राम कथा हिंदी में लिखी हुई-67 ram kathanak pdf notes hindi
जन्म
जन्म मुनि जतनु कराहीं। अंत राम कहि आवत नाहीं।।
जासु नाम बल संकर कासी। देत सबहि सम गति अविनासी।।
मम
लोचन गोचर सोइ आवा। बहुरि कि प्रभु अस बनिहि बनावा।।
बालि ने कहा कृपानिधान सुनो, जन्म-जन्म
मुनि चेष्टा करते हैं पर अंत में राम कहते नहीं बनता। जिसके नाम के बल से शिवजी
काशी में सबको समान अविनाशी गति देते हैं वही मेरे नेत्रों का विषय हो रहा है।
प्रभो क्या फिर ऐसा संयोग बनाने से बन सकेगा ? ऐसा सठ कौन
होगा जो कल्पवृक्ष को काटकर हठपूर्वक बबूर के लिये उसकी बाढ़ लगावे । अब करुणा
करके देखिये और जो माँगता हूँ कर दीजिये। बंधु माताओं बाली ने भगवान से अनुपम वर
की मांग की है। क्या मांगा है?
अब
नाथ करि करुना बिलोकहु देहु जो बर मागऊँ।
जेहिं जोनि जन्मौं कर्म बस तहँ राम पद अनुरागऊँ।।
यह तनय मम सम बिनय बल कल्यानप्रद प्रभु लीजिऐ।
गहि बाहँ सुर नर नाह आपन दास अंगद कीजिऐ।।
हे दीनबंधु दीनानाथ मैं कर्मवस चाहे
जिस योनि में जन्म लूं वहां मुझे आपके ही चरणों में प्रेम रहे। अपने पुत्र अंगद को
प्रभु राम के चरणों में छोड़कर बाली ने पूर्णतया राम चरणों में मन लगा लिया और
उनके चरणों में अपने प्राणों को समर्पित कर दिया। राम ने बाली को अपने धाम भेज
दिया। नगर के लोग व्याकुल होकर दौड़े, तारा नाना भाँति से विलाप
करने लगी, उसके बाल खुल गये, देह की
सुध नहीं रह गई ।
तारा को विकल देख कर रघुनाथ जी ने
उसे ज्ञान दिया। संसार का बीज ही शोक मोह है यह ज्ञान से ही नष्ट होता है, ज्ञान
देकर माया हरण कर ली। तारा से भगवान ने कहा, यह शरीर प्रकट
है जो तुम्हारे आगे सोया हुआ है और जीव तो नित्य है तुम किसके लिये रोयीं, अत: यह सुन ज्ञान उपजा तब चरणों में सिर नवाया और परम भक्ति का वर माँग
लिया। तब सुग्रीव को राम ने आज्ञा दी उन्होंने विधिवत सब कर्म किया। जड़-चेतन के
पृथकत्व के ज्ञान होने पर तारा ने भगवदाश्रम ग्रहण किया । दाह-संस्कार करने के बाद
श्रीरामजी ने छोटे भाई लक्ष्मण को समझाकर कहा- श्रीरामजी की आज्ञा पाकर उनके चरणों
में सिर नवाकर उनकी प्रेरणा से चले, सुग्रीव को राजतिलक और
अंगद को यौवराज्य के लिये अभिसिक्त करके शीघ्र लौटें क्योंकि प्रभु की सेवा में
कोई नहीं था।
यहाँ शिवजी कथा प्रसंग में उमा से कह
रहे हैं कि हे उमा राम सरिस संसार में गुरू पिता माता बंधु या प्रभु कोई नहीं है।
सुर
नर मुनि सब कै यह रीती। स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती।।
देवता, मनुष्य और मुनि सबकी
यही रीति है स्वार्थ के वश प्रीति करते हैं। पर प्रभु श्री राम अकारण कृपा समस्त
जीवों पर करते हैं। अरे जो सुग्रीव दिन रात बाली के भय से व्याकुल रहता था,
बाली के प्रहार से उसके शरीर में घाव ही घाव थे। दिन रात चिंता में
व्याकुल रहता था।उसे प्रभु ने वानरों का राजा बना दिया ऐसे दयालु प्रभु को छोड़कर
के भी जो माया को अपनाते हैं उनसे बढ़कर भाग्यहीन कौन होगा।
श्रीराम जी ने सुग्रीव को बुलाकर
राजनीति सिखाई,
और कहा कि अंगद के सहित तुम राज करना और मेरे काम को सदा स्मरण रखना,
तब सुग्रीव घर लौट आये और श्रीरामजी भाई सहित प्रवर्षण पर्वत पर
टिके। जब से रामजी वहाँ टिके तब से वहाँ का सभी वातावरण मंगल रूप हो गया। भाई से
भक्ति वैराग्य राजनीति और विवेक की अनेक कथाएँ कहा करते थे फिर कुछ वर्षाऋतु का
वर्णन किया है।
बरषहिं
जलद भूमि निअराएँ। जथा नवहिं बुध बिद्या पाएँ।।
बूँद अघात सहहिं गिरि कैंसें । खल के बचन संत सह जैसें।।
छुद्र नदीं भरि चलीं तोराई। जस थोरेहुँ धन खल इतराई।।
भूमि परत भा ढाबर पानी। जनु जीवहि माया लपटानी।।
बादल पृथ्वी के समीप आकर बरस रहे हैं
जैसे विद्या पाकर विद्वान नम्र हो जाते हैं। भयंकर बूंदों की चोट पर्वत कैसे सहते
हैं जैसे दुष्टों के वचन संत सह लेते हैं। बंधु माताओं यहाँ प्रकृति की शोभा का
वर्णन किया गया है। सभी बिन्दुओं से शिक्षा भी दे रहे हैं। छोटी नदिया भरकर बड़े
वेग से चलीं,
जैसे थोड़े धन होने पर खल इतराकर चलता है। पृथ्वी पर पढ़ते ही बरसाती
पानी का गंदला हो जाता है जैसे शुद्ध जीव को माया लिपट गई हो।
ऐसा कहते-सुनते वर्षा बीत गई, शरद
ऋतु आ गई। नदी और तालाब का पानी धीरे-धीरे सूख रहा है। उनमें जो जीव भरे पड़े हैं
वे शरद ऋतु आने से नष्ट हो गये, वैसे ही जैसे सद्गुरू के
मिलने से संशय और भ्रम का समुदाय नष्ट हो जाते हैं। वर्षा बीत गई और निर्मल ऋतु आ
गई ।
प्रभु श्री राघव लक्ष्मण जी से कहते हैं- हे भाई! सीता का पता न
लगा। एक बार किसी भाँति सीता का पता लग जाय तो काल को भी जीतकर एक क्षण में ले आऊँ
। गृहस्थ के जितने धर्मकृत्य हैं वे सब स्त्री के बिना निष्फल होते हैं। वह अपने
धर्म से गिर जाता है।
राम-रोष
प्रसंग
श्री राघव जी ने कहा लक्ष्मण सुग्रीव
भी हमारा काम भूल गया,
अब राज्य, कोष, पुर और
नारी सब मिल गये तो मुझे भूल गया। जिसके कारण ये सब प्राप्त हुआ उसको नहीं भूलना
चाहिये था पर वह कृतघ्न निकला। जिस बांण से मैंने बाली को मारा था आजभर और
प्रतीक्षा करूँगा, यदि आज भी न आया तो कल उस मूढ़ को
मारूँगा।
यहाँ पर ज्ञान घाट के वक्ता श्रीशंकर
जी ने अपनी कथा प्रसंग में उचित समझा कि इस अवसर पर अपने श्रोता उमाजी को सावधान
करें। वह यह न समझलें कि रामजी को वस्तुत: क्रोध हो गया। क्योंकि मोह पूर्वक ही
क्रोध होता है और-
इहाँ
मोह कर कारन नांही । रवि सनमुख तम कबहुक जाहीं ॥
मोह ही नहीं हो सकता तब क्रोध कैसे
होगा?
जिसकी कृपा से मद मोह छूटता है, हे उमा ! उसे
क्या स्वप्न में भी क्रोध हो सकता है? इस चरित्र को
जिन्होंने श्रीरघुनाथ जी के चरणों में प्रेम लगा रखा है वही ज्ञानी मुनि जानते
हैं। लक्ष्मण जी ने समझा कि प्रभु क्रुद्ध हैं तो धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा ली वाण
हाथ में ले लिया। विचार किये कि बाली बड़ा भाई था वह आपके हिस्से में पड़ा था,
सुग्रीव उसका छोटा भाई है यह मेरी हिस्से का है। उसे कल की बजाय मैं
आज ही मारता हूँ । बंधु माताओं प्रभु राघवेंद्र सरकार ने विचार किया कहीं लक्ष्मण
सचमुच जाकर सुग्रीव का वध न कर डालें, इसलिये करूणा की सीमा
श्रीराम ने लक्ष्मणजी को समझाया।
तब
अनुजहि समुझावा रघुपति करुना सींव।।
भय देखाइ लै आवहु तात सखा सुग्रीव।।
सुग्रीव को डराकर रास्ते पर ले आओ
यही मित्रधर्म है। उधर हनुमानजी ने विचार किया कि रामजी के कार्य को सुग्रीव ने
भुला दिया तब सुग्रीव के निकट जाकर चरणों में सिर झुकाया, क्योंकि
सुग्रीव राजा और हनुमान मंत्री हैं। सुग्रीव सूर्य अंश होने से गुरूपुत्र और रामजी
के सखा हैं। हनुमानजी ने सूर्य से शिक्षा पाई थी तब दक्षिणा का समय आया तो सूर्य
ने हनुमानजी से यही दक्षिणा में कहा था कि मेरे अंश सुग्रीव की रक्षा करते रहना।
अतः सुग्रीव जी हनुमानजी के सर्वतो भावेन पूज्य हैं अत: चरणों में सिर नवाकर साम,
दाम, भय और भेद दिखाकर समझाया।
सुनकर सुग्रीव डर गये, पछिताने
लगे कि विषय ने मेरे ज्ञान को हरण कर लिया, और हनुमानजी से
कहने लगे कि अब तुम दूतों को जहाँ-तहाँ बानर समाज है, उनको
सीता की खोज में भेजो और कह देना कि जो पन्द्रह दिन में लौट कर नहीं आयेंगे तो
उसका बध मेरे हाथ से होगा। तब हनुमान ने दूतों को बुलाकर उनका बहुत सम्मान किया
फिर उनको भय, प्रीति और नीति दिखलाई, सभी
चरणों में सिर नवाकर चल दिये।
एहि
अवसर लछिमन पुर आए। क्रोध देखि जहँ तहँ कपि धाए।।
उसी अवसर पर लक्ष्मणजी पुर में आये, लक्ष्मणजी
को क्रोधयुक्त देखकर बानरगण जहाँ-तहाँ दौड़ पड़े। लक्ष्मणजी के बनाये हुए ही ये
युवराज हैं, अंगदजी ने उनके चरणों में सिर नवाकर विनती की कि
नगरवासी निरुपराध हैं वे आपके क्रोध से व्याकुल हैं उनकी रक्षा कीजिये । लक्ष्मणजी
ने उसे अभय दान दिये । सुग्रीव के पास समाचार पहुँचा कि लक्ष्मणजी क्रुद्ध होकर
आये हैं तब उन्होंने हनुमानजी से कहा, तुम तारा को साथ लेकर
जाओ और बिनती करके लक्ष्मण को समझाओ, तारा सहित हनुमानजी
गये। और चरण बंदना करके प्रभु के सुयश की वंदना की, विनती
करके घर ले आये, चरणों को धोकर पलंग पर बैठाया।
इस पलंग के विषय वासना चक्कर में ही
तो सुग्रीव का ज्ञान चला गया, रामकाज भूल गये। जबकि सीता की खोज भी
राम कार्य न होकर स्वयं अपना और सकल जनों का ही वस्तुतः कार्य है। क्योंकि सीताजी,
शान्ति, भक्ति, शक्ति,
लक्ष्मी, आदि सभी जनों की चाह है। इन्हीं के
लिये इन्हीं की खोज के लिये सारा संसार रात-दिन दौड़ता फिरता है। अब यहाँ पर पलंग
पर बैठाने के कई भाव जनाये हैं-
सानुज
सीय समेत प्रभु, राजत परन कुटीर ।
भगति, ज्ञान वैराग्य जनु, सोहत धरैं शरीर ॥
सीता = भक्ति हैं, राम
= ज्ञान और लक्ष्मण = वैराग्य हैं, अतः वैराग्य रूपी लक्ष्मण
को पलंग जो, सुग्रीव का था उस पर बिठाकर जना दिया कि विषय
वासना त्याग बैराग्य की शरण लो। जिससे सतत प्रभु श्रीरामजी का ध्यान बना रहे।
दूसरा कारण लक्ष्मणजी अहीश हैं, सर्पराज
शेषावतार हैं यदि पलंग पर एक सर्प आ जाय तो नींद की तो क्या चले उस पर बैठना भी
दुर्लभ हो जायेगा। सोना तो बहुत दूर। अब इस पर साक्षात् काल = अहीश बैठे हैं सो
यहाँ सजगता दिखाई गई कि भविष्य में अब ऐसी विषयानंद की गहरी नींद में न सोना।
तीसरा पलंग पर बैठने का अर्थ क्षमा
करना है तब सुग्रीव ने आकर चरणों में सिर झुकाया तब लक्ष्मण ने उसकी भुजा पकड़ कर
गले लगाया। तब सुग्रीवजी लक्ष्मणजी से कहने लगे-
पाहि
पाहि रक्षा करो, प्रभु तुम परम उदार।
भूल गया विषयान्ध बन, मैं मति मंद गँवार ॥
पवनसुत महावीर ने जिस भाँति दूतों के
समूह खोज को भेजे गये वह सब कथा कह सुनाई। तब हर्षित होकर अंगदादि बंदरों को साथ
लेकर सुग्रीवजी लक्ष्मणजी को आगे कर रघुनाथजी के पास आये । भगवान श्रीरामजी के
चरणों में सिर झुकाकर सुग्रीवजी हाथ जोड़ कर कहने लगे- हे स्वामी देवता, मनुष्य
और मुनि सब विषय के वस्य हैं मैं तो नीच पशु अति क़ामी बंदर हूँ। तब रघुपति
मुस्करा कर बोले किंतु तुम मुझे भाई भरत के समान प्रिय हो। सुग्रीव ने बानरों से
कहा- कि तुम लोग सभी दिशाओं में जाकर माता जानकी की खोज करो, क्योंकि देह धारण करने का सर्वोत्तम फल यही है कि तन से मन से प्रभु राम
जी की सेवा हो, तब चरणों में सिर नवाकर सब हर्षित होकर रामजी
का स्मरण करते हुए चले।
पीछे से हनुमानजी ने सिर नवाया, इनके
द्वारा कार्य सिद्धि जानकर प्रभु श्रीरामजी ने समीप बुलाकर सिर पर कर कमल फेरा और
भक्तजानकर हाथ की मुद्रिका दी। सीता के पहिचान के लिये, यह
मुद्रिका अदेय थी, परम विश्वास पात्र को ही यह दी जा सकती थी,
इसे ले जाकर सीता को देना इसे पाकर वह तुम्हारे विषय में संदेह न
करेगी, और जब तक वह बिरह में रहेगी तब तक के लिये अँगूठी ही
उसको आधार होगी।
बहुत प्रकार से सीता को समझाना, मेरा बल और
विरह कहना और जल्दी लौट आना। हनुमानजी ने अपना जन्म सफल माना और हृदय में
कृपानिधान को रखकर चले - रूप से नाम की प्राप्ति हुई क्योंकि मुदरी राम-नाम से
अंकित थी समझ लिया कि इस कार्य का श्रेय रामजी मुझे देना चाहते हैं। यदि यह कार्य
मेरे द्वारा न होता तो न मुझसे संदेश कहते और न अँगूठी देते। सुग्रीवजी ने जो देह
धारण का फल बताया था सो मुझे मिला। श्री हनुमान जी महाराज अंगद आदि के साथ
चलते-चलते समुद्र के तट पर पहुंच गए हैं।