Shrimad Bhagwat Katha pdf /10-18

Shrimad Bhagwat Katha pdf

श्रीमद्भागवत महापुराण सप्ताहिक कथा
दशम स्कन्ध,भाग-18

कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने |
प्रणतः क्लेश नाशाय गोविन्दाय नमोनमः |

( बन्दी राजाओं के मुक्त होने पर भगवान की प्राथना करना )

आपको प्रणाम करने वालों के दुखों को नाश करने वाले श्री कृष्ण वसुदेव हरि परमात्मा और गोविंद को हम प्रणाम करते हैं | श्री कृष्ण ने राजाओं को आशीर्वाद दिया और भीमसेन तथा अर्जुन को लेकर हस्तिनापुर लौट आए |

धर्मराज युधिष्ठिर के यज्ञ में वेदव्यास, भारद्वाज ,सुमंतु ,गौतम, वशिष्ठ , च्यवन ,कण्व और मैत्रेय आदि अनेकों ऋषि तथा द्रोणाचार्य ,भीष्म ,कृपाचार्य, धृतराष्ट्र और विदुर आदि वयोवृद्ध पधारे |

धुर्मराज युधीष्ठिर ने सभी का स्वागत सत्कार किया इन सभी विभूतियों को देख सभी सभासद विचार करने लगे यज्ञ में अग्र पूजा किसकी हो |उस समय जरासंध के पुत्र सहदेव ने कहा अरे जिस यज्ञ में यदुवंश शिरोमणि श्रीकृष्ण विद्यमान हो वहां श्रीकृष्ण को छोड़कर अग्र पूजा का दूसरा कौन अधिकारी होगा |

सभी ने सहदेव की बात का अनुमोदन किया, शिशुपाल श्री कृष्ण की अग्र पूजा को सहन नहीं कर सका सभा के मध्य में आकर खड़ा हो गया और कहने लगा जिस सभा में बड़े-बड़े तपस्वी ,विद्वान,वृतधारी ,बुद्धिमान, ज्ञानी ध्यानी ऋषि मुनि विद्यमान हों वहां इस कुल कलंकी ग्वाले की अग्र पूजा क्यों हो रही है |

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अरे इसका ना तो कोई वर्ण है ना ही कोई जाति ना ही कुल का ही पता है , यह लौकिक मर्यादाओं का उल्लंघन करके समुद्र के बीच किला बनाकर रहता है, वहां से आने जाने वाले राहगीरों को लूटता है

श्री कृष्ण ने शिशुपाल के जन्म के समय अपनी बुआ जी को वचन दिया था बुआ जी मैं इसके सौ अपराध क्षमा कर दूंगा और आज शिशुपाल ने जैसे ही एक सौ एक अपराध किया भगवान श्री कृष्ण ने अपने चक्र सुदर्शन का स्मरण किया और शिशुपाल का सिर धड़ से अलग कर दिया | शिशुपाल के शरीर से दिव्य ज्योति निकली और श्री कृष्ण के चरणों में समा गई |

परीक्षित जब यज्ञ प्रारंभ हुआ तो भीमसेन को रसोइयें का काम सौंपा गया क्योंकि-

खिला तो वही सकता है, जो खा सकता है | दुर्योधन को कोषाध्यक्ष बनाया गया क्योंकि उसके हाथों में ऐसी रेखा थी कि वह जितना धन खर्च करेगा उतना ही दुगना बढ़ेगा, भगवान श्री कृष्ण स्वयं झूठी पत्तलों को उठाते | यज्ञ निर्विघ्न संपन्न हुआ महराज युधिष्ठिर ने ब्राह्मणों को बहुत सी दान दक्षिणा प्रदान की और अतिथियों का सम्मान किया और सभी को विदाई किया |

श्री कृष्ण पांडवों के प्रेम के कारण कुछ दिन और ठहर गए, जब श्री कृष्ण इंद्रप्रस्थ में थे उस समय शिशुपाल के सखा साल्व ने अपने मित्र का वध का समाचार सुना बदला लेने के लिए भोले बाबा की आराधना करने लगा |

भोले बाबा आराधना से प्रसन्न हो गए और शौभ नाम का एक दिव्य विमान प्रदान कर दिया उसके गति का कोई अंदाजा नहीं लगा सकता, विमान में बैठकर साल्व द्वारका को नष्ट करने लगा, द्वारका वासियों को पीड़ित करने लगा  |

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यहां भयंकर अपशगुन श्रीकृष्ण को दिखाई देने लगे तब वे पाण्डवों से आज्ञा लेकर द्वारका की यात्रा की वहां बलराम जी को द्वारका की रक्षा के लिए नियुक्त कर स्वयं युद्ध के लिए आए साल्व ने जब श्री कृष्ण को देखा उनके सारथी पर शक्ती नामक अस्त्र चलाया |

श्रीकृष्ण ने उस अस्त्र को नष्ट कर दिया और गदा का प्रहार करके उस दिव्य विमान को चूर चूर कर दिया , तो शाल्व क्रोधित होकर गदा लेकर श्री कृष्ण को मारने दौड़ा , भगवान ने चक्र सुदर्शन का स्मरण किया और साल्व का सिर धड़ से अलग कर दिया|

शाल्व के मृत्यु के पश्चात उसका मित्र दंतवक्र युद्ध करने आया, कृष्ण ने उसका भी गोविंदाय नमो नमः कर दिया | दन्तवक्र का भाई विदूरथ युद्ध करने आया, श्री कृष्ण ने उसका भी वध कर दिया |

परीक्षित- जब पांडवों और कौरवों के बीच महाभारत युद्ध होने वाला था, तो उस समय बलराम जी तीर्थ यात्रा में निकल गये और तीर्थ यात्रा करते करते नैमिषारण्य के पावन भूमि पर पहुंचे जहां सभी ऋषियों ने उनका स्वागत किया परंतु रोमाहर्षण जी ने उनका स्वागत सत्कार नहीं किया यहां तक की गद्दी से खड़े भी नहीं हुए बलराम जी ने एक कुशा उठाई और उस कुशा से प्रहार कर दिया |

रोमहर्षण का प्राणांत हो गया चारों ओर हाहाकार मच गया ऋषि मुनि कहने लगे प्रभु अब हमें सुंदर-सुंदर भगवान की कथा का पान कौन कराएगा | तब बलराम जी ने ऋषियों को आश्वासन देते हुए कहा |

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आत्मार्थे जायते पुत्रः हे ऋषियों पिता की ही आत्मा पुत्र के रूप में अवतरित होती है , आप लोग निश्चिंत रहें बलराम जी ने अपने योग बल से रोमहर्षण जी की समस्त विद्यायें उनके पुत्र श्री सूतजी को प्रदान कर दी |

ऋषियों से कहा इसके अलावा और कोई समस्या हो तो बताइए विषयों ने कहा हे बलराम जी जब हम ऋषि मुनि यज्ञ प्रारंभ करते हैं , उस समय इलवल का पुत्र बलवल परेशान करता है, यज्ञ विध्वंस कर देता है | इसलिए आप ही इसका समाधान कीजिए |

बलराम जी ने ऋषियों को आदेश दिया आप यज्ञ प्रारंभ कीजिए जैसे ही ऋषियों ने यज्ञ प्रारंभ किया वह बलवल अपने सेना के सहित आकाश मार्ग से आ गया बलराम जी ने अपना हल से खीच मूसल से ऐसा प्रहार किया कि उसका गोविंदाय नमो नमः हो गया|

( सुदामा  )

कृष्णस्यासीत् सखा कश्चिद् ब्राम्हणो ब्रम्हवित्तमः|
विरक्त इन्द्रियार्थेषु प्रशान्तात्मा जितेन्द्रियः ||

राजा परीक्षित कहते हैं गुरुदेव अभी तक आपसे मैंने जो प्रश्न किया है आप उसी का उत्तर दिए हैं | हे गुरुदेव आप मुझे वह कथा सुनाइए जो आपको बड़ी प्यारी लगती हो और जिसे मैंने भी ना सुनी हो | श्री सुकदेव जी राजा परीक्षित के वचनों को सुनकर प्रसन्न हो जाते हैं और भगवान का ध्यान करते हैं और श्री कृष्ण तथा सुदामा की लीला का वर्णन प्रारंभ करते हैं | 

परीक्षित भगवान श्री कृष्ण के एक परम प्रिय मित्र थे सुदामा वे परम ज्ञानी तथा परम शांत थे गृहस्थाश्रम होने पर भी प्रारब्ध से जो कुछ भी मिल जाता उसी से वे जीवन यापन करते और भगवान का भजन करते थे | उनकी पत्नी का नाम सुशीला था वह भी उन्हीं के समान थी एक बार जब कई दिनों तक अन्न का एक भी दाना नहीं मिला और बच्चे जोर जोर से रोने लगे तो सुशीला से सहा नहीं गया उसने कहा हे स्वामी साक्षात लक्ष्मी पति श्री कृष्ण आपके सखा हैं ओ ब्राम्हणो के परम भक्त हैं शरणागत वत्सल हैं | 

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आप उनके पास जाइए वह हमें बहुत सा धन देंगे जिससे हमारा दुख दूर हो जाएगा | वह इस समय द्वारका में निवास करते हैं | सुशीला के इस प्रकार कहने पर सुदामा जी विचार करते हैं--

अयं हि परमो लाभ उत्तमश्लोक दर्शनम् |

धन की कोई बात नहीं परंतु इसी बहाने भगवान श्री कृष्ण का दर्शन प्राप्त हो जाएगा, सुदामा जी ने कहा मित्र और गुरु के यहां खाली हाथ नहीं जाना चाहिए | सुशीला दौड़ी-दौड़ी गई और चार घरों से चार मुट्ठी चावल ले आई उसे अपने फटी पुरानी धोती में बांध सुदामा जी को दे दिया,  मानो वे अपनी गरीबी का सन्देस दे दि कि---
 एक मास दो पक्ष में दो एकादशी होय |
 पर मेरे घर गोपाल जू नित एकादशी होय ||

सुदामा जी ने जब द्वारकापुरी की यात्रा की चलते चलते एक स्थान में शाम हो गई और वे वहीं एक वृक्ष के नीचे सो गए | कृष्ण ने योग माया को आदेश दिया सोते हुए सुदामा जी को द्वारकापुरी ले आओ , योगमाया ने श्री कृष्ण की आज्ञा पाकर सुदामा जी को द्वारका ले आई | 

प्रातः काल जब सुदामा जी जागे तो चारों तरफ बड़े-बड़े महल दिखाई देने लगे मंदिरों से घंटियां के स्वर सुनाई देने लगे उन्होंने द्वारपालों से कहा भैया यह कौन सी नगरी है | द्वारका वासियों ने कहा गुजराती भाषा में द्वारकापुरी छे | 

सुदामा जी और घबरा गए मैं तो समझा था कि एक द्वारकापुरी है और एक राजाधिराज हमारे श्री कृष्ण है पर यहां तो छः ~ छः  द्वारका है, तो इनमें से पता नहीं मेरे कन्हैया कौन से द्वारका में रहते हैं | द्वारका  वासियों से कहा भैया यहां के  राजा श्री कृष्ण हैं,द्वारपालों ने कहा हां यहां के राजा श्री कृष्ण हैं |

तो सुदामा जी ने कहा कि श्री कृष्ण से कहना कि तुम्हारे बचपन का मित्र सुदामा आया है , द्वारपालों ने जैसे ही ब्राह्मण के वचनों को सुना तो आश्चर्यचकित हो गए, उन्होंने सुदामा जी को नीचे से ऊपर की ओर देखा सुदामा जी के पैरों में ना ही जूतियां धोती पहनी है तो वह भी फटी है बड़ी दयनीय स्थिति है | 

द्वारपालों ने सोचा कहां महाराजाधिराज श्री कृष्ण हैं और कहां यह निर्धन ब्राह्मण यह कैसे संभव हो सकता है फिर भी द्वारपाल अपना कार्य करते हैं | द्वारपाल श्री कृष्ण की सभा में जाते हैं और सुदामा जी का संदेश सुनाते हैं--


सीस पगा न झगा तन पे प्रभु जानि के आहि बसे केहि ग्रामा , 
धोती फटी सि लटी दुपटी और पांव उपान की नाहीं सामा, 
द्वार खड़ो द्विज दुर्बल एक रहो चकिसो वसुधा अपिरामा , 
पूंछत दीनदयाल को धाम |

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प्रभु एक ब्राह्मण है और फटे पुराने कपड़े पहने हुए हैं और ना ही उसके सर पर पगड़ी है ना ही पैरों में जूतियां और वह आपका नाम पूछ रहा है भगवान ने कहा अरे द्वारपालों उसकी दशा का क्यों वर्णन कर रहे हो उसका नाम तो बताइए--

बतावतो अपनो नाम सुदामा |

द्वारपालों ने कहा प्रभु श्री कृष्ण ने जैसे ही सुदामा का नाम सुना दौड़ पड़े अपने मित्र से मिलने महल से बाहर आकर सुदामा जी को हृदय से लगा लिया और सुदामा जी को प्रेम से महल के अंदर ले आए और रुक्मणी जी के कक्ष में ले आए वहीं बैठाये, रुक्मणी आदि रानियों को चरण धुलने हेतु जल मगवाया |


 ऐसे बेहाल बिवाइन सो पग कंटक जाल गडे़ पुनि जोये,
 हाय महा दुख पायो सखा तुम आए न इत कित दिन खोये |
देखि सुदामा की दीन दशा करुणा करके करुणानिधि रोए,
 पानी पंरात को हाथ छुयो नहिं नैनन के जल सो पग धोए |

श्री कृष्ण की दृष्टि जैसे ही सुदामा जी के चरणों में गई उनके आंखों से अश्रु प्रवाहित होने लगे जब तक रुकमणी यादी रानियां जल और परात लेकर आती उतने देर में भगवान श्री कृष्ण ने अपने आँसुओं से सुदामा जी के चरणों को धुल दिए |


बरसे कमल नयन बादल सो धुल गए पैर नयन के जल सो |

तत्पश्चात सुदामा जी को स्नान कराया सुंदर सुंदर वस्त्र पहनाए, उत्तम भोजन कराया और जब वह अराम से बैठ गए तो कहा मित्र बताओ क्या तुम्हारा विवाह हो गया सुदामा जी ने कहा कन्हैया मेरा तो विवाह हो गया, श्री कृष्ण ने कहा फिर तो जरूर भाभी जी ने मेरे लिए कुछ ना कुछ अवश्य भेजी होगीं | 

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सुदामा जी श्री कृष्ण के अत्यंत ऐश्वर्या को देखते हैं तो शर्म के कारण उस चार मुट्ठी चावल को छुपा लेते हैं, भगवान ने देख लिया उस पोटली को कहा मित्र तुम यह क्या छुपा रहे हो सुदामा जी ने कहा नहीं नहीं ,कुछ तो नहीं है |

श्रीकृष्ण ने जैसे ही उस पोटली को छीना तो वहां पोटली नीचे गिर गई और सब चावल बिखर गए श्री कृष्णा ने जैसे ही उस चावल को देखते हैं तो दौड़ के एक मुट्ठी चावल उठा कर खा जाते हैं, और सुदामा को अनन्त ऐश्वर्य प्रदान करते हैं , मानो भगवान ने शुशीला के सन्देस का जवाब दिये--


होनी थी तो हो गई अब ना ऐसी होय |
 अब तेरे घर भाभी जू नित्य द्वादशी होय |

जैसे ही दूसरी मुठ्ठी खाने के लिए करते हैं, तो रुकम्णी आदि रानियां आ जाती हैं और कहती है स्वामी हमें भी तो ब्राह्मण देवता का प्रसाद दीजिए , प्रभु वह सब में बांट देते हैं |

श्रीकृष्ण उस चावल की बड़ी प्रशंसा करते हैं कहते हैं तुम इतना महत्वपूर्ण भेट हमसे छुपा रहे थे श्रीकृष्ण ने मानो एक मुट्ठी चावल खाकर सुदामा को अत्यंत ऐश्वर्य प्रदान कर दिया हो अब सुदामा जी श्री कृष्ण से पूछते हैं कन्हैया अब तुम भी तो बताओ तुम्हारा विवाह हुआ कि नहीं श्री कृष्ण मुस्कुराते हुए कहते हैं हां मित्र हुआ है आप उन्हें आशीर्वाद प्रदान करिए अभी हम उन्हें बुलाते हैं |

सबसे पहले रुकमणी आदि आठ पटरानियां आई उनको सभी को सुदामा जी ने अलग-अलग आशीर्वाद प्रदान किया-- सौभाग्यवती भव ,अखंड सौभाग्यवती भव ,आयुष्मान भव आदि |

उसके बाद सौ रानियां आई सुदामा जी ने उन्हें भी आशीर्वाद दिया अब जब पांच सौ रानियां एक साथ आई तो आशीर्वाद ही कम पड़ गया ,क्यों कि बदल बदल कर आशीर्वाद देते थे फिर भी किसी प्रकार से उन्हें आशीर्वाद दिया अब इनके बाद एक हजार रानी आ गई अब तो सुदामा जी की बोलती बंद हो गई।  

सुदामा जी ने कहा  कन्हैया और अब कितनी रानियां हैं, कन्हैया मुस्कुराते हुए कहते हैं मित्र पूरी शोलह हजार एक सौ आठ हैं, सुदामा बोले मित्र आप सभी को एक साथ बुलाइए हम सभी को एक साथ आशीर्वाद देंगे , सभी रानियां एक साथ आ गई सुदामा जी ने सभी को आशीर्वाद दिया और रात्रि में वही विश्राम किया |

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रात्रि में श्रीकृष्ण ने विश्वकर्मा को आदेश दिया कि जिस प्रकार तुमने एक रात्रि में ही द्वारकापुरी का निर्माण किया है वैसे ही तुम जाकर सुदामापुरी का निर्माण करो अब सुदामा जी प्रातः काल उठते हैं और श्रीकृष्ण से आज्ञा लेते हैं और द्वारका से अपने घर की यात्रा करते हैं |मार्ग में सुदामा जी विचार करते हैं आज मैंने श्री कृष्ण के ब्राह्मणता को देख लिया है |


क्वाहं दरिद्रः पापीयान् क्व कृष्णः श्रीनिकेतनः |
ब्रम्हबन्धुरितिस्माहं बाहुभ्यां परिरम्भितः |

कहां तो मैं पापी और दरिद्र ब्राह्मण और कहां लक्ष्मी के एकमात्र आश्रय श्री कृष्ण मैं ब्राह्मण हूं इसलिए उन्होंने मुझे ह्रदय से लगा लिया वह तो संसार के एकमात्र पालनकर्ता और श्री हरिनारायण है उन्होंने मुझे धन इसलिए नहीं दिया क्योंकि धन प्राप्त करने पर भक्त भगवान को भूल जाता है | 

ऐश्वर्य में अभिमान हो जाता है ऐसा विचार करते-करते अपने पूरी में लौट आते हैं और जैसे ही उनकी दृष्टि बड़े-बड़े महलों में पडती है तो कहते हैं अरे मैं तो पुनः द्वारका लौट आया यह तो मेरी पूरी नहीं है |

मेरी पूरी तो झोपड़ी से रहित है और मेरी झोपड़ी भी कहीं नहीं दिख रही है, वह वहां के लोगों से पूछे रे भैया यह कौन सी नगरी है उस व्यक्ति ने कहा भैया यह सुदामापुरी है सुदामा जी ने विचार किया कि होगा कोई बड़ा सेठ जो इतने बड़े-बड़े महल बनवा दिए, परंतु मेरी पत्नी और मेरे बच्चे दिखाई नहीं दे रहे हैं वह चारों ओर देखते हैं ढूंढते हैं और इसी बीच शुशीला की दृष्टि सुदामा जी पर पड़ती है। 

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वह स्वर्ण की थाली में आरती सजाकर आती है सुदामा जी देख भी रहे हैं कि हमारी आरती उतर रही है वह सोचने लगते हैं यह कौन है इतने में सुशीला ने ही कह दिया कि स्वामी मैं आपकी पत्नी सुशीला हूं सुदामा जी ने पूछा अरे यह सब कैसे हुआ सुशीला ने कहा स्वामी सब श्री कृष्ण की कृपा से हुआ है सुदामा जी ने कहा यह बात तो सत्य है |

देखो जब संसार देता है तो दिखा कर देता है और भगवान देता है तो छुपा के देता है विरक्त भाव से सुदामा जी ने भोगो को भोगा और भगवान का भजन कर अंत में भगवान को प्राप्त कर लिया |

भागवत कथा के सभी भागों कि लिस्ट देखें 

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