राम कथा हिंदी में लिखी हुई-56 sri ram katha nots pdf
एक बड़ी सुंदर कथा
आती है। एक
गांव में दो व्यक्ति थे वह अच्छे मित्र थे जो भी करते एक साथ ही करते थे दोनों घर
गृहस्ती वाले थे,
एक बार वे दोनों घर गृहस्थी से परेशान हो गए और दोनों घर से वन जाकर
भगवान का भजन करने का विचार बनाया और दोनों प्राणी अपना जरूरी सामान लेकर वन की ओर
निकल पड़े ।
वन में जाकर एक व्यक्ति बरगद के नीचे
आसन लगाया दूसरा पीपल के वृक्ष के नीचे आसन लगाया, एक दिन उसी वन से
देवर्षि नारद गुजरे दोनों ने निवेदन किया कि हे देवर्षि आप भगवान के पार्षद हैं आप
हमारा छोटा सा संदेश प्रभु के पास पहुंचा दीजिए, उनसे कहिएगा
कि भगवान दो भक्त अपना घर बार छोड़कर वन में आप का भजन कर रहे हैं उन्हें आप दर्शन
कब दोगे । देवर्षि भगवान से बताया तो भगवान ने कहा कि देवर्षि उनसे जाकर कह देना
कि जितने पीपल में पत्ते हैं उतने वर्ष बाद और बरगद वाले से कह देना बरगद में
जितने उसके फल हैं उतने वर्ष बाद में उन्हें दर्शन दूंगा, देवर्षि
नारद आए और सबसे पहले बरगद के नीचे बैठे भक्त को बताया कि भगवान ने कहा है कि मैं
दर्शन दूंगा पर इस बरगद में जितने फल है उतने बरसो बाद । तो उस व्यक्ति के होश उड़
गए वह अपना बोरिया बिस्तर बांधा और देवर्षि नारदजी से कहने लगा महाराज इससे बढ़िया
तो घर जा रहा हूं वहां मेरे पुत्र पत्नी मेरा इंतजार कर रहे होंगे ,उसका क्षणिक बैराग था तो वह भाग गया ।
अब देवर्षि दूसरे व्यक्ति के पास आए
और कहने लगे हां भाई भगवान ने संदेश भेजा है कि मैं दर्शन तो दूंगा पर पीपल में
जितने पत्ते हैं इतने वर्षों बाद दर्शन दूंगा, उस व्यक्ति ने जैसे ही यह
सुना कि भगवान मुझे दर्शन देने के लिए बोले हैं भाव विभोर होकर नाचने लगा ।
देने को
बोले हैं तो देगें ही। मेरे राम खबरिया लेगें ही।
और मगन हो गया नाचने में उसी समय
भगवान वहीं प्रकट हो गए और भक्त के साथ नाचने लगे, भक्त ने परमात्मा का
साक्षात्कार करके कृतकृत्य हो गया । देवर्षि नारद ने कहा प्रभु आप भी बड़े झूठे
हैं अभी-अभी आपने कहा कि जितने पीपल के वृक्ष में पत्ते हैं उतने वर्ष बाद दर्शन
दूंगा और आप तो पल भर में प्रकट हो गए। परमात्मा ने कहा देवर्षि मुझे प्राप्त करने
का एकमात्र साधन है श्रद्धा और विश्वास अगर भक्त की सच्ची श्रद्धा और विश्वास है
तो मुझे प्राप्त करना एकदम सरल है मै छिन मे प्रकट हो जाता हूँ ।
एक पल में भाई सहित रामजी ने सबसे
मिलकर दुःख और दारुन दाह को दूर किया। रामजी के लिये यह कोई बड़ी बात नहीं क्योंकि
जैसे करोड़ों घड़ों में एक ही सूर्य की छाया पड़ती है, इसी
भाँति वे अपनी माया द्वारा सबसे मिले। प्रभु से मिले पुरवासी सब गुह से मिलते हैं
राम ने माताओं को दुःखी देखा, पहले राम कैकई से मिले।
भेंटी
रघुवर मातु सब,
करि प्रबोध परितोस ।
अंबु ईश आधीन जगु, काहु न देंअयँ दोष ॥
अतः प्रभु कहते हैं कि संसार ईश्वर
के अधीन नट मर्कट की भाँति नाँचता है पर तंत्र को क्या दोष है? वह
तो प्रेरक की प्रेरणानुसार आचरण करता है। गुरुपत्नी अरुन्धती की दोनों भाइयों ने
वंदना की ब्राह्मण की स्त्रियाँ भी साथ आईं थीं अतः सबको सम्मान दिया। सुमित्राजी
के पावों पड़कर ऐसे लिपट गये दोनों जैसे अति दरिद्र को सम्पत्ति मिले। तत्पश्चात्
माँ कौशल्या के चरणों में गिरे वे प्रेम से अपने को सँभाल न सके। प्रेम से सब शरीर
शिथिल है मति मात्र होने से प्रेम में भी और सुख में भी व्याकुलता हो जाती है। फिर
सभी जन ब्राह्मण मंत्री मातायें गुरू गिने हुए लोगों की साथ में लिया और भरत -
लक्ष्मण तथा रामजी पावन आश्रम में लिवा लाये । सीताजी सबके पावों पड़ीं सबसे मिलीं
व प्रेम कहा नहीं जाता।
गुरू की आज्ञा हुई बस बैठ जायें, सब
लोग जहाँ के तहाँ बैठ गये, तब राजा की स्वर्ग यात्रा सुनाई।
हे राम तुम्हारे स्नेह और प्रेम के कारण महाराज दशरथ तुम्हारे वियोग में प्राणों
को त्याग दिए। ये सुनकर रामजी को दुसह दुःख हुआ, मरने का
कारण अपना स्नेह समझकर धीर धुरंधर अत्यंत व्याकुल हुए। वज्र के समान कठोर वाणी
सुनकर लक्ष्मण सीता सब रानियाँ विलाप करने लगीं, सारा समाज
अत्यंत शोक से विकल हो गया।
भरत जी ने गुरु जी से कहा गुरु जी हम
एक बात बोलें?
गुरु जी ने कहा भरत कहो? गुरु जी आपने कहा
पिताजी भैया राम के प्रेम में चले गए, ऐसा नहीं है गुरुदेव।
गुरुदेव पिताजी चाहते तो अयोध्या से वन में आकर, भैया के पास
14 वर्ष रहकर अपने प्राणों को बचा सकते थे। सिद्धांत तो वैसे
भी कहता है की चौथी अवस्था में वन जाना ही राजा के लिए श्रेष्ठ होता है। तो यदि
पिताजी प्राण बचाना चाहते तो अयोध्या त्याग कर राम जी के पास ही वन में आ जाते।
पिताजी भैया के वियोग में नहीं गए गुरुदेव।
तब गुरुदेव वशिष्ठ ने पूछा कि तुम ही
बताओ भरत महाराज क्यों गए?
किस कारण से गए? भरत जी ने कहा कि गुरुदेव
पिताजी सोचे कि अगर जीवित रहूंगा तो कभी ना कभी पापी भरत का मुंह देखना पड़ेगा। इस
पापी का मुख ना दिखाई पड़े इसलिए मेरे आने से पहले ही पिताजी ने प्राणों को त्याग
दिया। पिताजी भैया के वियोग में नहीं गए। इतना बोलते बोलते भरत जी विलख बिलख कर
रोने लगे। प्रभु श्री राम ने भैया भरत को संभाला है। सज्जनो उस दिन किसी ने जल का
एक बूंद भी अपने मुख में नहीं डाला।
अगले दिन गुरुदेव ने श्री राम जी को
जो-जो भी व्यवहार करने के लिए कहा। पिताजी के निमित्त राम जी ने वह सारा व्यवहार
किया है। चार दिन बीता है। गुरुदेव भगवान अयोध्या की पूरी प्रजा को बैठा करके
बोले- राम जी भगवान हैं। वह तो जगत के राजा हैं। हम सबको उनकी बात मानना चाहिए। आप
लोग कहिए कि राम जी से क्या कहा जाए? भरत जी ने कहा गुरुदेव उनसे
कहिए कि वह अयोध्या को चलें, राजपद को ग्रहण कर सबको प्रसन्न
करें।
भरतजी हाथ जोड़ कर बोले- सूर्यवंश
में एक से एक बड़े राजा हो गये, शुभाशुभ कर्म ब्रह्मा ने दिये, पर संसार जानता है कि आपका आशीर्वाद ऐसा है कि दुःख को नाश करके सब
कल्याणों को साज देता है। आप ऐसे स्वामी हैं कि ब्रह्मा की गति को भी रोक देते
हैं। महाराज दिलीप और सुदक्षिणा के विवाह में लोगों ने गाँठ बंधन दृढ़ता से किया ।
आपके पूछने पर कहा गया कि गाँठ खुलते
ही विधि ने इनकी मृत्यु लिखी है यह सुनकर आपने मृत्यु योग मिटा दिया था और सतयुग
के बाद द्वापर आना था तब त्रेता आता, पर आपको त्रेता में
सूर्यवंश का कुलगुरू बनना था अतः द्वापर को छेक उससे पहले त्रेता युग ला दिया।
आपने हमारे कुल के लिये ब्रह्म की गति को भी रोका है। आपने जो टेक धर ली उसे
ब्रह्मा भी नहीं टाल सकते, आप रामजी को लौटाने की टेक पकड़
लें तो फिर कौन बाधा कर सकता है।
गुरु जी ने कहा भरत एक उपाय है मेरे
पास। राम लक्ष्मण सीता 14
वर्ष के लिए वन में आए हैं यदि आप राम और लक्ष्मण जी की जगह भरत और
शत्रुघ्न दोनों भाई 14 वर्ष वन में रहने के लिए तैयार हो
जाइए तो मैं राम लक्ष्मण सीता को वापस लेकर अयोध्या चला जाऊंगा। लेकिन उनके दोनों
के बदले आपको वन में रहना पड़ेगा। भरत जी ने कहा गुरुदेव आप जो कह रहे हैं क्या वह
संभव है? गुरुदेव ने कहा हां भरत बिल्कुल संभव है। तब भरत जी
ने कहा गुरुदेव।
कानन
करउँ जनम भरि बासू। एहिं तें अधिक न मोर सुपासू।।
यदि मेरे वन में रहने से भैया लौट
जाएंगे तो केवल 14
वर्ष ही नहीं गुरुदेव मैं पूरा जीवन वन में रहने के लिए तैयार हूं।
मैं लौटूंगा ही नहीं अयोध्या की ओर। गुरुजी भरत जी को लेकर राम जी के पास गए और
बोले हे भरत तुम्हें जो जो राम जी से कहना है, उनके सम्मुख
जाकर सब बोल दो। भरत जी खड़े हो गए। हाथ जोड़कर के कहने लगे भैया। गुरुजी एक उपाय
बताएं हैं, हम आज तक आपसे कुछ कहे नहीं है, भैया आज्ञा हो यदि आपकी तो एक बात मैं बोलूं आपसे? राम
जी ने कहा भरत कहो क्या बात है? प्रभु आप भैया लक्ष्मण और
माता जानकी अयोध्या को वापस लौट जाइए और मैं शत्रुघ्न दोनों भाई आपकी जगह वन पर
रहेंगे और यदि नहीं तो लक्ष्मण जी को वापिस कर दीजिए और मुझे अपने साथ रख लीजिए
नाथ।
सिसुपन
तेम परिहरेउँ न संगू। कबहुँ न कीन्ह मोर मन भंगू।।
मैं प्रभु कृपा रीति जियँ जोही। हारेहुँ खेल जितावहिं मोही।।
हे नाथ मुझे यह विश्वास है कि आप
मेरे प्रार्थना को जरूर स्वीकार करेंगे। मैं बचपन से ही सदा आपकी छाया में रहा
हूं। आपने भी मुझे कभी निराश नहीं किया। बचपन में जब मैं खेल में हारने लग जाऊं तो
मुझे हारता देखकर आप मुझे जिता दिया करते थे।
हे नाथ मुझे यह भी पता है कि मेरा
कहना शोभा नहीं देता है क्योंकि इन सारी अनर्थों का मूल मैं ही हूं। अयोध्या के
राजभवन से आप बिना जूते चप्पल ही, भैया लक्ष्मण और माता जानकी के साथ वन
को चले आए यह सुनकर के भी मैं अभी तक जी रहा हूं मेरे प्राण नहीं निकले। इस संसार
में मुझे बड़ा पापी कोई नहीं होगा। भरत जी के ऐसे वचन सुनकर के रघुनंदन ने कहा-
तात
जायँ जिय करहु ग्लानि । ईश अधीन जीव गति जानी ॥
तीन काल त्रिभुवन मत मोरे | पुण्य सिलोक तात
तर तोरे।।
भरत शुभाशुभ का फल देने वाला ईश्वर
है अत: कर्म बंधन से निबद्ध जीव की गति ईश्वर के अधीन है फिर ग्लानि करना व्यर्थ
है। ग्लानि करने से ईश्वरीय व्यवस्था बदल नहीं सकती। रही तुम्हारी बात, सो
तुम्हारे विषय में मैं यह कह सकता हूँ कि जिन पुन्यात्माओं का नाम मंगलमय दिन
बीतने के लिये प्रात:काल लिया जाता है। वे सब तुमसे निम्नकोटि में हैं। तुम्हारे
जैसा पुण्य श्लोक तीनों लोकों में न हुआ है, न है और न होगा।
तुम्हारे ऊपर जो मन से भी कुटिलता का
आरोप करेगा उसका लोक परलोक सब बिगड़ जायेगा। माता को दोष देना अनुचित है माता को
दोष तो जड़ व्यक्ति दिया करते हैं जिन्हें समझ नहीं 'मातृ देवो भव'
ऐसा वेद कहता है। जिसने गुरू और साधु सभा का सेवन किया है वह जानता
है कि कोई भी किसी के दुःख सुख `को देने वाला नहीं है अपने
कर्म ही शुभाशुभ फल देते हैं।
मिटहहिं
पाप प्रपंच सब, अखिल अमंगल भार ।
लोक सुजस परलोक सुख, सुमिरत नाम तुम्हार ॥
तुम्हारे नाम स्मरण से पाप का प्रपंच
मिटेगा और अमंगल भी नष्ट होंगे, स्मरण करने वाले को इस लोक में कीर्ति
और परलोक में आनंद प्राप्त होगा। तुम्हारी अकीर्ति का तो प्रश्न ही नहीं है। मैं
शिव को साक्षी करके कहता हूँ हे भरत! तुम्हारे रखने से ही पृथ्वी ठहरी है, पृथ्वी की रक्षा तुम्हारे ही हाथ है क्योंकि मैं तुमको बचन दे चुका हूँ कि
तुम जो कहोगे मैं वही करूँगा। यदि मैं बन में न रहा तो पृथ्वी का भार न उतरेगा।
देव, ऋषी मुनि आदि का
क्लेश तुम्हारे छुड़ाये ही छूटेगा। भरत महराज का बचन तुम्हारे रखने से ही रह सकता
है। महाराज ने सत्य की रक्षा हेतु मेरा त्याग किया और प्रेम-प्रण में शरीर त्याग
दिया। उनके बचन को मिटाने में मन में शोचं हो रहा है और उससे भी अधिक तुम्हारा
संकोच है। उसके ऊपर स्वयं गुरू की आज्ञा हो गई अतः जो तुम कहो उसे निश्चय सिर
चढ़ाकर करना चाहता हूँ । भरत बोले हे देव आपने सब बोझ मेरे ऊपर रख दिया और मुझे
नीति और धर्म का विचार नहीं है मैं जो कहता हूँ स्वार्थ के लिये कहता हूँ। क्योंकि
आर्त के मन में विवेक नहीं रहता, जो स्वामी की आज्ञा सुनकर
उत्तर देता है उस सेवक को देखकर लज्जा भी लज्जित होती है। मैं ऐसे दोषों का अथाह
समुद्र हूँ यह स्वामी का स्नेह है कि आप मेरी प्रशंसा कर रहे हैं। हे प्रभु-
प्रभु
प्रसन्न मन सकुचि तजि, जो जेहि आयसु देव ।
सो सिर धरि धरि करहिं सब, मिटहिं अनट अवरेव ॥
जो आप आज्ञा देंगे वही शिरोधार्य
करके सब लोग करेंगे,
यह सुन संकोची राम चुप रह गये । प्रभु की गति देखकर सब सभा सोच में
पड़ गई, उसी अवसर पर जनकजी के दूतों ने आकर कहा।
जय
मुनि नायक, जय भरत, जयति लखन अवधेश ।
विपिन मिलन हित आ रहे, मिथिला से मिथिलेस ॥