F राम कथा हिंदी में लिखी हुई-71 ramayan katha in hindi - bhagwat kathanak
राम कथा हिंदी में लिखी हुई-71 ramayan katha in hindi

bhagwat katha sikhe

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-71 ramayan katha in hindi

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-71 ramayan katha in hindi

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-71 ramayan katha in hindi

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-71 ramayan katha in hindi 

राम भक्ति से यंत्रित साक्षात शिवजी अपने भक्त रावण के कल्याण के लिये रुद्ररूप हनुमान हाथ जोड़कर विनती कर रहे हैं, मेरी सीख सुनो, तुम विद्वान हो, कुल धर्म न छोड़ो-उत्तम कुल पुलस्त्य करनाती" तुम्हारे पितामह, पिता, भाई विभीषण कैसे भक्त हैं इसलिये भक्तभयहारी को भजते हैं तुम भ्रम में हो,“होइहि भजन न तामस देहा" वैर करने से दुर्यश होगा, भजन करने से वे तुम्हारे वश हो जायेंगे, तुम्हें उनके मनुष्य होने का भ्रम है, उसे छोड़ उनका भजन करो।

काल का पेट कभी नहीं भरता, ऐसे विषम बली से बैर करना अपनी मृत्यु को बुलाना है। वे तुमसे बैर नहीं करते तुम्हारे अभिमान से बैर करते हैं इसलिये हनुमान कहते हैं “त्यागहुतम अभिमान” मैंने जो कुछ भी कहा है वह तीनों कालों में हितकर, धर्मयुक्त और शास्त्र सम्मत है अब मेरा कहना मानकर श्रीरामजी को जानकी जी लौटा दो। और यह भी द्योतित किया कि ये बातें प्रभु ने तुमसे कहने के लिये नहीं कही, अपनी ओर से कह रहा हूँ। अपराध की गंभीरता से निराश न होओ, शरण जाने में तुम्हें लज्जा नहीं होनी चाहिए, शरण न जाओगे तो तुम भी खरदूषण की तरह मारे जाओगे। शरणागत के लिये वे करुणासिंधु और विमुखों के लिये खरारि रूप हैं, शरणागत जाने में तुम्हारी प्रभुता बनी रहेगी अपराध तो क्षमा हो ही जायेगा।

यद्यपि हनुमानजी ने अत्यंत हित की बात कही भक्ति, ज्ञान, वैराग्य और नीति सनी हुई थी पर वह महाभिमानी खूब हँसा, इतनी देर तक हँसी रोके रहा उपदेश समाप्त होते ही हँसा, यह वेद भाषी पंडित को बंदर उपदेश देने चला है।

मृत्यु निकट आई खल तोही। लागेसि अधम सिखावन मोही।।
उलटा होइहि कह हनुमाना। मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना।।

रे खल तेरो निकट मृत्यु आ गई है तू अधम मुझे सिखाने चला। हनुमान ने कहा उल्टा होगा मृत्यु तेरी निकट है और बतलाता है कि मेरी निकट है सुनकर खिसियाकर बोला—

बज्रदन्त रक्तप उठो, लेकर खड़ग तुरंत ।
मस्तक काटो कीश का, करो शीघ्र ही अंत ॥

सुनते ही राक्षस मारने दौड़े तब तक मंत्रियों के साथ विभीषण जी आ गये। उन्होंने सिर नवाकर और बहुत विनय करके कहा कि दूत को मारना नहीं चाहिए। यह बात नीति के विरुद्ध है इसको कोई दूसरा दंड दिया जाय। ऐसा नीति शास्त्र कहता है । सबने इस बात का समर्थन किया। यह सुन रावण हँस कर बोला अच्छा तो अंग भंग करके बंदर को यहाँ से भेज दो। सबको समझाकर कहता हूँ देखो बंदर की ममता पूँछ पर होती है सो तेल घी में कपड़ा डुबोकर उसे इसकी पूँछ में बाँधकर आग लगा दो। रावण के बचन सुनते ही हनुमानजी मन में मुस्कराये और मन में ही बोले कि समझ गया कि सरस्वती देवी सहाय हुईं। मन में सोचे जिस नगर में जगदम्बा विरह ज्वाला में जल रही हैं वह लंका को जला देना चाहिए।

मूर्ख राक्षस रावण के बचन सुनकर वही रचना करने लगे, हनुमानजी ने पूँछ बढ़ाना प्रारम्भ किया उसे तेल डुबे वस्त्रों से लपेटते नगर में वस्त्र, घी और तेल जरा सा भी न रह गया। कौतुक के लिये पुरवासी आ गये और उनकी बहुत हँसी उड़ाते हैं, ढोल बजा रहे हैं, सब तालियाँ देते बजाते हैं, नगर में इनको फिराकर पूँछ में आग लगा दी। अग्नि जलती हुई देखकर हनुमान तुरंत लघुरूप हो गये अर्थात् पूँछ छोड़ सब अंगों को छोटा कर लिया। लंका दहन प्रसंग - और इस प्रकार बंधन से निकलकर सोने की लंका पर चढ़ गये यह देख निशाचरों की स्त्रियाँ भयभीत हो गयीं।

रावण का घर सबसे ऊँचा था उस पर चढ़े हुए मेरू के समान हनुमानजी ऊँचे और उनसे भी ऊँची उनकी जलती हुई पूँछ थी, यह दृश्य देखकर निशाचरों की स्त्रियाँ डर गयी। उस समय हरि की प्रेरणा से उनच्चासों पवन चले। लंका की स्त्रियां बस यही कहती- हाय रे बाप, हाय रे माँ इस अवसर पर हमें कौन बचायेग, हमने तो पहले ही कहा था कि यह बंदर नहीं वानर का रूप धारण कर कोई देवता है।

साधु के अपमान का यह फल है कि नगर अनाथ की भाँति जल गयी। पलक झपकते ही सारी लंका को जला दिया। एक विभीषण का घर नहीं जला। अग्नि हनुमानजी के वश में है जितना जलाना चाहा वे ही का घर जले। जिसे नहीं जलाना चाहा वह बच गया ।

यहाँ श्रीशिवजी महाराज पार्वती को फिर सावधान करते हैं। हे गिरजे ! जिन्होंने अग्नि बनाई उन्हीं का वह दूत था, इसलिये नहीं जला। हनुमानजी ने उलट-पुलट कर सारी लंका जला दी, अर्थात् एक बार जलाते हुए चले गये फिर उधर से उलटे और जलाते हुए चले, किनारे पहुँचकर फिर पलटे इस प्रकार तीन आवृति की जिसमें कोई घर बच न जाए और नगर के सम्पूर्ण भागों में एक समय ही आग लगे ।

हनुमानजी लंका जलाने के क्रम में उस मकान के पास पहुँचे जहाँ कुंभकर्ण प्रगाढ़ निंद्रा में सोया हुआ था। उसकी पत्नी वज्र ज्वाला ने श्रीराम जी का नाम लेकर कहा कि आप दीनानाथ हैं और जिस पत्नी का पति आपके दूत द्वारा लगाई गई आग में जलने वाला हो । भला उससे अधिक दीन और कौन हो सकता है? आप अपनी पत्नी सीता को पाने के लिये जितने व्याकुल हैं अपने पति की रक्षा के लिये मैं उससे कम व्याकुल नहीं हूँ। कुंभकरण की पत्नी द्वारा राम की प्रार्थना सुनकर हनुमानजी वहाँ से भी पलट गये, अत: उलट-पुलट लिया।

इस बीच हनुमानजी ने दो बड़े काम किये एक तो उन्होंने रावण के यहाँ बंदी बनाये गये शनिदेव का उद्धार किया। सोने की लंका को शनि के माध्यम से काली करवाकर रावण का मदचूर किया। वहीं अपने भक्तों पर शनि की कृपालुता का बचन हासिल कर लिया। लंका को जलती देखकर रावण ने अपने वशवर्ती काल को हनुमान का काम तमाम करने को छोड़ दिया। अट्टहास करता हुआ काल जब हनुमानजी के पास पहुँचा तो उन्होंने पकड़ लिया और मसल डालना ही चाहते थे कि देवता प्रार्थना करने लगे। महाराज आप काल को छोड़ दीजिए। इस प्रार्थना पर काल को छोड़ दिया। इसके बाद हनुमानजी समुद्र में कूद पड़े ।

पूँछ बुझाइ खोइ श्रम, धरि लघु रूप बहोरि ।
जनक सुता के आगे ठाड़ भयौकर जोरि ॥

सीता जी ने सुना था कि बंदर पकड़ा गया उसकी पूँछ जलाई जा रही है सो बहुत दुःखी थीं अत: उनके सामने खड़े हुए कि मैं कुशल हूँ ये राक्षस मेरा कुछ न कर सके। और कहा हे माता !

मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा। जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा।।
चूड़ामनि उतारि तब दयऊ। हरष समेत पवनसुत लयऊ।।
कहेहु तात अस मोर प्रनामा। सब प्रकार प्रभु पूरनकामा।।

मुझे अब कोई चिन्ह दीजिये जैसे रघुनायक ने मुझे दिया 'ने था तब सीताजी ने अपनी चूड़ामणि उतार कर दी । हनुमान ने हर्षित होकर ले लिया। हनुमान से कहने लगीं हे तात! मेरा प्रणाम निवेदन करना।

दीनदयाल विरद संभारी । हरहु नाथ मम संकट भारी ॥

प्रभु तो सब प्रकार से पूर्ण काम हैं फिर भी वह दीन दुखियों पर कृपा करते हैं। हे नाथ मेरे भी इस संकट को दूर कीजिए। इस प्रकार माता जानकी जी प्रभु को प्रणति निवेदिक करती हैं और हनुमान जी से कहती हैं कि प्रभु से कह देना यदि महीने भर में नाथ नहीं आएंगे तो फिर मुझे जीती ना पाएंगे। श्री हनुमान जी महाराज बहुत प्रकार से माता को धीरज धराए हैं और कहा कि हे मैया यह राघव जी की मुंदरी देखकर संतोष करना। यह उनके स्वरूप से भिन्न नहीं है।

प्रणाम करके चल पड़े। चलते समय हनुमानजी ने महाध्वनि से गर्जना की। गर्जना करने का यह है कि जिसमें कोई यह न समझ सके न जाने कब चोरी से बंदर भाग गया।

नाघि सिंधु एहि पारहिं आवा। सबद किलकिला कपिन्ह सुनावा ॥

हरषे सब विलोकि हनुमाना । नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना ॥

हनुमानजी समुद्रोलंघन करके इस पार आ गये, सबने अपने जन्म को नया जाना। सब हनुमानजी से मिल रहे हैं जैसे तड़पती हुई मछली को जल मिल जाय। सब इस नये वृतांत को पूछते और कहते हुए रघुनाथ के पास चले।

रघुनाथ सन्निकट प्रसंग

तब सब बानर मधुवन के भीतर घुस गये, जैसे इन्द्र का नंदन बन है, रावण का अशोक बन है वैसे ही राजा सुग्रीव का मधुवन है। सुग्रीव के सिवाय दूसरा कोई उसमें प्रवेश नहीं कर सकता था। उस रमणीय बन के राक्षसों का नायक सुग्रीव का मामा दधिमुख नाम का बलवान बानर था। इसमें मधु बहुत होता है इसी से इसका नाम मधुवन है।

उसमें बानर अंगद की सम्मति से जाकर मधु, फल खाने लगे, हनुमानजी के मुख से अशोक वन के फलों का स्वाद सुनते आ रहे हैं सो फल के रसिकों का चित्त चलायमान देख अंगद ने आज्ञा दे दी। सब रखवालों ने मिलकर रोका क्योंकि वहाँ के मधु और फल खाने की किसी को आज्ञा नहीं है, सो रोकने का असर घूँसों से मिला, घूँसा खाते ही भाग खड़े हुए। उन सबने जाकर सुग्रीव से पुकार की कि युवराज ने बन उजाड़ डाला, सुनकर सुग्रीव जी हर्षित हुए कि बंदर प्रभु का कार्य करके आ गये।


यदि इनको सीता की सुधि नहीं मिली होती तो क्या मधुवन के फल ये खा सकते थे? इस प्रकार मन से विचार करते ही ये बंदर गण समाज के साथ आ गये। आकर सबने सुग्रीव के चरणों में सिर नवाया, बानरराज सभी से प्रेम से मिले पूछने पर उत्तर मिला रामजी की कृपा से विशेष रूप से कार्य हुआ।

लंका दहनादि विशेष कार्य है सो विशेष कार्य ऐसा हुआ कि उसे कृपा साध्य ही कहना चाहिए, क्रिया से ऐसा नहीं हो सकता। हे नाथ ! यह कार्य हनुमानजी ने किया, सब बंदरों का प्राण बचाया, सुनकर सुग्रीव फिर हनुमानजी से मिले और बानरों के साथ श्रीराम जी के पास चले ।

श्रीरामजी ने जब बानरों को कार्य किये प्रफुल्लित मन आते देखा तो दोनों भाई स्फटिक शिला पर जा बैठे। सभी बानर उनके चरणों में गिरे, कृपा के समूह रघुनाथजी सबसे प्रेम के साथ मिले और कुशल पूछी बानरों ने कहा नाथ! अब श्रीचरणों के दर्शन से सब कुशल है। जामवंतजी कहते हैं हे रघुराज, हे नाथ! जिस पर आप कृपा करें उसको सदा ही कल्याण है और निरंतर उसकी कुशल है। सुरनर मुनि सभी उस पर निरंतर प्रसन्न रहते हैं वही विनयी हैं वही विजयी है और गुणसागर है उसी का सुयश तीनों लोकों में प्रकाशित रहता है।

प्रभु की कृपा भयउ सब काजू । जन्म हमार सुफल भा आजू ॥
नाथ पवन सुत कीन्ह जो करनी । सहसहुँ मुख न जाइ सोइ बरनी ॥

जामवंतजी ने पवनसुत के सुंदर चरित्र रघुपतिश्री रामजी को सुनाये तब हनुमानजी को श्रीराम ने हृदय से लगा लिया। हे तात कहो जानकी किस प्रकार रहती हैं और कैसे अपने प्राणों की रक्षा करती हैं। हनुमानजी उत्तर देते हैं-

नाम पाहरू दिवस निशि, ध्यान तुम्हार कपाट ।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट ॥

उनके आपके ध्यान रूपी किवाड़ में प्राण बंद हैं मन के रुकने से प्राण रुका हुआ है। ध्यान तुम्हार कपाट' से 'मन', 'नाम पाहरू दिवसि निसि' से 'बचन', 'लोचन निज पद जंत्रित' से 'कर्म'। जानकी के मन बचन कर्म तीनों आप में ही लगे हुए हैं। यहाँ वैराग्य, भक्ति और योग तीनों वर्णित हैं "नाम पाहरू” 'वैराग्य' है क्योंकि रात दिन जगना यह वैराग्य का लक्षण है 'ध्यान तुम्हार' 'भक्ति' है और ‘लोचन निल पद' यह 'योग' है। तात्पर्य यह कि जो इस प्रकार मन बचन कर्म से आपके नाम रूप में लगे हैं और लगे ही रहें उन पर काल का अधिकार नहीं रहता । चलते समय मुझे चूड़ामणि दी, रामजी को देने पर उन्होंने उसे हृदय से लगा लिया । "

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