Bhagwat Katha Pravachan /10-17

Bhagwat Katha Pravachan

श्रीमद्भागवत महापुराण सप्ताहिक कथा
श्रीमद्भागवत महापुराण सप्ताहिक कथा Bhagwat Katha story in hindi
दशम स्कन्ध,भाग-17
परीक्षित एक दिन सांब प्रद्युम्न चारुधान और गद आदि यदुवंशी खेल रहे थे , खेलते समय उन्हें जोरों की प्यास लगी वह कुएं के पास गए और कुएं के अंदर एक विशाल गिरगिट को देखा तो उसे निकालने का बड़ा प्रयास किया | परंतु जब वह नहीं निकला तब उन्होंने श्री कृष्ण से कहा श्री कृष्ण उस गिरगिट को बाएं हाथ से बाहर निकाल दिए , भगवान का स्पर्श पाते ही वह गिरगिट दिव्य पुरुष के रूप के प्रकट हो गया | श्री कृष्ण ने पूछा तुम कौन हो और इस दशा को कैसे प्राप्त हुए तब पुरुष कहने लगा--

( राजा न्रग की कथा )

नृगो नाम नरेन्द्रोहमिक्ष्वाकुतनयः प्रभो |
दानिष्वाख्यायमानेषु यदि ते कर्णमस्पृशम् ||

प्रभु मैं इक्ष्वाकु के वंश में उत्पन्न हुआ  इक्ष्वाकु का पुत्र राजा न्रग हूँ, यदि आपने दानियों के नाम सुने हैं तो मेरा भी नाम आपके कानों में अवश्य आया होगा| प्रभु बालू में जितने कण होते हैं, आकाश में जितने तारे होते हैं, वर्षा में जितने बूंदे होती है, उतनी ही गायों का मैंने दान किया है वह भी कोई साधारण गाय नहीं थी सब गाय दूध देने वाली थी और सुंदर नौजवान कपिला थी उनके खुरों को मैंने चांदी से मंढवाया था तथा सोने से सिंगो को मडवाया था अनेकों प्रकार से वस्त्र आभूषणों से अलंकृत थी उन गायों का मै दान किया करता था|

पर एक दिन मैंने एक ब्राह्मण को गाय दान दी और वह गाय आकर पुनः मेरे गोवंश में मिल गई और उसी को मैंने दूसरे ब्राह्मण को दान दे दिया और जब वह दूसरा ब्राह्मण उस गाय को लेने आया था और लेकर जाने लगा तो ब्राह्मण मिल गया और कहने लगा यह गाय मेरी है दोनों जब वाद विवाद करने लगे तो वह मेरे पास आए मैं उनका सही निर्णय नहीं कर सका जिससे दोनों ब्राह्मण गाय को छोड़ जाने लगे और जब कालांतर में मेरी मृत्यु हुई |

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यमराज ने पूछा पहले तुम पाप भोगना चाहते हो या पुण्य मैंने कहा पहले में पाप भोगना चाहता हूं जैसे मैंने कहा तो यमराज ने कहा गिर जाओ और मै गिरगिट बन गया लेकिन प्रभु मैं आपके कृपा से मुक्त हो गया | राजा नृग ने भगवान श्री कृष्ण के चरणों में प्रणाम किया और वहाम से चले गए|

राजा नृग के चले जाने पर भगवान श्री कृष्ण ने अपने बालकों को बुलाया और उन्हें शिक्षा देते हुए कहने लगे-

नाहं हालाहलं मन्ये विषं यस्य प्रतिक्रिया |
ब्रम्हस्वं हि विषं प्रोक्तं नास्य प्रतिविधिर्भुवि |

मैं हलाहल विष को विश नहीं मानता क्योंकि उसकी दवा हो सकती है परंतु जो ब्राह्मणों का अपराध करता है, उनके धन का हरण करता है संसार में उसे बचाने वाली कोई औषधि नहीं |जहर मात्र पीले वाले को ही मारता है परंतु जो ब्राह्मणों के धन का हरण करता है उसका संपूर्ण कुल जलकर नष्ट हो जाता है|

जो राजा राज्य मद में अंधे होकर ब्राह्मणों का धन हड़पना चाहता है वह तो जानबूझकर अपने नरक में जाने का रास्ता साफ कर रहा है|

स्वदत्तां परदत्तां वा ब्रम्हवृत्तिं हरेच्च यः|
षष्टिवर्षसहस्त्राणि विष्ठायां जायते कृमिः

क्योंकि कहा गया है जो मनुष्य अपने द्वारा दी हुई अथवा दूसरों के द्वारा दी हुई ब्राम्हणों की वृत्ति का हरण करता है वह साठ हजार वर्षों तक विष्ठा का कीडा बनता है और उसके बाद भयंकर नर्क को भोगता है | इसलिए बच्चों सदा ध्यान रखना ब्राह्मण यदि अपराध भी करें तो उससे द्वेष मत करना , उसे नमस्कार ही करना इस प्रकार बालकों को शिक्षा देकर भगवान श्री कृष्ण द्वारका के महल में प्रवेश करते हैं |

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( बलराम जी की ब्रज यात्रा )

श्री सुकदेव जी कहते हैं परीक्षित एक बार बलराम जी को नंदबाबा आदि संबंधियों से मिलने की इच्छा हुई तब वृंदावन पधारे , नंद बाबा ने जैसे ही बलराम जी को देखा प्रसन्न हो गए उन्हें हृदय से लगा लिया बलराम जी ने नंद आदि वयोवृद्धों को प्रणाम किया ,अपने बराबरी वालों से गले मिले और अपने से छोटों को आशीर्वचन दिया |

 एक दिन बलराम जी ने जल क्रीडा का मन बनाया और वही बैठे-बैठे यमुना जी को पुकारा और जब यमुना जी नहीं आई तो बलराम जी क्रोधित हो गए उन्होंने अपना हल उठाया यमुना जी में लगाया और उन्हें खींच लिया तब यमुना जी तिरछी हो गई|

बलराम जी ने सभी गोपियों के साथ जल क्रीडा की बलरामजी दो महीनों तक वृंदावन में ही रहे और जब बलराम जी वृंदावन गए हुए थे उस समय करुष देश का राजा पौंड्रक भगवान श्री कृष्ण के पास दूत भेजा और कहने लगा इस जगत में वासुदेव केवल मैं ही हूं तुमने मूर्खता बस इस वासुदेव का रूप धारण करके रखा है तुम मेरी शरण में आ जाओ, अन्यथा मुझसे युद्ध करो भगवान श्री कृष्ण ने जैसे ही यह सुना तो अपनी सेना को लेकर काशी पर आक्रमण कर दिया।

पौड्रक चार भुजाओं को धारण करके गरुड़ के चिन्ह से अंकित रथ में बैठकर युद्ध करने आया| श्री कृष्ण ने जब उसका छलिया रूप देखा तो हंसने लगे पौड्रक ने श्री कृष्ण पर अस्त्रों की बारिश कर दी , श्री कृष्ण ने उसके अस्त्र-शस्त्र सभी को नष्ट कर दिए और अपने चक्र सुदर्शन का स्मरण किया और उसका गोविंदाय नमो नमः कर दिया|

 पौन्ड्रक के मारे जाने पर उसका मित्र काशी नरेश युद्ध करने आया श्री कृष्ण ने उसका सिर धड़ से अलग कर दिया और द्वारका लौट आए |

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सुदक्षिण ने अपने पिता की मृत्यु का समाचार सुना तो अभिचार विधि से यज्ञ किया, जिसमें से अग्नि से एक कृतिका उत्पन्न हुई दसों दिशाओं को जलाते हुए वह द्वारका गयी वहां के रक्षक सुदर्शन चक्र ने उसे देखा तो उसका मुंह कुचल दिया भयभीत हो कृत्या काशी में आई और ऋत्विजो के सहित सुदक्षिण को जलाकर भस्म कर दिया|

श्री सुकदेव जी कहते हैं परीक्षित भौमासुर का मित्र द्विविद नाम का वानर था , जब उसने अपने मित्र भौमासुर के मृत्यु का समाचार सुना तो द्वारका में आकर उत्पात मचाने लगा नगरों को नष्ट करने लगा बलराम जी बैठे हुए थे तो बलराम जी पर प्रहार किया | बलराम जी को क्रोध आ गया बलराम जी ने अपना हल उठाया और उसका भी गोविंदाय नमो नमः हो गया|

परीक्षित जाम्बवति नंदन साम्ब ने स्वयंवर से अकेले ही दुर्योधन की पुत्री लक्ष्मणा का हरण कर लिया जिससे कौरवों ने  छल पूर्वक साम्ब को बंदी बना लिया, नारद जी के द्वारा जब यह सन्देस बलराम जी को मिला|

बलराम जी हस्तिनापुर पधारे और दुर्योधन से कहने लगे तुमने जो साम्ब को छल पूर्वक बंदी बनाया है , तुम उसे छोड़ दो मैं तुम्हारे अपराध को क्षमा कर दूंगा|

बलराम जी के इस प्रकार कहने पर भी दुर्योधन ने साम्ब को छोड़ने से मना कर दिया बलराम जी को क्रोध मे आ गये उन्होंने अपने हल को उठाया और हस्तिनापुर को खींचकर यमुना के ऊपर लाया जिससे सारी हस्तिनापुर जमुना जी के ऊपर उतराने लगी | दुर्योधन भयभीत होकर बलराम जी के शरण में आ गया और हाथ जोड़कर स्तुति करने लगा-

राम रामाखिलाधार प्रभावं न विदाम ते|
मूढानां नः कुबुद्धीनां क्षन्तुमर्हस्यतिक्रमम्|

हे अखिल जगत के आधार हम आप के प्रभाव को नहीं समझ सके आप हमारे इस अपराध को क्षमा कीजिए , दुर्योधन ने सांब के साथ अपनी पुत्री लक्ष्मणा का विवाह किया और बहुत दहेज देकर उसे विदा किया|

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 परीक्षित एक बार देवर्षि नारद सोचने लगे कि भगवान श्री कृष्ण की सोलह हजार एक सौ आठ पत्नियां है -रानियां हैं | वे उनके साथ कैसे रहते होंगे तब वह देखने के लिए द्वारका आए वहां उन्होंने देखा कि शोलह हजार एक सौ आठ रानियों के लिए शोलह हजार एक सौ आठ महल बने हुए हैं |

सबसे पहले देवर्षि नारद रुक्मणी के महल में प्रवेश करते हैं वहां देवर्षि नारद ने देखा मैया रुक्मणी भगवान श्री कृष्ण को पंखा की सेवा कर रही हैं ,रुकमणी मैया ने देवर्षि नारद का पूजन किया उन्हें भोजन कराया | देवर्षि नारद वहां से निकलकर सत्यभामा के महल में प्रवेश किए वहां उन्होंने भगवान श्री कृष्ण को माता सत्यभामा और उद्धव जी को चौसर खेलते हुए पाया|

उसके बाद देवर्षि नारद जाम्बवती के महल में गए वहां जाम्बवती अपने बालकों की सेवा में लगी और वहां से नारद जी लक्ष्मणा के यहां आए वहां भगवान श्री कृष्ण को हवन आदि करते हुए पाया उसके बाद नारद जी कालिंदी के महल में गए वहां भगवान को संध्या करते हुए पाया उसके बाद महारानी सत्या के महल में गए वहां देखते हैं कि सत्या और श्रीकृष्ण ब्राह्मणों को दक्षिणा दे रहे हैं इसी प्रकार नारद जी जिस महल में गए वहां भगवान को अलग-अलग कार्य करते हुए पाया| देवर्षि नारद ने भगवान की माया को प्रणाम किया और वहां से चले आए|

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परीक्षित भगवान श्री कृष्ण प्रातः काल उठते शीतल निर्मल जल से स्नान करते , संध्या वंदन करते, गायत्री आदि का जाप करते, देवता पितरों का तर्पण करते , घर में जो भी वृद्ध है उन्हें प्रणाम करते , ब्राह्मणों से आशीर्वाद लेते,  गायों का दान करते फिर अपने उस सुधर्मा सभा में प्रवेश करते | एक दिन भगवान श्रीकृष्ण अपने सुधर्मा सभा पर विद्यमान थे उस समय मगध के राजाओं की ओर से एक दूत आया उसने भगवान को प्रणाम किया और कहा प्रभु जरासंध के सामने जिस भी राजा ने सर नहीं झुकाया जरासंध ने सभी राजाओं को कारागार में डाल दिया इस समय जरासंध के जेल में बीस हजार राजा कैद हैं|

सभी बड़े कष्ट में हैं आप उनकी मुक्ति के लिए कुछ उपाय कीजिए आपका नाम सुनकर उन्होंने मुझे दूत के रूप में भेजा है, आप उनकी सहायता कीजिए| इसी समय पांडवों के तरफ से देवर्षि नारद का आगमन हुआ उन्होंने कहा प्रभु धर्मराज युधिष्ठिर यज्ञ के माध्यम से आप का यजन करना चाहते हैं |

इसलिए आप तथा समस्त द्वारका वासियों को आमंत्रित किया है| श्री कृष्ण ने जब दोनों तरफ के बुलावे को एक साथ देखा तो उद्धव जी से पूछा है उद्धव जी हमें पहले कहां जाना चाहिए।

उद्धव जी कहते हैं प्रभु हमें सबसे पहले उस राजसूय यज्ञ में चलना चाहिए क्योंकि राजसूय यज्ञ वही कर सकता है जो दसों दिशाओं को जीत लिया हो और जब राजसूय यज्ञ के पहले युधिष्ठिर समस्त राजाओं को जीतेंगे तो उन्हें जरासंध को भी जीतना होगा इसलिए हमें राजसूय यज्ञ में चलना चाहिए | श्री कृष्ण ने उद्धव जी के बातों को सुनकर अपने सभी बंधुओं के सहित इंद्रप्रस्थ की यात्रा की|

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 महाराज युधिष्ठिर ने सभी द्वारका वासियों को खूब स्वागत सत्कार किया और भगवान से प्रार्थना की हे प्रभु मैं सर्वश्रेष्ठ राजसूय यज्ञ के द्वारा आपका तथा आपके उन दिव्य विभूतियों का यजन करना चाहता हूं आप मेरे इस संकल्प को पूर्ण कीजिए |

श्री कृष्ण ने कहा हे धर्मराज आपका निर्णय उत्तम है इस राजसूय यज्ञ के द्वारा लोक में आपके मंगलमय कीर्ति का विस्तार होगा आप दसों दिशाओं के राजाओं को जीत यथोचित यज्ञ की सामग्रियों को इकट्ठित कीजिए और फिर यज्ञ प्रारंभ कीजिए|

श्री कृष्ण ने जब इस प्रकार कहा तो धर्मराज युधिष्ठिर ने सहदेव को सेना के सहित दक्षिण दिशा में नकुल को पश्चिम अर्जुन को उत्तर है और भीम को पूर्व दिशा में विजय प्राप्ति के लिए भेजा , सब सभी राजाओं पर विजय प्राप्त कर बहुत सा धन लेकर चारों भाई आ गए परंतु जरासंध को वे नहीं जीत सके तो धर्मराज युधिष्ठिर चिंतित हो गए।

तब भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन तथा भीम को साथ लेकर ब्राह्मण का वेश धारण कर गये  जरासंध ब्राह्मणों का परम भक्त था जो भी ब्राह्मण उससे कुछ मांगता उसे वह जरूर प्रदान करता यहां श्री कृष्ण भीम और अर्जुन के साथ पधारे व स्वयं ब्राह्मण का वेश धारण कर लिए प्रातः काल जरासंध के पास आए उनसे कहने लगे |

युद्धं नो देहि राजेन्द्र द्वन्दशो यदि मन्यसे|

 हे राजन हमें द्वंद युद्ध की भिक्षा प्रदान कीजिए जरासंध ने कहा मैं तुम्हें दीक्षा देता हूं परंतु तुम अपना परिचय दो क्योंकि तुम ब्राह्मण नहीं हो सकते ब्राह्मण के वेश में कोई और हो |

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श्री कृष्ण ने कहा यह जो तुम्हारे सामने हटे खट्टे पहलवान खड़े हैं यह भैया भीम है और जो उनके बगल में है वह गांडीव धारी अर्जुन है और मुझे तो तुम पहचानते ही होंगे मैं वही तुम्हारा पुराना शत्रु श्री कृष्ण हूं जरासंध ने जैसे ही सुना जोर जोर से हंसने लगा कहने लगा अरे तुम वही कृष्ण हूं जो मुझे पीठ दिखा कर भाग गए थे |

अरे जो मुझे पीठ दिखा कर भाग जाए मैं उससे युद्ध नहीं करता और यह अर्जुन मुझसे छोटा है इसलिए मैं युद्ध नहीं कर सकता हां अगर भीम की चाहे तो मैं उससे युद्ध के लिए तैयार हूं |

जरासंध और भीम आपस में युद्ध करने लगे यह लोग दिन में तो लड़ते पर रात्रि में एक पंक्ति में बैठकर भोजन करते इसी प्रकार सत्ताइस दिनों तक युद्ध चलता रहा अठ्ठाइसवें दिन भीम हाथ जोड़कर श्री कृष्ण के पास पहुंच गए प्रभु अब मैं युद्ध करने में असमर्थ हूं श्री कृष्ण ने सांत्वना प्रदान की और अपने अमृतमय हाथों का स्पर्श किया जिससे भीम की समस्त पीड़ा समाप्त हो गई|

भीम पुनः तैयार हो गए जैसे ही युद्ध शुरू हुआ जरासंध और भीम दोनों गदा लेकर भिड़ गए जरासंध ने ऐसी गधा का प्रहार किया कि भीम की गदा हाथ से छूट गई और जरासंध ने भीम को उठाकर पृथ्वी में पटक दिया भीमसेन विचार करने लगा कि अब मैं बचने वाला नहीं हूं उसने श्री कृष्ण की ओर देखा श्री कृष्ण ने एक तिनके को उठाया और उसको मध्य से फाड़कर विपरीत दिशा में फेंक दिया। 

भीमसेन समझ गए जरासंध का मध्य भाग कमजोर है , जरासंध को पकड़ा और पृथ्वी में पटक दिया उसके दोनों पैरों को पकड़कर बीच से चीर दिया और विपरीत दिशा में फेंक दिया जिससे जरासंध का प्राणांत हो गया | श्री कृष्ण ने जरासंध के स्थान पर उसके पुत्र सहदेव को नियुक्त किया और कारागार में कैद बीस हजार राजाओं को मुक्त किया , सभी राजा श्री कृष्ण की प्रार्थना करने लगे |

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