राम कथा हिंदी में लिखी हुई-58 ram katha ke notes
राम जी बोले भारत 14 वर्ष
मैं वन में रहूंगा और 14 वर्ष तुम अयोध्या में जाकर रहोगे।
भरत जी राम जी के चरणों को पकड़ लिए बोले आपकी आज्ञा शिरोधार्य है। हे नाथ हम अपने
साथ आपके अभिषेक की सामग्री साथ में लाए हैं, अभी अभिषेक हो
जाए प्रभु आपका राजतिलक कर दिया जाए? राम जी बोले नहीं भरत
लौटने के बाद! यह जितनी भी सामग्रियां हैं अत्रि मुनि जहां बोल रहे हैं वहां ले
जाकर इसको सुरक्षित करिए।
अत्रि मुनि की आज्ञा को शिरोधार्य
करो, यहाँ के मुख्य ऋषि अत्रि जी हैं। यहाँ की प्रधान नदी मंदाकिनी उन्हीं की
धर्मपत्नी भगवती अनुसुइया की लायी हुई है, और ऋषी की आज्ञा
जहाँ के लिये हो वहीं तीर्थ के जल को रखना। प्रभु के बचन सुनकर भरतजी को सुख हुआ,
प्रसन्न होकर अत्रि मुनि के चरणों में सिर नवाया।
'चित्रकूट का दूसरा दरबार
समाप्त ' *
भरत कूप और
भरत चित्रकूट यात्रा
अत्रि
कहेउ तब भरत सन, सैल समीप सुकूप ।
राखिय तीरथ तोय तहँ, पावन अमिय अनूप ॥
अत्री जी ने भरत जी से कहा इस पर्वत
के समीप ही एक सुंदर कुआं है, इस पवित्र अनुपम और अमृत जैसे तीर्थ जल
को उसी में स्थापित कर दीजिए। भरतकूप' - इस कुएँ का पहले कुछ
नाम न था पर आज अत्रिजी ने 'भरतकूप' नाम
धर दिया, ये भरतकूप नामक रेलवे स्टेशन मानिकपुर- झाँसी
रास्ते में है। इस कूप के जल से मज्जन और पान करने से पाप हरण होता है।
चित्रकूट
का तीसरा दरबार
सब कुछ निर्णय हो गया, भरतजी
की समाज के सहित चित्रकूट तीर्थ यात्रा भी हो गयी। लोग नहा-नहाकर रामजी के पास आ
गये। अब उन लोगों को छुट्टी माँगनी चाहिए पर कोई कुछ कहता नहीं। रामजी सोच रहे हैं
कि आज यात्रा के लिये शुभ मुहुर्त है, आज इन लोगों को चला
जाना चाहिए। पर मैं कैसे कहूँ कि आप लोग जाइये। राघव कृपालु हैं निष्ठुर बचन अपने
मुँह से कहना नहीं चाहते। वे गुरू, राजा जनक, भरत तथा सभा की ओर देख संकुचित हो नीचे देखने लगे। किसी से कुछ न कहा सबकी
ओर देखकर आँखें नीची कर लीं। इस प्रकार मुँह से न भी कह कर विदाई की चेष्टा प्रकट
कर दी । भरत सुजान हैं अत: रामजी की चेष्टा से जान गये, कि
राम अब हमारी विदाई करना चाहते हैं तो धैर्य धारण कर दण्डवत करके हाथ जोड़कर कहने
लगे हे नाथ! आपने मेरी सब इच्छाएँ रखीं, पूरी कीं, मेरे कारण सभी ने दुःख सहे और आपने भी बहुत तरह से दुःख पाया, आप मुझे आज्ञा दीजिये।
मैं जाकर अवधि भर अवध का सेवन करूँ, राजा
बनकर नहीं सेवक बनकर और प्रभु आप मेरी भी एक बात सुन लीजिए १४ वर्ष की पूर्ति पर
पहले ही दिन यदि आपको न देखूँगा तो मैं अग्नि में प्रवेश कर जाऊँगा। प्रभु श्री
राम ने कहा भरत मैं तुमको वचन देता हूं कि मेरे आने में एक दिन की भी देरी नहीं
होगी। हे तात ! मेरी, परिजन की, घर की
और बन की चिंता गुरूजी और महाराज मिथिलेश की है हम लोगों के सिर पर ये दो महानुभाव
हैं हमें तुम्हें तो सपने में भी क्लेश नहीं है। मेरा और तुम्हारा परम पुरुषार्थ,
स्वार्थ, सुयश और परमार्थ यही है कि दोनों भाई
पिताजी की आज्ञा का पालन करें, ये सब कुछ पिता की आज्ञा पालन
करने में है।
पिता
धर्मः पिता कर्मः पितैव परमागतिः ।
पितरि प्रीति मापन्ने प्रीयन्ते सर्व देवता ॥"
उनकी भलाई होगी और उससे ही लोक और
परलोक सुधरेगा अतः अवधि पर्यन्त अवध का पालन करो। रामजी ने भरतजी को राज धर्म का
सारथी समझा था परंतु बिना आधार के न मन में संतोष हुआ न शान्ति हुई । भरत जी अपने
साथ कुछ चिन्ह चाहते हैं,
यहां भरत जी को देने के लिए राम जी ने अपने आप को ही मानो पादुका के
रूप में परिवर्तित करके देते हैं।
प्रभु
करि कृपा पाँवरी दीन्हीं। सादर भरत सीस धरि लीन्हीं ॥
भरत मुदित अवलंब लहे तें। अस सुख जस सिय रामु रहे तें।।
प्रभु ने खड़ाऊँ हाथों में उठा लिये
और देने लगे तब भरतजी ने अयन्त आदर पूर्वक अपना मस्तक उनके नीचे करके उन्हें अपने
हाथों से मस्तक पर धर लिया। उन्हें भूमि का स्पर्श न होने दिया क्योंकि भरत की
भावना - ये खड़ाऊँ नहीं प्रभु के चरण, साक्षात प्रभु श्रीराम ही
हैं। विदा के समय श्री राम जी ने भरत जी को हृदय से लगाए, दोनों
भ्राता गले लगकर बहुत रोए हैं आज। यह दृश्य को देखकर देवता लोग भी दुखी हो गए।
दोनों समाज के लोगों को यथायोग प्रणाम करके प्रभु राघव ने चित्रकूट से विदा किया
है। 9 दिन का समय लगा भरत भैया पूरी समाज को लेकर अवध को
पहुंचे हैं। जाते ही भरत भैया ने प्रभु के चरण पादुकाओं को राज्य सिंहासन पर
स्थापित किया है। श्री जनक जी महाराज 5 दिन तक रुक कर राजपाठ
की सारी व्यवस्था को सुदृढ़ करके गुरुदेव भगवान वशिष्ठ व माताओं से विदा लेकर
मिथिला की ओर गए हैं। अयोध्या के लोगों का नियम उपवास आरम्भ हो गया इन लोगों की
इष्ट प्राप्ति श्रीरामजी का दर्शन है। ये उसी की आशा से जीवन धारण कर रहे हैं। कुछ
महानुभावों का कहना है कि इस १४ वर्ष की अवधि में न तो अयोध्या में किसी का जन्म
हुआ और न किसी की मृत्यु हुई। सभी लोग नियम उपवास में लगे थे।
सज्जनो श्रीभरत ने राम से कहा था-
"बिनु आधार मन तोस न शांती ।" तो राम ने पांवरी देकर मुस्कराकर
पूछा भरत आधार मिला या भार ? भाई पादुका पाँव में पहनी जाय तो आधार
पर तुमने सिर पर रखी तो भार है। अतः मैं तुमको भार ही दूँगा, यह भार तुम्हें उठाना है। श्रीभरत उस पादुका के आधार पर ही अयोध्या के
राज्य का इतना बड़ा भार सँभाल लेते हैं। भरत का यह कार्य मानो यही स्पष्ट करता है
कि व्यक्ति अभिमान शून्य होकर यह अनुभव करे कि हमें जो भार मिला हुआ है उसे उठाने
की शक्ति, क्षमता तथा योग्यता भगवान ही प्रदान करते हैं। बंधु
माताओं एक दिन श्री भरत जी छोटे भाई के साथ गुरूजी वशिष्ठ के घर जाकर हाथ जोड़
दण्डवत कर बोले-
आयसु
हो इत रहहुँ स नेमा | बोले मुनि तन पुलकि सप्रेमा ॥
समुझब
कहब करब तुम सोई। धरम सार जग होइहि सोई॥"
गुरदेव, श्रीरामजी
पिता की आज्ञा से मुनिव्रत वेष अहार स्वीकार किये हुए हैं। उनके इस भाँति जीवन
पालन करने पर मैं सुख नहीं चाहता, मैं भी उसी भाँति रहना चाहता
हूँ। पर उस भाँति रहने के लिये बड़ों की आज्ञा की आवश्यकता है सो यदि आप आज्ञा दें
तो मैं भी उसी नियम से रहूँ । भरतजी की यह वाणी सुनकर मुनिजी प्रेम से पुलकित हो
उठे और बोले कि तुम्हारी ऐसी स्थिति हो गयी है कि जो तुम मन में समझोगे वाणी से
कहोगे और कर्म से आचरण करोगे वही धर्म का सार होगा तुम्हें किसी की आज्ञा की जरूरत
नहीं ।
यह गुरूजी का इतना बड़ा आशीर्वाद है जो आज तक कभी किसी को नहीं
मिला। भरतजी ने ज्योतिषियों को बुलाकर शुभ मुहूर्त निकलवाकर पादुकाओं की स्थापना
नगर में न करके नन्दीग्राम समीप अपनी पर्णकुटी में भरतजी ने की है। भरतजी को आज्ञा
अपनी माता से ही माँगना उचित था "विदा मातु सन कावहु माँगी"
(रामवाक्य) पर भरतजी ने उन्हें त्याग किया था।
तज्यो प्रहलाद,
विभीषन बन्धु भरत महतारी
अतः राम जी से ही आज्ञा मांगी उन्हीं को माता मानते हैं।
चरण पादुका ही श्री राम का रूप हैं उन्हीं से उन्होंने आज्ञा मांगी।
नंदीग्राम तीन पुण्य ग्रामों में से एक है– (१) शालग्राम (२) नंदिग्राम (३) सम्भलग्राम । नंदिग्राम अवध से पाँच कोस
पर गांव आजकल भी है, भरतकुंड रेलवे स्टेशन उसके समीप है।
नंदीग्राम में निवास करने के कयी कारण हैं, उनमें मुख्य यह
जान पड़ता है कि वहाँ रामजी प्रथम रात्रि ठहरे थे उसके पास ही। जैसे श्रीरामजी को
देखा था वैसे ही भरत जी सिर में जटाजूट और बल्कल धारण किया। पृथ्वी खोद कर कुश
लेकर सांथरी बनाई। रामजी की भाँति भोजन वसन और व्रत नियम जो वानप्रस्थ अवस्था में
किया जाता है करने लगे। श्री भरत जी महाराज ने विचार किया श्रीरामजी पृथ्वी पर
सोते हैं तो हम उस पर कैसे सोवें । अतः जमीन खोदकर उनसे नीचे सोने से धर्म बनेगा।
कहहु न कहाँ चरन कहँ माथा पृथ्वी को इतना खोदा कि कैसे भी खड़े हों
या बैठे हमारा सिर भी श्रीरामचरण से नीचा ही रहे। प्रसन्न मन से दुःख मानकर नहीं,
प्रेम से कर्मों को निवाहते हैं। जिस अवध का राज्य ऐसा सुख समृद्धि
से भरा था कि उसे देख इन्द्र और धनादि कुबेर भी लजाते थे। इस अयोध्या में भरतजी
विरक्त की भाँति रहते हैं।
अवध
राजु सुर राजु सिहाई। दसरथ धनु सुनि धनदु लजाई।।
तेहिं पुर बसत भरत बिनु रागा। चंचरीक जिमि चंपक बागा।।
उन्हें उन पदार्थों से कुछ भी सुख
नहीं क्योंकि वे भरतजी तो श्रीरामजी के चरण कमल के भौरे हैं वहीं सुख मानते हैं।
चम्पक बाग में उन्हें सुख कहाँ ? अयोध्या चम्पक बाग की तरह सबको सुखदायी
है पर भरत को नहीं।
चम्पा में
गुन बहुत हैं,
रूप रंग और बास ।
पर यह अवगुन एक हैं कि, भँवर न आवे पास ॥'
तो देवयोग से भरत रूपी भौंरे को अवध
रूपी चम्पक बाग में बसना पड़ा। लेकिन वे उसमें विरक्त की भाँति रह रहे हैं।
क्योंकि भरतजी को राज्य कार्य के लिये अवधरूपी चम्पक बाग में कभी-कभी आना पड़ता
है। तो भी नगर की संपति ऐश्वर्य, सुख आदि देखकर उनका मन कभी उस पर नहीं
लुभाता।
सज्जनों भरत जी के भक्ति प्रेमभाव का
अगर हमारे अंदर कुछ अंश भी आ गया तो हमारा जीवन का उद्धार हो जाएगा। हम सब अज्ञान
में फंसकर विकारों में उलझे हुए हैं। हमारे अंदर कैसा सील और आचरण होना चाहिए यह
भरत जी का चरित्र हमें बताता है। हम सब अपने आप को भक्त तो समझते हैं लेकिन किसी
ने थोड़ी भी कुछ कह दिया तो हम क्रोध से लाल हो जाते हैं और उनसे लड़ने लग जाते
हैं। बंधु माताओं मनुष्यत्व क्षमा और सहनशीलता में है। बिना क्षमा एवं सहनशीलता के
मनुष्य कुत्ता - व्याघ्र की भांति होता है। जो क्षमावान - शीलवान है वही मनुष्य है
और श्रेष्ठ है।
शीलवन्त सब
से बड़ा,
सब रत्नों की खानि ।
तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आनि ॥
एक मजदूर नित्य पास के
शहर में मजदूरी करने जाता और संध्या को अपने घर आता था। मार्ग में राजा का बाग
पड़ता । बाग में चारों ओर चहारदीवार लगी थी; किन्तु आम आदि वृक्ष की
डालियां चहारदीवार के बाहर मार्ग तक फैली हुई थीं । एक दिन मजदूर संध्या को अपने
घर जा रहा था । उसे भूख बड़ी जोरों से लगी थी । जब मजदूर राजा के बाग तक आया,
तो वृक्षों के पके हुए फल को देखकर उसका मन ललचाया। उसने फल के लालच
से एक पत्थर वृक्ष पर मारा । पत्थर वृक्ष में लगने से पांच फल गिरे।
संयोगाधीन राजा उसी बाग में टहलने
आया था। वह पत्थर जाकर राजा के सिर में बड़े जोरों से लगा और सिर फटकर रक्त बहने
लगा । पास के नौकर दौड़े-दौड़े बाहर आये और उस मजदूर को पकड़कर राजा के पास ले गये ।
राजा ने मजदूर से पूछा—''
क्या तुम्हीं ने पत्थर मारा है ?" मजदूर
गिड़गिड़ाते हुए बोला“हां सरकार! मुझसे यह घोर अपराध हुआ ।" राजा बोला -
"नहीं-नहीं, तुमने मेरे सिर पर पत्थर थोड़े मारा है !
अच्छा यह बताओ कि पत्थर मारने से तुम्हें कितने फल मिले ?
मजदूर बोला - " पांच फल ।"
पुनः मजदूर हाथ जोड़कर बोला - "हे पृथ्वीनाथ ! मुझे कठिन से कठिन दण्ड दिये
जायं,
मैं स्वीकार करने को तैयार हूं, क्योंकि मैंने
बहुत अपराध कर डाला है।
राजा बोला - " जब एक पत्थर मारने से जड़ वृक्ष पांच फल दिये,
तब मैं चैतन्य मनुष्य होते हुए तुम्हें दण्ड दूं तो मेरी कितनी भूल
है! मुझे सैकड़ों फल देना चाहिए।" ऐसा कहकर राजा ने सैकड़ों पके पके फल
मंगवाकर मजदूर को दिये और प्रसन्नचित्त उसे विदा किया। धन्य-धन्य ऐसे क्षमाशील
पुरुषोत्तम को।