राम कथा हिंदी में लिखी हुई-66 ram kathanak notes pdf
सुग्रीव जी बोले- मैं एक बार यहां
मंत्रियों के साथ बैठा हुआ कुछ विचार कर रहा था, तब मैंने एक राक्षस
को देखा जो सीता जी का हरण कर लिए जा रहा था वह बहुत विलाप कर रही थी उन्होंने
हमको देखकर उन्होंने-
राम
राम हा राम पुकारी। हमहि देखि दीन्हेउ पट डारी।।
राम राम हा राम पुकार कर वस्त्र गिरा
दिया था। रामजी ने तुरंत माँगा, उत्सुकता बढ़ी कि देखें वह पटसीताजी का
है या नहीं, सुग्रीव ने अपनी गुफा से लाकर उन्हें दिखाया,
दे दिया, प्रभु तुरंत पहचान गये और उस वस्त्र
को अपने हृदय से लगा लिया, उस वस्त्र में कैयूर, कुंडल और नूपुर भी बँधे थे उन्हें निकाल लक्ष्मण को दिखाकर कहते हैं देखो
ये कैयूर कुंडल और नूपुर सीता के ही तो हैं? तब लक्ष्मणजी ने
उनसे कहा-
नाहं
जानामि केयूरे नाहं जानामि कुण्डले ।
नूपुरे तु अभिजानामि नित्यं पादभिवन्दनात् ॥
हे प्रभु ना तो मैं इन बाजुबन्दो को
जानता हूं और ना इन कुंडलों को लेकिन प्रतिदिन भाभी मां के चरणों में प्रणाम करने
के कारण इन दोनों नूपुरों को अवश्य पहचानता हूं यह उन्हीं के हैं। बंधु माताओं
माता जानकी के द्वारा छोड़े गए पवित्र चिन्हों को देखकर प्रभु श्री राम जी लीला
करते हुए बहुत उदास हो गए। सुग्रीव ने कहा प्रभु मन में धैर्य लाओ, मैं
सब प्रकार से सेवकाई करूँगा और जिस विधि से जानकी मिले सो सब करूँगा ।
सखा
बचन सुनि हरषे, कृपासिंधु बल सींव ।
कारन कवन बसहु बन, मोहि कहहु सुग्रीव ॥
इसे सुनकर सुग्रीवजी श्रीरामजी से
कहने लगे-
बड़ा बंधु
है बाली हमारा प्रभो, चिरकाल से शत्रुता घोर हमारी।
गृह द्वार समस्त हरा उसने, तथा नाथ छुड़ाई लई
मम नारी ॥
भय शाप से आवत शैल नहीं, पर नाथ सभीत रहुँ मन
मारी ।
निज जीवन आश उदास सदा, यहि हेतु करौ वनवास
खरारी ॥
श्रीराम जी ने कहा कि दोनों भाइयों
में शत्रुता का कारण क्या है? तब सुग्रीव ने बताया कि एक बार मयदानव
का बेटा जिसका नाम मायावी था। अर्थात् रावण का साला एक दिन किष्किंधा में आकर
ललकारने लगा, वह बालि द्वारा रावण के पराभव से रुष्ट था।
रात्रि में बंदरों की शक्ति घट जाती है यह जानकर आधी रात को ही उन्मत्त होकर अकेले
ही युद्ध की आशंका से आया । बाली शत्रु के बल प्रदर्शन को न सह सके और दौड़ पड़े।
देखते ही वह भाग चला, मैं भी भाई के साथ पीछे हो लिया।
वह एक पर्वत की गुफा में घुस गया तब
बालि ने मुझसे कहा कि तुम मेरी बाट एक पखवारे तक इस गुफा के द्वार पर जोहना, यदि
इतने दिनों तक मैं न लौटूं तो तुम समझ लेना कि मैं मारा गया । हे खरारी ! मैं वहाँ
एक महीने तक रहा, उस गुफा से भारी रक्त की धारा निकली तब
मैंने निश्चय किया कि बाली मारा गया अब मुझे भी मारेगा । इसलिये उस गुफा के द्वार
को शिला से बंद करके मैं भाग चला। मंत्रियों ने पुर को बिना स्वामी का देख मुझे
जबरदस्ती मेरी इच्छा न रहते हुए भी राजगद्दी पर बिठा दिया।
तब तक बाली उसे मारकर आया और मुझे
देखकर मन में भेद बढ़ाते हुए शत्रु की भाँति उसने मुझको बहुत मारा, मेरा
सर्वस्व हरण कर लिया और स्त्री भी ले ली। उसके भय से हे कृपालु सम्पूर्ण भुवनों
में बेहाल भागता फिरता था, यहाँ शाप के कारण नहीं आता,
फिर भी मैं मन से सभीत रहता हूँ, सेवक के दुःख
को सुन दीनदयाल की दोनों भुजायें फड़क उठीं और बोले-
सुनु
सुग्रीव मारिहउँ बालिहि एकहिं बान।
ब्रम्ह रुद्र सरनागत गएँ न उबरिहिं प्रान।।
हे सुग्रीव सुनो मैं एक ही बांण से
बाली को मार डालूंगा,
ब्रह्मा और रुद्र की शरण में जाने पर भी उसके प्राण न बचेंगे। मैं
भी स्त्री विरह से दु:खी हूँ पर वह दु:ख इस समय मेरे लिये कुछ नहीं है। सज्जनो
प्रभु श्री राम जी सुग्रीव के दुख को देखकर अपना दुख भूल गए और उसके दुख को देखकर
दुखी हो गए। प्रभु श्री राम ने सुग्रीव को मित्र माना है। बंधु माताओं संसार के
अनेकों रिश्ते हैं लेकिन एक जो मित्रता का संबंध है यह बड़ा अनोखा पवित्र और अनुपम
है। एक बार मित्र के सुख में भले ही आप उसका सहारा ना बन पाओ, लेकिन अपने मित्र के दुख के दिनों में उसका जरूर सहारा बनो तभी आप मित्र
कहलाने योग्य हो। बाबा जी लिखते हैं-
जे
न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिन्हहि बिलोकत पातक भारी।।
निज दुख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरु समाना।।
जो लोग मित्र के दुख से दुखी नहीं
होते उन्हें देखने से ही बड़ा पाप लगता है। अपने पर्वत के समान दुख को धूल के समान
और मित्र के धूल के समान दुखों को सुमेरु के समान जानना चाहिए। प्रभु राघव ने कहा
हे सखे मेरे बल के भरोसे पर शोक का त्याग करो, सब प्रकार से मैं तुम्हारा
काम बनाऊँगा । तब सुग्रीव ने कहा- हे रघुवीर! बाली महाबलवान और अति रणधीर है,
तब दुंदभी की हड्डी और ताल दिखलाये, यह दुंदभी
राक्षस के सिर की हड्डी पड़ी है यह रात्रि में भैंसा बनकर किष्किंधा में आया,
बाली ने उसके सींग पकड़कर घुमाकर पृथ्वी पर दे मारा और सिर को तोड़
ऊपर उछाल दिया सो यहाँ एक योजन पर आकर गिरा। मतंग ऋषि के आश्रम में रक्त की वर्षा
हो गयी उसी पर ऋषी ने शाप दिया कि यदि तू (बाली) मेरे पर्वत के निकट आयेगा तो तेरा
सिर फट जायेगा। इस सिर को आप उठा सकें तो समझा जा सकता है कि आप उससे लड़ सकेंगे।
रघुनाथजी ने उसे पैर के अँगूठे से दस
योजन पर फेंक दिया,
सुग्रीव ने बल तो देख लिया। फिर भी युद्ध कौशल देखने के लिये कहा कि
ये सात ताल हैं जिन्हें हिलाकर बाली पत्रहीन कर देता था। इन्हें एक ताल को भी आप
वेध देंगे तो निश्चय आप बाली बध में समर्थ होंगे। श्रीरामजी का वाण उन सातों तालों
को वेधकर पर्वत पृथ्वी को वेधता हुआ लौटकर तूणीर में प्रवेश कर गया। अपरमित बल
कौशल देखकर प्रीति बढ़ी और विश्वास हो गया कि बाली को मारेंगे, बार-बार चरणों में सिर झुकाने लगा। प्रभु की प्रभुता का ज्ञान होने के बाद
सुग्रीव जी के हृदय में दिव्य ज्ञान प्रकट हो गया तब उसने प्रभु से कहा-
उपजा
ज्ञान बचन तब बोला । नाथ कृपा मन भयउ अलोला ॥
सुख सम्पति परिवार बड़ाई। सब परिहरि करिहउँ सेवकाई ॥
ये सब राम भक्ति के बाधक हैं। सुख, सम्पत्ति,
परिवार और बड़ाई रहते हुए भक्ति नहीं हो सकती, ऐसा
संत कहते हैं। सुग्रीवजी को व्यवहारिक और परमार्थिक सत्ता का विवेक हुआ और कहने
लगा–बाली तो परम हितेषी है जिसकी कृपा से हे रामजी विषाद का शमन करने वाले आपकी
प्राप्ति हुई। सुग्रीव ने भगवान के चरणों में यही निवेदन किया-
अब
प्रभु कृपा करहु एहि भाँती। सब तजि भजनु करौं दिन राती।।
इस प्रकार से कृपा करें कि मैं सब
कुछ छोड़कर दिन-रात आपका भजन करूँ। कपि की विराग संयुक्त वाणी सुनकर के हाथ में
धनुषबाण धारण करने वाले श्रीरामजी हँसकर बोले- जो कुछ तुमने कहा वे सब बातें सच्ची
हैं परंतु सखे ! मेरी बातें भी झूठी नहीं हो सकती। सज्जनों भगवान ने अपने मुख से
कह दिया था की बाली मारा जाएगा और तुम्हें राज्य मिलेगा।
बाली बध
प्रसंग
श्रीरामजी के कहने से सुग्रीव बाली
से जा भिड़ा,
हालाँकि तारा ने बाली को समझाया था कि हे पति सुनो - जिन्हें सुगीव
मिला है वे कौशलाधीश के बेटे राम-लक्ष्मण दोनों भाई तेज और बल की सीमा हैं। वे काल
को भी संग्राम में जीत सकते हैं। पर बाली ने कहा तू भीरू है रघुनाथ से क्या डरती
है वे समदर्शी हैं कदाचित मार भी देंगे तो भी सनाथ हो जाऊँगा। जैसे ही घूंसे की
चोट सुग्रीव को लगी तब सुग्रीव विकल होकर वहाँ से भागा और प्रभु से कहा यह भाई
नहीं मेरा काल है। और आप भी प्रभु बस खड़े-खड़े तमाशा देखते रहे। अगर अभी मैं ना
भागता तो वह मुझे मार डालता। सुग्रीव की बातों को सुनकर प्रभु श्री राम ने कहा-
एकरूप
तुम्ह भ्राता दोऊ। तेहि भ्रम तें नहिं मारेउँ सोऊ।।
तुम दोनों भाइयों का एक सा ही रूप है
इसी भ्रम से उसको नहीं मारा। भगवान ने अपने अमृत मई हाथों का स्पर्श करके सुग्रीव
के शरीर की साड़ी पीड़ा को समाप्त कर दिया। सुग्रीव के गले में फूलों की माला डाल
दी कि उसकी पहचान हो सके और प्रभु अपना विशेष बल देकर उसे पुनः युद्ध के लिए भेजा।
बाली सुग्रीव में बड़ा भयानक युद्ध हुआ श्री रघुनाथ जी वृक्ष की आड़ से देख रहे
थे।
बाली ने जब सुग्रीव को बांध लिया तब रामजी ने बाली के हृदय में पेड़
की ओट से तानकर बाण मारा क्योंकि एक ही वाण मारने की प्रतिज्ञा थी। हृदय बड़ा भारी
मर्म स्थान है इस पर चोट आने से कोई बच नहीं सकता, बाण के
लगते ही विकल हो बाली पृथ्वी पर गिर पड़ा। परंतु फिर उठकर बैठा तो प्रभु को सामने
देखा, श्याम शरीर जटा रखे हुए लाल नेत्र और वाण तथा चढ़ाया
हुआ धनुष था। बार-बार देखकर चरणों में चित्त लगाया और अपने जन्म को सफल माना हृदय
में प्रीति है पर रामजी की ओर देखकर कठोर बचन बोला-
धर्म
हेतु अवतरेहु गोसाई। मारेहु मोहि ब्याध की नाई।।
मैं बैरी सुग्रीव पिआरा। अवगुन कबन नाथ मोहि मारा।।
हे गोसाईं आपने धर्म की रक्षा के लिए
अवतार लिया है और मुझे ब्याध की तरह छिपकर मारा। मैं बेरी और सुग्रीव प्यारा हो
गया आपका?
हे नाथ किस दोष से आपने मुझे मारा? प्रभु राघव
ने कहा कि अरे मूर्ख बाली मृत्यु के समय तुम धर्म और सत्य की बात कह रहे हो जबकि
तुम स्वयं इसका कभी पालन नहीं किये। सुनो छोटे भाई की स्त्री, बहन, पुत्र की स्त्री और कन्या यह चारों समान है
इनको जो बुरी दृष्टि से देखता है उसे मारने में कुछ भी पाप नहीं है। और बाली तुमको
अपने बल का बड़ा अभिमान है, तुमने अपने इस अभिमान के चलते
अपने स्त्री के सीख पर भी ध्यान नहीं दिया। सुग्रीव को मेरी शरण में जान करके भी
तुम उसको मारना चाहे। इस प्रकार से सज्जनों प्रभु राघव के दिव्य वचनों को सुनने के
बाद बाली के अंतःकरण के चक्षु खुल गए और प्रभु राघव के दिव्य स्वरुप को उसने जान
लिया।
बस प्रभु के चरणों में हाथ जोड़कर के
उसने यही निवेदन किया कि,
क्या नाथ मैंने आपका दर्शन कर लिया इन चरणों के दर्शनों के बाद भी
क्या मैं पापी ही रहा? पापों से मुक्त नहीं हुआ? बाली के कोमल वचनों को सुनकर प्रभु श्री राघव करुणा के समुद्र प्रभु के
अंदर करुणा फूट पड़ी उन्होंने बालि के सर को अपने हाथ से स्पर्श किया और कहने लगे
बाली मैं तुमको अभी अमर किए देता हूं। तुम अपने प्राणों को रखो। बाली प्रभु श्री
राम के यह वचन सुनते हैं तुरंत उनके चरणों को पकड़ लिया बोला नाथ मुझे अमर नहीं
होना है आपकी कृपा से मैं अब आपकी कुछ महिमा जान चुका हूं।