राम कथा हिंदी में लिखी हुई-57 shri ram katha kaise sikhe
श्रीजनक
आगमन प्रसंग
जनक जी का आगमन सुन अयोध्या का समाज
प्रसन्न हो गया,
राम जी बड़े संकोच में पड़ गये और इन्द्र देवता को बहुत बड़ा सोच हुआ।
महराज जनक का आगमन सुन सभा के सहित सूर्यकुल कमल के सूर्य श्रीराम एकाएक उठ खड़े
हुए और भाई मंत्री गुरू और पुरजन के साथ लिये हुए रघुनाथजी निकट पहुँचते ही सबको
अनुराग हुआ। और आदर के साथ एक-दूसरे से मिलने लगे । जनक जी मुनियों की चरण बंदना
करने लगे, और ऋषियों को रामजी ने प्रणाम किया, भाइयों के सहित रामजी महाराज जनक से मिलकर समाज सहित उन्हें अपने आश्रम
में लिवा ले चले ।
दो दिन बाद सीता जी की मां सुनैना, कौशल्या
माता के पास गई वहां पर तीनों माताएं बैठे हैं। कौशल्या मैया, सुमित्रा मैया, कैकेयी मैया। कौशल्या माता ने सुनैना
मैया से केवल एक ही बात कही बहन आप महाराज जनक से कहिए ना, जनक
जी ऐसा कुछ कर दें कि राम जी लक्ष्मण जी को छोड़कर भरत जी को साथ में रख लें।
सुनैना माता ने कहा आप राम की मां है और भरत की बात कर रही हैं? कौशल्या माता ने कहा कि मुझे राम की चिंता नहीं है मुझे अपने पुत्र भरत की
चिंता है, यदि राम के साथ भरत नहीं रहेगा तो मैं यह जानती
हूं कि मेरा भरत अपने प्राण त्याग देगा।
सुनैना माता ने समझाया कि आप चिंता
मत करिए मैं महाराज से चर्चा करूंगी। सुनैना माता सीता जी को साथ में ले गई, सीता
जी अपने पूरे परिवार से मिलकर के वापस आई हैं। सुनैना जी ने महाराज जनक से बताया
कि कौशल्या माता का रही थी कि आप कुछ ऐसा करें कि राम जी भरत जी को साथ में रख लें
लक्ष्मण की जगह। महाराज जनक लेटे थे लेकिन जैसे ही यह बात सुनते हैं वह उठकर के
बैठ गए। जनक जी कहने लगे सुनैना मैं विदेहराज जनक हूं। मैं राजनीति को ठीक से
जानता हूं, मैं वेदांत को जानता हूं, ब्रह्म
की गति को जानता हूं। इतना कुछ जानते हुए भी मेरा मन भरत जी के परछाई को भी नहीं
जान सकता। भरत जी की महिमा इतनी विशाल है कि कुछ कहा नहीं जा सकता।
भरत
अमित महिमा सुनु रानी। जानहिं रामु न सकहिं बखानी।।
हे रानी सुनो भरत जी की अपार महिमा
को केवल एक ही लोग जानते हैं, वह है श्री रामचंद्र जी। किंतु वह भी
उसका वर्णन नहीं कर सकते। मेरी बात मानी है चिंता ना करिए भरत वही करेंगे जो उनके
भैया राम चाहेंगे। भरत जी अपने मन से कुछ भी नहीं करेंगे।
चित्रकूट
द्वितीय दरबार सभा
सवेरा हुआ कौन वन में रखेगा कौन घर
को जाएगा इसका निर्णय होना है। राम जी बोले गुरुदेव- भरत नगरवासी और माताएँ सब सोच
से विकल और वनवास से दु:खी हैं और महाराज मिथिलेश को समाज सहित कष्ट उठाते भी कई
दिन हो गये। उचित हो सो कीजिये, आपके हाथ सबका हित है।
वशिष्ठ ने जनक जी से कहा कि यह जनक
जी आप राजा हैं आप निर्णय करिए? जनक जी ने भाटरत जी को बुलाया है और कहा
भरत जी आप अपने भैया राम को भी अच्छे से जानते हैं, अपने आप
को भी जानते हैं। इसीलिए आप खुद निर्णय लीजिए?
राजा ने धैर्य धारण किया, सामंजस्य
बिठाने की विधि जानते हैं देखा कि सम्पूर्ण प्रजा की दृष्टि इस समय भरतजी पर है और
प्रेम भी भरतजी का सबसे अधिक है। धर्म के जानकार भी भरतजी हैं मैं राजा हूँ। अत:
अब सामंजस्य बिठाने का भार भरतजी पर ही छोड़ा जाय । इधर जब देवताओं ने देखा की
सबने भरत जी को ही निर्णय करने के लिए बोल दिया और भरत जी ने अगर राम जी को
अयोध्या लिवा ले गए तब तो सारा काम हमारा बिगड़ जाएगा।
शोक युक्त होकर देवराज इन्द्र ने कहा
कि रामजी संकोची हैं और प्रेम के वश हैं, अत: सब पंच लोग मिलकर
प्रपंच रचो नहीं तो बात बिगड़ सकती है। देवताओं ने सरस्वती का स्मरण करके उसकी
स्तुति की, कहा कि देवी ! हम देवगण शरण में आये हैं रक्षा
करो, अपनी माया करके भरतकी बुद्धि फेर दो और छल की छाया करके
देवकुल की रक्षा करो । सुनकर सरस्वतीजी जो बड़ी सयानी हैं सोचती हैं।
देवता स्वार्थान्ध हो गये हैं इनकी
विवेक दृष्टि मारी गई इनके नेत्र तो हजार हैं, पर सुमेरू पर्वत नहीं
दीखता। भरत की मति को विधि हरि हर भी नहीं निहार सकते, उनकी
मति को भोरी करने को मुझसे कहते हैं, चाँदनी सूर्य को कैसे
चुरा सकती है।
भरत
हृदय सियराम निवासू । तहँ कि तिमिर जहँ तरनि प्रकासू ॥
भरतजी की इतनी बड़ी महिमा का कारण है
कि उनके हृदय में श्रीराम जानकी का निवास है, रामजी सूर्य हैं सीताजी
उनकी प्रभा हैं। इसलिये भरत की बुद्धि सूर्य रूप हो रही है, वहाँ
मायारूपी अंधकार की गति कहाँ ?
ऐसा कहकर सरस्वती ब्रह्मलोक चली गई फिर भी देवताओं ने अपनी कुबुद्धि
से कुविचार कुमंत्र करके निंद्य दुष्ट कुत्सित अपनी माया शक्ति से उच्चाटन का
प्रयोग रचा। जिससे लोगों के मन में भ्रम उत्पन्न हुआ जिनका वर्णन आगे होगा,
अब उनका घर की ओर मन दौड़ने लगा। यद्यपि सब देवताओं ने मिलकर प्रपंच
माया रची फिर भी सबके सरदार होने से इन्द्र का नाम लिया जा रहा है। उन्हीं की
आज्ञा से माया रची गई, अब वे सोचने लगे कि जिनके ऊपर माया
काम करेगी उनके हाथ में तो कुछ है नहीं। काम का बिगाड़ना या सुधारना तो भरतजी के
हाथ में है और उन पर ये माया भी प्रभाव नहीं डाल सकती। केवल साधारण लोगों पर उसका
प्रभाव अवश्य पड़ा।
जनकजी जब रामजी के पास गये, रघुकुल
दीप ने सबका सम्मान किया, रघुवंश के पुरोहित तब समय, समाज और धर्म के अनुकूल बोले कि हे राम! तुम जैसी आज्ञा दो वही सब करें
मेरा तो यही मत है, सुनकर रामजी दोनों हाथ जोड़कर मृदुवाणी
बोले- स्वयं मिथिलेश के विद्यमान होते हुए मेरा कहना सब तरह से गँवारपन भद्दा है,
आपकी और महाराज की जो आज्ञा हो मैं आपकी शपथ खाकर कहता हूँ कि वही
मेरे लिये ठीक है शिरोधार्य है।
राम
शपथ सुनि मुनि जनक, सकुचे सभा समेत ।
सकल बिलोकत भरत मुख बनइ न उत्तर देत ॥
अब जनक और गुरूजी धर्म विरोध कैसे
करें इसलिये जबाव नहीं सूझता। भरतजी का मुख देखते हैं कि तुमसे जो कुछ कहते बने, इस
समय कहो क्योंकि तुम्हीं, पर सबका प्रेम है। भरत जी उठे हैं
और राम जी के चरणों में प्रणाम करते हुए बोले भैया मैं आपसे निवेदन करूं कि मैं
क्या चाहता हूं? श्री राम ने कहा हां भरत बोलो क्या चाहते हो?
भरत जी ने कहा-
जहाँ ले चलोगे वहीं
मैं चलूँगा
जहां
नाथ रख लोगे वहीं मैं रहूँगा।
यह जीवन समर्पित चरण में तुम्हारे
तुम्ही मेरे सर्वस तुम्ही प्राण प्यारे।
तुम्हे छोड़ कर नाथ किससे कहूँगा
जहाँ ले चलोगे वहीं मैं चलूँगा॥
ना कोई उलाहना ना कोई अर्जी
करलो करालो जो है तेरी मर्जी।
कहना भी होगा तो तुम्ही से कहूँगा
जहाँ ले चलोगे वहीं मैं चलूँगा॥
दयानाथ दयनीय मेरी अवस्था
तेरे हाथ अब मेरी सारी व्यवस्था।
जो भी कहोगे तुम वही मैं करूँगा
सज्जनो यही भक्ति की पराकाष्ठा है।
साधारण व्यक्ति का विचार यह होता है कि हम जैसा चाहे वैसा हो जाए। लेकिन भक्त की
हमेशा एक ही चाह होती है कि मेरे प्रभु जो चाहे वह मैं करूं।
( राजी
हैं हम उसी में जिसमें तेरी राजा है )
भरत जी हांथ जोड़कर बोले प्रभु आप जो
आज्ञा देंगे मैं उसे मानूंगा। मैं आपकी सेवा करना चाहता हूं। राम जी बोले कैसी
सेवा करना चाहते हो भरत?
पांव दबाना चाहते हो? भरत बोले प्रभु पांव
दबाना सेवा नहीं है, श्रेष्ठ की असली सेवा है उनकी आज्ञा का
पालन करना। कोई पुत्र अपने पिता के रोज पांव दबाए, लेकिन
उसके आज्ञा का कभी पालन न करे तो वह फिर किस प्रकार की सेवा हुई। तो यहां पर भरत
जी कह रहे हैं-
अग्या
सम न सुसाहिब सेवा। सो प्रसादु जन पावै देवा।।
आज्ञा पालन के समान श्रेष्ठ स्वामी
की और कोई सेवा नहीं है,
हे प्रभु मुझ सेवक को वही आज्ञा रूप प्रसाद चाहिए। बंधु माताओं भरत
जी ऐसा कहकर प्रेम से विह्वल हो गए। शरीर पुलकित हो गया। नेत्रों में जल भर आया।
उन्होंने प्रभु श्री रामचंद्र जी के चरणों को पकड़ लिया। कृपा सिंधु श्री राम जी
सुंदर वाणी से भरत जी का सम्मान करके हाथ पकड़ कर उनको अपने पास बिठा लिया और कहने
लगे भाई-
जानहु
तात तरनि कुल रीती। सत्यसंध पितु कीरति प्रीती।।
राम जी कहते हैं भरत जी आप सूर्यवंश
की परंपरा को ठीक से जानते हैं, आप पिताजी के सत्य को उनके कीर्ति को
ठीक से जानते हैं, आप अपने धर्म को भी जानते हैं आप मेरे
धर्म को भी जानते हैं। हम तो आपसे यही कह रहे हैं भरत जी की आप अपने धर्म का पालन
करिए और मुझे मेरे धर्म का पालन करवा दीजिए। भरत जी ने कहा भैया मैं धर्म अर्थ काम
मोक्ष सबको छोड़कर आपके चरणों में आया हूं। मैं तो केवल इतना ही जानता हूं कि अपने
जीवन की अंतिम सांस तक आपकी आज्ञा का पालन मुझे करना है। आप कहिये मुझे क्या करना
है? राम जी ने जब जाना कि अब मुझे ही कहना पड़ेगा, राम जी ने फिर बोला। मेरे भाई चलो हम दोनों बंटवारा कर लेते हैं। राम जी
के इन वचनों को सुनकर भरत जी जोर-जोर से रोने लगे। कहने लगे भैया मुझसे बटवारा
करेंगे? राम जी बोले हां भरत करेंगे बटवारा, लेकिन संपत्ति का बंटवारा नहीं करेंगे हम दोनों भाई अपने घर की विपत्ति का
बंटवारा करेंगे। अपने घर की संपत्ति का बंटवारा तो सारा संसार करता है भरत,
लेकिन आज हम दोनों भाई अपने विपत्ति का बंटवारा करेंगे।
बंधु माताओं यह कथा हमको यही सिखाती
है कि अगर बटवारा करना है भाई से तो संपत्ति का नहीं विपत्ति का बंटवारा कीजिए। आज
का ऐसा समय है कि थोड़े से धन के लिए भाई को शत्रु बना लेते हैं। जिस भाई के साथ
बचपन में एक ही थाली में बैठकर खाए हो, जिस भाई की उंगली को पड़कर
हम जीवन के मार्ग में आगे बड़े हों, उससे अलग होकर कैसे रह
लेते हैं लोग यह बड़े आश्चर्य की बात है। इसका अर्थ यह है कि हम मनुष्य हैं ही
नहीं, हम पशु के समान हैं।
एक बहुत सुंदर भाव है- दो भाई थे वह
अलग-अलग हो गए तो बड़ा भाई छोटा भाई से कहता है-
अरे जब-जब
याद आई भाई के दुलार तोहरा,
तब तब काटे धाई अंगना दुआर तोहरा।
सज्जनो बांटना है तो भाई
से उसकी विपत्ति का बंटवारा कीजिए। संसार में सब कुछ मिलना सुलभ है लेकिन सहोदर
भाई यह परमात्मा की विशेष कृपा से प्राप्त होता है और हमारा दुर्भाग्य है कि आज
ऐसी दशा है अपने भाई से तो भाई केश लड़ता है और दूसरे से जब परिचय करता है तो बड़े
प्रेम से कहता है कि यह हमारे भाई जैसे हैं बड़ा प्रेम है इनसे। लेकिन एक बात
ध्यान देने की यह है कि कोई कितना भी बड़ा प्रेमी क्यों ना हो वह भाई के समान नहीं
हो सकता। भगवान ना करें कि कोई घटना कभी घटे लेकिन अगर कोई घटना घट जाए तो फिर
मुंडन करवाने वाला केवल भाई ही होता है और कोई नहीं करवाता। इसलिए बंधु माताओं इस
संबंध को बचा कर रखिए।