श्रीमद्भागवत महापुराण सप्ताहिक कथा षष्ठम् स्कंध भाग-3 Bhagwat Kathanak in hindi PDF file

श्रीमद्भागवत महापुराण सप्ताहिक कथा
षष्ठम् स्कंध भाग-3
श्रीमद्भागवत महापुराण सप्ताहिक कथा Bhagwat Katha story in hindi
( वृत्रासुर चरित्र )
वृत्तासुर अपने पिता त्वष्टा को प्रणाम किया प्रार्थना की कि पिताजी आज्ञा दीजिए मैं क्या करूं तब त्वष्टा ने कहा कि देवताओं के सहिक इंद्र का वध कर दो |

वृत्तासुर पृथ्वी को कपांता हुआ देवताओं की ओर बड़ा सभी देवताओं ने एक साथ अपने-अपने दिव्यास्त्रों की वर्षा की वह सभी अस्त्रों को पकड़कर निगल गया यह देख देवताओं के आश्चर्य का ठिकाना ना रहा वह भयभीत होकर भाग नारायण के पास आए |

भगवान नारायण ने कहा देवताओं वृत्तासुर का वध दधीचि ऋषि के निर्मित अस्थियों से होगा इसके अलावा कोई दूसरा उपाय नहीं है, भगवान नारायण के इस प्रकार कहने पर देवता दधीचि ऋषि के पास पहुंचे दधीचि ऋषि से कहा कि महाराज हमें आपकी अस्थियां चाहिए |

दधीचि ऋषि ने कहा देवताओं जो जीवित है उन्हें मरने में बड़ा कष्ट होता है ,ऐसी स्थिति में यदि कोई भगवान विष्णु से भी उनका शरीर मांगे तो वह भी देने का साहस नहीं करेंगे, देवताओं ने कहा मुनि आपका कथन सत्य है यदि मांगने वाला देने वाले के कष्ट को समझ पाता तो वह मांगता ही नहीं इसी प्रकार यदि देने वाला मांगने वाले के दुख को समझ सके तो वह कभी मना ही नहीं कर सकता |

आप सन्त हैं आपका शरीर परोपकार के लिए है परमार्थ के लिए है इसलिए आप हमारी सहायता कीजिए , दधीचि ऋषि ने कहा----
धनानि जीवनंच्चैव परार्थे प्राज्ञ उसृजेत |
सन्निमित्ते वरं त्यागो विनाशे नियतं सती ||
( हितोपदेश )
देवताओं मैं तुम्हारे धर्म की परीक्षा ले रहा था मुझे अपने शरीर से कोई मोह नहीं है क्योंकि धन और जीवन को परमार्थ में लगा देना चाहिए क्योंकि ना चाहे तो भी एक न एक दिन इनका विनाश हो जाना है ,ऐसा कह दधीचि ऋषि ने भगवान का स्मरण करके अपने शरीर का त्याग कर दिया |

देवताओं ने उनकी अस्थियों से वज्र बनवाया और असुरों से युद्ध करने चले आए देवताओं को आते देख असुरों ने बड़ी बड़ी चट्टान और वृक्षों से देवताओं पर प्रहार किया परंतु जब देवताओं को खरोच तक नहीं आई तो दैत्य भयभीत हो गये वहां से भागने लगे, वृत्रासुर ने दोत्यों  को रोकने के लिए उपदेश किया--------
( 6.10.32 )
असुरों जिनका जन्म हुआ है उनकी मृत्यु अवश्य होगी उस मृत्यु को टाला नहीं जा सकता यदि इस प्रकार की मृत्यु के द्वारा उत्तम लोक और यश की प्राप्ति हो रही है तो कौन पुरुष है जो इस प्रकार की मृत्यु का वरण ना करना चाहे संसार में दो प्रकार की मृत्यु ही दुर्लभ है एक योगियों की और दूसरी योद्धाओं की यही उपदेश भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को दिया था गीता में इस प्रकार उपदेश को सुनकर अर्जुन तो युद्ध करने के लिए तैयार हो गया क्योंकि अर्जुन जिज्ञासु था | वह उपदेश का अधिकारी था अर्जुन ने कहा था कि-
शिष्यष्तेहं साधि मां त्वां प्रपन्नां ||
प्रभु  मैं आपका शिष्य हूं मुझे आज्ञा दीजिए मैं क्या करूं | यहां दैत्य जिज्ञासु नहीं थे इसीलिए उपदेश सुनकर युद्ध के लिए तैयार नहीं हुए वहां से भाग खड़े हुए , भागते हुए असुरों पर देवता अस्त्र शस्त्रों की वर्षा करने लगे यह देख वृत्तासुर देवताओं के सामने खड़ा हो गया जोर-जोर से गर्जना करने लगा जिससे अनेकों देवता मूर्छित होकर पृथ्वी में गिर गये वह पैरों से रौंदता हुआ इंद्र की ओर बढ़ा इन्द्र ने आते हुए वृत्रासुर को देखा तो हाथ में गदा उठाई और वृत्रासुर पर चला दी वह असुर गदा बाएं हाथ से पकड़ी और ऐरावत पर प्रहार किया जिससे ऐरावत का मस्तक विदीर्ण हो गया वह पृथ्वी में गिर गया |

इन्द्र ने अपने अमृतमयी हाथ से उसका स्पर्श कर उसे जीवित कर दिया और युद्ध करने के लिए खड़ा हो गया | वृत्तासुर इंद्र से कहा |

इंद्र तूने तीन लोगों की हत्या की है ब्राम्हण अपने गुरु और मेरे भाई कि आज मैं तुझे मार कर अपने भाई के ऋण से उऋण हो जाऊंगा वृत्तासुर के वचनों को सुनकर इंद्र भय से कांपने लगा वृत्रासुर ने सोचा कहीं यह भाग ना जाए तो वृत्रासुर ने कहा इंद्र भयभीत मत हो हो सकता है  दैव योग से आज वज्र के द्वारा तुम मेरा ही वध कर दो उस समय भी विजय मेरी ही होगी मैं अपने शरीर की बलि पशु पक्षियों को समर्पित कर भगवान को प्राप्त कर लूंगा , इसी समय वृत्रासुर को भगवान का स्मरण हो आया युद्ध स्थल में आंख बंद करके भगवान का ध्यान करते हुए वृत्रासुर धर्म अर्थ काम मोक्ष इन चतुर्थ पुरुषार्थ के रूप में चार श्लोकों में भगवान की स्तुति करता है |

अहं हरे तव पादैकमूल-
          दासा नुदासो भवितास्मि भूयः |
मनः स्मरेता सुपतेर्गुणांस्ते
          गृणीत वाक् कर्म करोतु कायः ||
( 6.11.24 )
 न नाकपृष्ठं न च पारमेष्ठयम्
          न सार्वभौमं न रसाधिपत्यम् |
न योगसिद्धी रपुनर्भवं वा
          समंजस त्वा विरहय्य काङ्क्षे ||
( 6.11.25 )
अजातपक्षा इव मातरं खगाः
           स्तन्यं यथा वत्सतराः क्षुधार्ताः |
प्रियं प्रियेव व्युषितं विषण्णा
           मनोरविन्दाक्ष दिदृक्षते त्वाम् ||
( 6.11.26 )
ममोत्तमश्लोकजनेषु सख्यं 
            संसारचक्रे भ्रमतः स्वकर्मभिः |
त्वन्माययात्मात्मजदारगेहे-
            ष्वासक्तचित्तस्य न नाथ भूयात ||
( 6.11.27 )
प्रभु मुझ पर ऐसी कृपा कीजिए कि मैं आपके चरण कमलों पर आश्रित रहने वाले भक्तों का सेवक बनू मेरा मन सदा आपके ही चरणों का स्मरण करें वाणी से मै निरंतर आप के नामों का संकीर्तन करूं और मेरा शरीर सदा आपकी ही सेवा में लगा रहे तथा मुझे आपको छोड़कर स्वर्ग ,ब्रह्म लोक, पृथ्वी का साम्राज्य, रसातल का राज्य ,योग की सिद्धि और मोक्ष भी नहीं चाहिए |

प्रभु जैसे पंख विहीन पक्षी दाना लेने गई हुई अपनी मां की प्रतीक्षा करता है | जैसे भूखा बछडा मां के दूध के लिए आतुर रहता है | जैसे विदेश गए हुए पति की पत्नी प्रतीक्षा करती है ठीक उसी प्रकार मेरा मन आपके दर्शनों के लिए छटपटा रहा है |

प्रभु मेरा मेरे कर्मों के अनुसार जहां कहीं भी जन्म हो वहां मुझे आप के भक्तों का आश्रय प्राप्त हो देह गेह में आसक्त विषयी पुरुषों का संग मुझे कभी ना मिले इस प्रकार भगवान की स्तुति कर वृत्रासुर ने त्रिशूल उठाया और इंद्र को मारने के लिए दौड़ा इंद्र ने वज्र के प्रहार से वृत्रासुर की दाहिनी भुजा काट दिया भुजा के कट जाने पर क्रोधित हो वृत्तासुर अपने बाएं हाथ से परिघ उठाया और इंद्र पर ऐसा प्रहार किया कि इंद्र के हाथ से वज्र गिर गया यह देख इंद्र लज्जित हो गया क्योंकि इंद्र का वज्र वृत्रासुर के पैरों के पास गिरा था |

इन्द्र सोचने लगा यदि इसे उठा लूंगा तो उसके चरणों में झुकना पड़ेगा, वृत्तासुर ने कहा इन्द्र वज्र उठाओ और मुझ पर प्रहार करो | ये विषाद करने का समय नहीं है वृत्रासुर की प्रशंसा करता हुआ कहने लगा-----
अहो दानव सिद्धोसि यस्य ते मतिरीदृशी |
भक्तः सर्वात्मनात्मानं सुह्रदं जगदीश्वरम् ||
अहो दानव राज तुम सिद्ध पुरुष हो जो तुम्हारी भगवान में इस प्रकार की धृण बुद्धि है ,इस प्रकार की भक्ति तो बड़े-बड़े योगियों को भी प्राप्त नहीं होती |

वृत्रासुर ने बाएं हाथ में परिघ को उठाया इंद्र को मारने के लिए दौड़ा इंद्र ने बाएं भुजा को भी काट दिया, दोनों भुजाओं के कट जाने पर वृत्रासुर ने विशाल मुख खोला और एरावत के सहित इंद्र को निकल गया यह देख देवता हाहाकार करने लगे , इंद्र वज्र के द्वारा वृत्रासुर का पेट फाड़ कर बाहर आ गया और वृत्रासुर का सिर धड़ से अलग कर दिया | वृत्रासुर के शरीर से एक दिव्य ज्योति निकली जो भगवान के लोक को चली गई |
   ( बोलिए भक्तवत्सल भगवान की जय )

वृत्तासुर के वध से इंद्र को ब्रह्म हत्या लगी उस ब्रह्म हत्या के मार्जन के लिए इंद्र 1000 वर्षों तक मानसरोवर में कमल नाल में छिप कर रहा है ,उस समय इंद्र के स्थान पर राजा नहुष ने स्वर्ग पर राज्य किया एक हजार वर्षों के पश्चात गुरु बृहस्पति ने देवराज इंद्र से अश्वमेघ यज्ञ कराया और उन्हें पुनः स्वर्ग में स्थापित किया |

 वृत्रासुर का पूर्व जन्म का चरित्र
राजा परीक्षित श्री सुखदेव जी से पूछते हैं वृत्तासुर तो रजोगुणी- तमोगुणी स्वभाव का असुर था फिर उसकी भगवान नारायण के चरणों में इस प्रकार की सुदृण भक्ति कैसे हुई |

श्री सुकदेव जी कहते हैं - परीक्षित सूर्यसेन देश के राजा चित्रकेतु चक्रवर्ती सम्राट थे इनकी एक करोड़ रानियां थी परंतु संतान नहीं थी 1 दिन अङ्गिरा आए उन्होंने चित्रकेतु के दुख का कारण पूंछा तो चित्रकेतु ने कहा कि महाराज मुझे वह ऐश्वर्य प्राप्त है | जिसके लिए बड़े-बड़े लोकपाल भी लालायित रहते हैं |
सैय्यावस्त्रं चन्दनं चारुहास्यं वीणा वाणी शोभमाना च नारी |
न भ्राजन्ते छुत्पिपाशा तुराणां सर्वारम्भातण्डुलः प्रस्तमूलाः ||
परंतु जैसे उत्तम बिस्तर ,वस्त्र, चंदन, मधुर मुस्कान, वाणी से युक्त शोभित नारी भी जैसे भूखे व्यक्ति की भूख नहीं मिटा सकती ऐसे ही समस्त ऐश्वर्य होने पर भी संतान के ना होने से यह धन ऐश्वर्य मुझे सुख नहीं पहुंचा रहे इसलिए कृपा करके आप मुझे संतान प्रदान कीजिए |

राजा चित्रकेतु के इस प्रकार प्रार्थना करने पर ऋषि अंगिरा ने त्वष्टा देवता के लिए चरु का निर्माण किया , त्वष्टा देवता का यजन किया और अवशिष्ट चरु प्रसाद महराज के बङी रानी कृतद्युति को प्रदान किया और राजा चित्रकेतु से  कहा एक पुत्र होगा जो हर्ष और शोक दोनों देने वाला होगा |

ऐसा कह ऋषि चले गए समय आने पर बालक का जन्म हुआ चित्रकेतु ने जैसे ही बालक के उत्पन्न होने का समाचार सुना तो ब्राह्मणों को बहुत सा दान पुण्य किया उस बालक के कारण महाराज चित्रकेतु का अन्य रानियों की अपेक्षा रानी कृतद्युति से प्रेम अधिक हो गया जिससे अन्य रानियां जलने लगी एक दिन उन्होंने उस बालक को विष दे दिया |

जिससे उसकी मृत्यु हो गई बालक की मृत्यु का समाचार रानी कृतद्युति और चित्रकेतु ने सुना तो अत्यंत विलाप करने लगे इसी समय ऋषि अंगिरा देवर्षि नारद के साथ वहां आए और चित्रकेतु से कहा--कौन है इससे पहले इसके साथ तुम्हारा क्या संबंध था और भविष्य में इसके साथ तुम्हारा क्या संबंध होगा |
यथा प्रयान्ति संयान्ति स्त्रोतो वेगेन वालुकाः |
संयुज्यन्ते वियुज्यन्ते तथा कालेन देहिनः ||
जैसे जल के बेग से बालू के कड़ आपस में एक दूसरे से मिलते और बिछड़ते रहते हैं इसी प्रकार समय के प्रवाह से प्राणियों का भी मिलना और बिछड़ना होता रहता है |

ऋषि अंगिरा के इन वचनों को जब चित्रकेतु ने सुना तो कहा महाराज आप दोनों कौन है जो मुझे इस प्रकार का ज्ञान का उपदेश दे रहे हैं |

ऋषि ने कहा यह देवर्षि नारद हैं और मैं अंगिरा हूं मेै ज्ञान का उपदेश देने पहले भी आया था परंतु पुत्र प्राप्ति के लिए तुमने मुझे विवश कर दिया पुत्र के प्रति उत्कट अभिलाषा को देखकर मैंने तुम्हें ज्ञान के स्थान पर पुत्र प्रदान किया अब तुम स्वयं देख चुके हो संसार के जितने भी भोग पदार्थ हैं वह सब शोक और मोह को देने वाले हैं |
इसलिए अब तुम इनका त्याग कर अपने स्वरूप में स्थित हो जाओ, इस प्रकार का उपदेश देने पर भी जब चित्रकेतु का मोह पूर्णत नष्ट नहीं हुआ तो देवर्षि नारद ने अपने योग बल के प्रभाव से मृत जीवात्मा को वहां बुलाया और कहा जीवात्मा देखो तुम्हारे लिए तुम्हारे वियोग में तुम्हारे माता-पिता कितना शोक कर रहे हैं इसलिए तुम अपने शरीर में आ जाओ और अपने माता-पिता के दिए हुए भोगों को भोगो जीवात्मा ने कहा---
कस्मिञ्जन्मन्यमी मह्यं पितरो मातरोभवन् |
कर्मभिर्भ्राम्यमाणस्य देवतिर्यङ्नृयोनिषु  ||
देवर्षि अपने कर्मों के अनुसार मेरे ना जाने कितने जन्म हुए हैं और उनमें से न जाने कितनी बार यह मेरे माता-पिता हुए और ना जाने कितनी ही बार में इनका माता-पिता हुआ |

जीव जब तक जिस योनि में रहता है तभी तक वह उसे अपना मानता है यथार्थ जीव तो नित्य अविनाशी है और स्वयं प्रकाश है ना इसका प्रिय है ना अप्रिय है ना कोई अपना है ना कोई पराया है ऐसा कह वह जीवात्मा वहां से चला गया जीवात्मा के उपदेशों को सुन चित्रकेतु का मोह नष्ट हो गया उसने संसार की आसक्ति का त्याग कर दिया | देवर्षि ने उन्हें चतुर्व्यूह मन्त्र प्रदान किया---- |

ॐ नमस्तुभ्यं भगवते वासुदेवाय धीमहि |
प्रद्युम्नायानिरुद्धाय नमः सङ्कर्षणाय च ||
इस मंत्र के अनुष्ठान से 7 दिनों में ही चित्रकेतु को विद्याधरों का आधिपत्य प्राप्त हो गया 1 दिन चित्रकेतु गंधर्व विमान में बैठकर आकाश मार्ग से कैलाश की ओर जा रहा था उसने भगवान शंकर को माता पार्वती को गोद में लिए हुए ऋषियों को उपदेश देते हुए देखा तो जोर से हंसा और कहने लगा देखो यह त्रिलोकी के गुरु हैं धर्म के वक्ता हैं परंतु इन्हें व्यवहार का तनिक भी ज्ञान नहीं है ऐसा तो कोई सामान्य पुरुष भी नहीं करता |

चित्रकेतु के इस प्रकार कहने पर भगवान शंकर तो कुछ नहीं बोले परंतु माता पार्वती को क्रोध आ गया उन्होंने कहा ब्रह्मा आदि देवता जिन भगवान शंकर के चरण कमलों का ध्यान करते हैं तुम उन्ही में दोष निकाल रहे हो , इसलिए मैं तुम्हें श्राप देती हूं तुम अत्यंत पापमयी आसुरी योनि को प्राप्त हो जाओ |

चित्रकेतु माता पार्वती के चरणों में प्रणाम किया और उनके श्राप को स्वीकार कर लिया यही चित्रकेतु त्वष्टा की अग्नि से उत्पन्न होने वाला वृत्तासुर नाम का असुर हुआ |
( मरुत गणों की उत्पत्ति )
श्री सुखदेव जी कहते हैं परीक्षित महर्षि कश्यप की पत्नी दिति से हिरण्यकश्यपु और हिरण्याक्ष के अतिरिक्त 49 और पुत्र हुए जो देवता हो गए |राजा परीक्षित पूछते हैं गुरुदेव इन पुत्रों ने ऐसा कौन सा कर्म किया था जिससे ये असुरोचित भागव को छोड़कर देवता बन गए |

श्री सुखदेव जी कहते हैं परीक्षित भगवान विष्णु ने जब देवताओं का पक्ष लेकर हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु का वध कर दिया तो दिति बड़े प्रेम से ऋषि कश्यप की सेवा करने लगी दिति की सेवा से प्रसन्न होकर कश्यप ऋषि ने जब वर मांगने को कहा तो दिति ने कहा स्वामी आप मुझे ऐसा पुत्र प्रदान कीजिए जो इंद्र को मारने वाला हो कश्यप ऋषि ने कहा देवी मैं तुम्हें पुंसवन व्रत की विधि बताता हूं यदि 1 वर्ष तक नियमों के साथ इस व्रत को पूर्ण कर सकी तो तुम्हें वह पुत्र होगा जो इंद्र का वध करने वाला होगा परंतु यदि व्रत मे त्रुटि हो गई तो वह पुत्र देवताओं का मित्र बन जाएगा |

दिति ऋषि के बताये अनुसार व्रत करने लगी 1 वर्ष पूर्ण होने में कुछ दिन ही बचे थे की सायं काल दिति जूठे मुंह बिना आचमन किए सो गई अवसर पाकर इंद्र गर्भ में प्रविष्ट हो गया उसने अपने वज्र के प्रहार से गर्भ में पल रहे शिशु के सात टुकड़े कर दिया |

इतने पर भी उनकी मृत्यु नहीं हुई तो एक-एक के सात-सात टुकड़े और कर दिया इतने पर भी उनकी मृत्यु नहीं हुई वे रोने लगे तो इंद्र ने कहा ( मां रुत ) इसी से इनका नाम मरुत हुआ जब प्रसव का समय हुआ तो एक पुत्र के स्थान पर छोटे-छोटे 49 पुत्र हुए | इन्द्र आया तो दिति ने कहा एक पुत्र होना चाहिए 49 पुत्र कैसे हो गये इंद्र ने सारी बात बताई | दिति से क्षमा मांगी और 49 पुत्रों को साथ लेकर स्वर्ग आ गया यही 49 मरुद गण हुये हैं |
 ( भागवत कथानक षष्ठम् स्कन्ध सम्पूर्णम् )

( श्री राम देशिक प्रशिक्षण केंद्र )

भागवत कथा सीखने के लिए अभी आवेदन करें-


   ( बोलिए श्री कृष्ण चंद्र भगवान की जय )

0/Post a Comment/Comments

आपको यह जानकारी कैसी लगी हमें जरूर बताएं ? आपकी टिप्पणियों से हमें प्रोत्साहन मिलता है |

Stay Conneted

(1) Facebook Page          (2) YouTube Channel        (3) Twitter Account   (4) Instagram Account

 

 



Hot Widget

 

( श्री राम देशिक प्रशिक्षण केंद्र )

भागवत कथा सीखने के लिए अभी आवेदन करें-


close