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राम कथा हिंदी में लिखी हुई-72 ramayan katha hindi notes pdf

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राम कथा हिंदी में लिखी हुई-72 ramayan katha hindi notes pdf

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-72 ramayan katha hindi notes pdf

 राम कथा हिंदी में लिखी हुई-72 ramayan katha hindi notes pdf

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-72 ramayan katha hindi notes pdf

हनुमानजी ने कहा हे नाथ ! दोनों आँखों में आँसू भरकर कुछ बचन श्रीजानकी ने कहे हैं कि मेरी तरफ से प्रभु का चरण पकड़ना और कहना कि आप दीनबंधु हैं शरणागत के दुःखों को हरने वाले हैं मैं मन, बचन, कर्म से आपकी अनुगामिनी हूँ, हे नाथ! मैं किस अपराध से त्यागी हुई हूँ और लक्ष्मण जी से कहना मैंने जो दुर्वचन कहे उन्हें क्षमा करें।

एक दोष मैं अपना मानती हूँ कि वियोग होते ही प्राण नहीं चले गये, हे नाथयह तो नेत्रों का अपराध है जो प्राणों को निकलने में हठ पूर्वक बाधा देते हैं।

सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना। भरि आए जल राजिव नयना।।

सीताजी का दुःख सुनकर सुखधाम प्रभु के नेत्रों में जल भर आया। तन, मन, बचन से जिसे मेरी गति हो उसे क्या सपने में भी विपत्ति आ सकती है। अनन्य चिंतन करने वाले को विपत्ति कहाँ ? सीता ने अपने को कहा था- "मन क्रम बचन चरन अनुरागी ॥ " और हनुमानजी कहते हैं "सीता कै अति विपति विसाला ॥” इन दोनों बातों का सामंजस्य नहीं है बैठता क्योंकि प्रभु के अनुराग में विपत्ति हरण का सामर्थ्य है। हनुमानजी ने कहा- हे प्रभो !

कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई। जब तव सुमिरन भजन न होई।।

विपत्ति वही है कि जब आपका भजन स्मरण नहीं होता। सीताजी मन बचन कर्म से चरणानुरागिनी है 'मन' से चरण सेवा करती है' बचन' से नाम स्मरण करती है' नाम पाहरू दिवस निति' पर काय = तन से चरण सेवा नहीं बन पा रही, यही विपति है इसके बाधक राक्षस है सो उन्हें मारकर जानकी को ले आवेंगे, बस यह विपत्ति भी मिट जावेगी । यह सुन रामजी हनुमानजी से कहने लगे-

सुनु कपि तोहि समान उपकारी। नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी।।
प्रति उपकार करौं का तोरा। सनमुख होइ न सकत मन मोरा।।
सुनु सुत उरिन मैं नाहीं। देखेउँ करि बिचार मन माहीं।।

प्रभु बार-बार हनुमानजी की तरफ देख रहे हैं नेत्र में जल भरा है, शरीर अत्यन्त पुलकित है, इसमें वात्सल्य प्रेम की कृतज्ञता की भावना मुख्य है। भगवान ने कहा हे हनुमान तुम्हारे सामान मेरा उपकारी कोई नहीं है। मैंने बहुत विचार करके देख लिया कि मैं तुमसे उरिण नहीं हो सकता। प्रभु के ऐसे प्रेम भरे वचनों को सुनकर श्री हनुमान जी महाराज प्रभु के चरणों में गिर पड़े।

बड़ाई देने से हनुमानजी सनेह सभीत हो गये, बड़ाई भजन में बाधक है। इसलिए हनुमान जी प्रभु के चरणों को दृढ़ता से पकड़ लिए कि बड़ाई से मुझे अहंकार न उत्पन्न हो जाय, इस माधुर्य में मैं भूल न जाऊँ, मुझे प्रभु की बलवती माया कहीं धर न दबोचे, इन्हीं शत्रुओं से बचने के लिये त्राहि-त्राहि कर रहा हूँ। ईश्वर का उपकार भला जीव क्या कर सकता है ? प्रभु बार-बार उठाना चाहते हैं प्रेम में डूबे हनुमानजी को उठना नहीं सुहाता । श्रीरामजी का कर कमल हनुमानजी के सिर पर है उस दशा का स्मरण करके अपने कथा प्रसंग में शिवजी मग्न हो गये।

प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा। सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा।।
सावधान मन करि पुनि संकर। लागे कहन कथा अति सुंदर।।

हनुमान शरीर से उस सुख का अनुभव हो रहा है, कथा कहना बंद हो गया तब गौरी ने शिव की ओर देखा शिवजी का शरीर बिलकुल स्थाणु के समान तटस्थ निश्चल है नेत्रों से अश्रु विंद टपक रहे हैं वे तो आश्चर्यचकित हो गईं। फिर मन को सावधान करके शिवजी सुंदर कथा कहने लगे । हनुमानजी को उठाकर अपने हृदय से प्रभु रामजी ने लगाया और हाथ पकड़कर अपने पास बिठाकर उनसे लंका का हालचाल पूछने लगे हे कपि! लंका तो रावण द्वारा रक्षित है उस बड़े बाँके दुर्ग को तुमने किस भाँति जलाया? हनुमानजी ने प्रभु प्रसन्न जाना उनकी प्रसन्नता में संदेह था क्योंकि प्रभु ने लंका दहन की आज्ञा तो दी नहीं थी और यह प्रश्न आश्चर्य पूर्वक पूछा और नगर में आग लगाना आतातायी का काम है इससे कहीं प्रभु अप्रसन्न न हों “सत्य नगर कपि जारेउ' इसी बात को प्रभु आदर से पूछ रहे हैं अत: मन में निश्चय हुआ कि प्रसन्न हैं, अत: हनुमान विगत अभिमान बचन बोले-

साखामृग के बड़ि मनुसाई। साखा तें साखा पर जाई।।

बंदर की तो केवल यही बहादुरी है भगवान कि वह एक डाल से दूसरी डाल पर छलांग लगा लेता है, शाखा पर कूँद फाँद करने वाला समुद्र नहीं लाँघ सकता। सोने के घर आग लगाने से जल नहीं सकते। एक निशाचर बानर समूह का नाश कर सकता है और एक बानर एक निशाचर को भी नहीं मार सकता फिर निशाचर गणों को भला क्या मारेगा? रावण के बाग की ओर देवता तो दृष्टि डाल ही नहीं सकते तब बानर किस गिनती में हैं।

नाघि सिंधु हाटकपुर जारा। निसिचर गन बिधि बिपिन उजारा।
सो सब तव प्रताप रघुराई। नाथ न कछू मोरि प्रभुताई।।

सज्जनों हनुमान जी ने समुद्र पार कर पहले वाटिका उजारी फिर निशाचर वध किया और अंत में लंका दाह किया पर उन्होंने यहाँ प्रभु से कहा-

नाघि सिंधु हाटकपुर जारा। निसिचर गन बिधि बिपिन उजारा।

ऐसा क्यों कहा? यह तो क्रम झूठा हो गया। इसका समाधान यह है कि हनुमानजी जब वृक्ष के पत्तों में छिपे बैठे थे वहाँ त्रिजटा ने निशाचरियों को अपना सपना सुनाते हुए कहा था-सपने बानरलंका जारी"तो प्रभु मेरे विचार में आया कि मुझे तो ऐसी आज्ञा प्रभु ने दी नहीं है और न मेरे पास आग का कोई प्रबंध | सीता माता को तो माँगने से आग नहीं मिल रही। मैं कहाँ से अग्नि लाता पर प्रभु यह संदेश तो त्रिजटा द्वारा आपने ही भिजवाया।

अत: इन सभी कार्यों से आपके संकल्प के अनुसार लंका तो आपकी इच्छा से पहले ही जल गई चाहे समाज के देखने में पीछे आई फिर भी मैं संशय में था पर जब रावण ने मेरी पूँछ में तेल कपड़ा बाँधकर आग लगाने को कहा तो मुझे पूर्ण विश्वास हो गया कि प्रभु लंका जलाने का पूरा प्रबंध रावण द्वारा ही करा रहे हैं । त्रिजटा के स्वप्न को प्रभु सत्य कराना चाहते हैं ये चारों काम सागर उल्लंघन, लंका दहन, निशाचर संहार और बन विध्वंस आपकी प्रभुता ने किये, इसमें मेरी कोई प्रभुता नहीं है ।

प्रभु मुदरी उहिपार लै, चूड़ामणि ऐहि पार ।
सीय विरह लंका जरी, प्रभु परताप तुम्हार ॥

नाथ आपकी राम-नाम की मुद्रिका से समुद्र पार हुआ, महारानी की चूड़ामणि से उस पार से आया । सीताजी के विरह और आपके प्रताप से लंका जली, मेरा इसमें कुछ नहीं । हे नाथ! मुझे आपकी अति सुख देने वाली, कभी नष्ट न होने वाली शास्वत अनपायिनी भक्ति कृपा कर दीजिये । जो ज्ञान, विज्ञान और विराग से भी अधिक सुख देने वाली है। कृपा से जो भक्ति मिलती है उसका नाश नहीं होता और जो धर्म सुकृत से मिलती है।

"जप जोग धर्म समूह ते नर भगति अनुपम पावहीं ॥"

उसका नाश भी है क्योंकि पुण्य जब क्षीण हो जायेंगे तो वह भी न रह जायेगी, पुण्यों का नाश हो जाता है पर कृपा का नाश नहीं होता "जासु कृपा नहिं कृपा अघाती ॥” अत: कृपा से मिली भक्ति का अंत नहीं इससे मानस में सभी ने कृपा को प्रधानता देकर भक्ति भगवान से माँगी है। शिवजी कथा प्रसंग में कहते हैं भवानी, कपि की परम सरल वाणी सुनकर तब प्रभु राम ने "ऐवमस्तु" ऐसा ही हो कहा ।

रघुवीर का समुद्र तट प्रस्थान प्रसंग

रामजी ने वानरादि को आज्ञा दी -लंका चलने के लिये श्रीरामजी की कृपा का बल पाकर श्रेष्ठ वानर मानों पंख वाले बड़े-बड़े पर्वत हो गये। अब रामजी ने हर्षित होकर प्रस्थान किया, बानर और रीक्ष अपार गर्जना कर रहे हैं नख ही जिनके शस्त्र हैं वे इच्छानुसार चलने वाले पर्वत और वृक्षों को धारण किये कोई आकाश मार्ग से कोई पृथ्वी पर चले जा रहे हैं।

उनके सिंह के समान गर्जना करने से दिशाओं के हाथी विचलित होकर चिंघाड़ रहे हैं, पृथ्वी हिल रही है पर्वत चंचल हो गये समुद्र के जल में खलबली पड़ गयी, चन्द्रमा, देवता, मुनि, नाग देव और किन्नरों के मन में हर्ष हुआ, प्रबल प्रताप कौशलनाथ की जय हो ऐसा पुकारते हुए चले जा रहे हैं ।

ऐहि विधि जाइ कृपानिधि, उतरे सागर तीर ।
जहँ तहँ लागे खान फल, भालु विपुल कपि वीर ॥

जो सेना चली उसने बीच में कहीं विश्राम नहीं किया, रात-दिन कूच करती हुई प्रवर्षण गिरि से समुद्र तट तक चली गई। उधर लंकामें जब से हनुमानजी उसे जलाकर गये तब से वहाँ राक्षस सशंक रहने लगे, अपने-अपने घरों में सब विचार करते हैं कि अब राक्षस कुल का कुशल नहीं है। जिसके दूत के बल का वर्णन नहीं हो सकता, उसके नगर में आने पर किसकी भलाई है। सब दुर्दशा तो दूत ने ही कर डाली।

मंदोदरी का रावण को समझाना

दूतिन्ह सन सुनि पुरजन बानी । मंदोदरी अधिक अनकुलानी ॥

रहसि जोरि कर पति पद लागी । बोली बचन नीति रसपागी ॥

दूतियों के मुख से नगरवासियों के बचन को सुनकर व्याकुल हो एकांत में हाथ जोड़कर पति के चरणों में गिरकर नीति रस में सनी हुई वाणी बोली, हे कन्त ! हरि से विरोध छोड़ दीजिये, मेरे अत्यन्त हितकर वचन को हृदय में धारण कीजिये । जिसके दूत की करनी ऐसी कि सारी लंका नगरी जलाकर राख कर दिया, उनके स्वामी का पराक्रम कैसा होगा?

अत: यदि आप भला चाहो तो अपने मंत्री को बुलाकर उनकी स्त्री को भेज दो। तुम्हारे कुल रूपी कमल बन को दु:ख देने वाली सीता ठंडकाल की रात्रि के समान आयी है। हे नाथ! सुनिये बिना सीता को दिये शम्भु और ब्रह्मा भी कल्याण नहीं कर सकते, उसके देने पर ही ये आपकी रक्षा कर सकते हैं।

संकर सहस विष्णु अज तोही । सकहिं न राखि राम कर द्रोही ॥
आप अपनी रक्षा क्या करेंगे आपके इष्ट देव भी रक्षा नहीं कर सकते ।

सज्जनों रावण ने कान से बात सुनी पर मन में न लाया क्योंकि सठ है और शठ से विनय करना व्यर्थ है। रावण किसी की न सुनै पर मंदोदरी की सुनता था, आज उसकी भी नहीं सुन रहा है। अत: रानी मंदोदरी अनुमान करती है कि- भयउ कंत पर विधि विपरीता ॥"

बैठेउ सभा खबरि असि पाई। सिंधु पार सेना सब आई।।

जब रावण को खबर मिली कि रामजी की सारी सेना समुद्र के उस पार आ गई, तब मंत्रियों से पूछने लगा कि उचित सम्मति दो? मंत्री, वैद्य और गुरू ये तीन यदि अप्रसन्नता के भय या लाभ की आशय से प्रिय बोलें तो क्रमश: राज्य, शरीर और धर्म का शीघ्र नाश हो जाता है। भाव यह कि वैद्य भय से या रोगी को प्रसन्न करने के लिये कुपथ्य माँगने पर कुपथ्य दे दे तो रोगी मर जावेगा। गुरू लोभ के वश शिष्य को अधर्म से न रोके यथार्थ उपदेश सन्मार्ग का न दे तो दोनों का धर्म नष्ट हो जायेगा।

लोभी गुरू लालची चेला । घोर नरक में ठेलम ठेला ॥

अगर मंत्री राजा को सही सीख नहीं देता तो राज्य का नाश हो जाता है। उसी अवसर पर विभीषण जी अपने सचिवों सहित आ गये। उन्होंने कहा, यदि आप मुझसे पूछें तो मैं यही कहता हूँ कि यदि आप अपना कल्याण, सुंदर यश, शुभगति और नाना प्रकार के सुख चाहते हो तो हे स्वामी ! पर स्त्री के ललाट को चौथ के चन्द्रमा की भाँति त्याग दें, इस चौथ के चन्द्रमा को त्यागने में मनुष्यों विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत हैं।

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