श्रीमद्भागवत महापुराण सप्ताहिक कथा

भर्तुः शुश्रूषणं स्त्रीणां परो धर्मो ह्यमायया |
तद्वन्धूनां च कल्याणः प्रजानांचानुपोषणम् |
भा• 10.29.24
दुःशीलो दुर्भगो वृद्धो जडोरोग्यधनोपि वा |
पतिःस्त्रीभिर्नहातव्योलोकेप्यसुभिरपातकी |
भा• 10.29.25
( दिव्य महारास लीला )
अपने पति की निष्कपट भाव से सेवा करना उनके बंधु बान्धवो को प्रसन्न रखना और संतान का पालन पोषण करना स्त्रियों का परम धर्म है , अपना पति बुरे स्वभाव का हो , या भाग्यहीन हो वृद्ध हो , मूर्ख हो, रोगी हो अथवा निर्धन ही क्यों ना हो फिर भी उसका त्याग नहीं करना चाहिए|
श्रवणाद् दर्शनाद् ध्यानान्मयि भावोनुकीर्तनात् |
न तथा सन्निकर्षेण प्रतियात ततो गृहान् |
मेरी कथाओं का श्रवण करने से , मेरा दर्शन करने से, मेरे स्वरूप का ध्यान करने से और मेरे नामों का कीर्तन करने से जिस प्रकार मुझ में प्रेम उत्पन्न होता है , उस प्रकार पास में रहने से नहीं होता |इसलिए गोपियों अपने घर लौट जाओ भगवान श्री कृष्ण ने जब इस प्रकार कहा गोपियां दुखी हो गई उनकी आंखों से अश्रु प्रवाहित होने लगे जैसे तैसे उन्होंने अपने आप को संभाला और श्रीकृष्ण से कहा-
मैवं विभोर्हति भवान गदितुं नृशंसं
सन्त्यज्य सर्वविषयांस्तव पादमूलम् |
भक्ता भजस्व दुरवग्रह मा त्यजास्मान्
देवो यथादिपुरुषो भजते मुमुक्षुन |
प्यारे श्याम सुंदर आप इस प्रकार निष्ठुरता भरे वचन मत कहिए, हम समस्त विषयों का त्याग कर आप की शरण में आए हैं हम आपकी भक्त हैं हमारा त्याग मत करिए |आपने कहा पति ,पुत्र आदि की सेवा करना स्त्रियों का परम धर्म है तो सबके हृदय में परमेश्वर रूप में आप ही विराजमान हैं आप सबके पति परमेश्वर हैं हम आप को छोड़ कैसे जा सकती हैं ,आपको छोड़ हमारे चरण एक पग भी चलने को तैयार नहीं और यदि ब्रज में चली भी जाए तो क्या करेंगे आपने अपनी मधुर मुस्कान और प्रेम भरी तिरछी चितवन से हमारा हृदय अपनी ओर खींच लिया है।
हम हमारा ह्रदय प्रेम और मिलन की आग मे धधक रहा है, आप अपनी अधरामृत कि रसधारा से उसे बुझा दीजिए अन्यथा हम आपकी विरह व्यथा में अपने शरीर को जला देंगे और आपके चरण कमलों का ध्यान कर मरेगी तो अगले जन्म में कृष्ण बनेंगी और श्याम सुंदर हमें मालूम है आप भी हमारे बिना नहीं रह सकते इसलिए जब आप हमारा ध्यान कर मरेंगे तो अगले जन्म में गोपी बनेंगे फिर हम भी तुम्हें इसी प्रकार से सताएगी भगवान श्री कृष्ण ने गोपियों के इस व्याकुलता भरे वचनों को सुना तो--
( आत्मा रामो प्यरी रमत )
श्रीकृष्ण को ना देख गोपियां दुखी हो गई उन्हें ढूंढने लगी वट ,पीपल ,पाकड़ आदि बड़े-बड़े वृक्षों से पूछने लगी तुम ने श्रीकृष्ण को देखा है जब वृक्षो ने कोई उत्तर नहीं दिया तो कहने लगी यह क्या बताएंगे इन्हें अपने बड़प्पन का अभिमान है |
इसी समय गोपियों ने तुलसी को देखा उससे पूछा तुमने श्री कृष्ण को देखा है जब तुलसी ने भी कोई उत्तर नहीं दिया कहने लगी यह क्या बताएगी यह तो हमारी सौतन है, श्री कृष्ण का अन्वेषण करती करती गोपियां उनमें तन्मय हो गई और श्रीकृष्ण की लीलाओं का अनुकरण करने लगी , एक गोपी पूतना बन गई दूसरी कृष्ण बनकर घुटनों के बल चलने लगी एक गोपी मुरली ले के मटक मटक कर चलने लगी और कहती है देखो--
( कृष्णोहं पश्यत गतिम् )
अनयाराधितो नूनं भगवान हरिरीश्वरः |
यन्नो विहाय गोविन्दः प्रीतो यामनयद रहः |
निश्चित ही यह श्री कृष्ण कि आराधिका श्री राधा रानी है , जिनके प्रेम के कारण श्री कृष्ण ने हमें छोड़ दिया श्री राधा रानी ने गोपियों के इस विरह को देखा तो उनके हृदय में गोपियों के प्रति दया का भाव जागृत हो गया उन्होंने लीला करते हुए कहा मैं थक गई हूं, मुझसे अब और नहीं चला जा रहा यदि आपको कहीं ले चलना है तो मुझे अपने कंधे में बिठाल कर ले चलिए श्री कृष्ण ने कहा आप वटवृक्ष की डाल पकड़कर मेरे ऊपर चढ़ जाओ जैसे ही पेड़ की डाल पकड़कर राधा रानी श्री कृष्ण के ऊपर चढ़ना चाहा श्री कृष्ण अंतर्ध्यान हो गए | राधा रानी ने श्रीकृष्ण को नहीं देखें तो दुखी हो गई रोने लगी-गोपियों ने राधा रानी को देखा तो कहने लगी श्री कृष्ण हमें छोड़ कर गए कोई बात नहीं परंतु आपको छोड़कर नहीं जाना चाहिए था वन में जहां तक चंद्रमा की चाँदनी छिटक रही थी गोपियों ने वहां तक श्रीकृष्ण को ढूंढा फिर सोचने लगी हम श्रीकृष्ण को जहां तक ढूंढेंगी श्रीकृष्ण हम से बचने के लिए उतने ही आगे जाएंगे |
उनके पैरों में कंकड़ पत्थर कांटे चुभ जाएंगे यदि उन्हें मिलना होगा तो यमुना पुलिन में ही मिल जाएंगे सभी यमुना पुलिन में आ गई और एक साथ समवेत स्वर में गोपी गीत का गान करने लगी |
यह गोपी गीत कनक मंजरी छंद से निबद्ध है , कनक का अर्थ होता है धतूरा जैसे धतूरा खाने में नशा होता है - उन्मोद होता है , मादकता आती है | उसी प्रकार गोपी गीत करने से श्री कृष्ण प्रेमोन्माद कि प्राप्ति होती है | सभी गोपियां एक स्वर में गोपी गीत का पाठ करती हैं-
जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः
श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि |
दयित दृश्यतां दिक्षु तावका
स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते |
शरदुदाशये साधुजातसत्
सरसिजोदरश्रीमुषा दृशा |
सुरतनाथ तेऽशुल्कदासिका
वरद निघ्नतो नेह किं वधः |
विषजलाप्ययाद् व्यालराक्षसाद्
वर्षमारुताद् वैद्युतानलात् |
वृषमयात्मजाद् विश्वतो भयाद्
ऋषभ ते वयं रक्षिता मुहुः |
न खलु गोपीकानन्दनो भवान्
अखिलदेहिनां अन्तरात्मदृक् |
विखनसार्थितो विश्वगुप्तये
सख उदेयिवान् सात्वतां कुले |
हे प्यारे श्याम सुंदर जबसे आपका जन्म इस व्रज में हुआ इससे इसकी महिमा बैकुंठ से भी अधिक हो गई है तभी तो बैकुंठ की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी अपना निवास स्थान छोड़कर नित्य यहां सेवा में लगी रहती हैं , प्रभु आपको हमें जो सजा देनी है वह दे दीजिए हम आपकी बिन मोल की दासी है।यदि आपको हमें मारना ही था तो यमुना के विषैले जल और इंद्र की मूलाधार वर्षा से आपने हमारी रक्षा क्यों कि ? प्रभो आप मात्र यशोदानंदन ही नहीं अपितु समस्त प्राणियों के हृदय में विराजमान अंतर्यामी परमेश्वर हैं , ब्रह्मा जी की प्रार्थना पर आप विश्व की रक्षा के लिए यदुकुल मे अवतीर्ण हुये आप की कथा अमृत के समान है , अथवा आप की कथा मारने वाली है एक बार भी जो इसे सुन लेता है वह बिच्छूकों के भांति भटकता रहता है |
प्रभु आपके चरण अत्यंत सुकोमल हैं इन्हें हम अपने कठोर वक्षस्थल पर रखने से भी डरती हैं आप इन्हें चरण कमलों से भटकते रहे , आपके चरणो में कंकड़ पत्थर आदि चुभ रहे होंगे जिसकी कल्पना मात्र से हमें चक्कर आ रहा है प्रभु हमारा जीवन आपके लिए है हम आपके हैं श्री कृष्ण के दर्शन की लालसा से गोपियों ने एक साथ रुदन किया--
तासामाविरभूच्क्षौरिः स्मयमानमुखाम्बुजः |
पीताम्बरः धरः स्त्रग्वी साक्षान्मन्मथमन्मथः
उसी समय पीतांबर धारी भगवान श्री कृष्ण मुस्कुराते हुये गोपियों के मध्य प्रकट हो गये
( बोलिए रासबिहारी भगवान की जय )
एक गोपी ने श्रीकृष्ण को देख कर नेत्र बंद कर लिए नेत्र बंद क्यों किए वह कहने लगी सखी मन के श्याम भले बाहर के श्याम तो छिप जाते हैं, मन के श्याम कहां जाएंगे | इसलिए नेत्र बन्द कर लिये गोपियों ने अपनी ओढ़नियो का आसन लगाया और उसमें श्रीकृष्ण को विठाला और उनसे पूछा-
भजतोनुभजन्त्येक एक एतद्विपर्ययम् |
नोभयांश्च भजन्त्येक एकन्नोब्रूहि साधुभोः |
श्यामसुंदर-- कुछ लोग ऐसे होते हैं जो प्रेम करने वालों से प्रेम करते हैं , कुछ लोग ऐसे होते हैं जो प्रेम न करने वालों से प्रेम करते हैं और कुछ लोग ऐसे होते हैं जो दोनों से ही प्रेम नहीं करते हैं | भगवान श्री कृष्ण ने कहा गोपियों जो प्रेम पर प्रेम करता है वह व्यापारी है | जो प्रेम ना करने वालों से भी प्रेम करता है ऐसे निस्वार्थी माता पिता गुरु होते हैं |
भजतोपि न वै केचिद् भजन्त्यभजतः कुतः |
आत्मारामा ह्याप्तकामा अकृतज्ञता गुरूद्रुहः |
और जो प्रेम करने वालों से प्रेम नहीं करता है ऐसे चार प्रकार के लोग होते हैं
(1) आत्माराम- जो अपने स्वरूप में आत्मा में ही रमण करते हैं उन्हें बाह्य जगत से कोई प्रयोजन नहीं !(2) आप्तकाम- जिन की समस्त कामनाएं पूर्ण हो गई है उनका किसी से कोई प्रयोजन नहीं हो |
(3) अकृतज्ञ- जो यह जानते ही नहीं कि हमसे कोई प्रेम करता है और
(4) गुरु द्रोह- जिन्हें यह मालूम तो है कि यह हम से प्रेम करते हैं
फिर भी वह जानकर उन्हें प्रेम नहीं करते!
ऐसे लोग परोपकारी गुरुतुल्य लोगों से भी द्रोह करते हैं वह परम अपराधी हैं, ललिता नें विशाखा से कहा श्यामसुंदर आत्माराम है , विशाखा ने कहा नहीं यह आत्माराम नहीं गोपिकाराम है गोपियों में रमण करते ,तो क्या आप्तकाम है तो बोले नहीं ये यदि आप्तकाम होते तो (छछियां भर छांछ पे नाच नचायो ) यें माखन की चोरी क्यों करते, तो क्या यें अकृतज्ञ हैं विशाखा ने कहा यह अकृतज्ञ भी नहीं इन्होंने ही वरदान दिया था शरद पूर्णिमा की रात्रि में तुम सभी मेरे साथ विहार करोगी, ललिता ने कहा अब बचा चौथा यें श्यामसुंदर गुरुद्रोहः है, महान अपराधी हैं |
श्री कृष्ण ने गोपियों की इस व्याख्या को सुना कहा गोपी तुम्हारे हृदय में जो मेरे प्रति प्रेम था उसे प्रकट करने के लिए ही अंतर्ध्यान हुआ था | मैं सैकड़ों वर्ष की आयु को प्राप्त करके तुम्हारे प्रेम का ऋण नहीं चुका सकता , मुझमें दोष दृष्टि मत करो |
गोपियों ने श्रीकृष्ण की मधुर वाणी सुनी उनका दुख दूर हो गया और फिर रासक्रीड़ा प्रारंभ हुई | अनेकों देवता अपने अपने विमानों में चढ़ रास का.दर्शन करने ! आए भगवान शंकर गोपी के वेश मे आए नृत्य करते-करते इतने मस्त हो गए कि उनकी सर की साड़ी खिसक गई और उनका भेद खुल गया भगवान शंकर गोपेश्वर के रूप में सदा के लिए विराजमान हो गए|
( बोलिये गोपेश्वर भगवान की जय )
रास तीन प्रकार से हुआ-
प्रथम क्रम में मध्य में श्रीकृष्ण और चारों ओर से गोपियां नृत्य करने लगी, दूसरे क्रम में दो गोपियां एक कृष्ण और फिर जब गोपियों की निकट आने की इच्छा हुई तो एक गोपी एक कृष्ण महारास करने लगे ,बड़ा दिव्य महारास हुआ |
रेमे रमेशो व्रजसुन्दरीभि
र्यथार्भकः स्वप्रतिबिम्ब विभ्रमः
जैसे-- बालक अपनी परछाई से खेलता है उसी प्रकार श्री कृष्ण ने गोपियों के साथ रास किया |( बोलिए रास बिहारी की जय )
धर्मव्यतिक्रमो दृष्ट ईश्वराणां च साहसम् |
तेजीयसां न दोषाय वन्हेः सर्वभुजो यथा |
परीक्षित जो तेजस्वी होते हैं- सामर्थ साली होते हैं , उनमें दोष नहीं होता जैसे अग्नि सब कुछ खा जाती है परंतु किसी भी पदार्थ से लिप्त नहीं होती | भगवान शंकर हलाहल विष पी गए कोई साधारण पुरुष पीता तो जलकर भस्म हो जाता |परीक्षित रास के पश्चात जब गोपिया अपने-अपने घर लौट कर आई किसी ने भी उन पर दोष दृष्टि नहीं कि उन्हें लगा जैसे गोपियाँ उन्हे छोड़कर गयी ही नही उन्हीं के ही पास थी |
विक्रीडितं व्रजवधूरभिरिदं च विष्णोः
श्रद्धान्वितोनुश्रृणुयादथ वर्णयेद यः
भक्तिं परां भगवति प्रतिलभ्य कामं
हद्रोगमाश्वपहिनोत्यचिरेण धीरः
परीक्षित जो भी इस महारास का वर्णन करता है अथवा इस महारास का श्रवण करता है , उसे भगवान की निष्काम भक्ति की प्राप्ति होती है और उसका रोग जो काम बिकार है वह छूट जाता है|भागवत कथा के सभी भागों कि लिस्ट देखें
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नोट - अगर आपने भागवत कथानक के सभी भागों पढ़ लिया है तो इसे भी पढ़े यह भागवत कथा हमारी दूसरी वेबसाइट पर अब पूर्ण रूप से तैयार हो चुकी है
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श्री भागवत महापुराण की हिंदी सप्ताहिक कथा जोकि 335 अध्याय ओं का स्वरूप है अब पूर्ण रूप से तैयार हो चुका है और वह क्रमशः भागो के द्वारा आप पढ़ सकते हैं कुल 27 भागों में है सभी भागों का लिंक नीचे दिया गया है आप उस पर क्लिक करके क्रमशः संपूर्ण कथा को पढ़कर आनंद ले सकते हैं |
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