राम कथा हिंदी में लिखी हुई-59 ram katha notes in hindi
सज्जनो श्री भरत जी महाराज की तपस्या
त्याग अवर्णीय है। अरे स्वयं श्री रामचंद्र जी भी माता-पिता के वचन पालन हेतु वन
को गए। मुनिवेश व्रत धारण करके। लेकिन श्री भरत जी तो अयोध्या का अनंत ऐश्वर्य
त्याग कर,
अयोध्या में रहते हुए वनवास से भी ज्यादा शरीर को तपाते हुए साधन
भजन कर रहे हैं।
लखन
राम सिय कानन बसहीं । भरत भवन बस तप तनु कसहीं।।
सब प्रकार से भरत ही सराहनीय हैं।
भरतजी का नियम और व्रत सुनकर "साधु सकुचाहीं, मुनिराज
लजाहीं" वह भी मन में विचार करते हैं हमने प्रभु के लिये घरबार छोड़ा। हमारी
प्रभु के प्रेम में ऐसी दशा होनी चाहिए सो नहीं है और इनके घर वार सँभालते हुए भी,
घर रहते हुए प्रभु चरणों में ऐसा प्रेम और भक्ति है। हमारे वैराग्य
को धिक्कार है। भरतजी का चरित्र परम पवित्र मधुर सुंदर मृदु और मंगल का करने वाला
है साधु और मुनियों के लिये अनुकरणीय है। बड़ा ही मधुर है सुंदर ऐसा सब लोग सराहना
करते हैं। भरतजी के आचरणों के गुण रूपी सिंह गर्जन से पाप समूह भाग जाते हैं।
भर्जनं
भव बीजानां, अर्जनं सुख सम्पदाम् ।
तर्जनंयमदूतानां श्रीरामरामेति गर्जनं ॥
भगवान भक्ति मिश्रित भरत महिमा के
कथन श्रवण से सब दोष नष्ट हो जायेंगे। बाबा जी श्री भरत जी के विषय में बड़ा सुंदर
भाव लिखते हैं-
सिय
राम प्रेम पियूष पूरन होत जनमु न भरत को।
मुनि मन अगम जम नियम सम दम बिषम ब्रत आचरत को।।
दुख दाह दारिद दंभ दूषन सुजस मिस अपहरत को।
कलिकाल तुलसी से सठन्हि हठि राम सनमुख करत को।।
श्री सीताराम जी के प्रेम रूपी अमृत
से परिपूर्ण भरत जी का जन्म यदि ना होता तो मुनियों के मन को भी अगम यम, नियम
आदि कठिन व्रतों को कौन करता? दुख, संताप,
दरिद्रता, आदि दोषों को अपने सुयश के बहाने
कौन हरण करता? और यह घोर कलिकाल में मुझ जैसे सठों को श्री
राम जी के सम्मुख कौन करता? तुलसीदास जी कहते हैं जो कोई भरत
जी के चरित्र को नियम से आदर पूर्वक सुनेंगे कहेंगे उनका अवश्य ही श्री सीताराम जी
के चरणों में प्रेम होगा और सांसारिक विषय रस से वैराग्य होगा।
( अयोध्या
कांड विश्राम )
( अरण्यकांड)
सप्त काण्ड रूपी सात मोक्षदायिका
पुरियों में अरण्य = वनकाण्ड तीसरी मायापुरी ‘हरिद्वार' है
। हरिद्वारान्तर्गत कनखल में दक्षेश्वर महादेव हैं वहीं दक्ष का यज्ञ हुआ है। वहाँ
भगवती सती ने योगाग्नि से शरीर त्याग किया है। इस कथा का मूल भी इसी काण्ड में है
अतः इस काण्ड को मायापुरी माना गया है। इसमें ही सीता जी माया की जानकी बनीं और
रामजी ने भी जानकी को अग्नि देव को सुपुर्द करके, मायाकी
जानकी से लीला किया। रावण ने मरीच को माया - मृग बना कर स्वयं भी माया से तपस्वी
का वेष धारण कर 'मायासीता' का हरण किया
। खरदूषण के युद्ध में राक्षसों ने अति घनी माया की तत्पश्चात् श्रीरामजी की माया
से सब मारे गये। यहाँ सब माया का ही खेल दिखाई पड़ता है, अत:
इसका मायापुरी होना सार्थक है।
अरण्य वन को कहते हैं, वन
के रास्ते में उतार-चढ़ाव तथा विश्राम स्थान का कोई ठिकाना नहीं रहता। कहीं पर्वत
की चढ़ाई कहीं उतराई, कहीं खंदक । अतः इस काण्ड में बाल
अयोध्या की भाँति चौपाई- दोहादि का क्रम नहीं है। किसी दोहे में २६ छबीस
अर्धालियाँ हैं और किसी-किसी में कम-बढ़ती विषम हैं, अद्भुत
विचित्रता है।
इस काण्ड को अरण्य या बनकाण्ड इसलिये
कहा गया कि वनवास का सबसे अधिक समय दण्डकारण्य में ही बीता । इसका दण्डकारण्य नाम क्यों पड़ा, इसके बारे में कथा
है कि राजा इक्ष्वांकु का पुत्र दण्ड नामक इसी प्रदेश का राजा था और इस वन प्रदेश
में शुक्राचार्य जी का भी आश्रम था। सतयुग की बात है, जब इस
पृथ्वी पर मनु के पुत्र इक्ष्वाकु राज्य करते थे। राजा इक्ष्वाकु के सौ पुत्र
उत्पन्न हुये। उन पुत्रों में सबसे छोटा मूर्ख और उद्दण्ड था। इक्ष्वाकु समझ गये
कि इस मंदबुद्धि पर कभी न कभी दण्डपात अवश्य होगा। इसलिये वे उसे दण्ड के नाम से
पुकारने लगे। जब वह बड़ा हुआ तो पिता ने उसे विन्ध्य और शैवल पर्वत के बीच का राज्य
दे दिया। दण्ड ने उस सथान का नाम मधुमन्त रखा और शुक्राचार्य को अपना पुरोहित
बनाया।
एक दिन राजा दण्ड भ्रमण करता हुआ
शुक्राचार्य के आश्रम की ओर जा निकला। वहाँ उसने शुक्राचार्य की कन्या अरजा को
देखा। वह मोहित होकर उसके साथ रति करने लगा। जब शुक्राचार्य ने अरजा की दुर्दशा
देखी तो उन्होंने शाप दिया कि दण्ड सात दिन के अन्दर अपने पुत्र, सेना
आदि सहित नष्ट हो जाय। इन्द्र ऐसी भयंकर धूल की वर्षा करेंगे जिससे उसका सम्पूर्ण
राज्य ही नहीं, पशु-पक्षी तक नष्ट हो जायेंगे। शुक्राचार्य
के शाप के कारण दण्ड, उसका राज्य और पशु-पक्षी आदि सब नष्ट
हो गये। तभी से यह भूभाग दण्डकारण्य कहलाता है।
शिवजी उमा से कहते हैं उमा ! सीताराम
जी के गुण गूढ़ हैं जो शीघ्र लखाई न पड़े उसे गूढ़ कहते हैं 'गूढ़
प्रेम लखि परै न काहूं' लखने वाले पंडित और मुनि
इससे वैराग्य प्राप्त करते हैं। जिन्हें सीधी बात समझ में न आवे उसे 'मूढ़' कहते हैं। जिन्हें सीधी बात उल्टी समझ पड़े
उन्हें विमूढ़ कहते हैं। विमूढ़ होने से ज्ञान के अधिकारी नहीं, हरि विमुख होने से 'भक्ति' के
अधिकारी नहीं। धर्म में रति नहीं होने से 'कर्म' के अधिकारी नहीं। श्री राम जी के गुणों को सुनकर पंडित और मुनि समझ कर
वैराग्य प्राप्त करते हैं। परंतु जो भगवान से विमुख हैं जिनका धर्म में प्रेम नहीं
है वह सुनकर मोह प्राप्त होते हैं। ऐसा दृष्टांत जयन्त का गोसाईंजी दे रहे हैं।
एक बार श्रीराम जी ने वन में सुंदर
फूल चुनकर अपने हाथों से माला बना सीताजी को पहिनाई तब सुंदर स्फटिक शिला पर बैठे।
एक
बार चुनि कुसुम सुहाये । निज कर भूषन राम बनाये ॥
देवराज इंद्र का पुत्र जयंत कौवे का
रूप धरकर श्री रघुनाथ जी का बल देखना चाहता है।
सुरपति
सुत धरि बायस वेषा | सठ चाहत रघुपति बल देखा ॥
बल की महिमा श्रीरामजी की उसने सुन
रखी थी,
और वह स्वयं भी बली था। एक बार उसने अपने बल से रावण को बाँध लिया
था। तब मेघनाद ने छुड़ाया था । जयंत की यह इच्छा थी किसी को पता भी न लगे, मैं परीक्षा भी कर लूँ। पर सज्जनों चींटी के लिये पानी की रेखा लाँघना अति
दुर्लभ है, उसकी समुद्र की थाह पाने की कामना ही महा अमंगल
रूप है। अतः महामति मंद चीटी के समान समुद्रवत राम की थाह लेना चाहता है। और जयंत
ने क्या किया?
सीता
चरन चोंच हति भागा। मूढ़ मंद मति कारन कागा ॥
चला रुधिर रघुनायक जाना । सींक धनुष सायक संधाना ||
वह मूढ़, मंदबुद्धि
कारण से भगवान के बल की परीक्षा करने के लिए कौवा बनकर सीता जी के चरणों में चोंच
का प्रहार करके वह भागा। मूढ़ वेसमझ को कहते हैं, नासमझी के
कारण उसने भगवत् और भागवत् दोनों अपराध कर बैठा । सज्जनो हमारे राम तो ऐसे हैं की
चाहने पर वे स्वयं परीक्षा दे देते हैं। जैसे सुग्रीव के सामने दिया-
कहि
सुग्रीव सुनहु रघुवीरा । बालि महाबल अति रनधीरा
दुंदुभि अस्थि ताल देखराये । ॥ बिनु प्रयास रघुनाथ ढहाये ||
सुग्रीव को प्रभु श्री राम जी ने
बिना प्रयास के ही अपने बल के झलक का दर्शन कराया। ऐसे सरल प्रभु से कपट करके
दो-दो अपराध करने की क्या आवश्यकता थी? इसीलिए यहां पर जयंत को
मूढ़ कहा। अवसर चूक गया इसलिये मंदमति कहा-“अहमंद मति
अवसर चूका" जगदम्बा के चरणों को पाकर लोग कौन सा
मनोरथ सिद्ध नहीं कर लेते? सो इस मंदमति ने उन पर प्रहार
किया "कारण कागा" का भाव यह है कि मन उस कौवे का सा था ही, शरीर भी कौवे का बनाया । अतः भीतर - बाहर से कौआ ही हो गया पर कौआ था नहीं
। अतः मूढ़ता और मति की मंदता का परिचय दे रहा है। सीताजी के चरणों में चोंच मार
कर भागा।
आप दर्शन करिए की सीता माता के पैरों
से रक्त बहने लगा,
लेकिन सीता मैया ने राम जी को बोला नहीं की प्रभु जयंत ने मुझे मार
दिया। जानते हैं क्यों नहीं बोला जानकी मैया ने? क्योंकि वह
माँ हैं। बंधु माताओं इस धरती पर एक मां ही ऐसी सत्ता है जो चोट खाने के बाद भी
क्षमा करने की शक्ति रखती है। मां ने विचार किया कैसा भी है लेकिन है तो मेरी ही
संतान, प्रभु से बताऊंगी तो प्रभु इसका प्राण ले लेंगे। माता
ने तो क्षमा कर दिया, लेकिन उनके चरणों से जो रक्त की धारा
निकली और वह रक्त की धारा जब राम जी के पांव के पास आई तब राम जी सब जान गए। यह
मेरा बल देखने आया है। कुश की चटाई पर भगवान बैठे थे, दो
कुशा निकाले एक को धनुष बनाया है और दूसरे को बांण बनाया है और ब्रह्मास्त्र बनाकर
छोड़ दिया। कौआ के पीछे दौड़ाया, जिस भाँति वह देखने में कौआ
था पर वस्तुतः इन्द्र का पुत्र था । उसी भाँति उसके प्रति जिस वांण का प्रयोग किया
गया वह देखने में सींक था पर वस्तुतः ब्रह्मास्त्र था।
उसने पहले सींक ही समझा अत: निर्भय
था पर जब उसने कालिकास्त्र कालानल के समान तेज देखा तो डरकर भागा "वायस भय
पावा" यानी काँव-काँव करता भागा । 'पातीति
पिता'
पुत्र का परमाश्रय पिता ही होता है। अत: वह काकरूप त्याग कर अपना
रूप धारण करके अपने पिता इन्द्र के पास रक्षा के लिये गया लेकिन राम विमुख होने के
कारणइन्द्र ने भी उसे शरण नहीं दिया। कि जैसा किया है वैसा फल भोगो। मैं इसमें कुछ
नहीं कर सकता।
ब्रह्मास्त्र को देख अब वह राम
प्रभाव का अनुभव कर रहा है। अब संत्रस्त हो भागता हुआ ब्रह्माजी के पास गया वहाँ
भी शरण न मिली। तो अवढ़र दानी शिवजी के शरण गया वहाँ से भी निराश होकर बाण उसके
पीछे-पीछे कुबेरादि लोकों में दौड़ते-दौड़ते श्रमित हो गया।
काहूँ
बैठन कहा न ओही। राखि को सकइ राम कर द्रोही।।
भय और शोक से उसकी अत्यन्त बुरी गति
हो गयी। किसी ने उसे बैठने तक को नहीं कहा। शरण में रखना तो दूर की बात क्योंकि
उसके पीछे-पीछे श्रीरामजी का वाण साथ जाता था। राम के द्रोही की रक्षा करने में
कोई भी समर्थ नहीं।
सज्जनो जब जयंत इन्द्र के पास गया था
तो इन्द्राणी भी वहीं थीं। वाण पीछा कर रहा था। उस समय बेटे को लौटा देना मृत्यु
के मुख में फेंकना ही है। इसलिये कहा-
मातु
मृत्यु पितु समन समाना
माता मृत्यु और पिता यमराज उसके लिये
बन गये । सज्जनों रक्षा और नाश की शक्ति किसी वस्तु में नहीं है। प्रभु के अनुग्रह, निग्रह
में है। अनुग्रह यदि श्रीराम का हो तो सुमेरू भी रेणु हो जाय, और निग्रह हो तो माँ-बाप भी मृत्यु और यमराज हो जायें।