parmatma ki prapti kaise kare
प्रकृति के पाश से मुक्त होने पर ही परमात्मा मिलते हैं।

धर्ममयी जीवन बनाइये। मनुष्य को अपने हित और अहित के बारे में पता है और विचार से वह समझ सकता है। ऐसा विचार करके, समझ करके वह सम्भल भा सकता है और अपने हित का रास्ता भी सोच सकता है। इस प्रकार अपन जान साधनामय ढंग से चलाना, यह धर्म का जीवन है।
इस प्रकार अपने आप को नित्य-संयम में रखते रहने पर साधक का आध्यात्मिक जीवन बन जाता है। आध्यात्मिक जीवन में मन को चेतन करना होता है। ऐसा करने पर प्रभु की कृपा होती है। मन का दो वृत्तियाँ होती हैं। एक अन्तर्मुखी, भगवदाकार वृत्ति होती है जो जीव को सत्यमार्ग पर ले जाती है और दूसरी बहिर्मुखी, विषयाकार वृत्ति, जो जीव को ससार के विषयों की ओर ले जाती है।
अन्तर्मुखी और बहिर्मुखी इन दोनों वृत्तियों को समझना होगा तभी भगवत्प्राप्ति हो सकती है। सभी की निर्मल आत्मा प्रेरित करती है कि तुम जो कर्म करने जा रह हा, वह ठीक है या गलत है, परन्तु जीव अधिकतर विषयाकार वृत्ति की ही बात मानता है, जो कि उसे भौतिक संसार की ओर ले जाती है। आत्मा और अन्तर्मुखी मन के द्वारा जो प्रेरणा मिलती है, वह भगवत्प्राप्ति के मार्ग पर ले जाती है।
इस प्रकार अपने आप को नित्य-संयम में रखते रहने पर साधक का आध्यात्मिक जीवन बन जाता है। आध्यात्मिक जीवन में मन को चेतन करना होता है। ऐसा करने पर प्रभु की कृपा होती है। मन का दो वृत्तियाँ होती हैं। एक अन्तर्मुखी, भगवदाकार वृत्ति होती है जो जीव को सत्यमार्ग पर ले जाती है और दूसरी बहिर्मुखी, विषयाकार वृत्ति, जो जीव को ससार के विषयों की ओर ले जाती है।
अन्तर्मुखी और बहिर्मुखी इन दोनों वृत्तियों को समझना होगा तभी भगवत्प्राप्ति हो सकती है। सभी की निर्मल आत्मा प्रेरित करती है कि तुम जो कर्म करने जा रह हा, वह ठीक है या गलत है, परन्तु जीव अधिकतर विषयाकार वृत्ति की ही बात मानता है, जो कि उसे भौतिक संसार की ओर ले जाती है। आत्मा और अन्तर्मुखी मन के द्वारा जो प्रेरणा मिलती है, वह भगवत्प्राप्ति के मार्ग पर ले जाती है।
इसे हम आध्यात्मिक प्रेरणा कहते हैं।
अन्तर्मुखी मन संसार के बन्धनों को रोककर परमात्मा से मिला देता है। यहा भक्ति हमें करनी है। मनुष्य सोच समझ कर अपने कार्य करे। ऐसा तभी सम्भव है यदि उसकी बुद्धि विकसित होगी। इस तरह समझ-समझ कर चलने वाला व्यक्ति उत्तम श्रेणी में आ जाता है।
ऐसा पुरुष अन्दर की विद्याओं को समझने लगता है कि किस प्रकार बन्धन-विकारों की नकारात्मक तरंगें जीव को अपने में उलझा लेती हैं और इसके विपरीत भगवान् के मैत्री, करुणा, क्षमा तथा शीलादि बल उसको बन्धन मुक्त करते हैं।
साधक के हृदय में भगवान् सदा आनन्द प्रदान करते रहते हैं और अपनी, लीलाओं का भान कराते हैं। इससे बड़ा पुण्य और क्या होगा? अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-इनका पालन यम कहलाता है। नियम हैं- शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर-प्रणिधान।
इनके पालन करने का नाम ही तपस्या है। अगर हम दृषित कमों से बच गए तो समझो हम प्रकृति के पाश (जाल) से मक्त । हो गए। राग-द्वेषादि बन्धनों से छूटने को ही मुक्ति कहा है।
ऐसा पुरुष अन्दर की विद्याओं को समझने लगता है कि किस प्रकार बन्धन-विकारों की नकारात्मक तरंगें जीव को अपने में उलझा लेती हैं और इसके विपरीत भगवान् के मैत्री, करुणा, क्षमा तथा शीलादि बल उसको बन्धन मुक्त करते हैं।
साधक के हृदय में भगवान् सदा आनन्द प्रदान करते रहते हैं और अपनी, लीलाओं का भान कराते हैं। इससे बड़ा पुण्य और क्या होगा? अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-इनका पालन यम कहलाता है। नियम हैं- शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर-प्रणिधान।
इनके पालन करने का नाम ही तपस्या है। अगर हम दृषित कमों से बच गए तो समझो हम प्रकृति के पाश (जाल) से मक्त । हो गए। राग-द्वेषादि बन्धनों से छूटने को ही मुक्ति कहा है।
इससे मन निर्मल और चेतन हो जाता है।
शुद्ध मन ही प्रभु से जुड़ सकता है। जो आनन्द निद्रा में मिलता है वही आनन्द जागृत काल में भी प्राप्त होने लगता है। निर्मल और चेतन मन ही अन्दर के आनन्द का अनुभव कर पाता है। भीतर के आनन्द-रस के आते ही बाहर के स्वार्थ के बन्धन छूट जाते हैं। जीव मौज में रहने लगता है। चेतन (अन्तर्मुखी) मन में केवल झांकियाँ आती हैं। ये सब भगवान् की दिव्य लीलाएँ हैं। यदि इनमें साधक की आँख खुल गयी तो बस! वहाँ अनन्त ज्ञान-विज्ञान है। इस अवस्था में परम चेतन तत्व का अनुभव होने लगता है। यह परमानन्द प्राप्त कर साधक फिर उस स्थिति में स्थिर रहता है। वह किसी का शोक, मोह नहीं करता। उसको अनुभव होता है कि सारी सृष्टि इस अनन्त ज्ञान-विज्ञान रूप भगवान् में ही स्थित है। विवेक रूपी चक्षु के खुलते ही अन्दर का ज्ञान समझ में आने लग जाता है। बाहर संसार में रहते हुए संसार का कर्तव्य, काम-काज भी करना है। ऐसा करते हुए उन कों के बीच में अपना स्वार्थ शून्य रखना है।
फल की इच्छा न करते हुए केवल निष्काम कर्म ही करने हैं।
भगवान् को प्रसन्न करने के लिए वे कर्म होने चाहिएँ। श्रीहरि, गुरुदेव की आज्ञा में रहते हुए कर्म करने से जीव प्रकृति के बन्धन से मुक्त हो जाता है। धर्म के बारे में किसी के साथ तर्क-वितर्क करने की बिल्कुल भी आवश्यकता नहीं है।
कारण कि चेतन-तत्त्व ईश्वर तो वर्णनातीत है अर्थात् जिसका सही रूप से निरूपण नहीं किया जा सकता। यह तो केवल अनुभव में ही लाया जा सकता है, जैसे सब प्राणियों के भीतर बैठे भगवान् का अनुभव होता है। ईश्वर-तत्त्व का अनुभव करने के लिए साधक, भक्त को ध्यानमय जीवन बनाना होता है।
इसके लिए सब प्रकार की बुराइयों से बच कर रहना होता है। मन में किसी प्रकार का विकार न रहे। किसी के सुख को देखकर ईर्ष्या नहीं करनी है। दूसरे के दुःख को देखकर हँसना भी नहीं अपितु करुणा भाव मन में लाना है। किसी की अच्छाई दिखाई देने पर मनोमन वाह-वाह! करनी है।
दूसरों के गुणों की प्रशंसा करनी है। किसी के दोष, अवगण, खोट व अभाव को मन में नहीं रखना। ये सब मैत्री, करुणा, मुदिता तथा उपेक्षादि भगवान् के दिए हुए बल हैं जिनके साथ हमें आध्यात्मिक जीवन व्यतीत करना। प्रकति के अन्दर सब खोट है।
प्रकृति का तात्पर्य है कि मन की आदत । बार-बार किसी काम को करते रहने से वह आदत शक्ति रूप में अन्दर बैठ जाती है, जिसका नाम प्रकति अर्थात स्वभाव है। साधक, भक्त का काम है कि उसे प्रकृति के बन्धन से निकलना है जो कि भगवान् तक पहुंचने वाले मार्ग को रोके हुए है। केवल भगवान् से प्यार करो। || सांसारिक जीवों की सेवा नि:स्वार्थ भाव से करो।
कारण कि चेतन-तत्त्व ईश्वर तो वर्णनातीत है अर्थात् जिसका सही रूप से निरूपण नहीं किया जा सकता। यह तो केवल अनुभव में ही लाया जा सकता है, जैसे सब प्राणियों के भीतर बैठे भगवान् का अनुभव होता है। ईश्वर-तत्त्व का अनुभव करने के लिए साधक, भक्त को ध्यानमय जीवन बनाना होता है।
इसके लिए सब प्रकार की बुराइयों से बच कर रहना होता है। मन में किसी प्रकार का विकार न रहे। किसी के सुख को देखकर ईर्ष्या नहीं करनी है। दूसरे के दुःख को देखकर हँसना भी नहीं अपितु करुणा भाव मन में लाना है। किसी की अच्छाई दिखाई देने पर मनोमन वाह-वाह! करनी है।
दूसरों के गुणों की प्रशंसा करनी है। किसी के दोष, अवगण, खोट व अभाव को मन में नहीं रखना। ये सब मैत्री, करुणा, मुदिता तथा उपेक्षादि भगवान् के दिए हुए बल हैं जिनके साथ हमें आध्यात्मिक जीवन व्यतीत करना। प्रकति के अन्दर सब खोट है।
प्रकृति का तात्पर्य है कि मन की आदत । बार-बार किसी काम को करते रहने से वह आदत शक्ति रूप में अन्दर बैठ जाती है, जिसका नाम प्रकति अर्थात स्वभाव है। साधक, भक्त का काम है कि उसे प्रकृति के बन्धन से निकलना है जो कि भगवान् तक पहुंचने वाले मार्ग को रोके हुए है। केवल भगवान् से प्यार करो। || सांसारिक जीवों की सेवा नि:स्वार्थ भाव से करो।
ऐसा करोगे तभी प्रकृति के बन्धन से निकल पाओगे।
प्रकृति (स्वभाव) जीवों से पाप करवाने में लालायित रहती है। ऐसा कोई कर्म न करो जो हिंसा, चोरी, जारी, झूठ और नशे की तरफ जाने के लिए प्रेरित करे। अगर इन पापों से बच कर रहोगे तो तुम्हें किसी से डर नहीं लगेगा। ध्यान-अभ्यास भी ठीक होगा और मन की एकाग्रता भी बनेगी।
यदि आपके मन में दूसरों के बारे में शंका है, मन में लौकिक कामनाएँ नाच रही हैं तो ईश्वर का चिन्तन, भजन नहीं होगा और न ही ध्यान लग पाएगा। ये सब प्रकृति के खेल हैं। इनसे बच कर रहना है। आप इन विकारों को पहचानो और इनको दूर करो।
यदि किसी को इन विकारों को टालना आ गया तो वह एक-न-एक दिन भगवत्प्राप्ति अवश्य कर लेगा। विषयाकार वृत्ति को अन्तर्मुखी करना है। यह सद्गुरुदेव की कृपा से ही होगा। जो साधक, भक्त अपने-आप में रहता है, अपने भले के रास्ते को अपनाता है, अपने आपको ठीक ढंग से चलाता है और अपने साथ जुड़ा रहता है, वह सुख-शान्ति को पाता है।
इस तरह से अपने-आप के साथ जुड़े रहने का नाम शास्त्र में योग है। इसे ही आत्म-संयोग कहते हैं। ऐसा व्यक्ति अपने-आपको संयम में रखता है, संभल कर रहता है और आदतों के रास्ते पर फिसलने से बचता है।
यदि आपके मन में दूसरों के बारे में शंका है, मन में लौकिक कामनाएँ नाच रही हैं तो ईश्वर का चिन्तन, भजन नहीं होगा और न ही ध्यान लग पाएगा। ये सब प्रकृति के खेल हैं। इनसे बच कर रहना है। आप इन विकारों को पहचानो और इनको दूर करो।
यदि किसी को इन विकारों को टालना आ गया तो वह एक-न-एक दिन भगवत्प्राप्ति अवश्य कर लेगा। विषयाकार वृत्ति को अन्तर्मुखी करना है। यह सद्गुरुदेव की कृपा से ही होगा। जो साधक, भक्त अपने-आप में रहता है, अपने भले के रास्ते को अपनाता है, अपने आपको ठीक ढंग से चलाता है और अपने साथ जुड़ा रहता है, वह सुख-शान्ति को पाता है।
इस तरह से अपने-आप के साथ जुड़े रहने का नाम शास्त्र में योग है। इसे ही आत्म-संयोग कहते हैं। ऐसा व्यक्ति अपने-आपको संयम में रखता है, संभल कर रहता है और आदतों के रास्ते पर फिसलने से बचता है।
ऐसे आत्मसंयमी योगी के हृदय में भगवान् सदा निवास करते हैं।
ऐसा साधक, भक्त किसी से वैर, द्रोह नहीं करता। वह समझता है कि जो चेतन पुरुष आत्मा आनन्द रूप से मेरे में है, वही चेतन पुरुष आत्मा आनन्दरूप से सब में है। सब जगह उसी का राज्य है। यह सब लीलाधारी का खेल है। कहीं किसी रूप में प्रकट होकर चक्कर चला रहा है और कहीं कुछ कर रहा है।
ऐसी भगवान् की लीला देखने वाले साधक, भक्त में भगवान् के प्रति भक्तिभाव और भी दृढ़ हो जाता है। उसका मन और भी चेतन होकर प्रभु की ओर बढ़ता है। उसकी चेतन-ज्योति पर दृष्टि स्थिर हो जाती है। सब ओर वही एक भगवान् चेतन आत्मानन्द रूप से उसे दिखाई देने में आता है।
ऐसे साधक, भक्त को अकेले, एकान्त में अपने मन को लगाने का मार्ग मिल जाता है। वह आत्मदशी अपने मन से बातचीत करता हुआ, अपने मन को संभालता है। इससे वह साधना काल में अपना सुखपूर्वक समय व्यतीत कर लेता है। ऐसा साधक, भक्त संसार में हुआ भगवान् की दिव्य लीलाओं को देखता रहता है। वह राग-द्वेषादि बन्धन - विकारों से मुक्त हो जाता है और प्रभु-प्राप्ति के लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है।
ऐसी भगवान् की लीला देखने वाले साधक, भक्त में भगवान् के प्रति भक्तिभाव और भी दृढ़ हो जाता है। उसका मन और भी चेतन होकर प्रभु की ओर बढ़ता है। उसकी चेतन-ज्योति पर दृष्टि स्थिर हो जाती है। सब ओर वही एक भगवान् चेतन आत्मानन्द रूप से उसे दिखाई देने में आता है।
ऐसे साधक, भक्त को अकेले, एकान्त में अपने मन को लगाने का मार्ग मिल जाता है। वह आत्मदशी अपने मन से बातचीत करता हुआ, अपने मन को संभालता है। इससे वह साधना काल में अपना सुखपूर्वक समय व्यतीत कर लेता है। ऐसा साधक, भक्त संसार में हुआ भगवान् की दिव्य लीलाओं को देखता रहता है। वह राग-द्वेषादि बन्धन - विकारों से मुक्त हो जाता है और प्रभु-प्राप्ति के लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है।
भगवत्कृपा हुई तो प्राणी को नवजीवन हुआ प्राप्त ।
माया के प्रभाव में पड़ने से तन-मन में है दु:ख व्याप्त ।। विधि निषेधमय कर्मों को श्रुति-शास्त्र-संत बतलाते हैं। स्वाध्यायी, सत्संगी जन सार्थक निज समय बिताते हैं । व्रत-पर्वो का आश्रय लेने से जीवन बनता है पावन । सेवाव्रती बना मानव वसुधा माता का वीर सुवन ||
व्रतमय जीवन बन जाने से अन्तर्मन में शुचिता आती। व्यवहार शुद्ध हो जाता है उर-अन्तर प्रीति समा जाती। इस जग को सियाराममय लख आदर्शयुक्त बन जाता है। त्रिगुणातीत हुआ वह सेवक प्रभु का ही गुण गाता है | जागो रे मन मूढ , तुम्हारे जीवन का निश्चित व्रत हो । साँस-साँस में हरि सुमिरन तन-मन-धन से सेवा रत हो ।
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नोट - अगर आपने भागवत कथानक के सभी भागों पढ़ लिया है तो इसे भी पढ़े यह भागवत कथा हमारी दूसरी वेबसाइट पर अब पूर्ण रूप से तैयार हो चुकी है
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श्री भागवत महापुराण की हिंदी सप्ताहिक कथा जोकि 335 अध्याय ओं का स्वरूप है अब पूर्ण रूप से तैयार हो चुका है और वह क्रमशः भागो के द्वारा आप पढ़ सकते हैं कुल 27 भागों में है सभी भागों का लिंक नीचे दिया गया है आप उस पर क्लिक करके क्रमशः संपूर्ण कथा को पढ़कर आनंद ले सकते हैं |
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