Bhagwat Mahapuran saptahik katha in Hindi सप्तम: स्कन्ध,भाग-1

भागवत महापुराण सप्ताहिक कथा
सप्तम: स्कन्ध:,भाग-1
श्रीमद्भागवत महापुराण सप्ताहिक कथा Bhagwat Katha story in hindi
सातवें स्कंध को ऊति कहते हैं इसमें तीन प्रकार के स्वभाव का वर्णन किया गया है | देव स्वभाव, मनुष्य स्वभाव और आसुरी स्वभाव |

प्रारंभ के पांच अध्यायों में दैत्य असुर स्वभाव का वर्णन किया गया है और मध्य के पांच अध्यायों में देव स्वभाव का और अन्तिम के पांच अध्यायों में मनुष्य स्वभाव का वर्णन किया गया है |
सम: प्रिय: सुहृद ब्रह्मन् भूतानां भगवान् स्वयम्  । 
इन्द्रस्यार्थे कथं दैत्यानवधी द्विषमो   यथा ।। 
( 7 , 1, 1 )
परीक्षित सुकदेव जी से प्रश्न करते हैं- कि हे भगवन भगवान तो समदर्शी है फिर वे देवताओं का पक्ष लेकर असुरों का वध बार-बार क्यों करते हैं ,श्री सुकदेव जी कहते हैं परीक्षित तुम्हारा कथन सत्य है भगवान स्वभावत: गुण से रहित हैं परंतु जब भगवान को सत्व गुण की वृद्धि करनी होती है ,तब वे देवताओं का पक्ष लेते हैं |

रजोगुण की वृद्धि के लिए मनुष्य का और तमो गुण की वृद्धि के लिये असुरों का पक्ष लेते हैं | परंतु भगवान का भक्त चाहे तो मनुष्य योनि में या दैत्य योनि मे ही क्यों ना हो उसके लिए भगवान सदा पक्षपाती रहते हैं ,उसका सदा पक्ष लेते हैं |

यही बात एक बार राजसूय यज्ञ में जब शिशुपाल के शरीर से निकली हुई दिव्य ज्योति भगवान श्री कृष्ण के चरणों में समा गई तो आपके दादा धर्मराज युधिष्ठिर ने देवर्षि नारद से पूछा |

कि देवर्षि शिशुपाल तो भगवान से द्वेष करता था परंतु इसे इस प्रकार की दिव्य गति कैसे प्राप्त हुई, यह गति तो बड़े-बड़े योगियों को भी प्राप्त नहीं देवर्षि नारद कहते हैं- धर्मराज युधिष्ठिर वैर भाव से या वैरहीन भाव से ,भय से या सर्प आदि के डसने से अथवा काम से किसी भी भाव से अपना मन भगवान में लगा देना चाहिए भगवान इन भावों में कोई भेदभाव नहीं देखते।
गोप्य: कामाद्भयात्कंसो द्वेषाच्चैद्यादयो नृपा: । 
सम्बन्धाद् बृष्णय: स्नेहाद्यूयं भक्त्या वयं विभो| 
( 7,1,30, )
गोपियों ने प्रेम से ,कंस ने भय से, शिशुपाल दंत वक्र आदि राजाओं ने द्वेष से ,यदुवंशियों ने संबंध से ,आप लोगों ने स्नेह से हम लोगों ने भक्ति से अपना मन भगवान में लगा रखा है | और धर्मराज युधिष्ठिर यह दोनों शिशुपाल और दंत वक्र भगवान के पार्षद जय और विजय थे |

जिन्हें सनकादि ऋषियों द्वारा तीन जन्मों तक असुर होने का श्राप मिला था | जब यह पहले जन्म में हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु थे उस समय भगवान, वराह अवतार धारण कर हिरण्याक्ष का वध किया तो हिरण्यकशिपु अत्यंत क्रोधित हो गया |

उसने दैत्यों को आज्ञा दी जितने भी विष्णु के पक्षपाती देवता है ,ऋषि गण , मनुष्य है उन सब को मार डालो | जहां यज्ञ आदि हो रहा हो, वेद का अध्यापन चल रहा हो उस नगर को उस गांव को आग लगा दो |

इस प्रकार आज्ञा देकर हिरण्यकशिपु शक्ति प्राप्त करने के लिए मंदराचल पर्वत पर तपस्या करने आता है आंख बंद करके जैसे ही ध्यान लगाता है देवर्षि नारदजी तोते का रूप धारण करके आते हैं और नारायण नारायण का गान करते हैं।

इस नारायण मंत्र की ध्वनि से हिरण्यकशिपु का ध्यान खंडित हो जाता है ,वह स्थान बदलकर दूसरे स्थान पर आता है वहां भी जैसे ही ध्यान लगाता है वह तोता पुनः नारायण नारायण का गान करने लगता है तब हिरण्यकशिपु सोचता है कि आज का तो मुहूर्त ही खराब है |

कल से तपस्या करूंगा ऐसा सोचकर अपने नगर में वापस लौट आता है | यहां देवी कयाधु जैसे ही द्वार में देखा कि हिरण्यकशिपु आया है आश्चर्यचकित हो जाती है इतने शीघ्र और कहती है महाराज आप तो तपस्या करने गए थे इतने शीघ्र कैसे लौट आए हिरण्यकशिपु ने कहा देवी जब मैं ध्यान लगा रहा था उसी समय एक तोता आया और नारायण नारायण का गान करने लगा |

कयाधु ने कहा तोता नारायण का गान कैसे कर सकता है | हिरण्यकशिपु कहने लगा देवी मैं सत्य कह रहा हूं वह नारायण नारायण का हीं जप कर रहा था |देवी कयाधु ने अनेकों बहाने उस हिरण्यकशिपु से नारायण मंत्र की पूरी एक माला करा ली आज रात्रि में देवी कयाधु ने हिरण्यकशिपु के गर्भ को धारण किया |

प्रातः काल हिरण्यकशिपु तपस्या करने चल पड़ा यहां देवताओं ने हिरण्यकशिपु के नगर को घेर लिया अनेकों दैत्यों का संघार कर दिया |

इन्द्र कयाधु को बंदी बना लिया बलपूर्वक घसीटते हुए उसे ले जाने लगा इसी समय देवर्षि नारद आए और उन्होंने कहा देवराज यह क्या अपराध कर रहे हो इंद्र ने कहा देवर्षि इस के गर्भ में हिरण्यकशिपु का अंश विद्यमान है जैसे हिरण्यकशिपु हमें सताता है वैसे ही यह भी उत्पन्न होकर हमें सताएगा इसलिये इसके गर्भ को समाप्त कर इसे मेैं इसे छोड़ दूंगा |

देवर्षि नारद ने कहा इंद्र इसके गर्भ में भगवान का प्रिय भक्त विद्यमान है , जिसके निर्मल यश का गान बड़े-बड़े देवता और ऋषि गण करेंगे |देवराज इंद्र ने जब यह सुना तो कयाधु की परिक्रमा की और चला गया | देवर्षि नारद ने कयाधु को अपने आश्रम ले आए भगवन्नाम की महिमा सुनाते कीर्तन करते |

पिताजी संसारी प्राणी मैं मेरे पन के असत आग्रह में फंसकर सदा उद्विग्न रहते हैं इन प्राणियों के लिए मैं यही ठीक समझता हूं कि यह अपने घर गृहस्ती को छोड़कर वन में चले जाए और भगवान नारायण की शरण ग्रहण कर लें |

हिरण्यकशिपु ने जैसे ही नारायण यह नाम सुना जोर से हंसा और कहा संडा मर्क तुमने यह क्या शिक्षा दी है कहीं तुम्हारे ना रहने पर पीछे से देवर्षि नारद तो नहीं आता ध्यान से बालक को शिक्षा दो, जिससे इसकी बुद्धि पुनः ना बहकने पाए संडा मर्क कांपते हुए प्रहलाद को गुरुकुल ले आए और उससे पूछा प्रहलाद तेरी इस प्रकार की उल्टी बुद्धि कैसे हो गई तू नारायण को कैसे जानता है |

प्रहलाद ने कहा गुरु जी जैसे लोहा चुंबक के पास स्वतः खिंचा चला जाता है इसी प्रकार मेरा मन भी भगवान नारायण की ओर बरबस खिच गया है | प्रह्लाद ने जब इस प्रकार  कहा गुरु संडा मर्क ने बहुत डांट लगाई और और अर्थ काम की शिक्षा देने लगे |

एक दिन प्रह्लाद का जन्मदिन था माता कायाधु ने प्रहलाद को स्नान कराया अच्छे-अच्छे वस्त्र पहनाए उत्तम भोजन कराया आशीर्वाद लेने के लिए पिता हिरण्यकशिपु के पास भेजा प्रहलाद ने हिरण्यकशिपु के चरणों में प्रणाम किया हिरण्यकशिपु ने अनेकों आशीर्वाद दिए प्रह्लाद को गोद में बिठा लिया, पूछां गुरु जी ने जो तुम्हें पढ़ाया है उसमें कौन सी बात तुम्हें सबसे अच्छी लगी ने प्रहलाद जी ने कहा-----
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् |
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ||
इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा |
क्रियते भगवत्यद्धा तन्मन्येधीतमुत्तमम् ||

पिताजी सदा भगवान की कथा का श्रवण करना उनके नामों का कीर्तन करना पूजा करना स्मरण करना चरण सेवा करना वंदना करना उनके प्रति दासता से और सत्यव्रत तथा अपना सर्वस्व भगवान नारायण के चरणों में समर्पित कर देना भगवान कि इस प्रकार की नवधा भक्ति को ही सर्वश्रेष्ठ अध्ययन समझता हूं |


हिरण्यकशिपु ने जैसे ही यह सुना बड़ा क्रोधित हुआ, गुरु पुत्रों से कहा तुमने मेरे इस बालक को कैसी निस्सार शिक्षा दी है मैं तुम्हें अभी दंड देता हूं | गुरु पुत्रों ने थर थर कांपते हुए कहा----
न मत्प्रणीतं न पपप्रणीतं
       सुतो वदत्येष तवेन्द्रशत्रो |
नैसर्गिकीयं मतिरस्य राजन्
       नियच्छ मन्युं कददाः स्म मा नः ||
( 7.5.28 )
महाराज इसे यह शिक्षा हमने नहीं दी है यह इसकी जन्मजात बुद्धि है, इसलिए हमे क्षमा कीजिए हिरण्यकशिपु ने प्रहलाद से कहा जब तुझे यह शिक्षा गुरु पुत्रों से प्राप्त नहीं हुई तो कहां से हुई है प्रहलाद ने कहा----
मतिर्न कृष्णे परतः स्वतो वा 
        मिभोभिपद्येत गृहव्रतानाम् |
महीयसां पादरजोभिषेकं
         निष्किञ्चनानां न वृतीत यावत् ||
पिता जी जब तक प्राणी महापुरुष की चरण धूलि से स्नान नहीं कर लेता तब तक उसकी बुद्धि अपने या किसी के समझाने पर भी भगवान के चरणों में नहीं लगती जैसे ही हिरण्यकशिपु ने प्रहलाद के मुख से भगवान का नाम सुना तो गोद से नीचे पटक दिया और दैत्यों से कहा इसे अभी मार डालो दैत्यों ने प्रहलाद को मारने का अनेकों प्रयास किया उसे अस्त्र शस्त्रों से भेदा गया ,पहाड़ से नीचे गिराया गया ,जल में डुबोया गया, हाथी के पैरों से कुचल वाया गया, विष दिया गया , जहरीले सांपों से डसवाया गया ,कालकोठरी में अनेकों दिन भूखा प्यासा रखा गया परंतु प्रहलाद का बाल भी बांका नहीं हुआ |

गुरु पुत्र सण्डा मर्क ने कृत्या उत्पन्न किया कृत्या ने जैसे ही प्रहलाद जी को देखा उनके चरणों मे प्रणाम किया और लौटकर गुरुपुत्र शण्डामर्क को जलाकर भष्म कर दिया, प्रहलाद जी ने प्राथना की----
यदिसर्वगतं विष्णुं मन्यमानो न पायिनम् |
इति तेनैव सत्येन जीवनं त्वेते पुरोहिताः ||
यदि मैंने सर्वत्र सब में भगवान विष्णु का ही दर्शन किया हो तो यह गुरु पुत्र जीवित हो जाएं प्रहलाद जी की इस प्रार्थना से संडामर्क पुनः जीवित हो गए |

यहां हिरण्यकशिपु की बहन होलिका आई उसने चिंतित हिरणकशिपु को देखा तो कहा भैया आप छोटे से बालक के लिए चिंतित हैं मुझे ब्रह्मा जी ने एक दिव्य वस्त्र दिया है जिसके कारण में जल नहीं सकते इसलिए आप विशाल चिता बनवाइये प्रहलाद को लेकर मैं उसमें बैठ जाऊंगी प्रहलाद जलकर भस्म हो जाएगा और मेरा कुछ नहीं बिगड़ेगा |

हिरण्यकशिपु ने विशाल चिता बनवाई प्रहलाद को लेकर होलिका उसमें बैठ गई चारों ओर से उसमें आग लगा दी गई उसी समय भगवान की कृपा से ऐसी वायु चली की होलिका का  वस्त्र उड़कर प्रहलाद जी के ऊपर आ गया और होलिका जलने लगी---
हांड जरे जस लाकड़ी केस जले जस घांस |
सोने जैसी बुआ जल गई कोई ना आयो पास ||
जो अपराध भगत कर करहीं |
राम रोष पावक सो जरहीं ||
जो भक्त का अपराध करता है ,वह भगवान की क्रोध अग्नि में जलकर भस्म हो जाता है | होलिका जलकर भस्म हो गई प्रातः काल प्रहलाद के मित्र भस्म का तिलक करने आए, उसी समय भष्म के फेर से प्रहलाद जी प्रकट हो गए,सभी धूल उड़ा कर होली का पर्व मनाया | जभी से यह पर्व होली के नाम से प्रसिद्ध हो गया |

हिरणकशिपु प्रह्लाद से बहुत डर गया उसे गुरुकुल भेज दिया एक दिन गुरुजी घर गृहस्ती के कार्य से बाहर गए हुए थे दैत्य बालकों ने प्रहलाद जी को खेलने के लिए बुलाया प्रहलाद जी ने सब को बिठा लिया और उपदेश देते हुए कहा--
कौमार आचरेत्प्राज्ञो धर्मान् भागवतानिह |
दुर्लभं मानुषं जन्म तदण्य ध्रुव मर्धदम् ||
मित्रों यह मनुष्य शरीर अत्यंत दुर्लभ है और सदा रहने वाला भी नहीं है इसलिए कुमार अवस्था से ही भगवान का भजन करना चाहिए ,इन्द्रियों से प्राप्त होने वाले सुख तो किसी भी योनि में प्राप्त हो सकता है इसलिए सुख देने वाले उन भोगों की प्राप्ति के लिए प्रयास करने की जरूरत नहीं है |

मित्रों मनुष्य की आयु सौ वर्ष की होती है जिसमें आधी आयु तो सोने में व्यतीत हो जाती है बची पचास वर्ष उसमें भी प्रारंभ के बीस वर्ष खेलने कूदने में व्यतीत हो जाते हैं ,अन्तिम के बीस वर्षों में बुढ़ापे के कारण शरीर काम नहीं करता अनेक प्रकार के रोगों से ग्रसित हो जाता है |

अब बचे दस वर्ष उसमें भी कभी ना पूरी होने वाली अनेकों कामनाएं हैं जिसे पूरा करते-करते संपूर्ण अवस्था व्यर्थ में ही व्यतीत हो जाती है |इसलिए मित्रों जब तक यह जीवन है तब तक उस परमात्मा की प्राप्ति के लिए साधन कर लेना चाहिए | उपनिषद कहते हैं---

इह चेत अवेदिदथ नहि सत्यमरुति न चैदिह 
वेदीन महति विनष्टि |

इस शरीर के रहते हुए यदि उस परमात्मा को जान लिया तो अत्यंत उत्तम है और यदि नहीं जान सके तो महान विनाश होगा |  फिर वही चौरासी का चक्कर.......पुनरपि जननं पुरनरपि मरणं....

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