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राम कथा हिंदी में लिखी हुई-74 ram katha hindi pdf download

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राम कथा हिंदी में लिखी हुई-74 ram katha hindi pdf download

शुक वहाँ से चलकर कृपा सागर रघुनाथ के पास पहुँचा, प्रणाम करके अपनी कथा सुनाई कि मैं पूर्व में वेदज्ञ ब्रह्मनिष्ठ ब्राह्मण था मैं ज्ञानी था पर भक्त न था। बन में रहकर यज्ञ और तप किये अतः बज्रदन्त राक्षस मेरे पीछे पड़ गया, विप्रदेव का अपकार करने की अवसर की घात में रहने लगा। एक दिन भोजन के निमंत्रण पर अगस्त्यजी मेरे यहाँ आये, वे स्नान करने चले गये, उसी समय यह वज्रदंत राक्षस मुनि अगस्त्य का रूप धारण कर मुझसे कहा कि बकरे के माँस का भोजन करेंगे वही बनाना।

मैंने उन्हीं के कथानुसार माँस का भोजन बनाया। जब अगस्त्यजी भोजन करने बैठे तब उस राक्षस ने मेरी स्त्री को मोहित कर स्वयं स्त्री का रूप धारण कर माँस भोजन में मिला कर अगस्त्य के आगे परोस कर गायब हो गयी।

मुनि अगस्त्य ने अपने आगे अभक्ष्य माँस देख शाप दे दिया कि तू राक्षस हो जा और माँस खाया कर। फिर मैंने उनसे कहा कि आप ही तो ऐसे भोजन की कहकर गये थे इसमें मेरा क्या अपराध ? अगस्त्य ने ध्यान से सब जाना तब शाप अनुग्रह किया कि तुम जाकर रावण के सहायक होंगे। वह तुमको राम के पास दूत बनाकर भेजेगा उनके दर्शन पर तुम शापमुक्त हो जाओगे और पुन: मुनि हो जाओगे, सो वह अवसर प्रभो आज प्राप्त हुआ, अतः मैं बारम्बार आपके चरणों में प्रणाम करता हूँ, फिर वह मुनि वेष धारण कर अपने आश्रम पर चला गया।

अब रामजी समुद्र किनारे अनशन पर बैठे थे वहाँ से कथा का क्रम छूटा था फिर वहीं से प्रारम्भ करते हैं, जड़ समुद्र श्रीरामजी की विनय नहीं मानता।

बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीन दिन बीति।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति।।

तीन दिन बीत गये अतः रामजी क्रोध के साथ बोले कि बिना भय के प्रीति नहीं होती, अतः लक्ष्मण से कहा- यह समुद्र सठ है इसकी जड़ करनी है इससे विनय करना ऊसर में बीज बोने की भाँति निष्फल है।

अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा। यह मत लछिमन के मन भावा।।
संघानेउ प्रभु बिसिख कराला। उठी उदधि उर अंतर ज्वाला।।
कनक थार भरि मनि गन नाना। बिप्र रूप आयउ तजि माना।।

ऐसा कहकर श्रीरघुनाथ जी ने धनुषवाण चढ़ाया, यह मत लक्ष्मणजी को पसंद आया। प्रभु ने जैसे ही कराल वाण का संधान किया तो समुद्र के हृदय में ज्वाला उठी। समुद्र ने सभीत होकर प्रभु का चरण पकड़ कर कहा हे नाथ ! मेरे सब अवगुण क्षमा करो, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी इनकी करनी स्वभाव से ही जड़ है।

सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे। छमहु नाथ सब अवगुन मेरे।
गगन समीर अनल जल धरनी । इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी ॥

सज्जनों समुद्र ने भयभीत होकर प्रभु के चरण पड़कर विनय प्रार्थना किया।

मणि रत्न की भेंट समर्पित ये, कर जोड़ विनम्र मंनाऊँ प्रभो ।
मर्यादा तुम्हारी बनाई हुई, करूँ धारण याकि मिटाऊँ प्रभो ॥
सब लायक स्वामी समर्थ सदा, पद पंकज की बलि जाऊँ प्रभो ।
रघुवीर न तीर सँभारिये अब, घट जाऊँ मैं कहो या सुखाऊँ प्रभो ॥

प्रभु समुद्र की चतुरता देखकर मुस्कराये कि अपने को बताता तो जड़ है और उत्तर देता है पंडित की तरह। सब ग्रन्थों और श्रुतियों का प्रमाण देता है। प्रभु राघव ने कहा-

कहो तात सोचो तुम्हीं, कोई यत्न विचार ।
जेहि प्रकार बानर कटुक उतरै सागर पार ॥

मर्यादा भंग करता तो विनय क्यों करता ? जिसने तीन दिन विनय करने पर न माना, उसकी विनय पर तुरंत दया की इसलिये 'कृपालु' कहते हैं। तब समुद्र ने कहा-

नाथ नील नल कपि द्वौ भाई। लरिकाई रिषि आसिष पाई।।
तिन्ह के परस किएँ गिरि भारे। तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे।।

हे नाथ नील और नल दो वानर भाई हैं। जिनके छूने से पहाड़ समुद्र पर तैरेंगे वे दोनों बानर नल-नील के नाम से आपकी सेना में ही हैं।  ये दोनों बन्दर बचपन में अज्ञान में आकर ऋषियों के शालग्राम जो पाषाण मयी लेकर जल में डाल दिया करते थे। ऋषियों को इससे कष्ट होता था त्रिकालज्ञ महर्षियों ने उनको शाप के बहाने अपना प्रयोजन साधक और भावी समुद्र बंधनरूप कार्य देख बरदान दे दिया। उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहा कि इनके फेंके हुए पाषाण जल में नहीं डूबेंगे, ये विश्वकर्मा के पुत्र हैं। 

 

यह बात बालापन की है नल नील को भी याद नहीं और भी कोई नहीं जानता मैं ही जानता हूँ क्योंकि मैं जलस्वरूप हूँ और मुनि ने जल में ही पाषाण न डूबने का आशीर्वाद दिया था।" प्रताप तुम्हारे" का भाव कि ऋषियों से शाप दिलवाकर और उनके हाथों समुद्र बँधवाकर कपि से सेना का पार होना यह सब आपका ही प्रभाव है। मैं भी प्रभु की प्रभुता को हृदय में धारण करके अनुकूल सहायता करूँगा, इस प्रकार समुद्र को बंधवाइये जिससे तीनों लोकों में आपका यह सुन्दर यश गाया जाय, इस सेतु सुयश भवसागर में कई सेतु तैयार कर देगा जिस पर चढ़कर जीव पार होंगे।

चार सौ कोस का बिना खम्भे के आधार के यह सेतु समुद्र में जल के ऊपर में बँधेगा, ऐसा असंभव कार्य कोई न कर सकेगा। इसीसे सब लोग आपकी संसार में ताप हारिणी कीर्ति जान जायेंगे। 

कीर्ति जानन्तु ते लोकाः सर्व लोक मलापहार" (आ०रा० ६/३/८५) 

प्रभु ने समुद्र के कथानुसार उत्तर दिशा की तरफ बाण छोड़ दिया तब से वह स्थान मरूकान्तार (मरूस्थल) नाम से प्रसिद्ध हुआ । श्रीरामजी ने उस भूमि को सुखाकर फिर उसे वर दिया किया कि यहाँ विशेषकर रोग न होंगे यह देश फलफूल युक्त वृक्षों आदि से परिपूर्ण रहेगा। 

सकल सुमंगल दायक, रघुनायक गुन गान।
सादर सुनहिं ते तरहिं भव, सिधु विन जल यान ॥

श्रीरघुनाथ जी का गुणानुवाद गायन सर्वमंगल आनंद देने वाला है और जो सादर सुनते हैं वे बिना नौका जहाज के ही संसार सागर से पार उतर जाते हैं । सकल सुमंगल मूल जो रघुपति पद प्रेम प्रेमाभक्ति रामकथा का श्रवण करने से अनायास प्राप्त होती है ।

॥ सुन्दरकाण्ड समाप्त ॥

एक परमात्मा ही अनेक रूप बन जाते हैं और फिर अनेक रूप का त्याग करके एक रूप हो जाते हैं। अनेक रूप से होने पर भी वे एक रहें या अनेक हो जायँ, यह उनकी मर्जी है। 

 

उनकी लीला है- जैसे एक सोने के सैकड़ों गहने बन जायँ और फिर गहने सोना हो जायँ अथवा एक खाँड़ के सैकड़ों खिलौने बन जायँ, फर्क क्या पड़ा? ऐसे ही भगवान कुछ भी भक्त की भावनानुसार बन जाएँ फर्क क्या पड़ा? तत्व एक ही है और हमेशा एक ही रहेगा। उस एक तत्व के सिवाय कुछ कभी हुआ ही नहीं है, होगा नहीं, हो सकता नहीं, उस एक तत्व में ही साधक डूब जाय ।

डूबै सो बोलै नहीं, बोलै सो अनजान ।
गहरो प्रेम समुद्र, कोउ डूबै चतुर सुजान ॥

लंका काण्ड प्रारम्भ

* मंगलाचरण *

रामं कामरि सेव्यं भव भय हरणं काल भत्तेभसिंह
योगीन्द्रं ज्ञानगम्यं गुण निधिमजितं निर्गुण निर्विकारं ॥
मायातीतं सुरेशं खल बध निरतं ब्रह्म वृन्दैकदेवं,
वन्दे कंदावदातं सराजिनयनं देवमुर्वीश रूपं ॥

कामदेव के शत्रु शिव जी के सेव्य, जन्म मृत्यु के भय को हरने वाले, काल रूपी मतवाले हाथी के लिए सिंह के समान, योगियो के स्वामी, ज्ञान के द्वारा जानने योग्य, गुणो के निधि, अजेय, निर्गुण, निराकार, निर्विकार, माया से परे, ब्राह्मण वृंद के एकमात्र रक्षक, मेघ के समान श्यामल वर्ण वाले पृथ्वी पति श्री राम जी को बारंबार वंदन है।

( सेतु बंध )

समुद्र के बचनों को सुनकर रामजी ने मंत्रियों को बुलाकर - सारी बात उनसे कही। तब जामवंतजी नल नील से कहते हैं-

मुनि आसिस शिशुकाल में मिली तुम्हें नल नील।
अतः सेतु बाधो तुरत, तुम अति चतुर सुशील।।

और बानर भालुओं से कहा तुम भी सभी विकट बरूथ हो , दौड़ जाओ वृक्षों और पर्वतों का समूह उठा लाओ। सुनकर बन्दर भालु कौतुक मानते हुए हू-हा करते बड़ी उमंग से दौड़ कर चले। पर्वत लाकर समुद्र पाटना कठिन मालूम नहीं पड़ा क्योंकि उत्कर्ष राम प्रताप से है। अत्यंत ऊँचे पर्वत और वृक्ष खेल में ही उठा लेते थे लाकर नल-नील को देते थे और रचकर सेतु बनाते थे |

सुंदर रचना देखकर कृपासिंधु रामजी हँसकर नल-नील से बोले- अरे भैया मेरे मन में एक बड़ा विसमय हो रहा है कि तुम दोनों बड़े-बड़े पर्वतों को भी सागर के मध्य में रखते हो तो वह तैरते हैं, हमने तो बस एक कंकड़ ही समुद्र में डाला था वह सीधे पताल को चला गया। तो नल नील कहो यह तुम्हारे द्वारा फेंके गए पत्थर कैसे उतराते हैं और मेरे द्वारा फेंकने पर यह डूब कैसे जाते हैं?
नल-नील ने बड़ा सुंदर भाव दिया बोले-

करुना निधि आप गहौ जिसको, भव सागर पार वही प्रभु जाई ।

करुना निधि आप तजौ जिसको, वह निश्चय डूबि पताल सिधाई ॥ करुनानिधिजानत आप सभी सब विश्व में व्यापक हो दोउ भाई ।
तब नाम प्रताप लिख्यो इनमें, यही हेतु पहार तरै रघुराई ॥

हे रघुनाथ आप जिसको अपना लेते हैं वे भव सागर पार हो जाता है और आप जिसको त्याग देते हैं वह निश्चय ही पाताल में डूब जाता है। हे करुणा निधान इसमें हमारा किसी भी प्रकार का बल नहीं, हमारी कोई श्रेष्ठता नहीं सब आपके नाम के प्रताप से हो रहा है, आपके नाम प्रताप से यह है बड़े-बड़े पहाड़ जल में तैर रहे हैं। पाँच दिनों में सौ योजन सेतु बन्ध होना और उसमें भी रचना का सुन्दर होना अनौखी बात है। श्री रघुनाथ जी ने कहा-

करिहउँ इहाँ संभु थापना। मोरे हृदयँ परम कलपना।।

यहां की भूमि परम रमणीय और उत्तम है , इसकी असीम महिमा वर्णन नहीं की जा सकती मैं यहां शिवजी की स्थापना करूंगा मेरे हृदय में यह महान संकल्प है। सुनकर सुग्रीव ने बहुत से दूत भेजे जो सब श्रेष्ठ मुनियों को बुला लाये लिंग की स्थापना करके विधिवत पूजन किया।

लिंग थापि बिधिवत करि पूजा। सिव समान प्रिय मोहि न दूजा।।
सिव द्रोही मम भगत कहावा। सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा।।

रामजी ने कहा कि शिव के समान मुझे दूसरा कोई प्रिय नहीं है। श्रीरामजी मर्यादा पुरुषोत्तम हैं अत: भगवान शिव अपनी दोनों की मर्यादा को बचाने हेतु ही रामेश्वर की स्थापना की गई। शिव में श्रीरामजी की भक्ति तन मन बचन से है- "मोरे हृदय परम कल्पना" यह 'मन' की भक्ति है, हृदय ही मन है, "लिंग थापि विधि व्रत कर पूजा" यह तन की भक्ति है और "शिव समान प्रिय मोहि न दूजा" यह बचन की भक्ति है। लिंग स्थापन के अंतर्गत ही उमा स्थापन भी है क्योंकि “जलधरी" उमा का प्रतीक है।

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