F राम कथा हिंदी में लिखी हुई-61 RAM KATHA NOTES PDF ME - bhagwat kathanak
राम कथा हिंदी में लिखी हुई-61 RAM KATHA NOTES PDF ME

bhagwat katha sikhe

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-61 RAM KATHA NOTES PDF ME

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-61 RAM KATHA NOTES PDF ME

 राम कथा हिंदी में लिखी हुई-61 RAM KATHA NOTES PDF ME

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-61 RAM KATHA NOTES PDF ME

विराध-वध प्रसंग

मुनिजी के चरणों में सिर नवाकर देवता, मनुष्य और मुनियों के स्वामी बन को चले रामजी आगे, छोटे भाई पीछे श्रेष्ठ मुनि का वेष बनाए हुए, दोनों के बीच में मां जानकी हैं। दर्शन करिये कैसी शोभा है बाबा जी कहते हैं-

उभय बीच श्री सोहइ कैसी । ब्रह्म जीव विच माया जैसी ॥

ब्रह्म का अनुसरण माया करती है और जीव माया का अनुसरण करता है। ब्रह्म जीव में भेद नहीं है माया बीच में आकर भेद बताये हुए है। प्रभु श्री राम ने विराध का वध किया है। उसने तुरंत ही सुंदर रूप प्राप्त किया प्रभु ने अपने धाम भेज दिया। यह बिराध पूर्व जन्म में तुंवरू गंधर्व था और कुबेरजी के शाप से राक्षस हुआ था और आध्यात्मिक रामायण के अनुसार विद्याधर था और दुर्वासा के शाप से राक्षस हुआ था। जहाँ विराध वध किया वहाँ आज भी 'विराध कुंड' है जो अत्रि आश्रम से दक्षिण की ओर है।

शरभंग देह त्याग प्रसंग

पुनि आये जहँ मुनि सरभंगा | सुंदर अनुज जानकी संगा ||

श्री राघव जी भैया लक्ष्मण माता जानकी के साथ सरभंग मुनि के आश्रम पर आए हैं। मुनि ने कहा हे रघुवीर हे शंकर के मानस के राजहंस सुनो- “तात रहेउँ बिरंचि के धामा " इससे जनाया कि प्रभु का दर्शन ब्रह्मलोक की प्राप्ति से अधिक है। ब्रह्मलोक की प्राप्ति से छाती शीतल नहीं होती, जीव का संताप, रामदर्शन रामप्राप्ति से ही मिलती है अन्यथा नहीं।

"देखे बिनु रघुनाथ पद जिय की जरनि न जाइ"

इससे जनाया कि मुनि की मृत्यु इच्छा के आधीन थी। मुनि ने प्रभु को बोलने भी न दिया आप ही बोलते चले गये। बड़ी जल्दी है प्रभु खड़े हैं, मुनि कहते हैं। भगवन इन्द्र मुझे लेने आये थे, मैंने सुना कि वन में रामजी आयेंगे। तब से दिन, रात आपकी राह देख रहा था, अब प्रभु को देखकर छाती ठंडी हुई।

हे नाथ ! मैं सब साधनों से हीन हूँ मुझे दीन सेवक जानकर आपने कृपा की है। हे देव यह कुछ मुझ पर आपका एहसान नहीं है क्योंकि यह तो आपकी प्रतिज्ञा है। दर्शन न देते तो प्रतिज्ञा भंग होती। हे राघव जी अब इस दीन के कल्याण के लिए यहां ठहरिए जब तक मैं अपने शरीर को छोड़कर आपके चरणों में विलीन ना हो जाऊं।

यहि विधि सर रचि मुनि सरभंगा। बैठे हृदय छोड़ि सब संगा ॥

सभी शुभ कर्मों को श्रीराम जी के अर्पण कर दिया और उसके बदले में भक्ति का वरदान माँग लिया। मुनिजी बड़े चतुर हैं वे अध्रुव को देकर ध्रुव पद को प्राप्त किया। और सब छोड़कर चिता पर बैठे क्योंकि विकारों के रहते भगवान हृदय में वास नहीं करते। भक्ति प्राप्ति से हृदय का मल धुल जाता है, भक्ति जल रूप है उसने हृदय के विकारों को धो डाला ।

प्रेम भगति जल बिनु रघुराई । अभ्यंतर मल कबहुँन जाई ॥

यह कहकर शरभंग जी ने योगाग्नि से शरीर को जला डाला और रामजी की कृपा से बैकुण्ठ चले गये।

(बोलिए भक्त वत्सल भगवान की जय)

फिर भगवान आगे बन में चले तो श्रेष्ठ मुनियों का बड़ा समूह उनके साथ लग गया। आगे हड्डियों का ढेर देख करके रघुनाथ जी ने मुनियों से पूछा कि इतने बड़े नर कंकाल के एकत्रित होने का क्या कारण है? मुनियों ने कहा- आप सर्वज्ञ हैं, सब कुछ जानते हैं अन्तर्यामी हैं आपसे कुछ छिपा नहीं है अतः यह घटना भी आपको अविदित नहीं है फिर क्यों पूछते हैं ? भाव यह कि पापियों के पाप कहने में भी दोष है, आप स्वामी हैं आपकी आज्ञा अपेल है अतः निवेदन करते हैं - राक्षस लोग इकट्ठे होकर उन्होंने सब मुनियों का यहाँ भोजन किया है, यह बात सुनते ही करुणाकर श्री आँखों में जल आ गया, राक्षसों के अपराध का पर्याप्त प्रमाण मिल गया, अतः उनके लिये दण्डविधान की प्रतिज्ञा हो रही है –

निशिचर हीन करहुँ महि, भुज उठाइपन कीन्ह।
सकल मुनिन्ह के आश्रमहिं, जाइ जाइ सुख दीन्ह।।

भुजा उठाकर प्रतिज्ञा करने की रीति है, मुनियों से कहा कि अब आप निस्संदेह और निडर रहें। राक्षस लोग विराध वध से सशंक हो गये थे, अतः एक भी राक्षस उधर हाथ न लगा। उन सबों ने उधर का रास्ता छोड़ दिया। इसके बाद सुतीक्षण प्रीति प्रसंग आरम्भ करते हैं।

सुतीक्षण - प्रीति प्रसंग –

मुनि अगस्त्य कर शिष्य सुजाना । नाम सुतीक्षण रति भगवाना ॥

मन क्रम बचन राम पद सेवक | सपनेहुँ आन भरोस न देवक ॥ "

अगस्त्य मुनि के बहुत से शिष्य थे उनमें सुतीक्षण जी बहुत सुजान उनकी रति भगवान में मन बचन कर्म तीनों से थी अन्य का भरोसा स्वप्न में भी नहीं करते थे । कानों से प्रभु का आगमन सुनते ही दौड़ पड़े इस बात को पक्की करने का अवसर कहाँ ? आतुर हो दौड़े, प्रेम पात्र के आगमन को सुनते ही प्रेमी के मनोरथों का अंत नहीं रह जाता “करत मनोरथ आतुर धावा" 'कभी सोचते हैं “हो अहिं सुफल आजु मम लोचन" इस आशा पर इतना आनंद बड़ा हुआ है आगे जाते-जाते रुक गये, लौटे तो फिर गति रुक गई।

अविरल प्रेम भगति मुनि पाई । प्रभु देखहिं तरु ओट लुकाई।।
अति सै प्रेम देख रघुवीरा । प्रकटे हृदय हरन भव भीरा ॥

मुनि ने प्रगाढ़ प्रेमा भक्ति प्राप्त कर ली। प्रभु वृक्ष की आड़ में छिपे हुए देख रहे हैं, भक्तों के ऐसे पागलपन की दशा प्रभु को बड़ी प्रिय लगती है। अतिशय प्रेम से ही प्रभु प्रकट होते हैं और उसी से भव - भय का नाश होता है। मुनिजी को प्रेम समाधि लग गई। ये बीच रास्ते में ही अचल होकर बैठ गये। जब रामजी ने देख लिया कि मुनिजी अत्यंत आनंद से पुलकित हैं तब निकट आये, मुनि को रामजी ने अनेक भाँति से जगाया पर मुनि नहीं जगे क्योंकि उन्हें प्रभु के ध्यान का सुख मिल रहा था। तब रामजी ने जो भूप रूप हृदय में था उसको अन्तर्ध्यान करके अपना ऐश्वर्य रूप चतुर्भुज दिखलाया । शंख चक्र आदि से युक्त हृदय में प्रकट कर दिया।

मुनिजी अब ऐसे व्याकुल होकर उठे जैसे मणि ले लेने से श्रेष्ठ सर्प व्याकुल होकर उठता है, अत: मुनि ने आँख खोल कर देखना चाहा कि किसने उसकी समाधि भंग की। तो आगे अपने परम प्रिय सुखधाम राम की मूर्ति पाते हैं मनोरथ से भी अधिक की प्राप्ति होती है। क्योंकि अनुज लक्ष्मण और जानकी जी भी साथ में हैं । बड़े भाग्यवान मुनियों में श्रेष्ठ सुतीक्षण प्रेम में मग्न होकर छड़ी की भाँति प्रभु के चरणों में गिरे, प्रभु ने विशाल भुजाओं से पकड़कर उठाकर गले से लगाये रहे।

तब मुनिजी धैर्य धारण करके बार-बार चरणों को पकड़कर प्रभु को अपने आश्रम में ले गये और अनेक प्रकार से पूजा की। प्रभु मेरी विनती सुनो, तुम्हारी अस्तुति किस विधि से करूँ आपकी महिमा अपार है मेरी बुद्धि थोरी है। राघव जी वरदान मांगने के लिए बोले तो सुतीक्ष्ण जी ने कहा हे रामजी कामना यह है कि छोटे भाई लक्ष्मण और सीताजी के सहित मेरे हृदय आकाश में चन्द्रमा की भाँति निवास कीजिये। सदा के लिये, सूर्य की भाँति अकेले नहीं जैसे चन्द्रमा बुध और रोहिणी के साथ बसते हैं उसी भाँति प्रभु आप भाई सहित तथा सीता सहित निवास करें।

एवमस्तु करि रमा निवासा । हरषि चले कुंभज रिषि पासा ॥

प्रभु परम प्रसन्न हैं अत: सुतीक्षण को स्वयं भी वर दिये और उनके माँगे हुए वर के लिये ‘एवमस्तु' ऐसा ही हो कह दिया और एक रूप से उनके हृदय में निवास किया, दूसरे रूप से चले ।

अगस्त्यजी वशिष्ठजी के भाई हैं अत: उनके दर्शन के लिये हर्षित होकर चले। गुरू के आश्रम में जाने का प्रभु का विचार जानकर सुतीक्षण ने कहा कि गुरू आश्रम को छोड़कर मुझे भी बहुत दिन यहाँ आये हो गये तब से गुरू का दर्शन नहीं किया। इतना सन्निकट होने पर भी गुरू का दर्शन न करना शास्त्र विरुद्ध है और इसकी अभिलाषा भी है अब आपके साथ गुरूजी के पास चलूँगा। सज्जनो सुतीक्ष्ण जी गुरु जी से मिलने के लिए श्री राम जानकी लक्ष्मण जी के साथ जा रहे हैं। गुरु दक्षिणा स्वरूप प्रभु का दर्शन गुरु जी को कराएंगे। प्रभु कृपानिधि हैं मुनिजी की चतुराई पर दोनों भाई खूब हँसे और सुतीक्षण को साथ ले लिया ।

प्रभु अगस्त्य सत्संग

बंधु माताओं रास्ते में अपनी अनुपम भक्ति का वर्णन करते हुए देवताओं के राजराजेश्वर श्रीराम जी अगस्त मुनि के आश्रम पर पहुंचे। सुतीक्षण जी तुरंत ही गुरु अगस्त जी के पास गए और दंडवत करके कहने लगे-

नाथ कौशलाधीश कुमारा। आये मिलन जगत आधारा।।
राम अनुज समेत बैदेही। निसि दिनु देव जपत हहु जेही।।

हे गुरुदेव अयोध्या के राजा दशरथ जी के कुमार प्रभु श्री रामचंद्र जी, भैया लक्ष्मण, माता जानकी के साथ आपसे मिलने के लिए आए हुए हैं। जिन्हें आप निस दिन जपा करते हैं।

बंधु माताओं इस विषय में यह कथा कही जाती है कि सुतीक्षणजी ने अपने गुरू अगस्त्य जी को गुरूदक्षिणा देकर गुरू ऋण से उद्धार हो जाने के विचार से गुरूजी से गुरूदक्षिणा माँगने का आग्रह किया। यद्यपि गुरूदेव जी ने बार-बार यही कहा कि इसका हठ न करो, मैं तुम्हें यों ही उऋण किये देता हूँ तो भी इन्होंने न माना। तब अगस्त्यजी ने कहा कि अच्छा नहीं मानते हो तो जाओ गुरू दक्षिणा में श्रीसीताराम जी को लाकर हमें दर्शन कराना और बिना उनके यहाँ न आना इसी कारण आज मुनि जय गुरुदेव से कह रहे हैं कि आपका दक्षिण मैं ले आया हूं दर्शन कीजिए। सज्जनों धन्य है वह शिष्य जो गुरु दक्षिणा में भगवान को ही लाकर के गुरु जी को दे दिया।

सुनत अगस्ति तुरत उठि धाए। हरि बिलोकि लोचन जल छाए।।

श्रीराम लक्ष्मण सीता सहित आने की बात सुनकर अगस्त्यजी तुरंत उठकर दौड़े, भगवान को देखते ही उनकी आँखों में जल भर आया। दोनों भाई मुनिजी के चरणों में गिरे ऋषि ने अत्यंत प्रेम से उठा अपने हृदय से लगा लिया । सज्जनो ये अगस्त्य जी बहुत ऊँचे दर्जे के ऋषी हैं इनके यहाँ साक्षात शंकर भगवान सत्संग को आते हैं, सनकादिक आते हैं –

एक बार त्रेता जुग मांही। शंभु गये कुंभज ऋषि पांही ॥”
(शंकरजी) और

तहाँ रहे सनकादि भवानी। जहँ घट संभव मुनि विज्ञानी ॥
(सनकादिक)

दण्डवत करते देखकर मुनि ने अत्यंत प्रीति से हृदय से लगा लिया, अपने संतप्त हृदय को शीतल किया । ज्ञानी मुनि ने आदरपूर्वक कुशल पूछकर उन्हें लाकर आसन पर बिठाया फिर बहुत प्रकार से पूजा करके बोले मेरे समान कोई भाग्यवान नहीं है जो आपके दर्शन का लाभ प्राप्त हुआ। जितने मुनि वहाँ थे वे सुख के बादल रामजी को देखकर हर्षित हुए । श्री रघुवीर ने कहा मुनिजी से- हे प्रभो! आपसे कोई छिपाव नहीं है मैं जिस कारण से आया हूँ आप सब जानते हैं विस्तृत से कहने की आवश्यकता नहीं है हे प्रभो अब मुझे ऐसा मंत्र दीजिये जिस प्रकार से मुनिद्रोहियों को मैं मारूँ। प्रभु की वाणी सुनकर मुनि मुस्कराये । कहने लगे आप सर्वज्ञ और शक्तिमान होकर मुझसे पूंछ रहे हैं। क्या मैं आपके पूछने योग्य हूँ? जो आप मुझसे पूछ रहे हैं। हे पाप नाशक तुम्हारे भजन के प्रभाव से तुम्हारी कुछ महिमा जानता हूँ

तुम्हरे भजन प्रभाव अघारी । जानहुँ महिमा कछुक तुम्हारी ॥
ऊमरि तरु विशाल तब माया । फल ब्रह्माण्ड अनेक निकाया ॥

मुनि ने प्रभु की माया की उपमा गूलर के वृक्ष से दी। गूलर के वृक्ष में तमाम फलों के गुच्छे लगे रहते हैं उसी भाँति माया वृक्ष में ब्रह्माण्ड निकाय लगे हुए हैं—

रोम रोम प्रति लागे कोटि कोटि ब्रह्माण्ड ॥

जिस भाँति गूलर के फल के भीतर जन्तु बसते हैं, उसी भाँति ब्रह्माण्ड के भीतर चराचर जीव बसते हैं। न उन जन्तुओं को गूलर के फल के बाहर का कोई वृतांत ज्ञात है और न चराचर जीवों को अपने ब्रह्मांड के बाहर का कुछ पता है। मैं आपके भजन के प्रभाव से इतना ही जान पाया कि यही ब्रह्माण्ड सब कुछ नहीं है। ऐसे-ऐसे अनंत कोटि ब्रह्माण्ड माया वृक्ष में गूलर के फलों के गुच्छों की भाँति गुंथे हुए हैं। फिर भी आप सब लोगों के स्वामी होकर भी मुझसे मनुष्य की भाँति पूछ रहे हैं। हे नाथ! मैं तो यह वर माँगता हूँ कि मेरे हृदय में सीता जी तथा छोटे भाई लक्ष्मण सहित सदा निवास कीजिये।

 राम कथा हिंदी में लिखी हुई-61 RAM KATHA NOTES PDF ME

Ads Atas Artikel

Ads Center 1

Ads Center 2

Ads Center 3