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राम कथा हिंदी में लिखी हुई-75 ramayan katha in hindi pdf

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राम कथा हिंदी में लिखी हुई-75 ramayan katha in hindi pdf

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-75 ramayan katha in hindi pdf

 राम कथा हिंदी में लिखी हुई-75 ramayan katha in hindi pdf

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-75 ramayan katha in hindi pdf

लिंग के मूल में ब्रह्मा, मध्य में विष्णु ऊपरी भाग में प्रणव नाम वाले शंकर जी स्थित हैं, लिंग साक्षात महेश्वर हैं वेदी और लिंग के पूजन से देवी और देवता का पूजन हो जाता है।

सज्जनों विद्वानों और संतों के मुख से ऐसा भी सुना गया है कि रावण शंकरजी का परम भक्त है, क्योंकि शंकर भगवान ही रावण के गुरु हैं उनसे अजेय का वरदान प्राप्त कर चुका है। अपने शिरों को काट-काट कर उन पर चढ़ाने से । इस वरदान से गर्वित होकर पापाचार में रत है। इधर राम जी ने निशाचरों के बध की प्रतिज्ञा कर रखी है।

कहीं मेरा पराभव देख मुझ दास को शंकरजी भूल न जायें और कहीं रावण का विनाश देख उनका चित्त उदास न हो अत: समुद्र पार शिव स्थापना करके प्रथम उनको प्रसन्न किया जाय। जिससे शैव और वैष्णव विरोध भी मिट जाय और उनसे आशीर्वाद लेकर अपनी रक्षा और रावण बध में समर्थ हो सकूँ ऐसा दृढ़ संकल्प श्रीरामजी के हृदय में उपजा ।

बंधु माताओं इस प्रशंग पर एक और बात आती है जिसका उल्लेख बाबा जी ने मानस जी पर तो नहीं किया लेकिन कुछ संतों के मुख से सुना गया है। श्रीरामजी ने सुग्रीव द्वारा अनेकों मुनियों को दूतों द्वारा वहाँ बुलवा लिया था और अपना जो भी समाज था आचार्य वरण हेतु पूछा। विभीषण शरण में आ चुके थे, उन्होंने सम्मति दी कि इस समय सारे विश्व में रावण जैसा पंडित कोई नहीं है। उन्हें ही बुलाया जाय वे शिवोपासक हैं इस कार्य सम्पादन के लिये वे अवश्य आयेंगे। अतः उनकी राय मानकर उन्हीं विभीषण को उस रावण को बुलाने भेजा गया।

विभीषण ने जाकर लिंग स्थापना में आचार्य वरण के लिये रामजी की स्वीकृति की इच्छा जाहिर करते हुए उनसे वहाँ आने के लिये कहकर लौट आये। वहाँ रावण ने विचारा कि मेरे इतने बड़े जीवनकाल में मुझे आज तक आचार्य पद पर किसी ने भी नहीं बुलाया । और इसमें भी मेरे गुरू शिव की लिंग स्थापना करना चाहते हैं। अत: राम ने मुझे इस योग्य समझा अवश्य जाना चाहिए। पर कोई भी यज्ञ उनकी स्त्री के बिना विधिवत पूर्ण नहीं होगा, उनकी स्त्री मेरे यहाँ है। अतः सीता को लेकर चलना चाहिए।

जो कि पति-पत्नी दोनों के द्वारा ही विधिवत होता है, सो सीता से जाकर कहा तुम वहाँ चलो और फिर वहाँ से यही लौटना है। अत: रावण विमान से सीता को वहाँ से लेकर विधिवत स्थापना एवं पूजा हेतु रामादल में आ पहुँचा। इधर प्रभु रामजी ने हनुमानजी को काशी से शिवलिंग लेने हेतु भेज दिया था। रावण ने आते ही कहा कि इस समय जो शुभ मुहूर्त है इसके निकल जाने पर ऐसा मुहूर्त फिर नहीं आयेगा। रामजी ने लिंग के बारे में हनुमानजी की बात बताई, हनुमान जब तक लिंग लेकर आये नहीं थे। तो आचार्य रावण बोले कि ऐसा मुहूर्त फिर नहीं आवेगा। अतः सीताजी के हाथ से बालू का लिंग जैसी मूर्ति बनवाकर उसकी ही प्राण पतिष्ठा हो जायेगी। तब सीता ने उसी मुहूर्त में बालू इकट्ठी करके शिवलिंग की मूर्ति रूप दे दिया और रावण ने विधिवत प्राण प्रतिष्ठा कर दी ।

तभी हनुमानजी शिवलिंग लेकर आ गये, वहाँ बालू की शिवलिंग स्थापना देख खिन्न हो गये। इस पर रावण ने कहा कि आप इस लिंग को हटा दें तुम्हारी लाई हुई की प्रतिष्ठा कर दी जायेगी। सो हनुमान ने पहले तो हाथ से ही हटाना चाहा, पर उसमें शिवजी की प्राणप्रतिष्ठा और सीताजी के करों से बनाई गई होने के कारण नहीं हट पाई, तब हनुमान ने पूँछ का लपेटा लगाकर हटाना चाहा। पर पसीने से तर बतर होकर पूछ भी खिसक गई अलग गिर गये वह शिवलिंग टस से मस नहीं हुआ क्योंकि उसमें साक्षात शंकर का वास रावण के आचारित्व में श्रीराम की स्वीकृति से हो चुका था।

तदनुपरान्त श्रीराम ने हनुमानजी की प्रसन्नता हेतु काशी से लाई हुई शिवलिंग की स्थापना वहीं पास में दूसरे स्थान पर रावण द्वारा ही कराई और यह घोषणा भी की कि इस हनुमतेश्वर लिंग के दर्शन के बिना रामेश्वर का दर्शन पूर्ण नहीं माना जायेगा। अत: वहाँ जाकर देखने वाले अब भी बताते हैं कि वहाँ हनुमतेश्वर और रामेश्वर के दो मंदिर हैं अत: हनुमतेश्वर मंदिर के लिंग पूजन के बाद ही रामेश्वर पूजन का फल का साफल्य होता है।

अब रही आचार्य की दक्षिणा, सो वही अँगूठी राम ने देने को दिखाई, रावण बोला कि तुझे लोग त्रिलोकी नाथ बताते हैं, मेरी सारी लंका सोने की है इस तुच्छ अँगूठी देकर मेरा निरादर कर रहे हो। ऐसा सुनकर रामजी ने एक बाण समुद्र में छोड़ दिया तो देखते ही देखते हीरा, पन्ना, पुखराजों के सारे ढेर समुद्र तट पर आ गये देखकर रावण अति प्रसन्न हुआ और राम से बोला अब आप मुझसे वरदान मांग लो।

मैं ऐसा वैसा पंडित नहीं हूँ सब कुछ देने में समर्थ हूँ। इस पर रामजी बोले कि माँगू तो मना तो नहीं करोगे तो बोला कि शिव प्राण प्रतिष्ठा मेरे गुरू की यहाँ हो चुकी है उनके सामने मैं मिथ्या नहीं हो सकता । तब राम ने "रावण की मृत्यु राम के हाथ से माँगी”, जिसके अब शिव साक्षी हैं, वह बोला तुमने यह मेरे साथ छल किया है पर अब ऐसा ही होगा, कहकर खिन्न मन से सीताजी को लेकर लंका चला गया। सज्जनों श्री रघुनाथ जी स्वयं अपने मुख से कहते हैं-

शंकर प्रिय ममद्रोही, शिव द्रोही ममदास ।
ते नर करहिं कल्प भरि, घोर नरक में वास ॥

और रामजी आगे कहते हैं कि जो लोग रामेश्वर का दर्शन करेंगे वे शरीर छोड़ कर मेरे लोक को जायेंगे और जो गंगाजल लाकर यहाँ चढ़ायेगा वह सायुज्य मुक्ति पावेगा। तथा निष्काम बुद्धि से छल छोड़कर शिव सेवा करेगा उसे शिवजी मेरी भक्ति देंगे।

श्रीरामजी के वचन सबको अच्छे लगे, श्रेष्ठ मुनि लोग अपने-अपने आश्रमों गये। अब गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं- सेतु बाँधकर उसे खूब मजबूत बनाया, श्रीराम उस पर चढ़कर समुद्र विस्तार देखने लगे। करुणा के मेघरूप श्रीरामजी के दर्शन के लिये सारे जलचरों का समूह सब का सब जल से ऊपर आकर देखते हुए टालने से नहीं टलते थे।

सबके मन हर्षित और सुखी हो गये। सेतुबंध पर भारी भीड़ इकट्ठी हो गयी। कुछ बानर आकाश मार्ग से उड़ रहे हैं, कुछ जलचरों के ऊपर चढ़-चढ़कर पार जा रहे हैं, दोनों भाई यह कौतुक देख हँसे, रघुवीर श्रीरामजी सेना सहित समुद्र पार जाकर डेरा डाला और सब वानरों को आज्ञा दी।

खाहु जाइ फल मूल सुहाए। सुनत भालु कपि जहँ तहँ धाए।।
सब तरु फरे राम हित लागी। रितु अरु कुरितु काल गति त्यागी।।

रामजी की प्रीतिर्थ सब पेड़ फले, ऋतु तथा कालगति का त्याग कर दिया । सबने मन चाहे फल खाये । इधर सज्जनों जैसे ही राक्षस दूतों के द्वारा रावण को यह समाचार मिला कि विशाल सागर पर सेतु का निर्माण कर प्रभु रघुनाथ सेना के साथ इस पार आ गए हैं। तब रावण को बहुत आश्चर्य हुआ।

सुनत श्रवन बारिधि बंधाना। दस मुख बोलि उठा अकुलाना।।

रावण सुनते ही अकुलाकर के दसों मुख से बोल पड़ा, क्या सचमुच श्री राम ने विशाल समुद्र पर पुल बांध दिया? बंधु माताओं जब रावण दसमुख और एक शरीर वाला जन्मा तो माँ आश्चर्य में आ चिंता करने लगी कि किसे दूध पिलाऊँ सो रावण की शक्ति तो दसों मुख से बोलने की थी ।

पर वह किसी एक मुख से ही बोला करता था। कई मुखों से एक साथ बोलने से सुनने वाले को बात समझ में नहीं आ सकती थी अतः रावण अक्सर ध्यान रखता था कि एक मुख से ही बोले । और यहां समुद्र बंधना इतने आश्चर्य की बात थी कि चकित हो दसों से बोल उठा। फिर अपनी व्याकुलता को समझकर हँसकर और भय को भुलाकर आया। मंदोदरी ने सुना कि राम ने खेल में ही समुद्र बाँध कर इधर आ गये तो हाथ पकड़ कर पति को अपने घर ले गयी और बड़ी ही मन हरण करने वाली वाणी बोली - हे नाथ ! बैर उसी से कीजिये जिसे बुद्धि-बल से जीत सको।

नाथ बयरु कीजे ताही सों। बुधि बल सकिअ जीति जाही सों।।
तुम्हहि रघुपतिहि अंतर कैसा। खलु खद्योत दिनकरहि जैसा।।
अतिबल मधु कैटभ जेहिं मारे। महाबीर दितिसुत संघारे।।
जेहिं बलि बाँधि सहजभुज मारा। सोइ अवतरेउ हरन महि भारा।।

मंदोदरी समझा रही है कि हे प्राणनाथ आप में और श्री राम जी में उतना ही अंतर है जितना कि जुगनू और सूर्य में है। जिसने मधु कैटभ को मारा, दिति के बलशाली पुत्रों को मारा आप उनसे विरोध कर रहे हैं।

प्रहलाद के हेतु नृसिंह बने, क्षण में ही हिरण्य को मार दिया है।
बलि बाँध के भेज पताल दिया, मधु कैटभ दैत्य का नाश किया है।
अज विष्णु बने जिनके बल से, शिव ने विष अमृत तुल्य पिया है।

पति देव मनुष्य न मानों उन्हें, जगदीश्वर ने अवतार लिया है।।

इसलिये हे मेरे नाथ मैं तो यही आपसे विनती करती हूं-

नाथ शीघ्र ही लंक से, सीता करिये दूर।
जिससे मेरे भाल का, दूर न हो सिंदूर ॥

चरण कमलों में सिर नवाकर श्रीरामजी को जानकी को सौंप कर तथा राज्य बेटों को देकर बन में जाकर रघुनाथ जी का भजन कीजिये । संत ऐसे कहते हैं कि राजा चौथे पन में बन को जाय । यह सुनकर रावण क्रोधित हो करके मंदोदरी से कहने लगा कि तुम मुझे बलहीन समझती हो?

बरुन कुबेर पवन जम काला। भुज बल जितेउँ सकल दिगपाला।।
देव दनुज नर सब बस मोरें। कवन हेतु उपजा भय तोरें।।

वरुण, कुबेर, पवन, यम, काल और सभी दिक्पालों को मैंने भुजा के बल से जीत लिया। देवता, दानव और मानव सब मेरे वश में हैं किस कारण से तुम्हारे मन में भय उपजा है। मैंने काल को भी जीत लिया आयु मेरी चाहे जितनी हो वृद्धावस्था मुझे स्पर्श नहीं कर सकती इसलिये चौथापन आ ही नहीं सकता। तो बन जाने की चर्चा क्या है?

रावण ने मंदोदरी को अनेक प्रकार से समझाया, और जाकर रावण सभा में जा बैठा। मंदोदरी ने मन में समझ लिया कि काल विवस अभिमान हुआ है। सभा में मंत्रियों से मंत्रणा करने लगा कि शत्रु से किस प्रकार युद्ध किया जायेगा ?

तब मंत्री कहने लगे हे महाराज आप बार-बार क्यों पूछते हैं? इसमें कौन सा बड़ा भय है, अरे मनुष्य वानर भालू तो हमारे भोजन की सामग्री हैं हम उन्हें पल भर में खा जाएंगे। यह सुनकर के रावण का पुत्र प्रहस्त हाथ जोड़कर कहने लगा- हे प्रभु नीति के विरुद्ध कुछ भी नहीं करना चाहिए। मंत्रियों में बहुत ही कम बुद्धि है यह सभी मूर्ख हैं, आपको प्रसन्न करने के लिए मुंहदेखी बाते कर रहे हैं।

विचार कीजिए पिताजी एक ही बंदर समुद्र लांघ करके आया था, उसका चरित्र सब लोग अब भी मन ही मान गाया करते हैं। उसने पूरी लंका नगरी को जला दिया था। उस समय इन राक्षसों में क्या किसी में भूख नहीं थी कि उसको खा जाते।

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