राम कथा हिंदी में लिखी हुई-73 ramayan katha notes pdf hindi
सतयुग के भाद्रपद शुक्ल चौथ को
वृहस्पति ने चन्द्रमा को। तारा (वृहस्पति की पत्नि) के साथ व्यभिचार करने के कारण
शाप दिया था कि आज की रात को तेरा मुख पतित रहेगा, जो कोई देखेगा उसे
कलंक लगेगा।
वेदान्त भूषण जी कहते हैं कि भद्रपद
कृष्ण ४ चौथ को अहल्या के साथ व्यभिचार में चन्द्रमा ने इन्द्र की सहायता की थी।
अतः उस तिथ का चन्द्रमा त्याज्य है। श्रीकृष्ण भगवान को चौथ के चन्द्रमा के दर्शन
से ही स्यंतक मणि की चोरी का मिथ्या कलंक लगा था।
श्री विभीषण जी ने रावण से कहा- हे
तात! रामजी मनुष्य राजा नहीं हैं ये भुवनेश्वर काल के भी काल हैं। ये ब्रह्म विकार
रहित जन्म रहित भगवान हैं। व्यापक, अजित अनादि और अनंत हैं। उन
कृपा के समुद्र भगवान ने पृथ्वी, ब्राह्मण, गौ और देवताओं के लिये हितकारक मनुष्य शरीर धारण किया है। हे भाई बैर
त्याग कर उन्हें मस्तक नवाइये। वे रघुनाथजी शरणागत का दुःख मिटाने वाले हैं,
हे नाथ! प्रभु को जानकी जी दे दीजिये और बिना कारण स्नेह करने वाले
रामजी को भजिये। मैं बार-बार पैर पड़ता हूँ और विनती करता हूँ कि मान, मद और मोह को छोड़ कर कौशल पति रामजी का भजन करो।
माल्यवंत नाम का रावण का एक निजी
मंत्री था,
उसने अन्य मंत्रियों की सम्मति पर दुःख माना था। अपना कोई अनुमोदक न
देखकर मौन था। जैसे ही विभीषण ने उपदेश दिया उसके बचन को सुनकर उसने भी विभीषण की
कही हुई बात रावण से कही।
इसे सुनकर रावण बोला- अरे यहाँ कोई
है ? ये दोनों सठ शत्रु की बड़ाई कर रहे हैं, इन्हें यहाँ
से निकाल कर दूर करो। इसे सुन माल्यवंत तो अपने घर चले गये और विभीषण हाथ जोड़कर
फिर कहने लगे, हे नाथ-
सुमति
कुमति सब कें उर रहहीं। नाथ पुरान निगम अस कहहीं।।
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना। जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना।।
सात्विकी बुद्धि को सुमति और राजसी
तामसी बुद्धि को कुमति कहते हैं ये सबके हृदय में रहती हैं। सुमति से सम्पत्ति अचल
रहती है,
दैवी सम्पत्ति बढ़ती है। कुमति से विपत्ति होती है।
पंडित, पुराण और वेद सम्मत वाणी से विभीषणजी
ने नीति का प्रतिपादन किया किंतु सुनते ही दशानन क्रोध में आग बबूला हो गया और
बोला- तू मेरा भाई होकर शत्रु का गुणगान कर रहा है, खाता
मेरा है प्रशंसा मेरी शत्रु की कर रहा है। ऐसा कहकर रावण ने विभीषण को लात मारी,
विभीषण ने बार-बार उनका चरण पकड़ा। लेकिन फिर भी रावण नहीं माना और
चरण का प्रहार करके विभीषण का त्याग कर दिया। तब विभीषण जी ने कहा ठीक है भैया अब
मैं जो सबको शरण देने वाले हैं जो जगत के एकमात्र स्वामी है श्री राम उनके चरणसरण
ग्रहण करूंगा।
अस
कहि चला बिभीषनु जबहीं। आयूहीन भए सब तबहीं।।
साधु अवग्या तुरत भवानी। कर कल्यान अखिल कै हानी।।
ऐसा कहकर विभीषणजी सचिवों सहित आकाश
मार्ग से ज्यों ही चले त्योंही सब राक्षस आयुहीन हो गये, हे
भवानी साधु का अपमान तुरंत ही सम्पूर्ण कल्याण की हानि कर देता है, रावण ने जब विभीषण को त्यागा तभी वह अभागा वैभव से हीन हो गया । सज्जनों
विभीषणजी कहते थे-
तात
कबहु मोहि जान अनाथा । करहहिं कृपा भानुकुल नाथा ॥
सो भानु कुलनाथा ने कृपा कर दी।
सरस्वती सहाय हो गईं,
रावण ने स्वयं निकालकर बाहर किया, इससे
विभीषणजी को हर्ष है प्रभु श्रीरामजी के दर्शन का मनोरथ था। वह प्रभु श्री
राघवेंद्र के पास जाते समय मन में यही विचार करते जा रहे हैं।
जिन्ह
पायन्ह के पादुकन्हि भरतु रहे मन लाइ।
ते पद आजु बिलोकिहउँ इन्ह नयनन्हि अब जाइ।।
आज उन चरण कमलों का दर्शन होगा। जिन
चरणों की चरणपादुका सदैव भरत जी पूजते हैं। इस प्रकार विभीषण जी प्रेम सहित विचार
करते हुए शीघ्र ही समुद्र के पार आ गये, बानरों ने विभीषण को आते
देखा तो समझा कि शत्रु का कोई विशेष दूत है, उसे वहीं ठहराकर
बानर सुग्रीव के पास गये और सब समाचार सुनाया।
सुग्रीव ने रघुनाथ से कहा कि हे
रघुनाथ जी ! रावण का भाई मिलने आया है। प्रभु ने कहा हे सखा ! इसमें पूछने की कौन
सी बात है ?
सुग्रीव ने कहा - हे नर नाथ ! राक्षस की माया जानी नहीं जाती,
यह इच्छानुसार रूप बदलने वाला न जाने किस कारण से आया है। यह सठ
हमारा भेद लेने आया है इसलिये मुझे तो यही अच्छा लगता है कि इसे बाँधकर रखा जाय,
रामजी ने कहा सखा ! तुमने नीति तो अच्छी विचारी परंतु शरणागत के भय
का हरण करना मेरा प्रण है। प्रभु के बचन सुनकर हनुमान जी हर्षित हुए कि भगवान
शरणागत वत्सल हैं।
शरणागत आया
विभीषण तो,
निज प्राण समान करूँ रखवारी ॥
क्योंकि "हे सखा रहस्य बताऊँ
तुझे,
प्रण मेरा सदा प्रणतारत हारी॥" जो शरणागत का त्याग करते हैं वे
नर पामर हैं।
सज्जनों ये -विभीषण कौन हैं ? रावण
का छोटा भाई, पर यह तो इतिहास का सत्य है। पर तुलसीदास जी एक
सूचना देते हैं ये जो संसार के समस्त "जीव" हैं वे सब के सब विभीषण हैं।
जीव ही विभीषण है, पहले रावण और विभीषण में परस्पर स्नेह
रहता है भिन्न मत रहते हुए भी एक नगर में रहते हैं। यह दो प्रकार का आचरण कुछ ही
दिनों तक नहीं, सदा से चलता आ रहा है।
रावण कौन ? यह
मोह है "मोह दशमौलि तत्भ्रात अहंकार" रावण मोह, भाई
अहंकार कुंभकरण । सो हम सब इस देहरूपी लंका नगरी में रावण रूपी मोह और विभीषण रूपी
जीव उसके छोटे भाई के रूप में बैठे हुए हैं और रावण रूपी षट विकारों से कुछ न कुछ
समझौता चल रहा है।
अर्थात् रावण रूपी षट विकारों से जब तक समझौता चलता रहेगा, तब तक जैसे विभीषण के जीवन में सही अर्थ में पूर्णता नहीं आई, वैसे ही हम लोगों के जीवन में भी पूर्णता नहीं आवेगी।
विभीषण रूपी जीव सभी के हृदय में
बसते हैं,
रावण रूपी षट विकारों से परित्याग करके श्रीराम की शरण में जाते हैं
तब कहीं जा करके सच्चे अर्थों में वे शरीर रूपी लंकाधिपति बनते हैं। श्रीरामजी
सुग्रीव से कहते हैं-
पापवंत
कर सहज सुभाऊ। भजनु मोर तेहि भाव न काऊ।।
जौं पै दुष्टहदय सोइ होई। मोरें सनमुख आव कि सोई।।
निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा।।
कि पापी का सहज स्वभाव होता है मेरा
भजन उसे कभी नहीं सुहाता यदि विभीषण का हृदय दुष्ट होता तो क्या वह मेरे सम्मुख
आता? जो निर्मल मन का होता है वही मुझे पाता है मुझे कपट छल, छिद्र नहीं सुहाते। यदि रावण ने भेद लेने के लिये भेजा है तो भी हे कपीश
फिर भी कोई भय या हानि नहीं है। तब अंगद और हनुमान के सहित उन्हें आगे कर करुणाकर
रामजी के पास ले आये। दूर से ही नयनानंद दान के देने वाले दोनों भाइयों को विभीषण
ने देखा और उनके पद कमलों को निहार कर कहने लगे –
रजनीचर वंश
में जन्म हुआ,
अरुनाथ दशानन का लघुभाई।
यह तामसी देह स्वभाव से है, कुछ पुण्य की बात
बनी न बनाई ॥
प्रण तारक रक्षक नाम सुना, इस हेतु परयो
शरणागत आई ।
निज सेवा में नाथ मुझे रखिये, जन जान दया करके
रघुराई।।
आप भय का नाश करने वाले हैं ऐसा सुयश
सुन आया हूँ-
श्रवण
सुयश सुनि आयऊँ, प्रभु भंजन भवभीर ।
त्राहि-त्राहि आरत हरन, सरन सुखद रघुवीर ॥
करुणा सिंधु श्रीराम जी ने विशाल
भुजाओं से पकड़कर विभीषण को दण्डवत करते देख उठाकर हृदय से लगा लिया । श्रीरामजी
की भुजाएँ ऐसी हैं कि जिनको एक बार पकड़ा फिर कभी न छोड़ा।
छोटे भाई के साथ मिलकर उनको अपने पास
बिठाया और भक्तों के भय को हरण करने वाले बचन बोले- हे लंकेश ! परिवार सहित अपनी
कुशल कहो?
सज्जनों राम जी के लंकेश कहते ही वह लंकेश हो गये । विभीषण बोले-हे
रघुनाथ अब आपके दर्शन से कुशल हैं जो आपने अपना सेवक जानकर दया की है। नाथ जब तक
जीव की कुशलता नहीं और न सपने में भी मन को विश्राम है जब तक वह शोक धाम काम को
त्यागकर श्रीराम को नहीं भजता । श्री विभीषण जी प्रभु राघव से कहने लगे-
सुनहु
देव सचराचर स्वामी । प्रनत पाल उरअंतर जामी।।
उर कछु प्रथम वासना रही । प्रभु पद प्रीति सरित सो वही ॥
मेरे हृदय में पहले कुछ वासना रही अब
प्रभु चरणों की प्रीति की नदी में वह बह गयी। पद प्रीति को नदी कहा क्योंकि ये
श्रीरामजी के पद सरिता के मूल हैं इन्हीं से गंगाजी की उत्पत्ति हुई है। प्रभु
रघुनाथ जी समुद्र के जल को मंगवाकर श्री विभीषण जी का अभिषेक किया और कहने लगे-
जदपि
सखा तव इच्छा नाहीं। मोर दरसु अमोघ जग माहीं।।
अस कहि राम तिलक तेहि सारा। सुमन बृष्टि नभ भई अपारा।।
हे सखा मैं जानता हूँ कि तुम्हारी
इच्छा नहीं है पर जगत में मेरा दर्शन अमोघ है, ऐसा कहकर राम जी ने उनको
राजतिलक कर दिया। आकाश से पुष्पों की वर्षा होने लगी, सभी
लोग प्रभु की जय जयकार करने लगे।
जो
संपति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ।
सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्ह रघुनाथ।।
बंधु और माताओं शिवजी ने जो संपत्ति
रावण को दसों सिरों की बलि देने पर दी थी, वही संपत्ति श्री रघुनाथ जी
ने विभीषण को बहुत सकुचाते हुए दी। ऐसे परम कृपालु प्रभु को छोड़कर जो मनुष्य
दूसरे को भजते हैं वह बिना सिंह पूछ के पशु हैं।
सज्जनों सागर तीर पर प्रभु बैठे हुए
विभीषण जी से पूछते हैं कि इस अथाह समुद्र से कैसे पार लगा जाए? विभीषण
जी ने कहा कि हे प्रभु यद्यपि आपका एक बांण ही करोड़ों समुद्रों को सुखाने वाला है
लेकिन फिर भी नीति कहती है कि पहले जाकर समुद्र से प्रार्थना की जाए। समुद्र आपके
कुल में बड़े व पूर्वज हैं। वह विचार कर उपाय बतला देंगे तब रीछ और वानरों की सेना
बिना परिश्रम के समुद्र पार उतर जावेगी।
तब रघुनाथ जी विभीषण के वचन सुनकर
बड़े प्रसन्न हुए। वह समुद्र को प्रणाम कर कुश के आसन पर बैठ गये । प्रभु
श्रीरामजी ने उस पर बैठकर तीन दिन तक अनशन किया।
इसी समय पर रावण के द्वारा भेजे गए
दूत कपट वेष धारण कर आए भेद जानने के लिए। तब सुग्रीव जी उनको पकड़ लिए और वह जब
प्रभु की महिमा को जाना तो अपने प्राण दान पाकर, जाकर अपने स्वामी
लंका पति रावण को समझाने लगा कि वह साक्षात भगवान हैं आप उनसे विरोध मत करिए।
जानकी को उन्हें दे दीजिए नहीं तो आपके सहित लंका नगरी भी नष्ट हो जावेगी। यह
सुनते ही रावण ने शुक नामक दूत को जोरदार लात का प्रहार किया। और उसे भी विभीषण के
तरह अपने नगरी से भगा दिया।
भगवान शंकर कहते हैं-
भवानी वह ज्ञानी मुनि था। अगस्त ऋषि के श्राप से राक्षष हो गया था।