राम कथा हिंदी में लिखी हुई-63 ram katha notes hindi
खर दूषण यह जब आए तो भगवान श्री राम
में लक्ष्मण जी से कहा कि सीता जी को लेकर भीतर गुफा में जाइए। क्या राम जी को भय है कि खर दूषण सीता जी व
लक्ष्मण जी को मार देंगे?
नहीं राम जी जयंत की घटना के बाद सावधान हो गए हैं। कि यह जगत जननी
हैं, जैसे उसे दिन जयंत को नहीं मारने दीं, कहीं उनकी ममता यहां भी न जग जाए और कहें की प्रभु खरदूषण भी मेरे संतान
है इनको मारिए मत क्षमा कर दीजिए। तो इनको छोड़ना पड़ेगा। इसलिए भगवान ने कहा इनको
यहां से अंदर गुफा में ले जाइए। जैसे ही मैया भीतर गई, मायापति
ने ऐसी माया चलाई के सारे राक्षस एक दूसरे को राम समझ करके एक दूसरे पर ही प्रहार
करने लगे और कुछ ही देर में मर गए। इस प्रकार भगवान ने क्षण भर में उन राक्षसों का
संघार कर दिया।
सूपर्णखा ने जाकर क्रोध करके रावण को
प्रेरित किया कि देश और कोष की सुरति बिसार कर तू शराब पीता है और दिन-रात सोता है
तेरे सिर पर शत्रु है और तुझे खबर भी नहीं है। शत्रु, अग्नि,
रोग, पाप, स्वामी मालिक,
और सर्प को छोटा करके नहीं गिनना चाहिए, ऐसा
कहकर अनेक प्रकार से विलाप करके रोने लगी और सभा मध्य व्याकुल हो गिर पड़ी और बहुत
प्रकार से रोकर कहा कि दशकंधर तेरे जीते जी मेरी क्या ऐसी दशा होनी थी ।
सुनते ही सभासदों ने उसे बाँह पकड़कर
उठाया,
समझाया और रावण ने पूछा तेरा नाक-कान किसने काटा ? वह बोली अयोध्या के राजा दशरथ के बेटे जो कि पुरषों में सिंह हैं। बन में
अहेर खेलने आये हैं, उन दोनों भाइयों के बल प्रताप का कोई
तोल नहीं है शोभा के धाम राम उनका नाम है उनके साथ एक स्त्री विधाता ने ऐसी रूपवती
बनाया है कि अनेकों रति भी उस पर निछाबर हैं उन्हीं के छोटे भाई ने मेरे नाक-कान
काट डाले, मैं तेरी बहिन हूँ यह सुनकर वे मुझसे हँसी करने
लगे । मेरी पुकार पर खर दूषन सेना सहित सहायता करने आये पर उस अकेले राम ने क्षणभर
में खर दूषण जैसे राक्षस व सारी सेना को मार डाला। खरदूषण का वध सुनकर रावण के
सारे अंग जल उठे।
उसने सूपर्णखा को बहुत प्रकार से समझाकर अपने बल का बखान किया,
किंतु अत्यंत चिंतावश होकर अपने महल में गया, उसे
रातभर नींद नहीं आई। विचार करने लगा, देवता, मनुष्य, असुर नाग और पक्षियों में कोई ऐसा नहीं है
जो मेरे सेवक की भी बहादुरी का हो।
खर
दूषन मोहि सम बलवंता। तिन्हहि को मारइ बिनु भगवंता।।
खर दूषन तो मेरे समान ही बलवान थे।
उन्हें भगवान के सिवाय कोई नहीं मार सकता । देवताओं को आनंद देने वाले और पृथ्वी
का भार हरण करने वाले भगवान ने यदि अवतार ले लिया है तो मैं जाकर उनसे हठपूर्वक
बैर करूँगा और प्रभु के वाण से प्राण छोड़ कर भव सागर तर जाऊँगा ।
होइहि
भजनु न तामस देहा। मन क्रम बचन मंत्र दृढ़ एहा।।
इस तामस शरीर से भजन संभव नहीं अतः
मन, बचन, कार्य से दृढ़ निश्चय है। यदि वे मनुष्य रूप
में राजकुमार होंगे तो उन दोनों को रण में जीत कर स्त्री को हर लूँगा। ऐसा विचार
कर जहाँ समुद्र तट पर मारीच रहता था, रथ पर चढ़कर अकेला ही
वहाँ गया ।
सज्जनो सब कहते हैं रावण ने मां सीता
का हरण किया। तो बंधु माताओं यह विचार करने वाली बात है कि जिन भगवान शंकर के धनुष
को मेरी मैया जानकी बाएं हाथ से सहज में ही उठा ली थी और रावण तो वह धनुष को हिला
भी नहीं पाया था। तो क्या उसके अंदर समर्थ थी कि वह सीता जी को उठा लेता? अरे
रावण की औकात नहीं थी की माता जानकी को वह उठा सके। बंधु मातओं यह अरण्यकांड का
प्रसंग है भैया लक्ष्मण नहीं थे तब प्रभु श्री राम ने जानकी जी से कहा-
सुनहुँ
प्रियाव्रत रुचि सुखीला । मैं कछु करब ललितन नर लीला ॥
तुम्ह
पावक महुँ करहु निवासा | जब लगि करौ निशाचर नासा ॥
हे सीते जब तक मैं धरती से निशाचारों
का वध नहीं कर लेता आप अग्नि में जाकर निवास करिये। पावक मेरी विभूति है "वसूनां पावकश्चास्मि" तथा "अग्नि देवानामवसो विष्णुः” अतः उसमें निवास से सर्वथा
मेरा वियोग न होगा उसमें निवास करो अथवा अग्नि मेरे पिता भी हैं क्योंकि अग्नि के
दिये हुए चरू से मेरा जन्म है और स्त्री अपने पिता या पति के घर शुद्ध रहती है।
अग्नि सीताजी के भी पिता हैं जब रावण ने ऋषियों से कर माँगा तब उन्होंने अपना
रुधिर घट में देकर भेजा कि इसके द्वारा तेरी मृत्यु होगी। ऋषियों का कोप ही अग्नि
है उससे ही सीता की उत्पत्ति है, और बिना पावक में निवास किये प्रतिबिम्ब
की उत्पत्ति न होगी। निशाचरों के नाश के समय तक तुम्हारे प्रतिबिम्ब से काम लिया
जायेगा, बाद में तुम अग्नि से प्रकट हो जाना, और किसी तत्व में रखने से तुम्हारा तेज न छिपेगा।
यह ललित नर लीला इसमें ऐश्वर्य का लेश भी नहीं, तुम भी ऐश्वर्य न राखो कहीं रावण के दुःख देने पर शाप न दे देना कि वह
भस्म हो जाय तो हमारी प्रतिज्ञा ही चली जायेगी। रामजी ने ज्योंही समझा कर सब कहा
त्यों ही सीताजी प्रभु के चरणों को हृदय में रख कर अग्नि में समा गईं।
इन चरणों से गंगा निकली है -
“नख निर्गता सुरवंदिता त्रैलोक्य पावन
सुरसरी "
अतएव इनके धारण करने से मार्ग में शीतलता बनी रहेगी। सज्जनों
सीता जी ने अपनी ही छाया मूर्ति वहां रख दी जो उनके जैसे ही सील स्वभाव और रूप
वाली तथा वैसी ही विनम्र थी।भगवान ने जो कुछ लीला रची इस रहस्य को लक्ष्मण जी ने
भी नहीं जाना।
स्वार्थ परायण और नीच रावण जहाँ
मारीच था वहाँ जाकर उसको सिर नवाया। यह प्रणाम मारीच के प्राण लेने को है। रावण ने
स्वार्थवस होकर अपनी मर्यादा छोड़ दी माथा नवाया, मारीच ने अपनी
मर्यादा रखने के लिये पूजा की। आदर पूर्वक बात पूछी कि हे तात ! आपका मन किस कारण
इतना व्यग्र है और आप अत्यंत अकेले क्यों आये हैं ? रावण
बोला-
पंचवटी चल
तुम बनो,
स्वर्ण कपट मृग मित्र।
जिससे मैं रिपु की हरूँ नारी परम विचित्र।।
मारीच बोला-
दसकंधर
ठीक विचार नहीं वह राम चराचर नायक हैं ।
शत योजन पार गिरा जिनके अति तीव्र भयंकर शायक हैं।
शिव शंकर सेवा करें जिनकी, सुरराज से सैकड़ों
पायक है।
सच मानिये ब्रह्म परात्पर से नहीं आप बिरोध के लायक हैं।
क्या ऐसा बली मनुष्य हो सकता है, ये
चारों अमानुष कर्म थे-
(१) ताड़का बध से मुनि विश्वामित्र ने चीन्हा
(२) सुवाहु वध से देव एवं मुनियों ने चीन्हा,
(३) खर दूषण वध से सूर्पणखा ने चीन्हा और
(४) धनुष भंग से तुलसी ने चीन्हा ॥
अतः अपने कुल की कुशल विचार कर आप
लौट जाइये,
यह सुनकर रावण जल उठा, और गालियाँ देते हुए
मारीच से बोला-
उठ उठ
जल्दी चल वहाँ,
देर न कर मारीच ।
वरना सुरपुर जायेगा, चन्द्रहास से नीच ॥"
तब मारीच ने दोनों प्रकार से अपना
मरण देखा तब उसने रघुनाथ जी की शरण ही सोची क्योंकि उत्तर देने से यह अभागा मुझे
मार डालेगा। फिर रघुनाथजी के बाण लगने से ही क्यों न मरूँ? हृदय
में ऐसा समझकर रावण के साथ चल दिया। जब रावण उस बन के निकट पहुँचा तब मारीच कपट
मृग बन गया, वह अत्यंत ही विचित्र था ।
सीता हरण
प्रसंग
जब सीताजी ने उस परम सुंदर हिरण को
देखा जिसके अंग अंग की छटा मनोहर थी, वे बोली हे देव! कृपालु
सुनिये वह स्वर्ण मृग मुझे लाकर के दीजिए वह बहुत सुंदर है। तब रघुनाथ जी मारीच के
कपट मृग बनने का कारण जानते हुए सुरों का कार्य बनाने हेतु हर्षित होकर कमर में
फेंटा बाँधकर हाथ में धनुषबाण ले लक्ष्मण को समझाया कि वन में बहुत से राक्षस
फिरते हैं तुम बुद्धि और विवेक द्वारा बल और समय का विचार करके सीता की रखवाली
करना ।
प्रभु को देखकर मृग भाग चला, रामचन्द्रजी
भी धनुष चढ़ाकर उसके पीछे दौड़े, मृग बार-बार फिर-फिर कर
प्रभु को देखता है और भागता जाता है जिसको वेद और शिव नहीं पाते वे मृग को नहीं
पकड़ पाते, यह माधुर्य लीला की शोभा है। वह छल करते प्रभु को
दूर ले गया, तब राम ने ताक कर कठिन वाण मारा जिससे वह घोर
भयंकर पहले लक्ष्मणजी का नाम लेकर पुकारा मन में रामजी का स्मरण किया। प्राण
छोड़ते समय अपनी राक्षसी देह प्रकट की सुजान प्रभु ने अंतःकरण के प्रेम को पहचान
कर उसको मुनियों सी दुर्लभ गति दी।
बंधु माताओं यहां पर ध्यान देने वाली
बात यह है कि मारीच ने तन'
से छल किया माया मृग बना। 'बचन' से छल किया कि लक्ष्मणका नाम लेकर पुकारा। केवल मन से शुद्ध है। और प्रभु
का कथन है-
निर्मल
मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा।।
जब तक मन शुद्ध नहीं होगा, तब
तक मुक्ति नहीं मिल सकती है। प्रभु ने आज मारीच का भी उद्धार किया।
दुष्ट मारीच को मारकर राम तुरंत लौट पड़े। इधर सीता ने जब दुःख भरी
वाणी सुनी तो वे लक्ष्मण से कहने लगीं- तुम शीघ्र जाओ, तुम्हारे
भाई संकट में हैं। लक्ष्मण ने हँसकर कहा माता सुनो जिनके भौंह के इशारे मात्र से
सारी सृष्टि प्रलय हुआ करती है वे राम क्या कभी स्वप्न में भी संकट में पड़ सकते
हैं। यह सुन सीताजी मरम बचन कहने लगीं तब भगवान की प्रेरणा से लक्ष्मणजी का मन भी
चंचल हो गया। वे भी सीता के बन और दिशाओं आदि के देवताओं को सौंप कर वहाँ चले।
अच्छा माता
जा रहा,
जहँ रघुकुल भूषण वीर ।
खींच चतुर्दिक आपके, रक्षा पंक्ति लकीर ॥
"
तुम इसे लांघकर बाहर मत जाना । सज्जनों
इधर रावण आया है माता जानकी का हरण करने के लिए कई लोग कहते हैं कि रावण माता सीता
से विवाह करना चाहता था। यह विचार जिनका है यह उनकी घोर अज्ञानता है, आप
पढ़िएगा मानस जी को रावण सीता मैया का हरण करने से पहले उनको प्रणाम किया है मन ही
मन और कहता है मां मैं चाहूं तो इसी वन में राम जी के साथ युद्ध करके मुक्त हो
सकता हूं, लेकिन मैं तो मुक्त हो जाऊंगा और वहां जो लंका में
मेरे और भी परिवार हैं वह कैसे मुक्त हो पाएगें? उनको मुक्ति
दिलाने के लिए राम जी को वहां जाना पड़ेगा और जब तक आप नहीं चलेंगी तो राम जी वहां
पर नहीं जाएंगे। यह मन मे रावण विचार कर रहा है और बाहर की उसकी प्रतिक्रिया कुछ
और है। रावण यति के भेष में श्री सीता जी के समीप आया और उनको हर कर रथ में बिठाकर
ले जाने लगा। सीताजी विविध प्रकार से विलाप करने लगीं।
अहो
दीनबन्धो अहो प्राण प्यारे । अहो पुत्र लक्ष्मण कहाँ हो हमारे ॥
मुझे दुष्ट रावण लिये जा रहा है। महा दुःख दारुण दिये जा रहा है |
गीधराज जटायु ने सीता की
दुःखभरी वाणी सुनकर समझ गये कि नीच राक्षस इसको लिये जा रहा है। वह बोला- हे
पुत्री सीते! भय मत कर मैं इस राक्षस का नाश कर दूँगा । अत: वह क्रोध में भरकर
दौड़ा, और बोला
अरे दुष्ट खड़ा क्यों नहीं होता ? तू राम लक्ष्मण के दूर
होने से निर्भय जा रहा है, तू जानकी को छोड़ कुशलपूर्वक अपने
ज घर जा। नहीं तो राम रोष अति घोर पावक है किसी को भी नहीं छोड़ेगा ।