राम कथा हिंदी में लिखी हुई-68 ramayan katha notes
संपाती
मिलन प्रसंग
बंधु माताओं समुद्र के अथाह जल को
देखकर अंगद बड़े दुखी हो गए कि इससे पार कैसे होंगे? अब हमारा मरना तय है
यहां भी मृत्यु लौटेंगे तो वहां भी मृत्यु। जामवंतजी ने अंगद का दुःख देखकर विशेष
उपदेश व कथा कही। वहाँ पर्वत की कंदरा में सम्पाती ने सुना बाहर आकर बहुत से
बंदरों को देखा तो उसने कहा मुझे जगदीश्वर ने आज आहार दिया। वह गिद्ध था, गीधमुरदे खाया ही करते हैं गीध का वचन सुनते ही बंदर डरे और कहने लगे कि
अब हमने जान लिया कि सचमुच हम लोगों की मौत आ गई।
कहि
अंगद विचारि मन माहीं। धन्य जटायु सम कोई नांहीं ॥
राम काज कारन तनु त्यागी । हरि पुर गयेउ परम बड़ भागी ॥
ऐसा सुनते ही सम्पाती पक्षी हर्ष और
शोक युक्त वाणी सुनकर बानरों के समीप आया बानर डर गये । उनको अभय करके उसने जटायु
के बारे में पूछा,
उन्होंने सब कथा सुनाई, संपाती ने भाई की करनी
सुनकर रामजी की महिमा का बहुत प्रकार से वर्णन किया।
सम्पाती चंद्रमा मुनि से रामजी की
महिमा सुन चुका था। उसने बानरों से कहा, मुझे तिलांजलि देना है अत:
समुद्र तट पर ले चलो, मैं तुम लोगों की सहायता बचन से
करूँगा। जिसे तुम खोज रहे हो उसे पाओगे। तुम मुझे इस पर्वत से समुद्र तट तक लाद ले
चलो जिसमें समुद्रजल से उसका तर्पण करूँ। जिसको खोज रहे हो उसका पता में अच्छी तरह
जानता हूँ तुम सभी को बताऊँगा।
मैं भाई की भाँति क्रियारूप से किसी प्रकार की सहायता करने की
सामर्थ्य नहीं रखता पर बचन से अवश्य सहायता करूँगा, अतः उसने
सीता खोज का पक्का आश्वासन दिया।
सम्पाती
कथा श्रवण प्रसंग
सज्जनो समुद्र के तीर पहुंचकर
संपात्ती ने छोटे भाई जटायु की क्रिया श्राद्ध आदि करके अपनी कथा सुनाने लगा।
हम
द्वौ बन्धु प्रथम तरुनाई | गगन गये रवि निकट उड़ाई ॥
तेज न सहिसक सो फिर आवा । मैं अभिमानी रवि नियरावा ॥
जरे पंख अति तेज अपारा। परेड भूमि कर घोर चिकारा ॥
हम दोनों भाई यौवन के मद में एक बार
आकाश में उड़कर सूर्य के निकट चले गए। जटायु सूर्य तेज न सह सका लौट आया। मैं
अभिमान के कारण सूर्य के पास तक उड़ता चला गया, सो मेरे पंखजल गये। पंख के
जलने पर फिर गति कहाँ? मैं दीन होकर चिंघाड़ता हुआ पृथ्वी पर
गिर पड़ा।
एक चन्द्रमा नाम के मुनि थे उन्हें
मुझे देख दया आ गई उन्होंने बहुत प्रकार से मुझे ज्ञान सिखाया। उन्होंने मुझे
बतलाया कि त्रेता में ब्रह्म मनुष्य शरीर धारण करेंगे, उनकी
स्त्री को राक्षस राज हरण करेगा उसकी खोज के लिये प्रभु दूत भेजेंगे उनसे मिलकर
तुम पवित्र हो जाओगे। भाव कि मैं तुम्हारे दर्शन से पवित्र हुआ, तुम रामदूत होकर भी अपने को दीन क्यों मानते हो?
सब बातें पहले से ही निर्णीत हैं, वैसी
ही होंगी तुम नहीं जानते इसी से दु:खी हो रहे हो। चंद्रमा मुनि ने मुझसे कहा था
तुम्हें पंख जम जावेंगे चिंता न करो। तुम उन्हें सीता दिखा देना। आज मुनि की बात
सत्य हुई अब मेरी बात सुनकर प्रभु का कार्य करो । त्रिकूट पर्वत के ऊपर लंका बसी
हुई है, वहाँ रावण के अशोक बन में सीता बैठी सोच में मग्न
हैं। मैं देखरहा हूँ, क्योंकि गृद्ध की दृष्टि का कोई
पारावार नहीं है। मैं बूढ़ा हो गया नहीं तो तुम्हारी कोई सहायता भी करता । जो सौ
योजन समुद्र पार करेगा वही बुद्धिमान राम का कार्य कर सकता है।
मुझे देखकर हृदय में धैर्य धारणकरो
देखो रामजी की कृपा से मेरा शरीर कैसा हो गया, नये-नये कोमल पंख निकल आये।
राम की कृपा से ही तुम सबसे भेंट हुई और तुम्हारे दरश- परस से मेरे जले हुए पंख
फिर निकल आये। जिसने मुझे पंख दिये वही तुम सबों की सहायता करेगा, तुम बिना पंख के उड़कर समुद्र पार करोगे । यह धैर्य वानरों को सम्पाती ने
बँधाया और आश्वासन भी दिलाया कि जब मैं ऐसा हो गया तो तुम भी कार्य की पूर्णता
अवश्य करोगे ।
पापिउ
जा कर नाम सुमिरहीं। अति अपार भवसागर तरहीं।।
तासु दूत तुम्ह तजि कदराई। राम हृदयँ धरि करहु उपाई।।
उनके नाम में ही ऐसा सामर्थ्य है कि
वह पापी को भी ऐसी सन्तरण शक्ति प्रदान करता है। तुम सब तो उस महामहिम नामी के दूत
हो तुम्हारे लिये इस शत योजन सागर के पार जाना कौन सी बड़ी बात है? तुम
वीर हो, आगन्तुक कायरता का परित्याग करो। सफलता का साधक
महामंत्र बतलाया है कि श्रीरामजी को अपने हृदय में रखकर कार्य का सम्पादन करो यही
एक उपाय है, उनके हृदय में रहने से सभी उद्यम सफल होते हैं ।
ऐसा कहकर गीध के उड़कर चले जाने पर
सबके मन में बड़ा आश्चर्य हुआ, अभी यह समुद्रतट तक आने में असमर्थ था
हनुमानजी ने उठाकर तट पर पहुँचाया इतनी देर में पंख निकल आये बिना किसी की सहायता
लिये स्वयं उड़कर चला गया।
अब सागर संतरण पर विचार होने लगा, सबके
मन में यही बात है कि हम सबमें बलवान और बुद्धिमान हनुमान जी हैं, यही जायँ। सब किसी ने अपना बल कहा पर जाने में संदेह प्रकट किया, इस प्रकार बतलाते हुए नब्बे योजन तक तो पहुँच गये किसी ने यह नहीं कहा कि
मैं नि:संदेह पार जा सकता हूँ। प्रख्यात पौरुष जामवंतजी क्या कहें? तब उन्होंने बुढ़ापे की ओट लेकर कहा कि मेरे सामने तीन अवतार हो चुके,
वामन, परशुराम और दशरथी राम । सो वामनावतार के
समय मेरी जवानी थी, तब सेकितनी चतुर्गियाँ बीत गईं अब शरीर
में उस बल को लेश भी नहीं रह गया।
त्रिविक्रम कहकर वामनावतार के शरीर
की विशालता कही,
मैंने उस शरीर की दो घड़ी में दौड़कर उनकी सात प्रदिक्षणा की थीं।
जिस शरीर से उन्होंने तीनों लोक नापे थे । प्रभु का वह विशाल शरीर दो घड़ी के लिये
ही था, उसी के लिये कहते हैं कि उसका वर्णन नहीं हो सकता।
अंगद
कहइ जाउँ मैं पारा। जियँ संसय कछु फिरती बारा।।
अंगद ने कहा मैं पार जा सकता हूँ पर
लौटने में कुछ संशय है। जामवंत ने कहा तुम सब लायक हो, पर
सबके नायक हो तुम्हें हम कैसे भेज सकते हैं? तब ऋक्षपति ने
हनुमानजी से कहा-
कहइ
रीछपति सुनु हनुमाना। का चुप साधि रहेहु बलवाना।।
पवन तनय बल पवन समाना। बुधि बिबेक बिग्यान निधाना।।
कवन सो काज कठिन जग माहीं। जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं।।
राम काज लगि तब अवतारा। सुनतहिं भयउ पर्वताकारा।।
कनक बरन तन तेज बिराजा। मानहु अपर गिरिन्ह कर राजा।।
सिंहनाद करि बारहिं बारा। लीलहीं नाषउँ जलनिधि खारा।।
जितने भी कार्य हैं उनकी सिद्धि तो
बल और बुद्धि से होती है सो परमेश्वर ने तुमको सबसे अधिक दिया है। तुम्हारी बल
बुद्धि का पारावार नहीं है अतः संसार में ऐसा कोई कार्य नहीं है जिसे तुम न कर
सको। राम कार्य के लिये ही तुम्हारा अवतार है। सज्जनों यह सुनते ही हनुमान का आकार
पर्वत सा हो गया और वे बार-बार सिंहनाद करके सबसे कहने लगे, मै
इस खारे समुद्र जल को एक छलांग में लांघ जाऊं? या रावण को
मार कर त्रिकूट पर्वत को उखाड़ कर यहां लाऊँ? जामवंत से उचित
राय माँगने लगे।
जामवंत ने कहा, हे
तात! तुम इतना ही करो कि सीताजी को देखकर लौट आओ और समाचार कहो तब श्रीरामजी अपने
भुजबल से बंदरों की सेना खिलवाड़ के लिये साथ लेकर राक्षसों को मार कर वही सीता को
लावेंगे। त्रैलोक्य को पवित्र करने वाला सुयश देवता और नारद मुनि वर्णन करेंगे
जिसे सुनते, गाते, कहते और समझते हुए
मनुष्य परम पद प्राप्त करेंगे। संसार बड़ा भारी रोग है –
ऐहि
विधि सकल जीव जग रोगी । हर्ष शोक भय प्रीति वियोगी ॥
इसकी अचूक औषधि श्रीराम जी का यश
श्रवण,
सेवन करना है अत: जो स्त्री पुरुष इसका सेवन करेगा उसके सब मनोरथों
को श्रीरामजी सिद्ध करेंगे। नाम रूप लीला धाम को महात्माओं ने श्रीरामजी का
साक्षात विग्रह माना है।
चतुर्थ
सोपान समाप्त
(सुंदरकांड प्रारंभ)
अतुलित
बलधामं हेम शैलाभदेहं,
दनुज वन कृशानुं ज्ञानि नामाग्रगण्यम्।
सकल गुणनिधानं वानराणाम धीशं,
रघुपति प्रियभक्तं वात ज्ञातं नमामि ॥
अतुलित बल के धाम, ज्ञानियों
में अंग्रगण्य, सम्पूर्ण गुणों के स्वामी, ऐसे श्रीरघुनाथ जी के श्रेष्ठ दूत पवन सुत को मैं प्रणाम करता हूँ ।
सज्जनों सुंदरकाण्ड में आठ बार
सुन्दर शब्द है। हनुमान जी ने इसमें आठ चरित्र किये हैं। हनुमान जी ने पाँच बार
श्रीराम का स्मरण किया है अतः जितेन्द्रिय हनुमान के सामने पाँचों भूत नतमस्तक थे।
सतत उनके सेवक थे। पाँचों में एक का पुत्र हैं, पाँचों में एक को लाँघ के,
पाँचों में एक के मार्ग से, पाँचों में एक की
पुत्री देख के, पांचो मे एक से लंका जला के। (१) पवनपुत्र
हनुमान (२) जल को लाँघकर (३) आकाश मार्ग से (४) पृथ्वी की पुत्री सीता (५) अग्नि
को लगाया।
सब काण्डों के प्रारम्भ में सोरठा या
दोहा देकर प्रारम्भ किया है पर इस काण्ड के प्रारम्भ में कोई सोरठा या दोहा कवि ने
नहीं लिखा है। समाधान यह है कि सोरठा या दोहा विश्राम के सूचक हैं और यहाँ
हनुमानजी ने विश्राम नहीं किया-
"राम काज कीन्हे बिना मोहि कहाँ विश्राम"
जब अपने इष्टदेव को या काण्ड के
प्रधान नायक को विश्राम करना अभीष्ट नहीं है तब कवि अपने लेख में विश्राम कैसे दें? अतः
श्लोकों के बाद सोरठा या दोहा नहीं दिया।
दूसरा कारण इस काण्ड में हनुमानजी
सुमेरू हैं।
"कनक वरन तन
तेज विराजा"
दोहा, सोरठा
सुमेरू कहलाता है अतः सुमेरू पर सुमेरू कैसे रखें? इसलिए
नहीं लिखा ।
इधर समुद्र ने हनुमान जी को रघुपति का दूत विचार कर मैंनाक पर्वत से
कहा कि तू इनकी थकावट को हरण करने वाला बन । अतः मैंनाक से श्रमहारी होने के लिये
कहा- पहले पर्वतों के पंख होते थे, इन्द्र ने काट डाले।