Bhagwat Mahapuran saptahik Katha/ षष्ठम् स्कन्ध,भाग-2

श्रीमद्भागवत महापुराण कथा 
षष्ठम् स्कन्ध, भाग-2
श्रीमद्भागवत महापुराण सप्ताहिक कथा Bhagwat Katha story in hindi
दक्ष की संतति का वर्णन-  
श्री सुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित प्राचीनबर्ही के पुत्र प्रचेताओं के यहां भगवान की कृपा से दक्ष का जन्म हुआ दक्ष का विवाह प्रजापति पाञ्चजन्य की पुत्री अस्मि से हुआ जिससे हरयश्व नामक 10000 पुत्र हुए जब पिता दक्ष ने इन्हें संतान उत्पन्न करने की आज्ञा दी तो वे तपस्या करने नारायण सरोवर चले आए, इनकी भगवत परायणता और निष्कपट हृदय को देखा तो देवर्षि नारद ने इन्हें ज्ञान का उपदेश देने के लिए उनसे कूट प्रश्न किए |

पुत्रों तुम ऐसे बिल को जानते हो जहां जाने का रास्ता है परंतु लौटने का रास्ता नहीं है | एक ऐसी स्त्री है जिसके अनेकों रूप है | एक पुरुष है जो पुश्चली व्यभिचारिणी स्त्री का पति है |

एक ऐसी नदी जो दोनों ओर बहती है | एक ऐसा घर है जो 25 तत्वों से बना है और एक ऐसा हंस है जिसकी कथा विचित्र है तुम यह सब जानते हो तो हरयश्यों ने मना कर दिया देवर्षि नारद ने कहा पुत्रों जब तुम यह सब नहीं जानते तो सृष्टि कैसे करोगे हरयश्यों ने कहा देवर्षि हम आपके चरणों में प्रणाम करते हैं आप जैसा कहेंगे जो आज्ञा देंगे हम वही करेंगे परंतु आप इन रहस्यमय प्रश्नों का उत्तर दीजिए |

देवर्षि नारद ने कहा पुत्रों मोक्ष ही वह बिल है जहां जाना तो होता है परंतु वहां से आना नहीं | भगवान श्री कृष्ण भगवत गीता में कहते हैं----
ततः पदं तत परिमार्गतव्यं
           यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः ||
मेरे उस लोक को प्राप्त कर फिर लौट आना नहीं पड़ता उस लोक को सूर्य चंद्रमा और अग्नि प्रकाशित नहीं कर सकते | माया ही वह बहुरूपणी स्त्री है जिसके अनेकों रुप हैं |
श्री ईश्वर कृष्ण ही सांख्य कारिका में कहते हैं |
अजां मेकां लोहित शुक्ल कृष्णां |
बहवी प्रजाः सृज माना सरूपा: ||
एक माया ही के सत्व रज और तम यह तीन रूप हैं और वह इन्हीं के द्वारा अपने समान अनेकों प्रकार की सृष्टि करती है , परमात्मा ही व्यभिचारणी स्त्री माया का पति है मायावती भगवान |

यह संसार ही दोनों ओर बहने वाली नदी है | महाभारत में जब यक्ष धर्मराजयुधिष्ठिर से प्रश्न पूछता है कि इस संसार में सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है, तो धर्मराज युधिष्ठिर उत्तर देते हैं |
अहन्यहनि भूतानि गच्छन्ति यममन्दिरं |
शेषा जीवितु मिच्छन्ति किमाश्चर्य मतः परम ||
प्रतिदिन एक और प्राणी मर रहे हैं और दूसरी ओर उन मरते हुए प्राणियों को देखते हुए भी जीव जीने की इच्छा करता है और भोग भोगने में लगा रहता है यही संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य है |

पुत्रों यह मनुष्य शरीर ही वह 25 तत्वों का अद्भुत ग्रह है और शास्त्र ही वह हंस है जिसकी वाणी सभी के समझ में नहीं आती इस प्रकार उपदेश दे देवर्षि नारद ने उन्हें अपना शिष्य बना लिया और सन्यास मार्ग की दीक्षा दे दी |

दक्ष ने जब यह सुना बहुत दुखी हुआ ब्रह्मा जी ने जब दक्ष प्रजापति को समझाया तो दक्ष ने सवलाश्व नामक 1000 पुत्र उत्पन्न किया, जब यह पिता की आज्ञा अनुसार संतान उत्पन्न करने के लिए तपस्या के लिए नारायण सरोवर में आए देवर्षि नारद ने कहा भाई का धर्म है कि वह अपने भाइयों का अनुसरण करें आपके भाइयों ने कर्ममार्ग का त्याग कर सन्यास को स्वीकार किया है इसलिए आपको भी उनका अनुसरण करना चाहिए इस प्रकार उन्हें भी देवर्षि नारद ने अपना शिष्य बना लिया | दक्षप्रजापति ने जब यह सुना तो क्रोधित हो गया देवर्षि नारद को श्राप दे दिया---

अहो असाधो साधूनां साधुलिङ्गेन नस्त्वया |
असाध्वकार्यर्भकाणां भिक्षोर्मार्गः प्रदर्शितः ||
( 6.5.36 )
नारद तुमने भेष दो साधुओं का धारण कर रखा है परंतु तुम साधु नहीं असाधु हो तुमने मेरे भोले भाले निरपराध बालकों को भिखारी बना दिया मैं तुम्हें श्राप देता हूं आज से एक स्थान पर अधिक देर तक ठहर नहीं सकोगे, देवर्षि नारद ने उस श्राप को स्वीकार किया इसके पश्चात दक्ष प्रजापति ने 60 कन्यायें उत्पन्न की |

दश धर्माय कायेन्दोर्द्विषट् त्रिणव दत्तवान् |
भूताङ्गिरः कृशाश्वेभ्यो द्वे द्वे तार्क्ष्याय चापराः ||
( 6.6.2 )
जिनमें से दस का विवाह धर्म से हुआ, तेरह का विवाह कश्यप के साथ, सत्ताइस का विवाह चंद्रमा से ,भूत- अंगिरा और कृषाष्व के साथ दो दो कन्याओं का तथा तार्क्ष्यनामधारी कश्यप के साथ चार कन्याओं का विवाह हुआ | कश्यप की पत्नी दिति से दैत्यों का जन्म हुआ और अदिति से देवताओं का जन्म हुआ |

दैत्यों की छोटी बहन रचना का विवाह त्वष्टा नाम के देवता के साथ हुआ जिससे सन्निवेश और विश्वरूप का जन्म हुआ यह विश्वरूप इतने प्रतापी थे की एक बार देवताओं ने बृहष्पति के स्थान पर इन्हे अपना गुरू बनाया था | राजा परीक्षित पूछते हैं,गुरुदेव देवताओं के आचार्य तो बृहष्पति हैं फिर उन्होंने किस कारण देव गुरु बृहस्पति के स्थान पर अपना आचार्य बनाया | श्री सुखदेव जी कहते हैं |

( विश्वरूप चरित्र )

परीक्षित त्रिलोकी का ऐश्वर्य प्राप्त कर इंद्र मदोन्मत्त हो गया एक दिन अपनी पत्नी सची और देवताओं के साथ सभा में बैठ अप्सराओं का नृत्य देख रहा था उसी समय देव गुरु बृहस्पति वहां आए इंद्र ने उन्हें देख कर भी अनदेखा कर दिया | विष्णु पुराण में कहा गया है---
ब्रम्हणं ज्ञान सम्पन्नं विष्णोर्भक्तं महात्मनः |
आयान्तं वीक्ष्यनोतिष्ठेत सादुखैः परिभूयते ||
ब्राह्मण विद्वान भगवान के भक्त और संत महात्माओं को आया देख जो खड़ा नहीं होता उनका सम्मान नहीं करता वह दुख को प्राप्त करता है इन्द्र ना तो आसन दिया  और न ही उनके सम्मान में खड़ा हुआ जिससे गुरुदेव बृहस्पति रुष्ट हो गए और वहां से अंतर्ध्यान हो गए सभा के पूर्ण होने पर इंद्र को पश्चाताप हुआ वह देवताओं के साथ गुरुदेव की कुटिया में आया और गुरुदेव बृहस्पति को कुटिया में ना देख अपने आप को धिक्कारने लगा--
ये पारमेष्ठ्यं धिषणमधितिष्ठन् न कञ्चन |
प्रत्युत्तिष्ठेदिति ब्रूयुर्धर्मं ते न परं विदु: ||
( 6.7.13 )
जो यह कहता है कि सार्वभौम सिंहासन पर बैठा हुआ सम्राट किसी के आने पर खडा ना हो तो वह वास्तव में धर्म को नहीं जानता |दैत्यों को जब इस बात का पता चला तो उन्होंने देवताओं पर आक्रमण कर दिया उन्हें परास्त कर उनसे उनका स्वर्ग छीन लिया, देवता हारे थके ब्रम्हा जी के शरण मे गये ब्रह्मा जी ने कहा तुमने ऐश्वर्य के मद में अंधे हो देव गुरु बृहस्पति की अवहेलना कर अच्छा नहीं किया |
न विप्रगोविन्द गवीश्वराणां
         भवन्त्यभद्राणि नरेश्वराणाम् |
( 6.7.24 )
क्योंकि जो ब्राह्मण गाय और गोविंद की आराधना करता है उसका कभी अमंगल नहीं होता इसीलिए तुम लोग त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप को अपना आचार्य बना लो यदि तुम उनके असुरोचित प्रेम को क्षमा कर सको तो वे तुम्हें तुम्हारा राज्य को पुनः प्राप्त करा देंगे दिला देंगे | ब्रह्मा जी के इस प्रकार कहने पर देवता विश्वरूप के पास आए उनके चरणों में प्रणाम कर कहा----
आचार्यो ब्रम्हणो मूर्तिः पिता मूर्तिः प्रजापतेः |
भ्राता मरुत्पतेर्मूर्तिर्माता साक्षात् क्षितेस्तनुः ||
( 6.7.29 )

आचार्य वेद की मूर्ति है, पिता ब्रह्मा की, भाई इंद्र की और माता साक्षात प्रथ्वी की मूर्ति है , बेटा विश्वरूप दैत्यों ने हमसे हमारा राज्य छीन लिया है इसी दुख से दुखी हो हम आपकी शरण में आए हैं | आप अपने तपोबल के प्रभाव से हमें हमारा राज्य पुनः दिला दो हम आचार्य के रूप में तुम्हारा वरण करते हैं ड विश्वरूप ने कहा देवताओ पुरोहित का कर्म अत्यंत निंदनीय है | कर्म विपाक संहिता में लिखा है---
पौरोहित्यं याचकत्वं मठाधिपत्य मेव च |
करोति यदि देवोपि श्वान योनि समश्नुते ||
पौरोहिती का काम याचना का काम और मठाधीश का कर्म यदि देवता भी करे तो उसका जन्म स्वान योनि कुत्ते की योनि में होता है | पंचतंत्र में कहा गया है-----
नरकाय मतिस्तेचेत पौरोहित्यं समाचर |
वर्ष यावत् किमन्येन मठचिन्तां दिनत्रयम् ||
जिसे नर्क में जाने की इच्छा हो वह एक वर्ष के लिए पुरोहिताई का काम कर ले अथवा तीन दिन के लिए मठाधीश बन जाए | परम पूज्य गोस्वामी श्री तुलसीदास जी कहते हैं--
उपरोहित कर्म अति मन्दा |
वेद पुराण स्मृति करि निन्दा ||
पौरोहित कर्म की वेद पुराण और स्मृति आदि ने निंदा की है परंतु देवताओं तुम मेरे यहां याचक बनकर आए हो इसलिए मैं तुम्हारी कामना को अवश्य पूर्ण करूंगा |

विश्वरूप के इस प्रकार कहने पर देवताओं ने विश्वरूप का पूजन किया और आचार्य के रूप में वरण किया , विश्वरूप ने देवताओं के लिए नारायण कवच का उपदेश दिया |

कहा देवताओं जब भय का अवसर उपस्थित हो उस समय नारायण कवच से अपनी रक्षा कर लेनी चाहिए उसकी विधि यह है सर्वप्रथम स्नानादि करके उत्तर की ओर मुख करके बैठ जाएं और पवित्री धारण करें प्राणायाम करें और ओम नमो नारायणाय तथा ओम नमो भगवते वासुदेवाय दोनों मंत्रों से अगंन्यास करें करन्यास करें षट शक्तियों से युक्त भगवान का ध्यान करें और कवच का पाठ प्रारम्भ करें |
ॐ हरिर्विदध्यान्मम सर्वरक्षां
           न्यस्ताङ्घ्रिपद्मः पतगेन्द्रपपृष्ठे |
दरारिचर्मा सिगदेषुचाप-
            पाशान् दधानोष्ट गुणोष्टबाहुः ||           
भगवान श्रीहरि जिनका चरण कमल गरुण की पीठ पर स्थित है,अणिमादि आठो सिद्धियां जिनकी सेवा कर रही है उन्होंने अपने हाथों हाथों में शंख चक्र गदा ढाल तलवार धनुष बाण और पाश धारण कर रखा है ,ऐसे ओंकार स्वरूप वाले भगवान श्री हरि मेरी सब ओर से रक्षा करें ,जल में जलचर जीवों से मत्स्य भगवान, स्थल में वामन भगवान और आकाश मे त्रिविक्रम भगवान मेरी रक्षा करें ,प्रातः काल हाथ में गदा लिए भगवान केशव ,मध्यान में सुदर्शन चक्र धारी भगवान विष्णु ,सायं कालीन भगवान माधव और रात में भगवान पद्मनाभ मेरी रक्षा करें |

भगवान श्री हरि के नाम रूप वाहन और आयुध समस्त आपत्तियों से मेरी बुद्धि , इन्द्रिय,मन और प्राणों की रक्षा करें |देवराज इंद्र नारायण कवच से तुम अपने आप को सुरक्षित कर लो इसके प्रभाव से तुम शत्रु पर विजय प्राप्त करोगे और अपना राज्य पा लोगे |

इस कवच मे तनिक भी सन्देह मत करना एक बार पूर्वकाल में कौशिक गोत्रीय एक ब्राम्हण इस नारायण कवच को धारण कर मृत्यु को प्राप्त हो गये जिस स्थान पर उनकी अस्थियां पड़ी थी , उसके ऊपर से एक बार चित्ररथ नाम का गंधर्व अपनी पत्नियों के साथ विमान में बैठकर निकला जैसे ही उस भूमि के पास पहुंचा वह विमान के सहित धडाम से पृथ्वी में गिर गया |

यह देखकर उसके आश्चर्य की सीमा न रही वह बालखिल्य ऋषि के पास पहुंचा बालखिल्य ऋषि जी ने बताया यह नारायण कवच की महिमा है जिसकी अस्थियों में इतना प्रभाव है आकाश से धरती में गिर गए ,चित्ररथ गंधर्व ने जब यह सुना उन अस्थियों को सरस्वती नदी में प्रवाहित किया और फिर आगे की यात्रा की |

 देवराज इंद्र ने जब इस प्रकार नारायण कवच की महिमा को सुना तो उसे धारण किया और दैत्यों पर विजय प्राप्त कर पुनः स्वर्ग को प्राप्त कर लिया |

एक दिन देवराज इंद्र ने देखा विश्वरूप प्रत्यक्ष रूप से तो देवताओं को आहुति देते हैं परंतु लुक चुप कर अप्रत्यक्ष रूप से असुरों को आहुति दे रहे हैं |

यह देख इन्द्र को बहुत क्रोध आ गया उसने विश्वरूप का वध कर दिया | इसके बाद इंद्र को ब्रम्हहत्या लगी  इन्द्र ने वह ब्रम्हहत्या चार भागों में बांट दिया- पृथ्वी ,जल, वृक्ष और स्त्री इन चारों  में विभक्त कर दी और चारों को एक एक वरदान दिया पृथ्वी मे ऊसर भूमि के रूप में ब्रह्म हत्या दिखाई देती है, वरदान दिया कोई तुम्हें कितने भी गहरे गड्ढे कर दे वह समय के हिसाब से अपने आप भर जाएंगे |

जल में फेन के रूप में ब्रह्म हत्या दिखाई देती है ,जल को वरदान दिया झरनों तथा नदियों के रूप में तुम्हारी वृद्धि होती रहेगी तुम जीवो को तृप्त करने वाली हो |

वृक्ष मे गोंद के रूप में ब्रम्ह हत्या दिखाई देती है, वृक्ष को वरदान दिया कि यदि तुम्हारा जड़ मूल भाग शेष है तो कोई तुम्हें कितना भी काटे तुम पुनः हरे भरे हो जाओगे |

स्त्रियों को रितु धर्म के रूप में ब्रह्महत्या दिखाई देती है, उन्हें वरदान दिया रितु धर्म के पश्चात भी तुम्हारे शरीर का ह्यास नहीं होगा अपितु कामनाओं की वृद्धि होगी |

विश्वरूप के वध का समाचार जब उनके पिता ने सुना तो क्रोधित हो गये, इंद्र की मृत्यु के लिए यज्ञ करने लगे परंतु यज्ञ में जो मंत्र बोल रहे थे |

इन्द्र शत्रो विवर्धस्व माचिरं जहि विद्विषम् |( 6.9.11 )

इन्द्रशत्रु इस शब्द में अन्त्योदात्त के स्थान पर आद्योदात्त का प्रयोग हो गया जिससे अर्थ बदल गया इंद्र को मारने वाले पुत्र के स्थान पर इंद्र के हाथों मरने वाला पुत्र का अग्नि से जन्म हुआ |

एक विशालकाय दानव अग्नि से निकला देखते देखते उसने अपने शरीर से दिशाओं को आच्छादित कर लिया | आवृत्त कर लिया जिससे उसका नाम वृत्तासुर शुरू हुआ |

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