राम कथा हिंदी में लिखी हुई-79 RAM KATHA HINDI ME DIJIYE
देखते
सुलोचना को धैर्य हत हो पड़े ।
कोटि
कोटि अश्रु बिन्दुओं से राम रो पड़े ॥
उसकी वेदना और धर्मसंशय ने स्वयं
प्रभु राम को भी अश्रु बहाने को विवश कर दिया। अंत में, जब
सुलोचना ने न्याय की गुहार लगाई, तो श्रीराम ने मर्मस्पर्शी
उत्तर दिया:
सुनो
सुलोचना सती, यह रहस्य अगाध है।
क्षत्रिय
धर्म में जीत-हार, सब विधि-विधान साध है।
श्रीराम जी ने समझाया मेघनाद की
मृत्यु उसके कर्मों का फल थी। वह पितृभक्त तो था, किंतु रावण के
अधर्मी मार्ग का साथ देकर उसने अपने वीरत्व को कलंकित किया। जब उसने निःशस्त्र
लक्ष्मण पर छल से ब्रह्मास्त्र चलाया और सीता के सम्मान को ठेस पहुँचाने की चेष्टा
की, तो धर्म ने उसे दंड दिया।
हे वीरांगना सुलोचना! व्रत' वही
पूर्ण होता है, जो धर्म के सागर में डूबक अधर्म के तिनके को
निकाल फेंके। तुम्हारे पति मेघनाद महापराक्रमी थे, पितृभक्ति
में अनन्य, किंतु उनका बल उस पक्ष में था जहाँ 'सत्य' पर 'अहंकार' की छाया पड़ी थी। लक्ष्मण और मेघनाद—दोनों पितृभक्त, दोनों वीर, पर एक ने धर्म की ध्वजा थामी, दूसरे ने अधर्म के कवच को।
मेघनाद ने अपने प्राणों की आहुति दी, किंतु
वह अमरत्व पा गए, क्योंकि युद्ध में मृत्यु नहीं, बलिदान होता है। तुम्हारा पति 'वीरगति' का अधिकारी बना, जबकि लक्ष्मण 'धर्मगति' का। दोनों ने अपने-अपने व्रत का पालन किया।
हे सती रावण के राज्य में जन्म लेकर
भी मेघनाद ने अपनी वीरता से इतिहास रचा, किंतु धर्म का पलड़ा उसी ओर
झुका जहाँ प्रभु की इच्छा थी। तुम्हारा सतीत्व और
तपस्या अमर रहेगी। स्मरण रखो—जो मरता है, वही अमर होता है।
श्रीराम के इन वचनों को सुनकर
सुलोचना का हृदय शांत हुआ। उसने प्रभु के चरणों में नतमस्तक होकर कहा: हे रघुनाथ!
आपके वचनों ने मेरे संशय को ज्ञान की ज्योति दी। मेरे पति ने अपना कर्तव्य निभाया, और
मैं अपना। सुलोचना ने अपने पति की चिता पर सती होकर उस
महायुद्ध के पृष्ठों में एक नया अध्याय जोड़ दिया।
रावण का
प्रथम युद्ध
सुत
बध सुना दशानन जबहीं । मुरछित भयेउ परेउ महि तबही॥
रावण मेघनाद का वध सुन मूर्च्छित
होकर गिर पड़ा,
मंदोदरी छाती पीटकर रोने लगी, रावण होश आने पर
सब स्त्रियों को समझाने लगा कि यह संसार जितना है सभी नाशवान है, जो पैदा हुआ है वह मरेगा ही अत: विनाशशील के लिये दु:ख करना व्यर्थ है। यह
मृत्युलोक है यहाँ आकर सबको मरना पड़ता है, सभी मृत्यु के
मुख में पड़े हैं अज्ञान से रोते हैं ऐसा विविध प्रकार से ज्ञान का उपदेश दिया पर
स्वयं मंद रावण इस सिद्धान्त को चरितार्थ करने वाला नहीं है।
पर
उपदेश कुशल बहुतेरे । जे आचारहिं ते नर न घनेरे।।
सुबह होते ही वायुवेग वाला रथ सजाकर
रणागण में चल दिया। तमाम अशकुन हुए पर इतना गर्व है उनको नहीं गिन रहा है।
निशाचरों को साथ ले धावा बोल दिया। दोनों ओर से भयानक आक्रमण होता है, रावण
को रथारूढ़ देखकर विभीषण जी अधीर हो उठते हैं।
रावनु
रथी बिरथ रघुबीरा। देखि बिभीषन भयउ अधीरा।।
अधिक प्रीति मन भा संदेहा। बंदि चरन कह सहित सनेहा।।
नाथ न रथ नहिं तन पद त्राना। केहि बिधि जितब बीर बलवाना।।
विभीषण व्याकुलता से कहने लगे- हे
नाथ आप के पास ना रथ है,
ना तन की रक्षा करने वाला कवच है तो फिर उस बलवान रावण से किस
प्रकार जीता जाएगा। कृपानिधान श्री राम जी ने कहा कि
हे सखे सुनो जिससे विजय होती है वह रथ दूसरा ही है। शौर्य और धैर्य उस रथ के पहिए
हैं। सत्य और सील, सदाचार उसकी मजबूत ध्वजा और पताखा है। बल,
विवेक, दम और परोपकार यह चार उसके घोड़े हैं।
ब्राह्मण और गुरु का पूजन अभेद कवच है। ऐसा धर्ममय रथ जिसके भी पास हो उसको जीतने
वाला कहीं शत्रु ही नहीं है। विभीषण द्वारा सूचना पाकर
राम हनुमान अंगदादि को भेजकर उसका यज्ञ विध्वंस कराते हैं। हनुमानजी ने यज्ञ
विध्वंस कर दिया देखकर रावण ने मन में हार मान ली। इसी यज्ञ का उसे भरोसा रह गया
था सो नष्ट हुआ। अधूरा यज्ञ यजमान का नाश करता है अत: उपाय उल्टा पड़ गया।
राम-रावण
युद्ध प्रसंग
युद्धभूमि में घनघोर मेघों सा गर्जन
करता हुआ लंकापति रावण अपने दस मुखों से धधकती अग्नि समान तेजस्वी रूप में प्रकट
हुआ, जिसके दर्शनमात्र से वानर सेना भयभीत हो उठी। उसके हाथों में चमचमाते शूल,
त्रिशूल, गदा, परिघ,
चक्र आदि अस्त्र-शस्त्र विद्युत की चमक लिए घूम रहे थे।
रावण की भीषण चीत्कार से पृथ्वी काँप
उठी— "हे राम! तू क्षत्रिय होकर भी वनवासी बन बंदरों की सेना लेकर मेरे सामने
खड़ा है?
आज तेरे प्राण लूंगा!" इस पर प्रभु श्रीराम ने धनुष उठाते हुए
मधुर किन्तु दृढ़ स्वर में उत्तर दिया "रावण! अहंकार और अधर्म का विनाश
निश्चित है। आज तेरे पापों का प्रायश्चित इसी रणभूमि में होगा।
युद्ध का आरम्भ होते ही रावण ने अपने
मायावी शक्तियों से असंख्य राक्षसों की सेना उत्पन्न कर दी, जिन
पर श्रीराम ने अग्निबाण छोड़कर उन्हें भस्म कर डाला। तब क्रुद्ध रावण ने 'नागपाश' छोड़ा, जिससे सहस्रों
सर्प बिजली की गति से राम को जकड़ने लगे। प्रभु ने 'गरुड़ास्त्र'
का स्मरण किया और पक्षिराज गरुड़ के प्रकट होते ही सर्पों का संहार
हो गया।
रावण के रथ के घोड़े नीलमेघ के समान
काले थे,
और सारथी धूम्राक्ष राक्षस था। श्री राम के रथ का संचालन इन्द्र के
सारथी मातलि कर रहे थे। दोनों के बीच भीषण संग्राम छिड़ गया।
रावण ने मायावी युद्ध प्रारम्भ किया—
वह कभी दस मुखों वाला,
कभी सहस्र भुजाओं वाला, कभी पर्वताकार हो
जाता। राम उसकी प्रत्येक माया को भगवान शिव के दिए अस्त्रों से काटते जाते। जब
रावण ने 'तमोमय' अस्त्र छोड़कर
सम्पूर्ण युद्धभूमि को अंधकार में डुबो दिया, तब राम ने 'सूर्यास्त्र' से प्रकाश फैलाया।
प्रभु श्री राम अपने दिव्य बांणो से
रावण की एक-एक भुजा और सिर को काटते हैं लेकिन अगले ही क्षण उसकी भुजा और सिर नए
उत्पन्न हो जाते हैं। यहां त्रिजटा ; माता जानकी से यह युद्ध का
समाचार कहती है तब माता जानकी दुखी हो जाती हैं।
त्रिजटा बोली पुत्री तुम दुखी मत हो, प्रभु
श्री राम का बांण रावण के हृदय में लगते ही वह मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा। परंतु
प्रभु उसके हृदय में बांण इसीलिए नहीं मारते की उसके हृदय में जानकी जी तुम बसती
हो। प्रभु राघवेंद्र तो बस यही सोच करके रह जाते हैं-
एहि
के हृदयँ बस जानकी जानकी उर मम बास है।
मम उदर भुअन अनेक लागत बान सब कर नास है।।
सुनि बचन हरष बिषाद मन अति देखि पुनि त्रिजटाँ कहा।
अब मरिहि रिपु एहि बिधि सुनहि सुंदरि तजहि संसय महा।।
इसके हृदय में जानकी का निवास है, जानकी
के हृदय में मेरा निवास है और मेरे उदर में अनेकों भुवन हैं। अतः रावण के हृदय में
बांण लगते ही सब भुवनों का नाश हो जाएगा। हे पुत्री रावण के सिरों के बार-बार काटे
जाने से वह व्याकुल हो जाएगा और उसके हृदय से तुम्हारा ध्यान छूट जाएगा तब प्रभु
श्री राम रावण के हृदय में बांण मारेंगे। रावण के एक-एक
अस्त्र का प्रतिघात होते देख विभीषण ने राम जी को स्मरण कराया-
नाभिकुंड
पियूष बस याकें। नाथ जिअत रावनु बल ताकें।।
सुनत बिभीषन बचन कृपाला। हरषि गहे कर बान कराला।।
प्रभो! रावण की नाभि में अमृत कुण्ड
है, उसके हृदय को भेदो! विभीषण के वचन सुनते ही प्रभु रामचंद्र ने प्रसन्न
होकर हाथ में विकराल बांण लिए हैं। उसी समय नाना प्रकार के अपशकुन होने लगे। गधे
सियार रोने लगे। दसों दिशाओं में दाह होने लगा। मंदोदरी का हृदय बहुत कांपने लगा।
मूर्तियों के आंखों अश्रु प्रवाह होने लगा।
पृथ्वी डोलने लगी, बादल
रक्त,धूल की वर्षा करने लगे इतने अधिक अमंगल होने लगे कि
उनको कहा नहीं जा सकता। यह उत्पात देखकर आकाश में देवता व्याकुल होकर के जय-जय
पुकार करने लगे। देवताओं को भयभीत जानकर कृपालु श्री रघुनाथ जी धनुष पर बांण संधान
करने लगे-
खैचि
सरासन श्रवन लगि छाड़े सर एकतीस।
रघुनायक सायक चले मानहुँ काल फनीस।।
कानों तक धनुष को खींचकर श्री रघुनाथ
जी ने इकतीस बांण छोड़ें,
वे श्री रामचंद्र जी के बांण ऐसे चले मानो कालसर्प हों। उसी क्षण आकाश से देवताओं ने जयनाद किया-
रामाय
रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसे।
रघुनाथाय
नाथाय सीतायाः पतये नमः॥
इकत्तीस बाण छोड़े जिनमें एक बाण
नाभि सुधा का शोषण करता है दशवाण दस शिर और बीस बाण तीस भुजाएँ काट कर मंदोदरी के
आगे फेंक देते हैं। कबंध युद्ध भूमि में दौड़ता है तब रामजी बाण से उसके भी दो खंड
कर देते हैं मृत्युकाल में घोर गर्जना करता हुआ रावण गिर पड़ता है गिरने से पृथ्वी
डोल गयी।
दोनों खंडों को बढ़ाता हुआ बंदर
भालुओं के समूहों को दबाकर पृथ्वी पर गिरा। रावण के प्राणपखेरू उड़ते समय राम ने
उसे मोक्ष प्रदान करने हेतु उपदेश दिया- हे लंकेश! तेरा बल और विद्या अद्वितीय था, किन्तु
धर्म से विमुख होने के कारण तू नष्ट हुआ। तब रावण ने अपने अंतिम श्वास में "रा…म…"
नाम उच्चारा और उसका शरीर अग्नि-सी जल उठा।
मंदोदरी के आगे भुज और सिर रखकर बाण
जगदीश के पास आकर सब तरकस में प्रवेश कर गये, यह देख देवताओं ने दुंदुभी
बजाते हुए फूलों की वर्षा की ।