श्रीमद् भागवत कथा पुराण /10-14

श्रीमद् भागवत कथा पुराण 

श्रीमद्भागवत महापुराण सप्ताहिक कथा
श्रीमद्भागवत महापुराण सप्ताहिक कथा Bhagwat Katha story in hindi
एक दिन माता देवकी ने भगवान श्री कृष्ण को भोजन परोसा श्री कृष्ण ने भोजन की थाल में माखन को देखा तो उन्हें मैया यशोदा की याद आ गई , व्रज की याद आ गई उनकी आंखों से अश्रु प्रवाह होने लगा |उस समय--

( उद्धव का वृंदावन जाना )

दशम स्कन्ध,भाग-14

वृष्णीनां प्रवरो मन्त्री कृष्णस्य दयितः सखा |
शिष्यो वृहष्पतिः साक्षादुद्धवो बुद्धिसत्तमः ||

बृहस्पति के शिष्य परम बुद्धिमान , श्री कृष्ण के सखा उद्धव जी ने देखा तो कहा-- प्रभु आपके दुख का क्या कारण है ? श्री कृष्ण ने कहा उद्धव मुझे व्रज की याद आ रही है बृजवासी मुझे याद करते हैं इसलिए मुझे भी उनकी याद आ रही है-

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् |

इसलिए उद्धव तुम व्रज में जाओ और मेरे वियोग के विरह में दुखी गोपियों को ज्ञान का उपदेश दे दुख से मुक्त कराओ |

ता मन्मनस्का मत्प्राणा मदर्थे त्यक्तदैहिकाः |

उन गोपियों का मन मुझ में ही लगा रहता है, उन्होंने मेरे लिए अपने सगे संबंधियों का त्याग कर दिया मैं आऊंगा इस संदेश के कारण उन्होंने जिस किसी प्रकार अपने प्राणों को धारण कर रखा है | श्री कृष्ण ने उद्धव जी से जब इस प्रकार कहा उद्धव जी ने वृंदावन की यात्रा की |

चले मथुरा से जब कुछ,दूर वृंदावन निकट आया वहीं से प्रेम ने अपना अनोखा रंग दिखलाया |उलझ कर वस्त्र में जब कांटे लगे उद्धव को समझाने, तुम्हारा ज्ञान पर्दा फाड़ देंगे वह प्रेम दीवाने | क्योंकि प्रेम है जगत में सार और कोई सार नहीं |

उद्धव जी जब वृंदावन पहुंचे ग्वाल बालों से पूंछा नन्दबाबा का घर कौन सा है, ग्वाल बालों ने कहा श्रीकृष्ण के विरह में दुखी गोपिया की आंखों से प्रवाहित होने वाले अश्रू की धारा जिस द्वार पर रुक जाए समझ जाना वहीं नंदबाबा का घर है | उद्धव जी नंदबाबा के द्वार में पहुंचे नंद बाबा ने जब उद्धव जी को देखा- वासुदेव धियार्चयत

श्रीमद् भागवत कथा पुराण 


श्री कृष्ण समझ उन्हें गले से लगा लिया, उनका स्वागत सत्कार किया उत्तम भोजन कराया जब उनकी थकान दूर हो गयी, वह सुख पूर्वक बैठे हुए थे तब नंद बाबा ने पूछा उद्धव हमारे मित्र वसुदेव आदि सब कुशल पूर्वक तो हैं |

अपि स्मरति नः कृष्णो मातरं सुह्रदः सखीन् |
गोपान् व्रजं चात्मनाथं गावो वृन्दावनं गिरिम् |

क्या श्री कृष्ण कभी मैया यशोदा, ग्वाल बालों, गोपी ,वृंदावन ,गाय और गिरिराज को याद करते हैं ? क्या कभी वृंदावन आएंगे ? तो उनका सांवरा सलोना मुख मंडल हम देख लेंगे ! उद्धव जी ने कहा बाबा घर में ही पड़े रहते हो कभी बाहर भी घूम आया करो नंद बाबा ने कहा-- उद्धव जी क्या करें जब गिरिराज को देखता हूं तो गिरधारी की याद आ जा रही है यमुना को देखते ही कालिया मर्दन याद आ जाता है और इस वृंदावन को देखते हैं तो वनचारी की याद आ जाती है अब हम कहां जाएं किसे देखें ?

जिन नैनन नन्दलाल लखे उन नैनन से अब देखिय काहो |
वैरिन वो अंखिया जल जाये जो सांवरो छोड़ निहारत गोरो |

ऐसा कहते-कहते नंद बाबा का गला भर आया और वे शांत हो गए, उद्धव जी ने कहा--

युवां श्लाघ्यतमौ नूनं देहिनामिह मानद |
नारायणे खिलगुरौ यत् कृतामतिरीदृशी |

बाबा आप दोनों अत्यंत प्रशंसनीय हो क्योंकि आपको अखिल जगत के गुरु भगवान नारायण में इस प्रकार की मति है | मृत्यु के समय एक बार जो भी जीव अपने मन को श्रीकृष्ण के चरणों में समर्पित कर देता है वह परम गति को प्राप्त करता है | बाबा श्री कृष्ण आपसे मिलने अवश्य आएंगे परंतु श्रीकृष्ण आपके ही पुत्र नहीं अपितु समस्त प्राणियों के हृदय में विराजमान परमपिता परमात्मा हैं |

ना उसकी कोई माता है, ना पिता है, ना पत्नी है ,ना पुत्र, ना कोई अपना, ना कोई पराया है, ना गेह है, ना ही जन्म है | मैया यशोदा ने कहा उद्धव जब उसका गेह और जन्म नहीं होता तो जिन निरंजन की आंखों में अंजन लगाया मैंने, जिस निराकार के आकार को मैंने सजाया है , जिसे मैंने अपनी गोद में बिठाकर भोजन कराया , जो इस आंगन में खेला करता था , मैया मैया करके मुझसे लिपट जाता था, वह कौन था |

श्रीमद् भागवत कथा पुराण 


उद्धव जी मैया के वचनों का कोई जवाब नहीं दे पाए शांत हो गए , इस प्रकार वार्ता करते-करते रात्रि व्यतीत हो गई प्रातः काल हो गया |

उद्धवस्य रथं दृष्ट्वा क्रूरं रामा ससंकिरे |
दुग्धेन दग्ध जिह्वस्तु तक्रं पिबति फूत कृतः |

गोपियों ने नंदबाबा के द्वार पर रथ खड़ा देखा तो कहने लगी क्या अक्रूर आया है परंतु अब वह यहां किसे लेने आया है ? हमारे श्यामसुंदर को पहले ही ले जा चुका है अब क्या अपने स्वामी कंस का पिंडदान करने के लिए हमें लेने आया है ? गोपियां इस प्रकार कह रही थी कि प्रातः काल का नित्य नियम कर उद्धव जी वहां आ गए ! गोपियों ने उद्धव जी को वहां देखा तो कहने लगी यह श्री कृष्ण का वेश धारण करने वाला कौन है ?

उद्धव ने कहा मैं श्री कृष्ण का दूत हूं गोपियों ने कहा श्री कृष्ण ने अपने माता-पिता का हाल चाल पूछने के लिए ही व्रज भेजा है ना, अन्यथा अब उन श्रीकृष्ण को स्मरण करने लायक बचा ही कौन है|

जैसे विद्या अध्ययन कर शिष्य गुरु को भूल जाता है ,जैसे दक्षिणा मिलने के बाद ब्राह्मण यजमान को भूल जाते हैं, जैसे फल समाप्त होने पर पक्षी गण वृक्ष को छोड़ देते हैं ऐसे ही हमसे काम निकलने के बाद श्रीकृष्ण ने हमें छोड़ दिया | गोपियां इस प्रकार कह रही थी इसी समय एक भंवरा वहां आ गया किशोरी जी ने उस भ्रमर को देखा तो उसे श्री कृष्ण का दूत समझकर उससे कहने लगी-
मधुप कितवबन्धो मा स्पृशाङ्घ्रिं सपत्न्याः 
कुचविलुलितमालाकुङ्कुमश्मश्रुभिर्नः |

वहतु मधुपतिस्तन्मानिनीनां प्रसादं
यदुसदसि विडम्ब्यं यस्य दूतस्त्वमीदृक् |

हे मधुप तू कपटी का सखा है, जैसा तेरा स्वामी वैसे तू भी कपटी है इसलिए मेरे पैरों को मत छू क्योंकि तेरी  मूंछों में मथुरा की मनिनी स्त्रियों के वक्षस्थल का केसर लगा है | जैसे तेरे स्वामी का मन एक जगह नहीं लगता उसी प्रकार तू भी एक फूल से दूसरे फूल मे मंडराता रहता है |

श्रीमद् भागवत कथा पुराण 

मृगयुरिव कपीन्द्रं विव्यधे लुब्धधर्मा
स्त्रियमकृत विरूपां स्त्रीजितः कामयानाम् |

बलिमपि बलिमत्त्वावेष्टयद् ध्वाङ्क्षवद्य
स्तदलमसितसख्यैर्दुस्त्यजस्तत्कथार्थः |

जब तेरे स्वामी राम वन गए थे जब उन्होंने निरपराध बाली को व्याघ्र के समान छिपकर बड़े निर्दयता से मारा था , बेचारी सुर्पणखा उनके पास काम बस आई थी परंतु उन्होंने उसके भी नाक कान काट कर उसे भी कुरुप बना दिया, राजा बलि उसने तो अपना सर्वस्व दान कर दिया भगवान को, परंतु उसे भी वरुण पास में बांध पाताल में डाल दिया |

इसलिए तुम अपने स्वामी की बड़ाई मत कर  जिसने भी उनकी कथा का श्रवण किया वह बिच्छू के समान दर-दर भटकता रहता है किशोरी जी इस प्रकार कह ही रही थी कि भ्रमण उड़कर कहीं चला गया इस किशोरी जी ने जब उसे नहीं देखा तो पछताने लगी मैंने क्या भला बुरा कह दिया मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए था यदि अब की बार भ्रमर आ जाए तो मैं उसका सम्मान करूंगी।

इसी समय वह भ्रमर घूमता हुआ पुनः वहीं आ गया किशोरी जी ने उसे देखा तो कहने लगी भ्रमर तुम बड़े सम्मानीय हो तुम्हारी जो इच्छा हो वह मांग लो , अच्छा ये बताओ तुम्हारे स्वामी श्री कृष्ण मथुरा में कभी हम दासियों का स्मरण करते हैं |

श्रीमद् भागवत कथा पुराण 


सुना जब प्रेम का अद्वैत तो उद्धव की खुली आंखें
पड़ी थी ज्ञान मद की धूल जिनमें वह धुली आंखें|
हुआ रोमांच तन में बिंदु आंखों से निकल आया 
गिरे श्री राधिका पग पर कहा गुरु मंत्र यह पाया||
है प्रेम जगत में सार और कोई सार नहीं |

उद्धव जी ने गोपियों के वृत्ति को देखा तो कहने लगे

अहोयूयंस्मपूर्णार्था भवत्योलोकपूजिताः |
वासुदेवे भगवति यासामित्यर्पितं मनः |

गोपियों तुम सभी कृतकृत्य हो संपूर्ण लोकों के लिए पूजनीय हो तुम्हारा मन श्री कृष्ण के चरणों में इस प्रकार लगा है | दान, व्रत, तपस्या, हवन, जप, स्वाध्याय आदि साधनों का यही प्रयोजन है कि श्री कृष्ण के चरणों की भक्ति प्राप्त हो आप लोगों को वह भक्ति प्राप्त है |

आप लोगों को वह भक्ति प्राप्त है जो बड़े-बड़े मुनियों के लिए भी दुर्लभ है | उद्धव जी एक दिन के लिए वृंदावन आए थे परंतु कई महीने तक वृंदावन में रहे गोपियां श्री कृष्ण के लीला स्थली का दर्शन कराती श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन करती इसे सुनकर उद्धव जी ने यही कामना की--

आसामहो चरणरेणुजुषां महं स्यां
वृन्दावने किमपि गुल्मलतौषधीनाम् |
या दुस्त्यजं स्वजनमार्यपथं च हित्वा
भेजेर्मुकुन्दपदवीं श्रुतिभिर्विमृग्याम् |

मैं यही आशा करता हूं कि मैं वृंदावन की कोई लता या झाड़ी बन जाऊं जिससे गोपियों के चरणों में पड़ी हुई धूली सदा ही प्राप्त होती रहे-
वनिदे नन्दव्रजस्त्रीणां पादरेणुमभीक्ष्णशः |
यासां हरिकथोद्गीतं पुनाति भुवनत्रयम् |
मैं नंदबाबा के व्रज ,गोपाग्ड़नाओ कि की चरण धूलि की बारंबार वन्दना करता हूं | उनके द्वारा श्री कृष्ण के चरित्र से तीनों लोक पवित्र हो रहे हैं उद्धव जी ने यशोदा से गोपी ग्वाल बालों से आज्ञा ली और मथुरा की यात्रा की |

गए थे ज्ञानी उद्धव बनकर और आए भक्त उद्धव बनकर | श्री कृष्ण से कहा प्रभु आप निठुर हो आप से प्रेम करने वाली गोपीकाओ का इस प्रकार त्याग कर दिया श्री कृष्ण ने उद्धव जी को महारास का दर्शन कराया और कहा उद्धव गोपियाँ और मैं दो शरीर एक प्राण हैं हम कभी अलग नहीं हो सकते , महारास का दर्शन कर उद्धव जी कृतकृत्य हो गए |

श्रीमद् भागवत कथा पुराण 

श्री सुकदेव जी कहते हैं परीक्षित इसके पश्चात भगवान श्री कृष्ण उद्धव के साथ हि कुब्जा के यहां आए कुब्जा ने श्री कृष्ण और उद्धव का स्वागत सत्कार किया भगवान श्री कृष्ण ने कुब्जा की इच्छा को पूर्ण किया और फिर बलराम जी के साथ अक्रूर के घर आए अक्रूर जी ने श्री कृष्ण और बलराम का पूजन किया हाथ जोड़कर उनकी स्तुति की |

अद्येश नो वसतयः खलु भूरिभागा
यः सर्वदेवपितृभूतनृदेव मूर्तिः |

यत्पादशौचसलिलं त्रिजगत् पुनाति
स त्वं जगद्गुरुरधोक्षज याः प्रविष्टः |

प्रभो संपूर्ण देवता, पितर, भूत और राजा आपकी ही मूर्ति है आपके चरण कमलों की धोबन गंगा श्री त्रिलोकी को पवित्र कर रही हैं , वही आप आज हमारे घर पधारे हमारा घर धन्य हो गया | भगवान श्री कृष्ण ने पांडवों की कुशल मंगल जानने के लिए अक्रूर जी को हस्तिनापुर भेजा यहां |

अस्तिः प्राप्तिश्च कंसस्य महिष्यौ भरतर्षभ |
मृते भर्तरि दुःखार्तेः ईयतुः स्म पितुर्गृहान् |

अस्ति और प्राप्ति कंस की दो पत्नियां थी कंस की मृत्यु के पश्चात दुखी हो वे अपने पिता जरासंध के पास आयी और उससे बताया कि किस प्रकार कृष्ण ने हमारे पति को मार डाला जैसे यह सुना जरासंध क्रोधित हो गया तेइस अक्षौहिणी सेना को साथ ले मथुरा पर आक्रमण किया |

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जरासंध की सैन्य सागर को देख भगवान के मन से आकाश से दो दिव्य रथ प्रकट हुए, रथ समस्त युद्ध की सामग्री और सारथी से युक्त थे इसी समय भगवान का दिव्य आयुध प्रगट हो गये उन रथो मे बैठ श्री कृष्ण और बलराम ने जरासंध की सेना का संघार कर दिया |

बलराम जी ने जरासंध को पकड़ लिया उसे मारने लगे तब श्रीकृष्ण ने कहा भैया इसे छोड़ दो यह दुष्ट है अपने अपमान का बदला लेने के लिए पुनः हम पर आक्रमण करेगा हम एक ही स्थान पर रहकर दुष्टों का संहार कर सकेंगे | कृष्ण इस प्रकार कहने पर बलराम जी ने जरासंध को अपमानित कर छोड़ दिया |

जरासंध ने सोलह बार आक्रमण किया मथुरा में प्रत्येक बार श्री कृष्ण और बलराम उसकी सेना का संघार कर देते और उसे छोड़ देते सत्रहवीं  बार उसने ब्राह्मणों से बहुत बड़ा अनुष्ठान कराया और मथुरा पर आक्रमण कर दिया |

यहां तीन करोड़ म्लेच्छो कि सेना को लेकर कालेयवन ने भी मथुरा पर आक्रमण किया उस समय दोनों तरफ के आक्रमण को श्रीकृष्ण ने देखा तो विचार करने लगे यदि मैं जरासंध से लडूंगा, तो कालयवन मथुरा को नष्ट कर देगा और कालयवन से लडू़गा तो जरासंध मथुरा को नष्ट कर देगा | तो विश्वकर्मा को उन्होने आज्ञा दी एक ही रात्रि में अड़तालीस कोस की एक दिव्य नगरी समुद्र में निर्माण करा दिया, भगवान श्री कृष्ण ने अपनी योग माया के प्रभाव से सभी मथुरा वासी को रात्रि में ही द्वारिका पहुंचा दिया | प्रातः काल जब मथुरा वासी जागे तो  ढूंढने लग गए द्वार कहां है इसलिए इसका नाम द्वारिका पड़ा |

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जहां प्रत्येक द्वार में श्रीकृष्ण है उसे द्वारिका कहते हैं | प्रातः काल श्री कृष्ण ने बिना अस्त्र-शस्त्र के कालेयवन के पास आए और उसे पीठ दिखा कर भागे वहां से कालयवन उनका पीछा करने लगा दौड़ते दौड़ते धौलपुर में मुचकुंद गुफा में घुस गए वहां महाराज मुचकुंद सो रहे थे , भगवान श्रीकृष्ण ने अपना पीतांबर उन्हें ओढ़ा दिया कालेयवन ने उन्हें श्री कृष्ण समझा और क्रोध में भरकर जोर से एक लात का प्रहार किया जिससे महाराज मुचकुंद की निद्रा भंग हो गई उन्होंने जैसे ही कालेयवन को देखा वह जलकर भस्म हो गया |

राजा परीक्षित पूछते हैं गुरुदेव जी , महाराज मुचकुंद कौन थे इस गुफा में आकर क्यों सो रहे थे और ऐसी शक्ति उन्हें कहां से प्राप्त हुई |

श्री सुकदेव जी कहते हैं यह इक्ष्वाकु के वंश में उत्पन्न मांधाता के पुत्र मुचकुंद थे परम बलवान थे उन्होंने जब देवताओं की ओर से युद्ध किया असुरों को पराजित कर दिया तो देवताओं ने इन्हें वर मांगने के लिए कहा उन्होंने कहा मैं युद्ध करते-करते थक गया हूं सोना चाहता हूं , देवताओं ने कहा महाराज आप सोने के लिए स्थान ढूंढ लीजिए और जो भी आपकी निद्रा को भंग करेगा वह जलकर भस्म हो जाएगा |

देवताओं के इसी वरदान के कारण कालेयवन जल कर भस्म हो गया | कालेयवन के मृत्यु के पश्चात मुचकुन्द गुफा में एक दिव्य प्रकाश को देखा उन्होंने श्रीकृष्ण के दर्शन किए तो कहने लगे आप इतने कोमल हैं, आप यहां किस कारण से डोल रहे हैं आपके यहां आने का क्या प्रयोजन है ? भगवान श्री कृष्ण कहते हैं--

जन्मकर्माविधानानि सन्ति मेङ्ग सहस्त्रशः |
न शक्यन्तेनुसंख्यातुमनन्तत्वान्मयापि हि |
महाराज मेरे जन्म कर्म और नाम अनेकों हैं इसलिए लोग मुझे अनंत कहते हैं| मैं भी उनकी गिनती नहीं कर सकता इस समय में यदुवंश में, मैं वसुदेव जी के यहां अवतीर्ण हुआ हूं तुम्हारी जो अभिलाषा हो तो मुझसे वरदान मांग लो|महाराज मुचकुंद ने कहा-

न कायेयं तव पाद सेवनात |

मुझे आपके चरण कमलों की सेवा के अलावा कोई दूसरी कामना नहीं है, तो श्री कृष्ण ने कहा तुम्हारा अगला जन्म ब्राह्मण वंश में होगा मेरा भजन कर मुझे प्राप्त कर लोगे | यही महाराज मुचकुंद ने कलियुग में नरसी के रूप मे अवतीर्ण हुए और भगवान का भजन कर उन्हें प्राप्त से कर लिया |
 ( बोलिए भक्त नरसी की जय )

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महाराज मुचकुंद को वरदान दे भगवान श्री कृष्ण मथुरा लौट आए उन्होंने तीन करोड़ कालयवन की सेना का संघार कर दिया और ब्राह्मणों की तेज से संपन्न जरासंध को देखा तो रथ में बैठ बलराम जी के साथ वहां से भागे भागने के कारण जरासंध ने इन्हें रणछोड़ यह नाम दिया |

 ( बोलिए रणछोड़ भगवान की जय )

श्री कृष्ण वहां से भागते भागते प्रवर्षण नाम के पर्वत में चढ़ गए जरासंध उन्हें ढूंढने लगे बहुत प्रयास किया जब वे नहीं मिले तब पर्वत के चारों और आग लगवा दी और श्रीकृष्ण को मरा समझ कर लौट आया | यहां भगवान श्री कृष्ण और बलराम ने ग्यारह योजन पर्वत के ऊपर से छलांग लगाई और द्वारिका पहुंच गए |
( बोलिए द्वारिकाधीश भगवान की जय )
द्वारिका में अनर्त देश के राजा महाराज रैवत अपनी पुत्री रेवती के लिए उत्तम वर का पता लगाने ब्रह्मा जी के पास गए , उस समय ब्रम्हा जी नृत्य गान में व्यस्त थे जब नृत्य गान समाप्त हुआ और महाराज रेवत ने रेवती के लिए वर जानने  की इक्षा की तब ब्रह्मा जी ने कहा महाराज जिन वर्णों के विषय में विचार कर रखा है वह सब काल कलवित हो गए |

इस समय द्वापरयुग चल रहा है आप द्वारिका चले जाइए वहां यदुवंश में उत्पन्न बलराम जी से अपनी पुत्री का विवाह कर दीजिए , ब्रह्मा जी कि प्रेरणा से महाराज रैवत द्वारिका आए और रेवती का विवाह बलराम जी से कर दिया | त्रेता युग की होने के कारण रेवती बलराम जी से लंबाई में बड़ी थी श्रीकृष्ण जब भी दाऊ दादा से मिलते तो चिढ़ाते की बड़े बड़े भैया की बड़ी बड़ी भौजी एक दिन बलराम जी ने अपना हल और मूसल उठाया और उससे रेवती को ठोक कर अपने बराबर कर लिया |

( बोलिए बलदाऊ भैया की जय )

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