राम कथा हिंदी में लिखी हुई-60 shri ram katha ke notes hindi me
नारद
देखा बिकल जयंता । लागि दया कोमल चितसंता ॥
पठवा तुरत राम पहिं ताही । कहसि पुकारि प्रनत हित पाही ||
नारद ने जयंत को देखा पर वह इतना
विकल था कि उसने नारद को नहीं देखा। सज्जनो एक बात और ध्यान देने की है अब तक इसके
नाम का उल्लेख गोस्वामीजी ने नहीं किया क्योंकि राम विमुख का नाम भी नहीं लेना
चाहिए। पर संत दयालु होते हैं संत ने जब कृपा की तो कवि ने भी नाम लिखना उचित
समझा।
सज्जनों- संत हृदय नवनीत समाना।
संतों का हृदय मक्खन के समान कोमल होता है। वह कृपा करुणा के मूर्ति होते हैं। और
भगवान से मिलाने का कार्य भी संत के द्वारा ही होता है। बंधु माताओं प्रकृति में
निखार लाने का कार्य बसंत करता है उसी प्रकार जीवन में निखार लाने का कार्य संत
करता है। संत कृपा की एक बड़ी सुंदर कथा आती है- एक महात्मा थे श्री माधव
दास जी महाराज,
श्री वृंदावन धाम में निवास किया करते थे। एक बार श्री जगन्नाथ पुरी
जा कर रहे तो वे नित्य भिक्षा के लिए जाते थे।
नारायण हरि –भिक्षां देहि कहकर
भिक्षा मांगा करते थे,
लोग अपना सौभाग्य मानते थे। संत को भिक्षा देकर अपने धन-धान्य को
धन्य करते थे। और एक वृद्धा माता कुछ नहीं देती थी गाली
देती थी कहती निठल्ले कुछ नहीं किया जाता और निकल आते हैं दे दो दे दे दो। और महात्मा भी बड़े अद्भुत उसके घर जरूर जाते , किसी
ने उनसे कहा कि बाबा अरे जब वह कुछ नहीं देती है उनके यहां क्यों जाते हो ? माधव दास जी बोले अरे वह वो चीज देती है जो कोई नहीं देता , गाली तो देती है कुछ ना कुछ तो देती है।
खोद खाद
धरती से काट कूट वन राय।
कुटिल वचन साधु सहे सबसे सहा न जाए।।
अच्छा बृद्धा माता के बेटे का विवाह
हो गया था,
बेटे के घर किसी बेटे का जन्म नहीं हुआ था। पौत्र का जन्म नहीं हुआ
था इसलिए वह वृद्धा माता बड़ी दुखी रहती थी। महात्मा को देखकर गाली देती एक दिन
सदा की तरह माधव दास जी उसके दरवाजे पर गए। कहने लगी तू फिर आ गया निठल्ले ?
कपड़े का पोता लेकर हाथ में पुताई का काम कर रही थी, कीचड़ से सना हुआ वह वस्त्र खंड महात्मा को देखकर वृद्धा माता ने फेंककर
उस पोता से महात्मा को मारा। वह वस्त्र खंड महात्मा के
जाकर छाती से लगा और नीचे गिर गया, बुढ़िया ने मार तो दिया
लेकिन डर गई कहीं बाबा श्राप न दे दे ? लेकिन महात्मा
मुस्कुराने लगे और वह कपड़े का वस्त्र खंड उठा कर बोले चल मैया तूने कुछ दिया तो,
लेकिन अब हम भी बिना दिए नहीं जाएंगे।
संत माधव
दास भी उत्तर इसी का देगा।
पोता अगर दिया है तो जा पोता तुझे मिलेगा।।
संत की बात मिथ्या नहीं जाती भगवान
भी संतो की बात की मर्यादा रखते हैं भगवान संत की मर्यादा रखे उसके घर पोता का
जन्म हुआ। वह कहती थी-
पोता दियो
ना प्रेम से रिसिवस दीन्हो मार।
ऐसे पुण्यन सो सखी मेरे पोता खेलत द्वार।।
जो मैं ऐसे संत को देती प्रेम प्रसाद।
तो घर में सुत उपजते जैसे ध्रुव प्रहलाद।।
माधव दास जी उस मिट्टी कीचड़ से सने
हुए वस्त्र को लेकर आए जल से धुला उसके मटमैलेपन को दूर किया। कंकड़ों को धोया साफ
कर दिया। और फिर घी में डाल दिया और घी से निकाल कर बत्ती बना दी और फिर दीया जला
दी और मंदिर पर रख दिया उसको और वह वस्त्र खंड अपने सौभाग्य की सराहना करते हुए कह
रहा है-
धन्य है सत पुरुषों
का संग,
बदल देता है जीवन का रंग।
पोता में रोता था जहां रक्त और पीर, चौकी
में फेरा जाता था मरते थे लाखों जीव। आ गया था जीवन से तंग, धन्य
है सत पुरुषों का संग।
और महात्मा ने क्या किया मिट्टी
कंकड़ साफ कर दिया तो अब की दसा क्या है।
झूला करूँ आरती ऊपर
गरुण करे गुनगाथ।
देते हैं मेरे प्रकाश में दरसन दीनानाथ।।
आशीषें अंधे और अपंग धन्य है सत्पुरषों का संग।
अब मैं आरती के ऊपर झूलता हूँ , मेरे
प्रकाश से लोगों को भगवान् का दरसन होता है। अंधे अपंग आशीष देते हैं। भक्त उमंग
में भरकर मुझे स्वीकार करते हैं। जिंदगी बदल दी केवल
महात्मा के सत्संग ने अब मैं आरती के ऊपर झूलता हूं और मेरे प्रकाश में भगवान के
दर्शन लोगों को होता है। अपंग अंधे आशीष देते हैं, भक्त उमंग
में भरकर मुझे स्वीकार करते हैं जिंदगी बदल दी केवल महात्मा के सत्संग ने।
सज्जनों यहां पर भी संत कृपा का
दर्शन करिए जिस पर किसी ने भी कृपा न की उस पर संत नारद की दया हो गयी। वह दया
अमोघ है उन्होंने जयंत से कहा तू स्वयं रामजी की शरण में चला जा। मंत्र और विधि
बतला दी मंत्र क्या बतलाया।
इधर उधर
क्यों भागता,
सुरपति पुत्र जयंत ।
सुख चाहे तो जा पकड़ रघुवर चरण तुरंत ॥
यह सुनते ही जयंत प्रभु श्री राम जी
के शरण में जाता है-
आतुर
सभय गहेसि पद जाई | त्राहि त्राहि दयाल रघुराई ॥
अतुलित बल अतुलित प्रभुताई। मैं मति मंदजानि नहिं पाई ॥
प्रभु श्रीराम के सींक धनुष सायक में
इतना सामर्थ्य है कि ब्रह्मा रूद्र भी उससे रक्षा नहीं कर सकते। इससे यहाँ जयंत ने
'अतुलित बल' कहा । 'काहू बैठन
कहा न ओही'। इससे अंतुलित प्रभुताई कही। अब परीक्षा हो चुकी
देख लिया। सभी देवताओं ने समझा पर मैं मति मंद होने के कारण न समझ सका। अपने किये
हुए कर्म का फल पा चुका, संसार में मुझे कहीं त्राण नहीं
मिला, हे प्रभो ! आप रक्षा कीजिये, मैं
आपकी शरण हूँ।
हे नाथ मैं तो आपका प्रभाव देखना चाह
रहा था सो वह प्रभाव मुझे दिखाई दे गया। भगवान श्री राम मुस्कुरा करके बोले की हे
जयंत जब तुम प्रभाव ही देखना चाहते थे वह देख भी लिए तो अब तुम यहां पर क्यों आए
हो? जयंत ने हाथ जोड़कर के कहा की नाथ पहली बार में आपका प्रभाव देखने आया था
वह मैंने देख भी लिया लेकिन अब दोबारा में आपका स्वभाव देखने के लिए आया हूं नाथ।
(अगर नाथ देखोगे अवगुण हमारे)
भगवान शंकर ने माता पार्वती से कहा
हे भवानी कृपालु श्रीराम जी ने अत्यंत आर्त वाणी सुनकर उसकी एक आँख फोड़ कर छोड़
दिया । ब्रह्मास्त्र अमोघ है खाली नहीं जा सकता, उसकी मर्यादा रखी ।
प्रभु
श्रीराम - अत्रि भेंट प्रसंग
यहाँ केवल पुष्प श्रृंगारही नहीं
नाना प्रकार के चरित्र किये, जिस भाँति श्रीराधा नाथ श्रीकृष्णजी का
बिहारस्थल 'वृन्दावन' है उसी भाँति
सीतानाथजी का बिहार स्थल प्रमोद बन प्रसिद्ध है। चरित्र में श्रृंगार रस के योग से
माधुर्यातिशय होने पर' श्रुति सुधा समाना' कहा, अलौकिक रति ही वेदों का सार है इसीसे श्रुति
सुधा समाना कहा। प्रभु ने निषादराज को यमुनातीर से विदा कर ही दिया था फिर वे,
भरत के साथ अयोध्यावासी भी पूरा समाज निवास स्थल देख ही गये हैं,
सभी दर्शन चाहते हैं, अयोध्या से बराबर आना
जाना लगा रहेगा, भीड़ बनी रहेगी अतः निवास स्थल बदल देने का
निश्चय किया, अब यहाँ से चलते वक्त सब मुनियों से विदा लेकर
प्रभु अत्रि के आश्रम पहुँचे तो सुनते ही मुनिजी बड़े हर्षित हुए। रोमांच हो गया,
दौड़ पड़े।
रामजी भी आतुरता के साथ चले आये, दण्डवत
करते ही मुनिजी ने हृदय से लगा लिया और प्रेमाश्रुओं से दोनों को स्नान कराया।
घनस्याम राम के दर्शन से आँखें शीतल हुई अत: सादर आश्रम में लिवा ले गये और वहाँ
उनकी पूजा, आसन, पाद्य, अर्घ्य आदि से पूजन कर प्रार्थना किये। हे भक्तवत्सल ! हे कृपालु, हे कोमल स्वभाव वाले, निष्काम पुरुषों को अपना परम
धाम देने वाले, मैं आपको नमस्कार करता हूँ तथा आपके चरणों को
भजता हूँ।
विनती
करि मुनि नाइ सिरु, कह कर जोरि बहोरि ।
चरन सरोरूह नाथ जनि, कबहु तजै मति भोरि ॥”
बिनती करके मुनि ने सिर नवाया और फिर
हाथ जोड़कर बोले- हे नाथ ! आपके चरण कमलों को मेरी बुद्धि कभी परित्याग न करे।
प्रभु जिसे बड़ा मान लेते हैं उसके वरदान माँगने पर 'एवमस्तु'
नहीं कहते, अभीष्ट प्रदान कर देते हैं,
फिर सीता अनुसुइया के पास गई-चरणों को पकड़कर उनसे मिलीं। ऋषि पत्नी
के मन में बड़ा सुख हुआ, उन्होंने सीताजी को आशीर्वाद देकर
अपने निकट बैठा लिया।
भगवती अनुसुइया चन्द्र की माता है, चन्द्र
से ही क्षत्रियों का प्रधान वंश चला है। सूर्यवंश और चन्द्रवंश में कन्या का
लेन-देन है इसलिये अनुसुइया जी कुलवृद्ध हैं। अत: उनकी प्रीति दान स्वीकार करना
पड़ा। सम्भवत: इसी भय से सीताजी फिर किसी ऋषी पत्नी से नहीं मिलीं। सज्जनों
अनुसुइया तापस वेष में जानकी जी को नहीं देख सकीं, अतः दिव्य
वसन- भूषण पहिनाये। जिसमें वनवास की अवधि भर काम देंवे। दिव्य वसन भूषण न कभी
पुराने होते थे न मैले होते थे और न विकृत होते थे। इस तरह अनुसुइया ने जानकी का
पूजन वस्त्रालंकारों से किया। पूजनोपरान्त ऋषीपत्नी ने संसार के हित कारण उपदेश
किया ।
एकै
धर्म एक व्रत नेमा | काय बचन मन पति पद प्रेमा ॥
हे देवी सीते तुम्हारा तो नाम लेकर
स्त्रियाँ पातिव्रत धर्म का निर्वाह करेंगी। तुम्हारे लिये क्या कहना तुम पति
प्राण हो। यह उपदेश संसार हित के लिये कहा है। यह सुनकर जानकी जी को परम सुख हुआ।
आदर के साथ उनके चरणों में सिर नवाया, तब मुनिजी से कृपानिधान
रामजी ने दूसरे बन में जाने की आज्ञा माँगी। उन्होंने कहा हे स्वामी मैं किस
प्रकार कहूँ कि आप चले जाइये, आप स्वामी होकर आज्ञा माँगते
हैं। अत: नहीं भी नहीं कर सकते। यद्यपि ज्ञानी मुनि धैर्य वाले हैं फिर भी प्रेम
के वश हो नेत्रों से जल बह चला और शरीर पुलकित हो उठा “लोचन जल बह पुलक
शरीरा" ऐसी दशा हो गयी । एकटक होकर मुख की शोभा देख रहे हैं ज्ञानी मुनि
अत्यंत प्रेम में मग्न हो जाते हैं।
निर्झर
प्रेम मगन मुनि ज्ञानी । कहि न जाइ सो दशा भवानी ॥
अत्यंत सुख का अनुभव हो रहा है अतः
कहते हैं कि जो जप,
तप मैंने किये वह क्या था? इस सुख के आगे कुछ
न था, जप योग और धर्म का बहुत अनुष्ठान करने से तब अनुपम
भक्ति की प्राप्ति होती है।