F राम कथा हिंदी में लिखी हुई-65 ram kathanak notes - bhagwat kathanak
राम कथा हिंदी में लिखी हुई-65 ram kathanak notes

bhagwat katha sikhe

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-65 ram kathanak notes

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-65 ram kathanak notes

 राम कथा हिंदी में लिखी हुई-65 ram kathanak notes 

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-65 ram kathanak notes

माता शबरी ने कहा कि हे रघुनाथ जी आप पंपा नामक सरोवर को जाइए वहां आपकी सुग्रीव से मित्रता होगी वही आपको जानकी का पता बताएंगे। इस प्रकार सब कथा कहकर भगवान के मुख दर्शन कर हृदय में उनके चरण कमलों को धारण कर लिया और योगाग्नि से देह को त्याग कर वह उस दुर्लभ पद में लीन हो गयी जहाँ से फिर लौटना नहीं पड़ता।

बंधु माताओं भक्ति और विश्वास अगर हमारे अंदर है तो एक दिन परमात्मा की कृपा हम पर जरूर होगी। एक बहुत बढ़िया प्रसंग आता है- एक व्यक्ति वह चने बेचने का काम करते थे भगवान को बहुत मानते थे , चने बेंच कर अपना जीवन का निर्वाह करते थे, घर गृहस्ती चलाते थे | एक दिन बाजार में गये चने बेचने के लिए तो एक बाबा जी आए | बाबा जी आए तो उन पर कुछ और तो था नहीं खोटे सिक्के ही थे, भगत जी को दे दिए भगत जी ने दो रूप में देखा। एक तो भगवान के भक्त हैं, दूसरा चलो ठीक है अतिथि देवो भव ,तो उन्होंने खोटे सिक्के के बदले उनको चने दे दिए |

पूरी बाजार में जहां खोटा सिक्का नहीं चल रहा था वहां भगत जी की दुकान पर वह चल गया। अब तो संत जी कहीं जाए ना और जब भूख लगे तो वह खोटा सिक्का लें और उस व्यक्ति के यहां चले आए और वह भी बिना सोचे चने उनको दे दे खोटा सिक्का ले ले। मार्केट में यह बात फैल गई कि भाई देखो वह भगत ऐसा है, वह खोटे सिक्के चला रहा है तो ऐसे कैसे काम चलेगा | सब उसकी निंदा करने लगे धीरे-धीरे उनका जितना भी जमा पूंजी थी सब समाप्त हो गई | एक दिन माला करके उठे भगत जी ने, अपनी पत्नी से पूंछा चने तलकर तैयार हो गए? वह बोली कहां तैयार हो गए महाराज, ना नमक है , ना मिर्च है , ना तेल है कुछ नहीं है |

बाजार गई थी तो किसी ने उधार नहीं दिया यह बोलते बोलते वह उदास हो गयी। भगत जी बोले इसमें उदास होने वाली क्या बात है जो भगवान की इच्छा तुलसी दल का भोग लगाओ भगवान को, वही हम भी पाएंगे और तुम भी पा लेना | उसी समय आकाशवाणी हुई ये भगत जी क्या तुमको पता नहीं था कि वह खोटा सिक्का है। तुमने खोटा सिक्का चलाए क्यों! कहीं तुमने गलती से तो अच्छे सिक्के समझकर खोटे सिक्के नहीं ले लिये हैं ? भगत जी ने कहा महाराज मुझे मालूम था कि वह खोटा सिक्का है जानबूझकर चलाया | बोले क्यों चलाया तुमने ? बोले इसलिए चलाया मुझे तो पता था कि आपके यहां भी खोटे सिक्के नहीं चलते हैं ,मैं तो खोटा सिक्का हूं |

जब मैं खोटा सिक्का को नहीं चलाऊंगा तो फिर मैं आपके यहां कैसे चल पाऊंगा | इसलिए मैंने वो खोटा सिक्का चला दिया क्या पता आप की भी नजर हम पर हो जाए हम भी खोटे सिक्के से खरे हो जाएं, भगवान ने कहा भगत तुम धन्य हो जाओ तुम जो चाहते हो तुम को प्राप्त होगा |

सच मायने में हम सब भी तो खोटे ही सिक्के हैं पर जब ठाकुर कृपा कर देते हैं तो उनकी कृपा से हम सब लोग खरे हो जाते हैं और वह हमको स्वीकार कर लेते हैं।

अब शिवजी उमा से कहते हैं-

उमा कहहुँ मैं अनुभव अपना । सत हरि भजन जगत सब सपना ||

जीव जगत को ही सत्य मानकर जगत में रत है वह चाहता है कि जगत में जितनी सुख की सामिग्री है वह मुझे मिल जाय, इन्हीं उपलब्धियों के लिये वह बेचैन रहता है। धन, ऐश्वर्य, पद प्रतिष्ठा चाहकर इन सांसारिक सामिग्रियों से पूर्ण सुखी हो जायेगा पर ऐसा होता नहीं, उसे वास्तविक सुख मिलता ही नहीं। जो कभी थोड़ा सुख का आभास मिला भी तो वह बिल्कुल क्षणिक है यह संसार तो दुःखालय है यहाँ सुख है ही नहीं, परिवर्तन शील, नश्वर, क्षणिक है किसी का नहीं फिर भी मोहान्धकार में पड़े रहने के कारण सुख खोजते हुए चिपट कर दुःख भोगते रहना है।

ये संसार आज तक न किसी का हुआ न अभी किसी का है और न भविष्य में किसी का होगा। जितनी भी इसमें संग्रहित वस्तुएँ हैं सुखी होने के लिये या तो हमें रहते हुए छोड़ देती हैं या स्वयं ही छोड़कर चल बसते हैं फिर भी सत्य प्रतीत होना कितना बड़ा आश्चर्य है। जिस प्रकार स्वप्न में देखी हुई वस्तु उस समय सत्य प्रतीत होती है जगने पर झूठी हो जाती हैं यही बात संसार के साथ है, हम सभी मोहरात्रि में सोये हुए हैं।

मोह निशा सब सोवनिहारा । देखहिं सपन अनेक प्रकारा ॥
जानहिं तबहिं जीव जग जागा । जब सब विषय विलास विरागा ॥

माया में फँसा जीव "भास सत्य इइ मोह सहाय ।” भ्रमित है, अंधकार में भटक रहे हैं, माया के प्रभाव के कारण ठीक दिशा नहीं मिल पाती, सत्य प्रतीति मान कर फँसते जा रहे हैं । शरीर और संसार दोनों सजातीय और माया ही है। शरीर भी जड़, माया भी जड़ पर हम चेतन हैं, जड़ व चेतन का संयोग जब हो जाता है, तब चेतन भी जड़वत् हो जाता है।

वह अपने असली स्वरूप को भूलकर जड़ के स्वरूप को अपना स्वरूप मान बैठता है जीव चेतन है, अमल है, अविनाशी है ईश्वर का अंश है और सहज ही सुखराशी है पर माया के वशीभूत हो वह अपने को जड़, मल सहित, नश्वर दुःखराशि मानने लग गया है यही भारी भूल है। मानव जीवन का परम लक्ष्य एकमात्र भगवत् प्राप्ति ही होता है भक्त, साधक, संत, मुनि, महात्मा ऋषि आदि कभी भी सांसारिक सुख की कामना नहीं करते, वे भगवान के सिवाय और कुछ नहीं चाहते।

बंधु माताओं प्रभु श्री रामचंद्र जी पंपा नामक सरोवर तीर पर पहुंचे हैं उस दिव्य सरोवर में प्रभु ने स्नान किया है और एक सुंदर वृक्ष के छांव पर बैठ गए। तभी नारद जी प्रभु के पास दर्शन के लिए आते हैं और भगवान से दिव्य ज्ञान उपदेश प्राप्त कर प्रसन्न होकर के वह ब्रह्मलोक को चले जाते हैं।

अरण्य कांड विश्राम

 

किष्किंधा काण्ड प्रारम्भ मंगलाचरण

कुन्देदीवर सुंदरा वति बलौ विज्ञान धामा वुभौ
शोभाढ्यौ बरधन्विनौ गोविप्र वृन्द प्रियौ।
माया मानुष रूपिणौ सद्धर्म वर्मों हितौ
सीतान्वेषण तत्परौ भक्ति प्रदौ तौहिनः ॥

कुंद और नीलकमल के समान सुंदर अत्यन्त बलवान, विज्ञान धाम, शोभा के धनी, श्रेष्ठ धनुर्धर, वेद से वंदित, गौब्राह्मण समूह को प्रिय माया से मनुष्य का रूप धारण किये हुए सत्कर्म के लिये कवचरूप हितकारी श्रीसीता की खोज में तत्पर दोनों पथिक रघुकुल में श्रेष्ठ हमें भक्ति देने वाले हो । वे सौभाग्यशाली मनुष्य धन्य हैं, जिनके मुख रूपी मधुकर राम नाम अमृत का पान करते रहते हैं।

मारुत मिलन प्रसंग

श्रीरामजी आगे भाई सहित चलते हुए ऋष्यमूक पर्वत के निकट पहुँच गये, वहाँ मंत्रियों के सहित सुग्रीव रहते थे, उन्होंने अतुल बल सीमा को आते देखकर हनुमानजी से सभीत होकर कहा कि ये दोनों पुरुष बल और रूप के निधान हैं। तुम ब्रह्मचारी का रूप धारण करके जाकर उनका अभिप्राय जानकर मुझे इशारे से बतला देना, यदि वे बाली के भेजे हों तो मैं तुरंत इस पर्वत को छोड़कर भाग जाऊँगा। हनुमानजी विप्र का रूप धारण करके सिर नवाकर संस्कृत भाषा में पुण्य बुद्धि से पूछने लगे।

को तुम्ह श्यामल गौर सरीरा । क्षत्री रूप फिरहु बनवीरा ॥
कठिन भूमि कोमल पद गामी । कबन हेतु बन विचरहु स्वामी ॥

धनुर्धारी देखकर वीर सम्बोधन कर रहे हैं और कुंदेदीवर सुंदर देखकर श्यामल गौर कहते हैं और उनसे परिचय पूछ रहे हैं कि इस कठिन भूमि में क्षेत्रीय रूप से विचरण का क्या कारण है? आप कौन हैं? मन को हरण करने वाला आपका सुंदर शरीर है और बन में दु:सह धूप और लू सहन कर रहे हो क्या तुम त्रिदेवों में से कोई हो? या तुम दोनों नर-नारायण हो ? हनुमानजी अनुमान में बराबर सन्निकट चले आ रहे हैं पहले तीन में से दो का, अब दो का ही अनुमान करते हैं चुप देखकर अब तीसरा अनुमान करते हैं।

जग कारन तारन भव, भंजन धरनी भार ।
की तुम्ह अखिल भुवन पति, लीन्ह मनुज अवतार ॥

अब रामजी बोले-

कोसलेस दसरथ के जाए । हम पितु बचन मानि बन आए।।

हम कौशल राज दशरथ जी के पुत्र हैं पिता का वचन मानकर वन में आए हैं। हमारे राम लक्ष्मण नाम हैं यहां वन में किसी राक्षस ने मेरी पत्नी जानकी का हरण कर लिया है हम उन्हें ही खोजते फिरते हैं।रामजी कहते हैं हमने अपनी कथा तो कह सुनाई, अब तुम अपनी कथा सुनाओ? सो हनुमानजी ने प्रभु को पहचान कर चरणों पर पड़ गये।

जय मायापति विश्व पति, धरे मनुज अवतार ।
पद रज निज सिर पर धरत, सेवक पवन कुमार ॥

मैंने आपसे परिचय पूछा तो आपने अपनी कथा सुना दी। मुझसे पूछते हैं कि विप्र तुम अपनी कथा सुनाओ। सो महाराज, वस्तुत: कथा तो आपकी ही होती है, जीव की कहीं कथा होती है? उसकी तो व्यथा होती है। मैं नर के धोखे में अब नहीं हूँ आप तो सर्वज्ञ हैं फिर भी मनुष्य की भाँति पूछ रहे हैं मैं माया के वश भूला फिरता हूँ, मैं जीव हूँ अल्पज्ञ हूँ, पर आप तो दीनबन्धु भगवान हैं।

हनुमान जी अपने वानर वेस में आ गए और बोले प्रभु मोह मायावश होने से मैं वेष बदल कर आपका भेद लेने आया। मुझे ज्ञान नहीं रहा इस कारण भूला पर आप पूर्ण हैं, पूर्ण को विस्मृति नहीं होती। सो दीनबन्धु भगवान होकर मुझ सेवक को भुला दिया। चरणों में पड़े देख श्रीराम ने उठाकर हृदय से लगा लिया। सज्जनो कपट शरीर ब्राह्मण का होते हृदय से नहीं लगाया, निष्छल होने से वानर शरीर को भी हृदय से लगा लिया । और बोले-

सुनु कपि जियं मानसि जनि ऊना । तैं मम प्रिय लक्ष्मनते दूना ॥
समदरसी मोहि कह सब कोऊ । सेवक प्रिय अनन्य गति सोऊ ॥

अब रामजी विप्र नहीं कहते कपि कहते हैं, विप्र सम्बोधन के साथ प्रेम अभाव था क्योंकि वह कपटरूप था। कपि सम्बोधन के साथ प्यार है। जो अपने को उपेक्षित मान रहा है उसे लक्ष्मन से दूना न कहें तो अपने में जो प्यार की मात्रा चाहे वह फिर प्रकाशित नहीं होती। इस बचन से हनुमानजी को बड़ी सान्त्वना मिली। 'दूना' - शब्द का प्रयोग लक्ष्मण के सामने ही हनुमानजी से रामजी द्वारा कहना। इसपर लक्ष्मणजी से पूछने पर उन्होंने कहा कि प्रभु रामजी हमेशा सत्य बोलते हैं झूठ कभी नहीं कहते। जो उन्होंने हनुमानजी को मुझसे दूना प्रिय बताया गया है वह अक्षरश: सत्य है क्योंकि सीता अम्बा का हरण मेरे कारण हुआ, और पता उनके द्वारा लगा। यदि मैं उनके पास से न जाता तो हरण नहीं होता अत: हरण का कारण मैं और पता लगाने का कारण = हनुमानजी, अतः दूने सिद्ध हुए।

दूसरा कारण मैं इतने दिनों माँ भगवती सीताजी के सानिध्य में रहा, इतने वर्षों में भी उनका विश्वास नहीं जीत पाया। मेरे समझाने पर भी तनिक भी विश्वास न करके अपने पास से हटाने को मजबूर कर दिया, और हनुमानजी को उन्होंने कभी देखा तक नहीं, केवल संवाद से ही क्षणभर में विश्वास हृदय में सीताजी के जाग उठा “उपजा मन कपि विश्वास" अतः हनुमानजी तब भी दूने सिद्ध हुए। हनुमानजी बोले हे नाथ! पर्वत पर सुग्रीव जी रहते हैं जो आपके दास हैं, उनमें मैत्री कीजिये, उन्हें दीन जानकर अभय का दान दीजिये। वे सीताजी की खोज करायेंगे, सर्वत्र अनेकों बंदरों को भेजकर। इस प्रकार कहकर दोनों राम-लक्ष्मण को अपनी पीठ पर चढ़ा लिया। जब सुग्रीव जी ने राम को देखा तब अपने जन्म को अतिशय धन्य माना, आदर के साथ चरणों में सिर नवाकर तब गले मिले। रघुनाथजी भी भाई के साथ उनसे मिले।

 राम कथा हिंदी में लिखी हुई-65 ram kathanak notes 

Ads Atas Artikel

Ads Center 1

Ads Center 2

Ads Center 3