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राम कथा हिंदी में लिखी हुई-76 ram katha in hindi katha notes

bhagwat katha sikhe

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-76 ram katha in hindi katha notes

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-76 ram katha in hindi katha notes

 राम कथा हिंदी में लिखी हुई-76 ram katha in hindi katha notes

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-76 ram katha in hindi katha notes

पिताजी एक मेरा आपसे निवेदन है मेरे वचन सुनकर आप मुझे कायर न समझियेगा। जगत में ऐसे मनुष्य बहुत है जो मुंह पर मीठी लगने वाली बात सुनते और कहते हैं। लेकिन ऐसे कुछ ही लोग होते हैं जिनकी वाणी सुनने में भले कठोर लगे लेकिन उसका परिणाम हितकारी होता है। मैं आपके चरणों में बस यही प्रार्थना करता हूं कि पहले तो आप दूत भेजिए और फिर माता सीता को देकर राम जी से प्रीति कर लीजिए। जिससे आपके सहित लंका नगरी भी सुरक्षित बनी रहेगी।

यह मत जौं मानहु प्रभु मोरा। उभय प्रकार सुजसु जग तोरा।।
सुत सन कह दसकंठ रिसाई। असि मति सठ केहिं तोहि सिखाई।।

यदि आप मेरी यह सम्मति मानेंगे तो जगत में दोनों ही प्रकार से आपका सुयश होगा। यह सुनते ही रावण आग बबूला हो गया, गुस्से में भरकर कहने लगा अरे मूर्ख तुझे ऐसी बुद्धि किसने सिखाई है। तब प्रहस्त बोला पिताजी हित की सलाह आपको कैसे अच्छी नहीं लगती, जैसे मृत्यु के वस में रोगी को दवा अच्छी नहीं लगती। ऐसा कह करके वह अपने घर को चला गया।

यहां रावण एक सुंदर भवन पर बैठकर नाच गान देखने में मगन था। और श्री रघुनाथ जी सुग्रीव जी के गोद पर अपने सर को रखकर लेटे हुए थे। तभी उन्होंने दक्षिण दिशा की ओर बिजली को चमकते हुए देखा। तो पूंछा यह ऐसी चमक धमक कहां से आ रही है? विभीषण जी बोले हैं कृपालु सुनिए यह ना तो बिजली है, ना बादलों की घटा।

लंका की चोटी पर एक महल है रावण वहां नाच गान देख रहा है। रावण ने सिर पर बादलों के समान विशाल छत्र धारण कर रखा है, मंदोदरी के कानों में जो कर्णफूल हिल रहे हैं वह बिजली से चमक रहे हैं। जो मृदंग बज रहा है वह ऐसा लग रहा है जैसे मंद मंद बादल गरज रहा हो।

तब प्रभु श्री राघव ने रावण का अभिमान समझकर मुस्कुराते हुए धनुष में बांण चढ़ाकर एक ही बांण से रावण के छत्र, मुकुट और मंदोदरी के कर्णफूल काट दिए। सबके देखते-देखते जमीन पर आ पड़े पर इसका भेद किसी ने नहीं जाना और प्रभु के बांण का ऐसा चमत्कार की वह फिर वापस आकर उनके तरकश में प्रविष्ट हो गया।

इधर रावण के सभा में सब लोग आश्चर्यचकित हो गए बातें करने लगे कि ना भूकंप हुआ, ना बहुत जोरों की हवा चली, ना कोई अस्त्र-शस्त्र ही नेत्रों से देखे। फिर छत्र मुकुट और कर्णफूल कैसे कट कर गिर पड़े? सब मन में सोच रहे हैं कि यह तो बड़ा भयंकर अपशगुन है। लेकिन सज्जनों रावण यहां भी नहीं संभल रहा और सब के वचन सुनने पर कहने लगा अरे सिरों का गिरना भी जिसके लिए निरंतर शुभ होता है रहा है। उसके लिए मुकुट का गिरना अपशगुन कैसा हो सकता है? इस बार मंदोदरी तीसरी बार रावण को रोते हुए समझा रही है।

हे प्राणनाथ मेरी विनती सुनो ! रामजी से विरोध छोड़ दो। उन्हें मनुष्य जानकर मन में हठ न पकड़ो, श्रीरामजी के वाण का स्पर्श मंदोदरी के कानों से हो गया है। इसलिये उसे इतना ज्ञान हो गया कि प्रभु के विश्वरूप का वर्णन कितना सुंदर कर रही है-

विश्वरूप रघुवंश मनि, करहु बचन विश्वास ।
लोक कल्पना वेद कर, अंग अंग प्रति जासु ॥

जिनके प्रत्येक अंग में लोकों की कल्पना वेद करता है, पाताल जिसके चरण हैं, ब्रह्मलोक जिनका सिर है अन्य लोक जिनके अंग-अंग में बसते हैं। ऐसा विचार कर बैर छोड़ प्रभुराम के चरणों में प्रीति करो, जिससे मेरा सुहाग न जाय। सुहाग के अक्षुण्ण रहने का एक ही उपाय है।
"प्रीति करहु रघुवीर पद"
स्त्री का वचन सुन हँसकर कहने लगा, अहो मोह की महिमा बड़ी बलवती है सब लोग स्त्री का जो स्वभाव कहते हैं सो सत्य ही कहते हैं। मंदोदरी ने जान लिया कि प्रियतम का कालवश होने से मतिभ्रम हो गया है।

फूलह फरइ न बेत जदपि सुधा बरषहिं जलद।
मूरुख हृदयँ न चेत जौं गुर मिलहिं बिरंचि सम।।

यद्यपि बादल अमृत सा जल बरसाते हैं तो भी बत फूलता फलता नहीं, इसी प्रकार चाहे ब्रह्मा के सामान भी ज्ञानी गुरु मिले तो भी मूर्ख हृदय में ज्ञान नहीं होता। सब उल्टा समझ रहे हैं यदि बादल से अमृत बरसे तो भी वेंत फलता फूलता नहीं है इसी भाँति यदि शिव या ब्रह्मा गुरू मिलें तो भी मूरख के हृदय में चेत नहीं होता, चेत का अभिप्राय विवेक से है अत: मूर्ख रावण स्वयं पंडित होने पर भी विचार से काम नहीं लेता ।

अंगद दूत प्रसंग

रामजी प्रातः जागने पर सभी मंत्रियों को बुलाकर सलाह ली बताओ शीघ्र कौन उपाय किया जाय तब सिर नवाकर जामवंत बोले-

यद्यपि तुम सर्वज्ञ प्रभु, कहूँ स्वमति अनुसार ।
दूत बनाकर भेजिये, पहिले बालि कुमार ॥

राम जी ने अंगद से कहा- हे बल बुद्धि और गुणों के धाम बालिपुत्र तुम मेरे काम के लिए लंका जाओ, तुमको बहुत प्रकार समझा कर क्या कहूं मैं जानता हूं तुम परम चतुर हो, शत्रु से वही बातचीत करना जिससे हमारा काम हो और उसका कल्याण हो। प्रभु की आज्ञा सर चढ़ा कर और उनके चरणों की वंदना करके अंगद जी उठे और बोले हे भगवन, आप जिस पर कृपा करें वही गुणों का समुद्र हो जाता है। सब कार्य अपने आप सिद्ध है, यह तो प्रभु ने मुझको आदर दिया है जो मुझे अपने कार्य पर भेज रहे हैं। प्रभु के चरणों में प्रणाम कर अंगद वहां से चले हैं।

लंका में प्रवेश प्रवेश करते ही रावण के पुत्र से भेंट हो गई जो वहां खेल रहा था। बातों ही बातों में दोनों में झगड़ा बढ़ गया, क्योंकि दोनों ही अतुलनीय बलवान थे और फिर दोनों की युवावस्था थी। अंगद ने उसका पैर पकड़कर घुमाकर पृथ्वी पर पटक के मार दिया। जो राक्षस जहाँ थे वहाँ से खिसक गये पुकार तक न मचा सके। एक दूसरे से भेद नहीं कहते, नगर में हल्ला मच गया वही बंदर फिर आ गया बिना पूछे सब रास्ता बतला देते हैं जिसे अंगदजी देखते हैं वह सूख जाता है।

अंगद ने तुरंत एक निशाचर भेजकर रावण को समाचार दिलाया, सुनते रावण हँसकर बोला, बुला लाओ कहाँ का बन्दर है । अंगदजी सभा में गये। बाली के अत्यंत बलवान बाँके बेटे को देख सभी सभासद उठ खड़े हुए, रावण के मन विशेष क्रोध हुआ ।

अंगद रावण संवाद

रावण ने अंगद से कहा- अरे बंदर तू कौन है? जैसे ही रावण ने उसे बंदर कहा, उत्तर में अंगद ने उसे दशकंधर कहते हुए जताया कि तुम ही कौन बहुत सुंदर हो। मैं रघुवीर का दूत हूँ तुम्हारा मेरा सम्बन्ध है तुम पिता के मित्र हो हित के लिये आया हूँ। रावण तुम्हारा उत्तम कुल है, पुलस्त्य ऋषि के तुम पौत्र हो शिवजी और ब्रह्मा जी की तुमने बहुत प्रकार से पूजा की है। इसलिए स्वयं अपने व सभी लंका वासियों के संघार का कारण ना बनो अभी भी समय है माता जानकी को रघुनाथ जी को सौंप कर उनकी चरण सरण ग्रहण कर लो, वह बड़े कृपालु हैं तुमको अभी भी क्षमा कर देंगे।

अंगद के वचन सुनकर रावण क्रोधित हो गया कहने लगा कि अरे तू अपने कुल को कलंकित करने वाला कुल द्रोही है। तेरे पिता बालि हमारे मित्र थे और बाली को ही मारने वाले का तू साथ दे रहा है? अंगद बोलने लगे रावण तुम अपनी भेद नीति अपने पास ही रखो, यह मुझ पर असर नहीं करने वाली। क्योंकि जिनके हृदय पर रघुनाथ हैं उसके ऊपर भेद नीति काम नहीं करती और तुम जिस बल का बखान कर रहे हो मैं भी कई रावण के बारे में सुन रखा है।

बलिहि जितन एक गयउ पताला। राखेउ बाँधि सिसुन्ह हयसाला।।
खेलहिं बालक मारहिं जाई। दया लागि बलि दीन्ह छोड़ाई।।
एक बहोरि सहसभुज देखा। धाइ धरा जिमि जंतु बिसेषा।।
कौतुक लागि भवन लै आवा। सो पुलस्ति मुनि जाइ छोड़ावा।।

एक रावण बलि को जीतने पाताल गया था, तब बच्चों ने उसे घुडसाल साल में बांध रखा। बालक खेलते थे और जा जाकर उसे मारते थे जब बलि को दया लगी तब उन्होंने उसे छुड़ा दिया। फिर एक रावण को सहस्त्रबाहु ने देखा और उसे उसने दौड़ा कर पकड़ लिया तमाशे के लिए वह उसे घर ले आया तब पुलस्त्य जी ने जाकर उसे छुड़ाया।

एक कहत मोहि सकुच अति रहा बालि की काँख।
इन्ह महुँ रावन तैं कवन सत्य बदहि तजि माख।।

एक रावण की बात कहने में तो मुझे बड़ा संकोच हो रहा है वह बहुत दिनों तक बाली की कांख में रहा। इनमें से तुम कौन से रावण हो? सच बताओ! रावण क्रोधित होकर कहने लगा अरे मूर्ख सुन मैं वही बलवान रावण हूं जिसकी भुजाओं की लीला कैलाश पर्वत जानता है, जिसकी शूरता उमापति महादेव जानते हैं। और रावण प्रभु श्री रघुनाथ की निंदा करने लगा तब अंगद जी को बड़ा क्रोध आया।

जब तेहिं कीन्ह राम कै निंदा। क्रोधवंत अति भयउ कपिंदा।।
हरि हर निंदा सुनइ जो काना। होइ पाप गोघात समाना।।
कटकटान कपिकुंजर भारी। दुहु भुजदंड तमकि महि मारी।।

क्योंकि शास्त्र कहते हैं जो अपने कानों से भगवान की निंदा सुनता है उसे गो वध के समान पाप होता है। वानर श्रेष्ठ अंगद बहुत जोर से आवाज करते हुए अपने दोनों भुजदडों को पृथ्वी पर दे मारा। पृथ्वी हिलने लगी, बैठे हुए सभासद गिर पड़े। रावण गिरते गिरते संभल कर उठा, उसका मुकुट पृथ्वी पर गिर पड़ा। अंगद ने उठाकर श्री राम जी के पास फेंक दिया तब रावण क्रोधित होकर के कहने लगा इस वानर को अभी मार डालो। अंगद गरजते हुए बोले अरे रावण तू और तेरे दूत मुझे क्या मारेगें।

बंधु माताओं इसी समय वीर अंगद ने रावण की सभा में अपना पैर जमा दिया और कहा-

जौं मम चरन सकसि सठ टारी। फिरहिं रामु सीता मैं हारी।।
सुनहु सुभट सब कह दससीसा। पद गहि धरनि पछारहु कीसा।।
इंद्रजीत आदिक बलवाना। हरषि उठे जहँ तहँ भट नाना।।
झपटहिं करि बल बिपुल उपाई। पद न टरइ बैठहिं सिरु नाई।।
पुनि उठि झपटहीं सुर आराती। टरइ न कीस चरन एहि भाँती।।

अरे मूर्ख रावण यदि तू मेरा चरण हटा सके तो श्री राम जी लौट जाएंगे, मैं सीता जी को हार गया। यह सुनते ही रावण ने अपनी वीरों को आदेश दिया सुनो पैर पड़कर बंदर को पृथ्वी पर पछाड़ दो। जब पैर अंगद का किसी से नहीं उठा तो, इन्द्र के जीतने वाले मेघनाद आदि योद्धा उठ खड़े हुए, वह बहुत बल लगा कर अनेक उपाय करके झपटते थे, जब पैर न टला तो सिर नवाकर नीचे बैठ गये, एक अंगद द्वारा सब राक्षसों का पराभव हुआ। अंगद जी के पैर को पृथ्वी नहीं छोड़ती यह देख कर शत्रु का अभिमान दूर हो गया।

रावण कहता था “तुम सुग्रीव कूल द्रुमदोऊ” सो जिसे तट के वृक्ष समझते थे वह तो कैलाश से भी अधिक अचल प्रभावित हो रहा है, जिसका पैर ही उठाया नहीं उठता, उससे युद्ध करना कौन सी कथा है। बंदर का बल देखकर सब की हिम्मत टूट गयी तब अंगद जी की ललकारने पर स्वयं रावण उठा, पर पैर पकड़ते समय बालि के बेटे ने कहा-

मेरे चरण स्पर्श से नहीं बनेगा काम ।
चरण पकड़ने चल वहाँ जहाँ बैठे लक्ष्मण राम ॥

सुनते ही बहुत लज्जित होकर लौटकर बैठ गया, वह तेज हत हो गया, उसकी श्री चली गई हैं जैसे मध्यान्ह के समय चन्द्रमा की गति हो जाती है।

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