राम कथा हिंदी में लिखी हुई-69 ramayan katha notes pdf
पवनदेव ने उस समय मैंनाक को समुद्र
में फेंककर बचा लिया,
उसके पंख न काटे अत: वह पवनदेव का उपकृत था इसलिये मैनाक से कहा।
हनुमान
तेहि परसा, कर पुनि कीन्ह प्रनाम ।
रामकाजु कीन्हे बिना मोहि कहाँ विश्राम ॥"
अतिथ्य सत्कार की स्वीकृति द्योतक के
लिये स्पर्श कर लिया। पहले विघ्न समझ प्रणाम नहीं किया था परिचय पाने पर, कि
पिता के मित्र हैं, पार्वती के भाई हैं अत: सर्वथा प्रणम्य
हैं।
“मेनया अपत्यं पुमान् मैंनाक:
विश्राम ना करने का कारण कहते हैं कि
यदि मुझे श्रीराम कार्य के लिये त्वरा न होती तो अवश्य विश्राम करता। देवताओं ने
पवनसुत को जाते देख,
उनकी विशेष बल बुद्धि जानने के लिये सर्पों की माता कद्रू ही सुरसा
नाम दिया।
अब सुरसा हनुमानजी के सामने खड़ी है
कहती है आज देवताओं ने मुझे भोजन दिया है यह बचन सुनते ही पवन कुमार ने कहा कि
रामजी का कार्य करके मैं लौट आऊँ और सीता का समाचार प्रभु रामजी को सुना दूँ। मानो
हनुमान जी कहना चाहते हैं सुरसा से कि रामाज्ञा, देवताओं की आज्ञा से
बड़ी है क्योंकि रामजी सुरगुरू हैं। उनका कार्य देवकार्य से बड़ा है, प्रभु ने कहा है-
“कहिबल विरह वेगि तुम आवहु"
अतः सीताजी की सुधि प्रभु को सुनाने
तक आज्ञा की पूर्ति हो जावेगी अत: “रामकाजु करि फिर में आवौँ” तुम स्त्री हो, स्त्री
(सीता) पर दया करो । तब मैं आकर तेरे मुँह में घुस जाऊँगा, हे
माता मैं सत्य कहता हूँ मुझे जाने दो। फिर भी वह किसी उपाय से नहीं जाने देती तब
हनुमान ने कहा कि तो फिर मुझे खा ले । उसने-
जोजन
भरि तेहिं बदनु पसारा। कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा।।
सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ। तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ।।
जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा। तासु दून कपि रूप देखावा।।
सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा। अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा।।
योजनभर मुख फैलाया, हनुमान
ने अपने शरीर को उससे दूना कर लिया, सुरसा ने समझ लिया कि यह
दूना बढ़ेगा मैं चार योजन मुँह करूँ तो यह.आठ योजन बढ़ेगा, अत:
धोखा देने के लिये उसने सोलह योजन मुख फैलाया। बंधु माताओं हनुमानजी बत्तीस योजन
हो गये। यहाँ भौतिक बल की परीक्षा न होकर दिव्य बल की परीक्षा हो रही है' महिमा' सिद्धि का उत्कर्ष दिखाया जा रहा है, जैसे-जैसे सुरसा ने मुख का विस्तार किया, हनुमानजी
ने उसका दूना रूप दिखाया। उसने सौ योजन का मुख फैलाया, हनुमानजी
फिर बढ़ने के बदले एकाएक अत्यन्त छोटे हो गये, सुरसा का
चित्त बढ़ाव की ओर था, धोखा देना चाहा था सो वह स्वयं धोखा
खा गई ।
हनुमानजी ने यहाँ' लघिमा'
सिद्धि का उत्कर्ष दिखलाकर उसके मुख में जाकर बाहर निकल आये,
अपने को धर्मपाश से मुक्त कर लिया। देवताओं ने आहार कल्पना किया था
सो उसके मुँह में प्रविष्ट हो गये, देवताओं की बात रख ली,
अब सुरसा उन्हें गले के नीचे न उतार सकी तो यह उसकी त्रुटि थी।
हनुमान जी देवी समझ उससे प्रणाम कर विदा माँगते हैं, इससे
अपनी बड़ी भारी निर्भीकता तथा सजगता का परिचय देते हैं।
रामकाज
सब करिहहु, तुम्ह बल बुद्धि निधान ।
आशिष देइ गई सो, हरषि चलेउ हनुमान ॥
हनुमानजी हर्षित होकर चले क्योंकि
सुरसा देवी से सब राम कार्य करने का आशीर्वाद पाया है और राम-कार्य करने में ही
हनुमानजी के जीवन का साफल्य है। आगे चले तो समुद्र में एक 'सिंहिका'
नाम की निशिचरी (राक्षसी) जो हिरण्यकशिपु की कन्या और विप्रचिन्ति
दैत्य की स्त्री थी। यह काम रूपिणी इच्छानुसार रूप धारण करने वाली और छाया ग्रहिणी
थी, हनुमान को देखकर उसने सोचा कि आज बहुत दिन के लिये पेट
भर जायेगा। नमुचि और राहु आदि तेरह दैत्यों की यह जननी थी, यह
माया से आकाशचारियों का शिकार बैठे-बैठे करती थी । अघटित घटना घटी यही माया है जो
न हो उसे करके दिखा दे, छाया पकड़ी नहीं जाती, व्यक्ति के पकड़े जाने से ही उसकी छाया पकड़ी जाती है। यहाँ ये सिंहिका
छाया पकड़ती थी और जिसकी छाया है वह पकड़ा जाता था यही माया है। इसके बेटे राहु
में इतना सामर्थ्य है कि गगनचारी सूर्य और चन्द्रमा को ग्रसता है छाया के साथ ही
खिंचे हुए उसके मुख में चले आते थे। गगनचरों के भक्षण की यही विचित्र विधि थी वही
माया उसने हनुमान से की, पर हनुमान तुरंत ही पहचान गये कि
इसका बल छाया के मार्ग में ही है जिधर ये खींच रही है, उधर
ही पराक्रम करने से काम चल सकता है प्रतिकूल विधि से पराक्रम विफल होगा, अतः हनुमानजी उसी सिंहिका के मुँह में बड़े जोर से कूद कर उसे फाड़ डाला।
ताहि
मारि मारुतसुत बीरा। बारिधि पार गयउ मतिधीरा।।
तहाँ जाइ देखी बन सोभा। गुंजत चंचरीक मधु लोभा।।
पवनपुत्र मतिधीर वीर हैं उसे मारकर
समुद्र पार गये दिन रहते ही।" वहाँ जाकर वन की शोभा देखी, अनेक
प्रकार के वृक्ष सुंदर फल, फूल, पशु
पक्षियों का समूह देख प्रसन्न हुए। नगर में बहुत से रखवालों को देखकर हनुमान ने मन
में विचार किया कि अति लघु रूप धरूँ और रात्रि में प्रवेश करूँ।
लंका
प्रवेश प्रसंग
मसक
समान रूप कपि धरी । लंकहि चले सुमिर नर हरी ॥
नाम लंकिनी एक निशिचरी । सो कह चलेसि मोहि निंदरी ॥
फिर लघिमा सिद्धि से काम लिया, अपना
आकार हनुमानजी ने मच्छर के समान छोटा बनाया रूप बंदर का ही रहा। अँगूठी जिसे मुँह
में लेकर चले थे उसी तारतम्य से छोटी हो गई। जहाँ कोई मार्ग न हो वहाँ मार्ग
निकालने वाले नृसिंहजी हैं। हिरण्यकशिपु ने मृत्यु का सब मार्ग रोक दिया था।
नृसिंहजी ने उसमें भी रास्ता निकाल कर उसका वध किया था । अतः अवसर के अनुसार
नृसिंहजी का स्मरण किया। लंकापुरी की अधिष्ठात्री देवी लंकिनी नाम से पुकारी जाती
थी ।
उसका नाम व स्वरूप दोनों कहे लंका
में घुसते ही लंकिनी ने हनुमानजी को रोका, इससे स्पष्ट है कि वह पुरी
के बाहर फाटक पर रक्षा के लिये बैठी थी, हनुमानजी का अतिलघु
रूप भी देख वह बोली मेरा तिरस्कार करता है मैं स्वयं लंका नगरी हूँ मेरा तिरस्कार
करके कोई नगर में नहीं जा सकता। लंका के उत्पत्ति के साथ इसकी भी उत्पत्ति हुई
इसीसे वह अपनी रक्षा स्वयं करती आयी ।
वह हनुमान जी से बोली जितने छिपकर लंका में जाने वाले चोर हैं वे ही
रावण द्वारा मेरे आहार कल्पित किये गये हैं। हनुमान ने विचार किया कि इस रूप से
मैं कुछ नहीं कर सकता इसलिये बड़े बानर का रूप धारण करके बाँए हाथ से एक घूँसा
मारा वह खून उगलती हुई पृथ्वी पर गिर पड़ी। फिर सँभलकर उठी और सशंक होकर हाथ जोड़े
विनती करने लगी कि जब ब्रह्मा ने रावण को वरदान दिया था तब चलते समय उन्होंने मुझे
एक पहचान बतला दी कि जब तू बंदर के मारने से व्याकुल हो जाय तब जान लेनाकि
राक्षसों का संहार अब हुआ ही चाहता है ।
तात
मोर अति पुन्य बहूता। देखेउँ नयन राम कर दूता।।
हे तात! मेरा अत्यन्त बड़ा पुण्य है
जो आँखों से रामदूत का दर्शन पाया। सात स्वर्ग और अपवर्ग के सुख को तराजू के पलड़े
पर रखा जाय तो भी वह सब मिलकर उस सुख के बराबर नहीं हो सकते, जो
सत्संग के लवमात्र से होता है।
तात
स्वर्ग अपवर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूलन ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग।।
उसने कहा- आप अपने हृदय में श्री
रामचंद्र जी को स्मरण कर लंका में प्रवेश कीजिए उनके प्रताप से सब कार्य शुभ
होंगे।
हृदय
श्यामलं रूपं सीता लक्ष्मण संयुक्तं ।
जिभ्या राम रामेति मधुरं गायतिक्षणम् ॥
उसके लिये विष अमृत हो जाता है, शत्रु
मित्रता करने लगते हैं, समुद्र गाय के खुर के समान हो जाता
है, अग्नि में शीतलता आ जाती है जिस पर श्रीराम कृपा करके
देखते हैं। हनुमान जी ने तीसरी बार अब फिर लघु रूप धारण करके-
“श्रीराम जय राम जय जय राम" कहते
हुए लंका नगर में प्रवेश किया । एक-एक करके सब घरों को हनुमानजी ने खोजा, रावण के मन्दिर में गये, उसको शयन किये हुए देखा
परंतु उस घर में वैदेही को नहीं देखा। फिर एक सुंदर घर दिखाई पड़ा वहाँ भगवान का
एक अलग मंदिर बना हुआ था।
विचार करने लगे श्रीरामजी के आयुध के
चिन्हों से सुसज्जित यह किसका घर है? उसी समय राम-राम कहते हुए
विभीषण जी जगे, हनुमान जी से भेंट हुई और जब उन्होंने जाना
कि यह रामदूत हैं तब उनको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने माता जानकी जहां रुकी है
वह स्थान बतलाया, हनुमान जी अशोक वाटिका पर आए हैं और माता
जानकी की स्थिति को देखे हैं।
कृस
तन सीस जटा एक बेनी। जपति हृदयँ रघुपति गुन श्रेनी।।
शरीर कृश हो गया है, सिर
पर जटा की एक लट हो गई और हृदय में रघुपति के गुण समूह का जप करती हैं। नेत्र को
अपने चरणों में लगाये हुए हैं और मन श्रीरामजी के चरणों में लीन हैं, जानकी को दीन देख पवनसुत परम दुःखी हुए। हनुमानजी वृक्ष के पत्तों में
छिपे विचार करने लगे कि क्या करूँ ? उसी समय सजधज कर
स्त्रियों को साथ लिये रावण वहाँ आया। कहने लगा हे सीता तुम मेरी ओर एक बार देख लो
तुम्हारी सेवा में मैं मंदोदरी आदि रानियां को भी लगा दूंगा।
माता ने कहा- शरीर को तृणवत त्याग
करने वाले राजा दशरथजी की पुत्रवधू हूँ उक्ति के अनुसार तृणवत शरीर त्याग कर भस्म
कर दूँगी,
पर तेरी बात न माँनूगी या तो प्रभु की भुजा गले में पड़ेगी या तेरी
तलवार । रावण सब राक्षसियों को बुलाकर कहा कि जाकर सीता को बहुत प्रकार से भय
दिखाओ, यदि एक महीने में उसने न माना तो मैं उसे अपनी तलवार
से मार दूंगा । रावण के घर चले जाने पर राक्षसियों का समूह बुरे-बुरे रूप धारण
करके सीताजी को भय दिखाने लगीं, उनमें एक त्रिजटा नाम की
राक्षसी थी, उसकी रामजी के चरणों में प्रीति थी। उसने सबको
बुलाकर अपना स्वप्न सुनाया कि-
सपनें
बानर लंका जारी। जातुधान सेना सब मारी।।
खर आरूढ़ नगन दससीसा। मुंडित सिर खंडित भुज बीसा।।
बंदर ने लंका जला दी, राक्षसों
की सेना मार डाली गई, रावण गधे पर सवार है उसके सिर मुंडे
हुए हैं और बीसों भुजाएँ कटी हुई हैं, लंका विभीषण को मिली
है। य यह सपना चार दिनों में सत्य हो जायेगा, तुम सब सीता की
सेवा करके अपना कल्याण कर लो, उसके वचन सुन सब डर गईं और
जानकी के चरणों में जाकर गिरीं। तब सीताजी हाथ जोड़कर त्रिजटा से बोलीं कि हे माता
तू मेरी विपत्ति की संगिनी है ऐसा उपाय कर जिससे मैं शरीर छोड़ सकूँ त्रिजटा ने
चरण पकड़ कर समझाया। सीताजी कहने लगीं हे अशोक वृक्ष मेरी विनती सुनो- अपना नाम
सत्य करो और मेरे शोक का हरण करो, तेरे नये पत्ते अग्नि के
समान हैं तू अग्नि दे और शरीर का नाश कर, सीता को विरह से
परम व्याकुल देखकर वह क्षण हनुमान को कल्पसम बीता, तब अपने
हृदय में विचार करके उन्होंने अँगूठी डाल दी।