Bhagwat Katha in Hindi PDF file/सप्तमः स्कन्ध,भाग-2

श्रीमद्भागवत महापुराण सप्ताहिक कथा
सप्तमः स्कन्ध,भाग-2
श्रीमद्भागवत महापुराण सप्ताहिक कथा Bhagwat Katha story in hindi

( प्रहलाद चरित्र )
उस परमात्मा को कैसा जाना जाए भक्त प्रहलाद कहते हैं----
गुरूशुश्रूषया भक्त्या सर्वलब्धार्पणेन च |
सङ्गेन साधु भक्तानामीश्वरा राधनेन च ||
श्रद्धया तत्कथायां च कीर्तनैर्गुण कर्मणाम् |
तत्पादाम्बुरुहध्यानात् तल्लिङ्गैक्षार्हणादिभि ||

निष्कपट भाव से गुरु की सेवा करने से जो कुछ भी प्राप्त हो उसे भगवान के श्री चरणों में समर्पित करने से महापुरुषों का सत्संग करने से भगवान की आराधना उनकी कथाओं में श्रद्धा उनके चरण कमलों का ध्यान उनका पूजन और उनके गुणों का उनके नामों का कीर्तन करने से भगवान श्री हरि शीघ्र ही प्रसन्न हो जाते हैं |भक्त कवि श्री सूरदास जी कहते हैं....

पढ़ो रे भैया राम मुकुंद मुरारी,
कहे प्रहलाद सुनो रे बालक लीजे जन्म सुधारी, जनी डर को जड़मति काहू सो भगति करो इस सारी,
को है हिरण्यकशिपु अभिमानी तुमहिं सके सो मारि,
रखने हार कोई और श्याम धरे सूरदास प्रभु सब में व्यापक ज्यों धरणम में |
सभी दैत्य बालकों को सबसे सरल साधन भगवान का कीर्तन दिखाई दिया,उन सभी ने प्रहलाद के साथ झांझ मजीरा उठाया और कीर्तन करने लगे |

गुरू  शण्डामर्क जब लौटकर आए और उन्होंने कीर्तन की ध्वनि सुनी दौडे-दौडे बंद कराने आए परंतु जैसे ही भक्ति में डूबे बालकों का स्पर्श किया ऐसी भक्ति का प्रभाव हुआ कि वह स्वयं भी नाचने लगे कीर्तन करने लगे |
इतनी जोर का कीर्तन हुआ कि ध्वनि हिरण्यकशिपु के महल तक पहुंच गई अनेकों सेवक अस्त्र शस्त्र लेकर कीर्तन बंद कराने आए परंतु उन्होंने भी जब बालकों का स्पर्श किया ऐसा व्यक्ति का करंट लगा कि वह भी नाचते हुए भक्ति में कीर्तन करने लगे |

बहुत देर हो गई ना कीर्तन बंद हुआ ना ही सेवक वापस आए | तब हिरण्यकशिपु क्रोधित होकर हाथ में गदा लेकर दौड़ा दौड़ा आया और जोर की दहाण लगाई जिसे सुनकर दैत्य बालक भयभीत हो गए सब जहां के तहां खड़े हो गए |

हिरण्यकशिपु ने कहा प्रह्लाद मेरे क्रोध करने पर लोकपालों के सहित तीनों लोक कांप उठते हैं | फिर तु किसके बल पर मेरे विरुद्ध काम कर रहा है ,प्रह्लाद ने कहा...
न केवलं मे भवतश्च राजन
       सवै बलं बलिनां चापरेषाम् |
परेडवरेडमी स्थिर जङ्गमां ये
       ब्रह्मादयो येन वशं प्रणीताः ||
पिता जी वे नारायण न केवल मेरे अपितु आपके भी बल हैं | एक तिनके से लेकर ब्रह्माजी तक संपूर्ण चराचर जगत उन्हीं के अधीन है |हिरण्यकशिपु कहा तेरा वह नारायण कहां रहता है, प्रह्लाद ने कहा वह सब जगह रहता है |
भगवान कहा- भक्त की जहां भगवान वहां ||
हिरण्यकशिपु ने कहा क्या इस खंभे में भी है, प्रहलाद ने कहा हां रहता है |हिरण्यकशिपु जोर से उस खंभे में मुस्ठिका का प्रहार किया तभी खम्भे को फाडकर नरसिंह भगवान प्रकट हो गए...
    ( बोलिये नरसिंह भगवान की जय )

हिरण्यकशिपु ने जब नरसिंह भगवान को देखा विचार करने लगा ये कौन है ,यह ना नर है ना पशु है | दोनों में बड़ा भारी युद्ध हुआ नरसिंह भगवान ने हिरण्यकशिपु को हरा दिया तो नरसिंह भगवान ने उसे पकड़ लिया और देहली पर उसे अपनी गोद में लिटा लिया और हिरण्यकशिपु से कहा अपने वरदानों को याद कर ले |

तूने कहा था ना मैं अंदर मरूं ना बाहर मरूं तो ना तू अंदर है ना तो बाहर है |तूने बोला था ना मैं रात में मरू ना दिन में यह तो सायंकाल की बेला है और गोधूलि बेला है | तूने कहा था ना पृथ्वी में मरूं ना आकाश में मरू देख तू ना आकाश में है ना पृथ्वी में है मेरी गोद में है |

तूने कहा था ना पशु से मरू ना मनुष्य से मरू तो ना मैं मनुष्य हूं और ना ही पशु हूं | और तू ने कहा था कि ब्रह्मा की सृष्टि से उत्पन्न किसी भी प्राणी से मेरी मृत्यु ना हो तो ब्रह्मा जी मेरा सृजन नहीं करते मैं ब्रह्मा जी का सृजन करता हूं और तूने कहा था मैं न अस्त्र से मरू ना शस्त्र से मरू तुझे ना अस्त्र से मारूंगा ना शस्त्र से अपने इन बड़े बड़े नाखूनों से मारूंगा इस प्रकार हिरण्यकशिपु के समस्त वरदानों को विफल कर ,भगवान ने अपने नाखूनों से उसका पेट फाड़ दिया उसकी आते निकालकर अपने गले में धारण कर ली और अंत्रमाली बन गए....
     ( बोलिये अन्त्रमाली भगवान की जय )

और फिर राज सिंहासन पर आकर बैठ गए अनेकों देवता उनके स्तुति करने आए परन्तु उनका क्रोध शांत नहीं हुआ ,तब माता लक्ष्मी स्वर्ण की थाल में आरती सजा कर लायीं और चरणों से आरती उतारना प्रारंभ की और जैसे ही मुख्य मंडल को देखा नरसिंह भगवान ने जोर की गर्जना की माता लक्ष्मी के हाथ से आरती की थाली छूट गई |

उन्होंने कहा ब्रह्मा जी से यह मेरे प्रभु नहीं हो सकते मेरे प्रभु तो ( शांताकारम ) शांत रहने वाले हैं | अंत में ब्रह्मा जी ने प्रहलाद जी को भेजा, प्रहलाद जी ने नरसिंह भगवान के चरणों में प्रणाम किया भगवान ने प्रहलाद जी को उठाकर गोद में बिठा लिया और कहा....
क्वेदम वपु क्वा च वयः सुकुमार मेतद
           क्वेता प्रमत्त कृतदारुण यातनास्ते |
आलोचितो हि विषयो यम भूतपूर्वः
           छन्तव्य भंग यदि मे समये विलम्बः ||
नरसिंह भगवान ने कहा....
भोले प्रभु प्यारे कोमल तुम्हारे अंग
हाय असुरन शस्त्र मारे मम् नाम गुण गाने में |
गिरी से गिरायो और जल में डूबायो है 
अग्नि से जलायो कसर राखी ना सताने में ||
उर से लगायो लिपटायो प्रभु बार-बार 
करुणा स्वरूप भये करुणा दिखाने में |
मंजुल मुखारविंद चूम चूम कहे प्रभु 
क्षमा करो लाल मुझे देर भई आने में ||
प्रहलाद हाथ जोड़कर नरसिंह भगवान की स्तुति की....
क्वाहं रजः प्रभव ईश तमोन्धिकेस्मिन्
           जातः सुरेतरकुले क्व तवानुकम्पा |
न ब्राम्हणो न तु भवस्य न वै रमायाः
            यन्तेर्पिता शिरसि पद्मकरः प्रसादा ||
प्रभु कहां तो रजोगुण तमोगुण से युक्त असुर के वंश में उत्पन्न हुआ हूं मैं और कहां आपकी करुणा कृपा आपने जो अपनाकर कमल मेरे सिर पर रख दिया है, यह सौभाग्य ब्रह्मा जी शंकर जी और आपकी प्राण वल्लभा मां लक्ष्मी को भी प्राप्त नहीं हुआ | मैं धन्य हूं || नरसिंह भगवान ने कहा प्रह्लाद बेटा वर मांगो प्रहलाद जी ने कहा....
यस्य आशिष आशास्ते न स भृत्यः स वै वणिक |
जो सेवक सेवा के बदले कुछ मांगता है वह सेवक नहीं रहा वह व्यापारी की श्रेणी में आता है |इसलिए आप ऐसी कृपा कीजिए कि मेरे हृदय में कामनाओं का बीज उत्पन्न ना हो और यदि आप मुझे कुछ देना चाहते हैं तो मेरे पिताजी हिरण्यकशिपु जिन्होंने आपका अपराध किया है उन्हें आप मुक्त कर दीजिए |

नरसिंह भगवान ने कहा प्रहलाद जिस कुल में तुम्हारे जैसा भक्त उत्पन्न हो जाए | उस कुल की 21 पीढ़ियों तर जाती है 10 पहले की और 10 बाद की और उसकी एक स्वयं की | नरसिंह भगवान ने प्रहलाद जी का राज्याभिषेक किया और नरसिंह भगवान ने ब्रह्मा जी को डांट लगाई खबरदार कि आज से जो दैत्यों को ऐसा वरदान दिया ब्रह्मा जी ने बारंबार क्षमा मांगी |नरसिंह भगवान ने प्रहलाद जी को आशीर्वाद दिया और अंतर्ध्यान हो गए..
सूर घनेरे फिरे पद गावत 
पै पद सूर सो स्वाद कहां है |
बहु ताल मंजीरा बजात फिरें 
मीरा मतवारी सी याद कहां है ||
सिया राम कथा कितनों ने लिखी |
तुलसी सरसी मरजाद कहां है ||
नरसिंह बसे प्रति खंभन में |
पर काढ़वे को प्रहलाद कहां है ||
 ( बोलिए भक्तवत्सल भगवान की जय )
  त्रिपुर दहन लीला
देवर्षि नारद कहते हैं- युधिष्ठिर एक बार देवताओं ने भगवान की सहायता से जब असुरों पर विजय प्राप्त कर ली | तो असुर मायावियों के आचार्य मय दानव के पास गए मैदानों असुरों की सुरक्षा के लिए सोने चांदी लोहे के तीन विमान बनाए यह अत्यंत विशाल नगरों के समान थे |

इनका आश्रय ले असुर त्रिलोकी का नाश करने लगे सभी देवता भगवान शंकर के शरण में गए और भगवान शंकर से प्रार्थना की यह राक्षस जो है विमान में चढ़कर त्रिलोकी का नाश कर रहे हैं इनसे रक्षा कीजिए हमारी |

भगवान शंकर ने ऐसा बांण छोड़ा कि संपूर्ण असुर निचेस्ट हो पृथ्वी में गिर गए मैदानव ने समस्त असुरों को अमृत के कुंड में डाल दिया और सभी को जीवित कर दिया |

यह देखकर भगवान शंकर के आश्चर्य की सीमा न रही उन्होंने भगवान नारायण का स्मरण किया उसी समय भगवान नारायण ब्रह्मा जी को साथ ले गाय और बछड़े का रूप धारण करके असुरों के मध्य पहुंच गए और उन्हें देख असुर मोहित हो गए गोरूप धारी भगवान नारायण संपूर्ण अमृत पी गए | उसी समय भगवान शंकर ने अभिजित मुहूर्त में ऐसा बांण छोड़ा कि वे तीनों पुर जलकर भष्म हो गये, इसी से भगवान शंकर का नाम त्रिपुरारी पड़ा..|
     ( बोलिये त्रिपुरारी भगवान की जय )
धर्मराज युधिष्ठिर देवर्षि नारद से पूछते हैं---
भगवत्छोतु मिच्छामि नृणां धर्म सनातनम् |
वर्णाश्रमाचारयुतं यत पुमान्विन्दते परम् ||
हे देवर्षि मैं आपसे मनुष्य के वर्ण एवं आश्रमों के धर्मों को सुनना चाहता हूं जिनका पालन करने से मनुष्य परम पुरुष परमात्मा को प्राप्त कर लेता है |देवर्षि नारद कहते हैं- धर्मराज, ब्राह्मण,क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र यह चार वर्ण होते हैं |
शमो दमस्तपः शौचं संतोषः क्षान्तिरार्जवम् |
ज्ञानं दयाच्युतात्मत्वं सत्यं च ब्रम्हलक्षणम् ||
इंद्रियों का समन मन का दमन, तपस्या, पवित्रता ,संतोष ,क्षमा, सरलता, ज्ञान ,दया भाव ,भगवान की भक्ति और सत्य का पालन करना यह ब्राह्मणों के लक्षण है | सूरता और वीरता, तेजरूपिता,त्याग तथा ब्राह्मणो का सम्मान करना तथा देश की रक्षा करना क्षत्रियों का धर्म है |

गुरु और भगवान की भक्ति करना तथा व्यापार करना यह वेश्यों का धर्म है | निष्कपट भाव से स्वामी की सेवा करना गाय की रक्षा करना चतुर्थ वर्ण ( शूद्र ) का धर्म है | पति कि सेवा करना उनके बंधु बांधओं का आदर सत्कार करना, पति को ईश्वर मानना यह पतिव्रता स्त्रियों के धर्म है |

धर्मराज- ब्रह्मचर्य ,गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास यह चार आश्रम है | 1ब्रह्मचारी- ब्रह्मचारी त्रिकाल संध्या करें, अग्निहोत्र करें, मेखला मृगचर्म दंड कमंडल धारण करें ,भिक्षा लेकर आए उसे गुरु के चरणों में समर्पित कर दें और उनकी आज्ञा मिलने पर भोजन करें ,स्त्रियों से दूर रहे यह ब्रह्मचारी के धर्म है |

2वानप्रस्थ- वानप्रस्थी घर से दूर रहकर वन में निवास करें, सर्दी गर्मी को सहते हुए सूर्य की गर्मी से तपे हुए कंदमूल फल आदि का ही भोजन करें | 3सन्यासी= सन्यासी अपने शरीर के अतिरिक्त किसी भी वस्तु का संग्रह ना करें एक रात्रि से अधिक किसी गांव में ना ठहरे अकेला ही विचरण करें..
न शिष्या ननु बध्नीत ग्रन्थान्नैवाभ्यसेद बहून |
न व्याख्यामुप युन्जीत नारम्भानारभेतक्वचित ||
( 7.13.8 )
बहुत से शिष्य शिष्यायें ना बनाएं अधिक ग्रंथों का अध्ययन ना करें बड़े-बड़े मंचों से व्याख्या ना दे और ना ही आश्रम आदि बनाए | प्रतिदिन ओंकार का जप करें | धर्मराज युधिष्ठिर और जो गृहस्थी है, वह निरंतर भगवान की कथाओं का श्रवण करें अतिथियों का सत्कार करें...
यावद् म्रियेत जठरं तावत् स्त्वं हि देहिनाम् |
अधिकं योभिमन्येत स स्तेनो दण्डमर्हति ||
जितने में पेट भर जाए जितने में परिवार का निर्वाह हो जाए उतने ही धन का संग्रह करना चाहिए इससे अधिक धन को जो अपना मानते हैं वह चोर है दंड के अधिकारी हैं |
साईं इतना दीजिए जामे कुटुम समाय |
मैं भी भूखा ना रहूं और साधु भूखा ना जाए ||
देवर्षि नारद ने जब इस प्रकार उपदेश दिया तब धर्मराज ने उनका पूजन किया और देवर्षि नारद नारायण नारायण का जप करते हुए वहां से चले गए |
       सप्तमः स्कन्ध सम्पूर्ण 

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