श्रीमद्भागवत महापुराण साप्ताहिक कथा
अष्टम स्कंध भाग-1

चौदह मनुओं का वर्णन
आठवें स्कंध को मन्वंतर कहते हैं | मन्वन्तराणि सद्धर्म--- प्रत्येक मन्वंतर में उत्पन्न होने वाले मनु तथा सनातन धर्म सत्पुरुषों के संतों के धर्म का वर्णन जिसमें किया गया हो उसे मन्वंतर कहते हैं |
स्वायम्भुवस्येह गिरो वंशोयं विस्ताराच्छ्रतः |
यत्र विश्वसृजां सर्गो मनूनन्यान्वदस्व नः ||
राजा परीक्षित सुखदेव जी से पूछते हैं- गुरुदेव मैंने स्वयंभू मनु के वंश का विस्तारपूर्वक वर्णन सुना है अब आप अन्य मनुओं का वर्णन सुनाइए तब श्री सुखदेव जी कहते हैं परिक्षित, चौदह मनु होते हैं |इस समय छह मनु बीत चुके हैं | पहले मनु स्वयंभू मनु हैं | दूसरे मनु (अग्नि के पुत्र) स्वरोचित मनु हुए | तीसरे प्रियव्रत के पुत्र उत्तम नाम के मनु हुए | चौथे उत्तम के भाई (तामस मनु हुए) और इस मन्वन्तर में भगवान हरि अवतार धारण करके ग्राह से गजेंद्र की रक्षा की |
राजा परीक्षित पूछते हैं- गुरुदेव गजेंद्र तो एक पशु था फिर भगवान के प्रति भक्ति कैसे हुई और भगवान श्री हरि ने किस प्रकार उसकी रक्षा की यह सब बताने की कृपा करें | तब श्री शुकदेव जी कहते हैं |
आसीद् गिरिवरो राजंस्त्रिकूट इति विश्रुत: ।
क्षीरोदेना वृत:श्रीमान्योजनायुत मुच्छित: ।। ८/२/१
परिक्षित, छीर सागर से घिरा हुआ एक त्रिकूट नामक एक विशाल पर्वत था, जिसकी गुफाओं कंदरा में अनेकों देवता साधु संत महात्मा अनेकों सिद्ध चारण भ्रमण करते थे |उसी पर्वत की तलहटी में एक विशाल गजेंद्र अपने साथी हाथी हथनियों के साथ निवास करता था | वह इतना बलवान था कि उसकी मादक गन्ध मात्र से सिंह आदि बड़े-बड़े हिंसक प्राणी वन से पलायन कर जाते थे |
एक दिन गर्मी के समय में दोपहर में उसे ज़ोर की प्यास लगी वह अपने साथी हाथी हथनियों के साथ जल की तलाश करता हुआ एक सरोवर में पहुंचा वहां उसने जल पिया स्नान किया और से निश्चिन्त होकर स्नान करने लगा |
अपनी शूंड़ से जल भरकर अपने पुत्रों को पानी पिलाने लगा उसी समय प्रारब्ध की प्रेरणा से एक बलवान ग्राह ने उस गजेंद्र का पैर पकड़ लिया | अब गजेंद्र अपने आप को छुड़ाने लगा और जब अपने पैर को नहीं छुड़ा सका तो उसके साथी उसकी सहायता करने लगे जब वह भी छुड़ाने में समर्थ नहीं हुए तो सभी साथी गजेंद्र को छोड़कर जाने लगे | गजेंद्र विचार करने लगा---
स्वारथ रत संसार की यही पुरानी रीत|
सुख में सब अपने बने दुख में त्यागे मीत ||
आराम के साथी क्या क्या थे
जब वक्त पड़ा तब कोई नहीं|
सब दोस्त हैं अपने मतलब के
दुनिया में किसी का कोई नहीं ||
गुरु नानक देव जी कहते हैं---
प्रीतम जान लियो मन माहीं
अपने सुख से ही जग बंध्यो|
कोऊ काहू को नाहीं
सुख मे आन सबहिं मिल बैठत|
और रहत चहूं दिस घेरे
बिपत पडत सबही छाणत
कोऊ न आवत नेरे ||
अनेकों वर्षों तक गज और ग्राह का युद्ध चलता रहा कभी गजेंद्र ग्राह को जल से बाहर खींच लाता है तो कभी गृाह गजेंद्र को जल में खींच लाता ग्राह जलचर प्राणी था जल में रहने के कारण उसकी शक्ती बढ़ गई ,गजेंद्र को लगा अब मैं नहीं बचने वाला उस समय उसे भगवान का स्मरण आया और वह भगवान की स्तुति करने लगा--
ऊँ नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम् ।
पुरुषायादि बीजाय परेशायाभि धीमहि ।। ८/३/२
जो इस जगत के मूल कारण हैं | समस्त प्राणियों के हृदय में पुरुष रूप से विराजमान हैं,जगत के एकमात्र स्वामी और जिनके कारण संपूर्ण संसार में चेतना व्याप्त है उन परम ब्रह्म परमेश्वर को मेरा नमस्कार है, मैं उनका ध्यान करता हूं |गजेंद्र ने जब इस प्रकार निर्विशेष रूप से भगवान की स्तुति की जो नाम रूप से रखने वाले ब्रह्मा आदि देवता भी उनकी सहायता के लिए नहीं आए परंतु भगवान श्रीहरि से गजेंद्र की पीड़ा देखी नहीं गई, भगवान कर रहे थे भोजन की थाल छोड़ कर खड़े हो गए- माता लक्ष्मी ने भगवान का हाथ पकड़ लिया कहा प्रभु कहां जा रहे हो |
हांथ पकड़ कमला कहे कहां जात हो नाथ|
हा तो कमला ने सुनी थी सुनी गजराज ||
भगवान श्री हरि को इतनी तीव्रता थी कि हाथी का हा तो माता लक्ष्मी ने सुना और जितनी देर में थी बोलते इतनी देर में गजेंद्र के पास पहुंच गए-
सुने री मैंने निर्बल के बलराम
जब लगि गज अपनो बल परख्यो |
नेक सरयो नहीं काम
निर्बल होई बलराम पुकारो |
तब प्रभु धाये आधे नाम
सुने री मैंने निर्बल के बलराम||
गजेंद्र ने जैसे भगवान श्रीहरि को देखा तो विचार करने लगा--
रत्नाकरस्तव गृहं पत्नी च पद्मादेयं किमस्ति तुभ्यं जगदीश्वराय ।
आभीर वाम नयना हृतमानसाय
दत्तं मनो मे यदुपते कृष्णा गृहाण।।
अगर मैं रत्न प्रदान करुं तो रत्नाकर समुद्र इनका निवास स्थान है ,यदि मैं इन्हें धन समर्पित करुं तो धन की अधिष्ठात्री मां लक्ष्मी इनकी पत्नी हैं |इसलिए इन्हें क्या दूं हां इनके पास मन नहीं है क्योंकि मन तो ब्रज गोकुल की गोप कुमारियों ने चुरा लिया है |
इसने गजेंद्र ने अपना मन रूपी पुष्प, मन रूपी सुमन ,भगवान श्री हरि के चरणों में समर्पित किया और कहा-- हे अखिल जगत के गुरु भगवान नारायण मैं आपको बारंबार नमस्कार करता हूं | भगवान श्रीहरि ने जैसे ही गजेंद्र की पीड़ा देखी तो गरुड से कूद पड़े गजेंद्र को पकड़कर उसे जल से बाहर निकाला और अपने सुदर्शन चक्र से ग्राह का मुंह फाड़ दिया और गजेन्द्र को मुक्त कराया |
यह देखकर देवता आकाश से फूलों की वर्षा करने लगे लगे जय-जयकार करने लगे |
बोलिए श्री हरि भगवान की जय
ग्राह का पूर्व जन्म-
श्री सुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित पूर्व जन्म में यह ग्राह हूहू नाम का गंधर्व था | जब नदी में कोई स्नान करने आता तो यह जल के नीचे से डुबकी लगा कर आता और पैर पकड़ लेता, डरा देता और हंसता | एक दिन देवल ऋषि का पैर पकड़ लिया जिससे देवल ऋषि को क्रोध आ गया और उन्होंने श्राप दे दिया जाओ ग्राह बन जाओ तब हूहू गंधर्व ने देवल ऋषि के चरण पकड़ लिए क्षमा मांगी तो देवल ऋषि ने कहा |इसी प्रकार अब पैर पकड़ते रहना जिस दिन किसी भक्त का पैर पकड़ लोगे उसी दिन इस ग्राह योनि से मुक्त हो जाओगे,आज ग्राह ने भक्त गजेंद्र का पैर पकड़कर ग्राह गजेंद्र से पहले मुक्त हो गया | श्री सुखदेव जी कहते हैं- परिक्षित यह गजेंद्र-
गजेन्द्र का पूर्व जन्म
पूर्व जन्म में इन्दुम्न नाम का राजा था, वह राज्य पाठ छोड़कर वन में चला गया वहां उसने बड़ी-बड़ी दाढ़ी मूछें बढ़ा ली और महात्माओं का वेश धारण कर लिया और भगवान का भजन करने लगा |एक दिन अपने शिष्य मंडली के साथ है अगस्त मुनि पधारें उन्हें देखकर उनका स्वागत ना करना पड़े इसलिए उसने अपने नेत्र बंद कर लिए |
त्रिकालदर्शी अगस्त्यमुनि समझ गए यह समाधि का ढोंग रच रहा है|तो श्राप दे दिया कि राजन तुम गज के समान बैठे हो जाओ गज हो जाओ| आज भगवान ने इस गजेंद्र को भी मुक्त कर दिया|
बोलिये श्री हरि भगवान की जय
परिक्षित पांचवे मनु तामस के भाई रैवत हुये| छठवें चक्षु के पुत्र चाक्षुष हुए-- इस मन्वंतर में भगवान ने समुद्र मंथन करा कर अमृत पिलाया| अजित,कक्षप और मोहनी आदि अनेकों अवतार हुये |राजा परीक्षित पूंछते हैं गुरुदेव भगवान ने किस प्रकार मंथन करवाया और कौन कौन से रत्न राशि समुद्र से निकले यह सब बताने की कृपा करें | श्री सुखदेव जी कहते हैं-
यदा दुर्वासस: शापात् सेन्र्दा लोकास्त्रयो नृप।
नि:श्रीकाश्चाभवंस्तत्र नेशुरिज्यादय: क्रिया:।। ८/५/१६
परिक्षित एक बार दुर्वासा ऋषि भगवान नारायण का दर्शन करके बैकुंठ लोक से आ रहे थे मार्ग में उन्होंने देवराज इंद्र को देखा तो भगवान की प्रसादी माला उन्हें भेंट की | परंतु इंद्र ऐश्वर्य के मद में अंधा था, उसने वह माला एरावत हाथी के गले में डाल दि ऐरावत ने वह माला अपनी शूंड से निकाली और पैरों में कुचलने लगा |यह देख दुर्वासा ऋषि को क्रोध आ गया ,उन्होंने देवराज इंद्र को श्राप दे दिया--- जा तुझे अपने ऐश्वर्य का बड़ा अभिमान है तो जल्द ही अपने ऐश्वर्य से च्युत हो जाएगा |
यह बात जब दैत्यराज बलि को पता चली तो उसने दैत्यों के साथ स्वर्ग पर आक्रमण कर दिया, देवताओं को पराजित कर त्रैलोक्य में अपना राज्य जमा लिया | दुखी देवता भगवान नारायण की शरण में गए, भगवान नारायण ने कहा देवताओं तुम सभी दैत्यों से संधि कर लो-
अरयोपि हि सन्धेया: सति कार्यार्थ गौरवे ।
अहिमूषक वद् देवा ह्यर्थस्य पदवीं गतै: ।। ८/६/२०
देवताओं अपना काम बनाने के लिए सत्रु से भी मित्रता कर लेनी चाहिए,हां काम निकल जाने के बाद अहिमूषक न्याय का आश्रष ले सकते हैं |देवताओं ने कहा प्रभु यह अहिंमूसक न्याय क्या है, भगवान नारायण ने कहा देवताओं- एक सपेरा था उसने अपनी पिटारी में कई दिनों से एक सांप को बंद करके रखा था |एक दिन उस पिटारी में कहीं से एक चूहा आ गया सांप ने चूहे को देखा तो कहा मामा जी यह सपेरा दुष्ट है हम दोनों को मार डालेगा कई दिनों से मुझे बंद करके रखा है और कुछ खाने को भी नहीं देता इसलिए तुम अपने नुकीले दांतों से इस पिटारी को काट दो जिससे हम दोनों यहां से निकल कर भाग जाएंगे|
चूहे ने कहा तुम हमारे शत्रु हो बाहर निकल कर हमें खा जाओगे तब सांप ने कहा मैंने व्रत रखा है अब मैं चूहे नहीं खाता यदि खाता होता तो कब का खा लिया होता |
चूहा सांप की बात में आ गया और उसने पिटारी को काट दिया सबसे पहले सांप बाहर निकल गया और बाहर कुंडली मारकर बैठ गया और चूहे को फट से निगल गया और उसने अपनी भूख भी मिटा ली उस पिटारी से मुक्त भी हो गया | देवताओं तुम भी इस प्रकार असुरों से संधि करो ,मंदराचल पर्वत को मथानी बनाओ, वासुकी नाग को नेती बनाओ ,अमृत प्राप्ति के लिए समुद्र मंथन करो |
न संरम्भेण सिध्यन्ति सर्वेर्था: सान्त्वया यथा।। ८/६/२४
क्योंकि क्रोध करने से कुछ नहीं होता और शांति से सब काम बन जाता है |भगवान की बात मानकर देवता दैत्य राजबली के पास गए |और दैत्यों से संधि करके अमृत प्राप्त करने का प्रयास करने लगे |देवता और दैत्यों ने मिलकर मंदराचल पर्वत को उखाड़ लिया, परंतु समुद्र तक ले जाने में असमर्थ हो गए | तो देवताओं ने भगवान का स्मरण किया उसी समय भगवान गरुड़ पर सवार होकर अजित भगवान का रूप धारण कर प्रकट हो गए |
बोलिये अजित भगवान की जय
उन्होंने एक हाथ से मंदराचल पर्वत को उठाया और सागर में स्थापित कर दिया, देवता और असुर दोनों वासुकी नाग के पास गए और अमृत देने का लालच देकर वासुकी नाग को मन्दराचल की मथानी बनने को मना लिया|जब वासुकी नाग की रस्सी बनाई गई तो देवता सर्व प्रथम मुख पकड़ कर खड़े हो गए, दैत्यों ने जब देखा तो कहने लगे सांप का जो पूंछ वाला भाग है वह अशुभ माना जाता है ,और हमारा जन्म उच्च कुल में हुआ, बड़ी-बड़ी मिसालें भी हम ने कायम की है इसलिए हम पूछ वाले भाग को कदापि नहीं पकड़ेंगे |
दैत्यों के इस प्रकार कहने पर देवताओं ने मुख छोड़ दिया और पूंछ की ओर आकर लग गए |जब समुद्र मंथन हुआ तो भार के अधिकता के कारण मंदराचल पर्वत पृथ्वी पर धसने लगा उस समय कच्छप अवतार धारण करके भगवान ने उसे अपनी पीठ पर धारण कर लिया |
बोलिए कक्षप भगवान की जय
देवता और दैत्यों ने मंदराचल पर्वत को उठा हुए देखा तो मंथन करने लगे,भगवान नारायण असुरों में आसुरी शक्ति के रूप में देवताओं में देवसक्ति के रूप में और वासुकी नाग में निद्रा के रूप में प्रविष्ट हो गए |वासुकी नाग से विष रूपी ज्वाला निकलने लगी जिससे अनेकों दैत्य झुलस गये, इसी उसी समय भगवान की प्रेरणा से मंद मंद मेघ बरसने लगे देवता और दैत्य अपनी शक्ति लगाकर मंथन करने लगे |
सर्वप्रथम हलाहल नाम का भयंकर विष निकला, उसकी ज्वाला से त्रिलोकी में हाहाकार मच गया सभी जलने लगे तब देवता और दैत्य सभी भगवान शंकर की शरण में गए और हाथ जोड़कर प्रार्थना की |
देवदेव महादेव भूतात्मन् भूतभावन।
त्राहि न: शरणापन्नां स्त्रैलोक्य दहनाद् विषात् ।। ८/७/२१
हे देवाधिदेव महादेव आप प्राणियों की रक्षा करने वाले हैं, यह विष इस त्रिलोकी को दहन कर देगा इससे हमारी रक्षा कीजिए,हम आप की शरण में हैं |
भगवान शंकर ने प्राणियों की इस दुख को देखा तो माता पार्वती की अनुमति से उस हलाहल नाम के विष को अपनी हथेली पर रख रखा और पान कर गए | माता पार्वती ने सोचा कहीं उदर में जाकर यह विषय विकार न कर दे तो माता पार्वती की प्रार्थना करने पर भगवान शंकर गले में ही रोक लिया, जिससे भगवान शंकर का गला नीला हो गया और वे नीलकंठ कहलाए |
बोलिये नीलकंठ भगवान की जय
विष पीते समय भगवान की हथेली से जो एक दो बूंद पृथ्वी पर गिरी उसे सांप बिच्छू और औषधियों ने ग्रहण किया ,जिससे बे भी विषैले हो गए | पुनः समुद्र मंथन हुआ अब की बार कामधेनु गाय निकली, जिसे दूध घी आदि यज्ञ आदि पदार्थों के लिए ऋषियों को प्रदान की गई |फिर उच्चैश्रवाः घोड़ा निकला जो दैत्य राजबली ने लिया | ऐरावत हाथी को इंद्र ने ग्रहण किया | कौस्तुभ मणि स्वतः भगवान नारायण के पास चली गई| और पारिजात वृक्ष स्वर्ग की शोभा बढ़ाने वाला हुआ और उसके पश्चात साक्षात मां लक्ष्मी का प्रादुर्भाव हुआ |
( श्री राम देशिक प्रशिक्षण केंद्र )
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