F राम कथा हिंदी में लिखी हुई-62 shri ram katha ke notes - bhagwat kathanak
राम कथा हिंदी में लिखी हुई-62 shri ram katha ke notes

bhagwat katha sikhe

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-62 shri ram katha ke notes

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-62 shri ram katha ke notes

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राम कथा हिंदी में लिखी हुई-62 shri ram katha ke notes

तब लगि हृदय बसत खलनाना । लोभ मोह मत्सर मद माना ॥

अगस्त मुनि जी ने देखा कि प्रभु श्री राम, भैया लक्ष्मण, माता सीता के साथ वन में निवास करने के लिए आए हैं की राक्षसों का दुष्टों का संघार करना है। इसीलिए उन्होंने निवेदन किया प्रभु आप मेरे हृदय भवन पर निवास कीजिए, यहां भी जो लोभ, मोह, मद, मात्सर्य, मान रूपी शत्रु असुर हैं इनको भी नष्ट कीजिए। इसके बाद प्रभु श्री राम जी के ठहरने के लिए स्थान बतलाते हैं। नाथ- दण्डकवन में एक स्थान जिसे पंचवटी कहते हैं वह परम मनोहर है आप वहीं निवास कीजिए।

मुनि की आज्ञा पाकर श्री रामचंद्र जी वहां से चल दिए और शीघ्र ही पंचवटी के निकट पहुंच गए। वहां गीधराज जटायु से भेंट हुई। महाराज दशरथ से उनकी मैत्री थी, इस भेंट से वह प्रीति और बढ़ी। एक बार दशरथजी देवताओं की मदद हेतु रथ लेकर उनकी सहायता करने गये तब रथ जब आकाश में था तो शनि की दृष्टि रथ पर पड़ने से वह भस्म होकर, दशरथ उससे नीचे गिरने लगे तब इन्हीं जटायु ने अपने पंखों पर गिरते हुए दशरथ को लेकर उनको बचाया था । अतः तब से दशरथ की मैत्री इनसे हुई।

प्रभु श्री रामचंद्र जी गोदावरी जी के समीप पर्णकुटी पर रहने लगे। गौतम ऋषी ब्रह्मगिरि पर तपस्या कर रहे थे, भगवान शंकर को प्रसन्न कर वर प्राप्त किया। श्रीशंकर जी ने ब्रह्मगिरि पर अपनी जटाएँ पटक दीं जिससे गंगाजी वहाँ गोदावरी रूप में प्रकट हो गई । ब्रह्मगिरि त्रम्बकेश्वर के पास है। जटायु ने रामजी से कहा कि जिस समय आप दोनों भाई आखेट के लिये जायेंगे उस समय मैं जानकी की रक्षा करूँगा । एक सहायक मिलने के नाते प्रीति बढ़ी, पुण्य नदी गोदावरी के निकट पर्णकुटी बनाकर ठहर गये ।

सज्जनो-मानस में केवल साढ़े तीन पक्षियों की चर्चा है, नाम तो अनेक पक्षियों के आये हैं किंतु जिनकी कथा है ऐसे केवल साढ़े तीन पक्षी हैं।
(१) गरुड़जी मानस के श्रोता हैं मुख्य श्रोताओं में से एक ।
(२) काकभुशुण्डिजी मानस वक्ता हैं इन श्रोता वक्ता के अलावा । 

(३) गीधराज जटायु का वर्णन है और आधा पक्षी है‘जयन्त ' है तो वह देवराज इन्द्र का पुत्र किंतु काक बनकर श्रीराम जी की परीक्षा करने आया ।

इनमें जटायु और गरुड़ परस्पर सम्बन्ध रखते हैं और इनका सम्बन्ध भी अद्भुत है जटायु, गरुड़ के भ्रातृ पुत्र हैं। अरुण के औरस श्येनी के द्वारा सम्पाती और जटायु की उत्पत्ति हुई। सूर्य सारथी अरुण बड़े सगे भाई हैं गरुड़ के। इस प्रकार दैहिक रूप से गीधराज जटायु गरुड़ के भतीजे हैं। लेकिन भक्ति के क्षेत्र में जटायु महाराज दशरथ के मित्र होने से श्रीराम पर वात्सल्य प्रभाव के कारण श्रीराम ने भी उनको पिता का सम्मान दिया और गरुण भगवान नारायण के वाहन हैं वे दास्य भाव के अनुसार रहते हैं । जटायु और गरुण भक्त के दो रूप हैं एक वात्सल्य दूसरा दास्य।

जब ते राम कीन्ह तहँ वासा । सुखी भये मुनि बीती त्रासा ॥

जब से प्रभु श्री राम जी पंचवटी पर विराजे पशु पक्षी सब आनन्दित होकर रहने लगे। दण्डकारण्य से बाहर रहने वाले भी त्रस्त थे अब तो सभी मुनि निर्भय आनंद से बन में घूमने लगे।

लक्ष्मणोपदेश - रामजी का उपदेश लक्ष्मण को

एक बार प्रभु राम दण्डक बन में सुखपूर्वक बैठे थे, लक्ष्मणजी ने उनके चरणों में प्रणाम करके उनसे पूछा हे नाथ-

ज्ञान, योग और भक्ति ये, साधन तीन प्रधान ।
श्रेष्ठ कौन इनमें कहो, रघुवर कृपानिधान ॥

जिससे सब त्याग करके चरण रज की सेवा करूँ, श्रीलक्ष्मणजी का बड़ा प्रेम श्रीराम चरणों में है। श्रीराम ने कहा-

थोरेहुँ मँह सब कहहुँ बुझाई । सुनहु तात मन मति चित लाई ॥
मैं और मोर तोर तैं माया । जेहि वश कीन्हे जीव निकाया ॥

हे तात! मैं थोड़े में ही सब समझाकर कहता हूँ। तुम बुद्धि, मन और चित्त लगाकर सुनो। मैं-मेरा, तैं, तेरा यही माया है जिसने जीव समूह को अपने वश में कर रखा है। अत: भगवान प्रथम माया विषयक प्रश्न का उत्तर देते हैं क्योंकि-

भूमौ पतित पादानां भूमि देव परं बलं

जो जमीन पर गिरा है वह उसी के सहारे टेककर उठैगा। सब लोग माया में ही पड़े हैं सो पहले माया को ही समझाना उचित समझा। मैं और मोर से अपने सम्बन्ध का बोध होता है और यही सब अनर्थों की जड़ है। अनात्मा में आत्मबुद्धि मैं और जो अपना नहीं है उसे अपना मानना = मोर ये ही दोनों संसार वृक्ष के उत्पत्ति के बीज हैं।

जिस भाँति सीप में रजत तीन काल में नहीं है पर प्रत्यक्ष भाषता है यह भाषना नित्य है पर यह मिटाये नहीं मिटता। इसी भाँति माया की स्थिति है वह तीन काल में नहीं है पर संसार भ्रम किसी के हटाये नहीं हटता। ज्ञान वह है जहां मान आदि एक भी दोष नहीं है और जो सब में समान रूप से ब्रह्म को देखा है। हे लक्ष्मण उसी को परम वैराग्यवान कहना चाहिए जो सारी सिद्धियों को और तीनों गुणों को तिनके के समान त्याग चुका है। और-

मम गुन गावत पुलक सरीरा। गदगद गिरा नयन बह नीरा।।

जो मेरा गुण गाते समय जिसका शरीर पुलकित हो जाए वाणी गदगद हो जाए और नेत्रों से प्रेम आश्रम चलने लगे मैं सदा उसके वश में रहता हूं।

सकृदेव प्रपन्नायतवास्मीति चयाचते ।
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाभ्येतद् व्रतं मम ॥
"

यह मेरा व्रत है कि जो एक बार भी शरण में आकर कह देता है "प्रभो मैं तुम्हारा हूँ” उसे मैं सम्पूर्ण प्राणियों से अभय कर देता हूँ।

सम्मुख होइजीव मोहि जबहीं । जन्म कोटि अघ नासहुँ तबही ॥

जब ब्राह्मणों के चरणों में सच्चा प्रेम होगा और उनके द्वारा निर्दिष्ट वर्णाश्रम धर्म के अनुसार शास्त्रीय आचरणों का पालन होगा तब इसका फल यह होगा कि चित्त शुद्ध हो जायेगा। चित्त शुद्ध होने से विषयों से वैराग्य हो जायेगा। तब 'भगवद् भक्ति' में प्रेम उत्पन्न होता है। हम शरीर का सुख, संपति एवं परिवार की सुविधा, समाज में सम्मान, स्वास्थ्य आदि सांसारिक बातें भी चाहते रहे और भगवान में प्रेम भी हो जाय, मन भी लगने लगे, यह तो होने से रहा, भगवान के धर्म-भागवत धर्म में प्रेमं तो तभी उत्पन्न होगा जबकि विषयों से वैराग्य हो जायगा।

वैराग्य का अर्थ बाबाजी बनना नहीं है, वैराग्य का अर्थ है उन सांसारिक पदार्थों में आसक्ति न होना। सांसारिक स्थिति प्रारब्ध वस जैसी बने, उसे ही भगवान का मंगल विधान मानकर संतुष्ट रहना, यही वैराग्य है तभी भजन में प्रेम उत्पन्न होगा। तत्पश्चात् श्रवणादि नवधा भक्ति पुष्ट होगी। भगवान नारदजी से कहते हैं –

नाहं वसामि वैकुण्ठे योगीनां हृदये न च ।
मदभक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारदः ॥

भगवान का कथन है कि मैं उन भक्तों के हृदय पर सदैव वास करता हूं जो मेरा गुणगान करते हैं।

भगति जोग सुनि अति सुख पावा । लछिमन प्रभु चरनहिं सिर नावा ॥

भक्ति योग सुनकर लक्ष्मणजी को बड़ा सुख हुआ। उन्होंने प्रभु के चरणों में मस्तक झुका दिया । मस्तक झुकाने का तात्पर्य हे नाथ! मैं तो सदाँ से तन, मन से इन चरणों में अर्पित आपका दास हूँ।

मोरे सबहि एक तुम स्वामी । दीन बंधु उर अन्तर्यामी ॥

बंधु माताओं मनुष्यत्व क्षमा और सहनशीलता में है। बिना क्षमा एवं सहनशीलता के मनुष्य कुत्ता - व्याघ्र की भांति होता है । जो क्षमावान - शीलवान है वही मनुष्य है और श्रेष्ठ है।

शीलवन्त सब से बड़ा, सब रत्नों की खानि।
तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आनि।।

प्रभु श्री रामचंद्र जी इस प्रकार वैराग्य, ज्ञान और गुण नीति का वर्णन श्री लक्ष्मण जी से कर रहे हैं। कुछ दिन बीतने पर-

सूपनखा रावण की बहिनी । दुष्ट हृदय दारुन जसि अहिनी ॥

पंचवटी सो गई एक बारा । देखि विकल भई जुगल कुमारा ॥

सूर्पनखा रावण की एक बहन थी, जो नागिन के समान भयानक और दुष्ट हृदय की थी। इसके नख सूप के समान थे अतः सूर्पणखा नाम पड़ा। वह एक बार पंचवटी में गई और दोनों राजकुमारों को देखकर काम से पीड़ित हो गई। यहाँ दुष्ट हृदय और दारुण के लिये नागिन की उपमा बड़ी उत्तम है वह भयंकर होती है, पर साथ ही ऐसी दारुण हृदया है कि अपने ही अंडों-बच्चों को खा जाती है। वैसे ही यह सुर्पणखा सारे निशाचर वंश के नाश का कारण बनी।

एक बार पंचवटी पहुँच गई, मुनि अगस्त्यजी के मंत्र के साफल्य का समय आ पहुँचा। श्रीराम लक्ष्मण के पद चिन्हों की शोभा पर मोहित हो अन्वेषण करती हुई श्रीराम-लक्ष्मण के पास पहुँच गई। वह सुन्दर रूप धारण करके प्रभु श्रीरामजी के पास जाकर बहुत मुस्कराकर बचन बोली-

तुम्ह सम पुरुष न मो सम नारी। यह सँजोग बिधि रचा बिचारी।।

मेरे लायक पुरुष संसार में तथा तीनों लोकों में नहीं है मैंने खोज कर देख लिया इसलिये अब तक कुँवारी ही रह गयी।  

तुम्हें देख कुछ मन आकर्षित हुआ है। सूर्पणखा के वचन सुनकर प्रभु श्री राम जी-

सीतहिं चितइ कही प्रभु बाता। अहइ कुमार मोर लघु भ्राता ॥

बंधु माताओं यहाँ स्पष्ट दोनों में नर्म विवाद है। सूपर्णखा अपने को कुँवारी बता रही है। श्रीराम जी ने इस नर्म विवाद में भी मिथ्या को स्थान न मिले इसलिये लक्ष्मण को 'कुँवार' न कहकर 'कुमार' कहा है। क्योंकि राजा के बेटे “कुमार" कहलाते हैं। चाहे विवाह हुआ हो चाहे न हुआ हो । श्रीरामजी का लक्ष्मण को 'कुमार' कहना परिहास में भी सत्यकी रक्षा का अद्भुत उदाहरण है।

दूसरा अर्थ यह भी है तुम “अहिनी " हो वह “अहिकुमार" "अहीश" है । तुम्हारा जोड़ उसी कुमार से ठीक रहेगा। सूपर्णखा राक्षसी थी परिहास नहीं समझ सकी वह तो दोनों मूर्तियों पर आसक्त थी बड़े नहीं तो छोटे ही सही। अतः वह लक्ष्मण जी के पास तुरंत पहुँच गयी, और सब बात कही।

लक्ष्मण जी ने कहा- जिनके पास से तुम लौट आयी हो मैं उनका दास हूं। तुम सुंदरी रानी होने लायक हो। दासी बनना क्यों चाहती हो । मैं तो पराधीन हूँ और “पराधीन सपनेहु सुख नाहीं" जिसे सपने में भी सुख नहीं वह तुम्हें सुख कहाँ से देगा? वह फिर लौटकर रामजी के पास आई, प्रभु ने फिर उसे लक्ष्मण जी के पास भेज दिया, अतः लक्ष्मण ने उससे कहा-

तुम्हें वही बरेगा जिसने लज्जा को तृण के समान तोड़कर फेंक दिया हो। इस तरह कोरा जबाब लक्ष्मणजी की तरफ से मिल गया। वह क्रोधित होकर माता सीता को खाने मारने को दौड़ी लक्ष्मण जी ने उसके नाक कान काट लिए। बिना नाक कान के वह विलाप करते हुए खरदूषण को लिबाकर के आई। 

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