गुसाईं जी आप ही बोलिये। तुलसीदास ने कहा कि मैं ही कैसे बोलूँ क्योंकि-

कहहु सुप्रेम प्रकट को करई । केहि छाया कवि मति अनुसरई ॥

कविहि अरथ आखर बलु साँचा । अनुहरिताल गतिहि नटु नांचा ||

अरे भाई तब ताल बजे तब न नर्तक नाँचे, उधर जब ताल बजना बंद हो गया तो यहाँ नाँचना भी बंद हो गया। राम न भरत से बोल रहे न भरत राम से बोले। इसका अभिप्राय कि दोनों मिलकर एक हो गये। और जिस समय ऐसा मिलन हो कि न मन रह जाय, न बुद्धि रह जाये, न चित्त रह जाये तथा नहीं अहंकार रह जाये जब एकमात्र ईश्वर ही की सत्ता जीवन में शेष रह जाये तब समझ लेना चाहिए कि अब हमारे अंतःकरण में परम प्रेम का प्रकाश हो गया । प्रभु श्री राम भरत जी से मिले हैं प्रेम पूर्वक और लखन उमग कर छोटे भाई से मिल गुह को छाती से लगाया। दोनों भाइयों ने भरत-शत्रुघ्न ने वहाँ के मुनियों की वंदना की और ईक्षित आशीर्वाद पाकर आनंदित हुए। फिर भरतजी छोटे भाई के साथ सीताजी के चरणों की धूलि को माथे पर बार-बार लगाकर प्रणाम करने लगे। सीताजी ने उनके मस्तक को अपने कर कमलों से स्पर्श करके उन्हें उठाया और बिठला दिया। उन्होंने मन ही मन आशीर्वाद दिया वे भी स्नेह में निमग्न थीं, उन्हें देह की सुधि नहीं थी। उस समय न न किसी ने कुछ कहा न किसी ने कुछ पूछा।

नाथ भरत के संग में आये श्री मुनिनाथ ।
विरह व्यथित परिजन सचिव, जननी भी सब साथ ॥

शील सिंधु रामजी ने गुरू का आगमन सुनकर सीता के पास शत्रुघ्न को रख धैर्य और धर्म के धुरंधर दीन दयाल उस समय बेग से चले और गुरूजी को देख भाई के साथ अनुराग में आ गये। प्रभु दण्डवत प्रणाम करने लगते हैं। मुनिवर ने दौड़कर उन्हें छाती से लगा लिया और प्रेम से दोनों भाइयों से मिले। सज्जनो श्री भरत जी त्याग और प्रेम की मूर्ति हैं। जीवन में प्रभु के प्रति कैसा प्रेम होना चाहिए, जीवन में कैसा त्याग और वैराग्य होना चाहिए यह भारत जी के चरित्र से हमको प्राप्त होता है। अगर भगवान के प्रति हमारी अपार श्रद्धा और विश्वास हो तो। भगवान को प्रकट होने में भगवान को मिलने में बिल्कुल भी देरी नहीं लगती।

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