सम्पूर्ण भागवत महापुराण कथा bhagwat katha in hindi full book

 

भागवत सप्ताहिक कथा PDF

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सम्पूर्ण भागवत महापुराण कथा स्टोरी इन हिंदी 
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भागवत सप्ताहिक कथा PDF

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( भाग-2 )


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( अथ द्वादशो अध्यायः )

रहूगण का प्रश्न और भरत जी का समाधान- राजा रहूगण बोले प्रभु आप साक्षात परमात्मा रुप हैं |आपने जो उपदेश मुझे किया उसे और ठीक से समझाएं , भरत जी बोले राजन तुम जो यह समझते हो कि मैं पृथ्वी का स्वामी हूं तो ना जाने कितनी राजा इस धरती पर आए और चले गए किंतु यह धरती किसी की भी नहीं हुई , संसार में जीव आता है और प्रभु को भूल मैं मेरेपन के चक्कर में पड़ जाता है , अतः एकमात्र परमात्मा ही सत्य है |
इति द्वादशो अध्यायः

( अथ त्रयोदशो अध्यायः )

भवाटवी का वर्णन और रहूगण का संशय नाश-  भरत जी बोले हे राजा संसार के समस्त जीव एक व्यापारियों का मंडल जैसा है, यह व्यापारी व्यापार के लिए घूमते घूमते संसार रूपी जंगल में आ गए, उस जंगल में छह डाकू हैं, इन व्यापारियों को लूट लेते हैं, इस जंगल में रहने वाले हिंसक पशु भी उन्हें नोचते हैं, इस जंगल मे बड़े झाड़ झंकाड है जिसमें यह भटकते रहते हैं, कभी प्यास से व्याकुल हो जाते हैं | आपस में द्वेष भी करते हैं , विवाह संबंध भी करते हैं, वे इस जगंल में ना जाने कबसे घूम रहे हैं पर अपने लक्ष्य पर अब तक नहीं पहुंचे | राजा बोले अहो यह मनुष्य जन्म ही सर्वश्रेष्ठ है, जहां आप जैसे योगी पुरुषों का संग तो कल्याणकारी है |
इति त्रयोदशो अध्यायः

( अथ चतुर्दशो अध्यायः )

भवाटवी का स्पष्टीकरण- श्री शुकदेव जी कहते हैं कि यह संसार ही जंगल है, मन सहित छः इंद्रियां ही छः डाकू हैं, सगे संबंधी ही सब जंगली जीव हैं, स्त्री पुत्र आदि का मोह ही झाड़ झंकाड है | इस प्रकार संसार को ही जंगल कहा गया है |
इति चतुर्दशो अध्यायः

( अथ पंचदशो अध्यायः )

भरत के वंश का वर्णन- भरत जी का पुत्र सुमति था, उसने ऋषभदेव जी के मार्ग का अनुसरण किया इसलिए कलयुग में बहुत से पाखंडी अनार्य  वेद विरुद्ध कल्पना करके उसे देवता मानेंगे इनके वंश में एक गय नाम के प्रतापी राजा हुए, उन्होंने कई यज्ञ किए थे |
इति पंचदशो अध्यायः

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( अथ षोडशो अध्यायः )

भुवन कोश का वर्णन- श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित, जहां तक सूर्य का प्रकाश जहां तक तारागण दिखते हैं वहां तक भूमंडल का विस्तार है , हम जहां निवास करते हैं उसे जंबूद्वीप कहते हैं | भागवत जी में जो नाम दिए हैं, वर्तमान में जो नाम उनसे भिन्न हैं, अतः समझने में कठिनाई है , एशिया महाद्वीप जंबूद्वीप है, इसी तरह छः अन्य द्वीपों के नाम आजकल जो प्रचलन में है वे यूरोप, दक्षिणी अमेरिका, उत्तरी अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका, उत्तरी अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया है इन महाद्वीपों के भीतर जो देश स्थित हैं, उन्हें ही वर्ष कहा गया है | भारतवर्ष का नाम यथावत है अन्य किं पुरुष ही चीन है हरि वंश तिब्बत आदि देशों का वर्णन है |
इति षोडशो अध्यायः

( अथ सप्तदशो अध्यायः )

गंगा जी का वर्णन शंकर कृत संकर्षण देव की स्तुति- श्री शुकदेव जी बोले परीक्षित, जब वामन अवतार के समय भगवान ने तीन पैर में पृथ्वी नापने के लिए अपना पैर बढ़ाया तो उनके पैर के अंगूठे से ब्रह्मांड का ऊपरी भाग फट गया तो उस छिद्र से जो जल आया ब्रह्मा जी ने उस जल से भगवान के चरण को धोया, वही चरण धोबन भगवान विष्णुपदी गंगा है | राजा भगीरथ की तपस्या से प्रसन्न हो ब्रह्मा जी ने धरती पर भेजा जो तीन धारा में विभक्त हो गई भागीरथी, अलकनंदा, मंदाकिनी तीनों मिलकर भारत को सींचती हुयी समुद्र में जा गिरी |
इति सप्तदशो अध्यायः

( अथ अष्टादशो अध्यायः )

भिन्न-भिन्न वर्षों का वर्णन- जैसे जंबूद्वीप में नववर्ष हैं उसी तरह अन्य द्वीपों में भी अनेक वर्ष हैं, सभी वर्षों में भगवान के अनेक स्वरूपों की अलग-अलग पूजा होती है |
इति अष्टादशो अध्यायः
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( अथ एकोनविंशो अध्यायः )

किंपुरुष और भारतवर्ष का वर्णन- किं पुरुष वर्ष में लक्ष्मण जी के बड़े भाई आदि पुरुष सीता हृदयाभि राम भगवान श्री राम के चरणों की सन्निधि के रसिक परम भागवत श्री हनुमान जी अन्न किन्नरों के सहित अविचल भक्ति भाव से उनकी उपासना करते हैं | भारतवर्ष में भी भगवान दयावश नर नारायण का रूप धारण करके, संयम शील पुरुषों पर अनुग्रह करने के लिए अव्यक्त रूप से कल्प के अंत तक तप करते रहते हैं, वहां नारद जी सावर्णि मनु को पांच रात्रगम का उपदेश कराने के लिए भारत की प्रजा के साथ भगवान नर नारायण की उपासना करते हैं |
इति एकोनविंशो अध्यायः

( अथ विंशो अध्यायः )

अन्य छः द्वीप तथा लोकालोक पर्वत का वर्णन- जैसे जंबूद्वीप एशिया महाद्वीप है ऐसे ही अन्य
 छः दीपों के नाम भी आज के नामों से भागवत में भिन्न हैं, उनको समझने के लिए प्रचलित नाम ही उपयुक्त रहेंगे यह नाम हैं- यूरोप, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिणी अमेरिका, उत्तरी अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका, उत्तरी अफ़्रीका इस तरह समस्त पृथ्वी सातद्वीपों में विभक्त है |
इति विंशो अध्यायः

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( अथ एकविंशो अध्यायः )

सूर्य के रथ और उसकी गति का वर्णन- श्री शुकदेव जी कहते हैं कि भूलोक के समान ही द्युः लोक हैं दोनों के बीच में अंतरिक्ष लोक है | अंतरिक्ष लोक में भगवान सूर्य तीनों लोकों को प्रकाशित करते रहते हैं | ये उत्तरायण व दक्षिणायन गतियों से चलते हुए दिन रात को छोटा बड़ा करते हैं | जब सूर्य मेष या तुला राशियों पर होते हैं दिन रात बराबर होते हैं , वृष आदि पांच राशियों पर दिन एक एक घड़ी बढ़ता रहता है और रात्रि छोटी होती रहती है, वृश्चिक आदि पांच राशियों पर रात्रि बढ़ती रहती है और दिन छोटे होते रहते हैं |
इति एकविंशो अध्यायः

( अथ द्वाविशों अध्यायः )

भिंन्न भिंन्न ग्रहों की स्थिति और गति का वर्णन-  समस्त आकाश को बारह भागों में बांट कर उन्हें राशि नाम दिया गया है, तथा सत्ताइस उप भागों में बांट कर उसे नक्षत्र नाम दिया गया है, पृथ्वी के सबसे नजदीक चंद्रमा है यह एक नक्षत्र को एक दिन में तथा एक राशि को सवा दो दिनों में बारह राशियों को एक माह में पार कर लेता है, इससे आगे मंगल यह एक राशि पर डेढ़ माह रहता है, गुरु एक राशि को तेरह माह में पार करता है, शुक्र बुध और सूर्य लगभग थोड़ा आगे पीछे साथ ही रहते हैं एक माह में एक राशि पार करते हैं और बारह राशियों को एक वर्ष में पूरा करते हैं | सबसे मंद गति शनि की है यह ढाई वर्ष में एक राशि पार करता है |
इति द्वाविंशो अध्यायः

( अथ त्रयोविंशो अध्यायः )

शिशुमार चक्र का वर्णन- श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित ! ध्रुव लोक के सप्त ऋषि सहित सभी नवग्रह, नक्षत्र परिक्रमा करते हैं , परिक्रमा मार्ग में जो तारों का समूह है आकाश में स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है इसे आकाशगंगा भी कहते हैं, यही शिशुमार चक्र है |
इति त्रयोविंशो अध्यायः
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( अथ चतुर्विंशो अध्यायः )

राहु आदि की स्थिति अतलादि नीचे के लोकों का वर्णन- सूर्यलोक और चंद्रलोक के बीच में राहु का लोक है यह यद्यपि राक्षस है, भगवान की कृपा से इसे देवत्व प्राप्त हुआ है अमृत वितरण के समय सूर्य और चंद्रमा के बीच बैठ गया था उन्होंने इसका भेद खोल दिया तभी से राहु इनसे शत्रुता रखता है इसलिए अमावस्या पूर्णिमा को राहु इन्हें ग्रसता है इसे ग्रहण कहते हैं | पृथ्वी के नीचे अतल, वितल, सुतल, तलातल, रसातल, महातल और पाताल ये सात लोक हैं |
इति चतुर्विशों अध्यायः

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( अथ पंचविशो अध्यायः )

श्री संकर्षणदेव का विवरण और स्तुति- श्री शुकदेव जी कहते हैं राजन ! पाताल के नीचे तीस हजार योजन की दूरी पर अनंत नाम से विख्यात भगवान की तामसी नित्य कला है | यह अहंकार रूपा होने से दुष्टा और दृश्य को खेंचकर एक कर देती है , इसलिए पांच रात्र आगम के अनुयाई इसे संकर्षण कहते हैं | इनके हजार मस्तक हैं जिनमें से एक पर रखा हुआ यह भूमंडल सरसों के दाने के बराबर है | प्रलय काल में इनसे असंख्य रूद्र गण उत्पन्न होकर सृष्टि का संहार करते हैं | ऐसे अनंत भगवान को हम प्रणाम करते हैं |
इति पंचविंशों अध्यायः

( अथ षडविंशो अध्यायः )

नरकों की विभिन्न गतियों का वर्णन- शुकदेव बोले दक्षिण में नरक लोक में पितृराज सूर्यपुत्र यम राज्य करते हैं उनके समीप ही एक और पितृ लोक दूसरी ओर अनेक प्रकार के नर्क हैं | जिनमें मरने के बाद पापियों को अपने पापों की सजा दी जाती है | ये पापों के अनुसार कई प्रकार के हैं |
इति षडविंशो अध्यायः
इति पंचम स्कन्ध समाप्त

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अथ षष्ठः स्कन्ध प्रारम्भ

( अथ प्रथमो अध्यायः )

अजामिल उपाख्यान- श्री सुखदेव जी बोले राजन बड़े-बड़े पापों का प्रायश्चित एकमात्र भगवान की भक्ति है इस विषय में महात्मा लोग एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं ! कान्यकुब्ज नगर में एक दासी पति ब्राह्मण रहता था उसका नाम अजामिल था वह ब्राह्मण कर्म से भ्रष्ट अखाद्य वस्तुओं का सेवन करने वाला पराए धन को छल कर लूटने वाला बड़ा अधर्मी था | 

एक बार कुछ महात्मा उस पर कृपा करने को आए उसकी पत्नी गर्भवती थी महात्माओं ने ब्राह्मण से कहा अब जो पुत्र हो उसका नाम नारायण रख देना | 

अजामिल ने अपने छोटे पुत्र का नाम नारायण रख दिया वह नारायण को बहुत प्यार करता था उसे बार-बार नारायण नाम लेकर बुलाता था , एक दिन उसे लेने के लिए यमदूत आ गए वे बडे भयंकर थे उन्हें देख घबराकर अजामिल ने नारायण को पुकारा भगवान के पार्षदों ने देखा यह अन्त समय में हमारे स्वामी भगवान का नाम ले रहा है वे भी वहां पहुंचे और यमदूतों को मार कर हटा दिया | और उनसे पूंछा तुम कौन हो इस पर यमराज के दूत बोले हम धर्मराज के दूत हैं, नारायण पार्षद बोले क्या तुम धर्म को जानते हो ? यमराज के दूत बोले जो वेदों में वर्णित है वही धर्म है , उससे जो विपरीत है वह अधर्म है | 

हे देवताओं आप तो जानते हैं यह कितना पापी है, अपनी विवाहिता पत्नी को छोड़कर वैश्या के साथ रहता है, यह ब्राह्मण धर्म को छोड़ अखाद्य वस्तुओं का सेवन करता है, इसे हम धर्मराज के पास ले जाएंगे इसे दंड मिलेगा तब यह शुद्ध होगा |
इति प्रथमो अध्यायः

( अथ द्वितीयो अध्यायः )

विष्णु दूतों द्वारा भागवत धर्म निरूपण और अजामिल का परमधाम गमन- विष्णु दूत बोले यमदूतो तुम नहीं जानते हो कि शास्त्रों में पापों के कई चंद्रायण व्रत आदि प्रायश्चित बताए हैं, फिर अंत समय में जो भगवान नारायण का नाम ले लेता है उससे बड़ा तो कोई प्रायश्चित है ही नहीं | इसलिए तुम अजामिल को छोड़ जाओ और जाकर अपने स्वामी से पूछो, इतना सुनकर यमदूत वहां से चले गए और भगवान के पार्षद भी अंतर्ध्यान हो गए तब अब अजामिल को ज्ञान हुआ यह क्या सपना था वह यमदूत कहां चले गए और भगवान के पार्षद भी कहां चले गए , उसे ज्ञान हो गया और वह घर छोड़कर हरिद्वार चला गया और भगवान का भजन करके भगवान को प्राप्त कर लिया |
इति द्वितीयो अध्यायः

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( अथ तृतीयो अध्यायः )

यम और यमदूतों का संवाद- यमदूतों ने जाकर यमराज से पूछा स्वामी क्या आप से भी बड़ा कोई दंडाधिकारी है ? धर्मराज बोले हां भगवान नारायण सबके स्वामी हैं, उनके भक्तों के पास नहीं जाना चाहिए वह कितने भी पापी हो मेरे जैसे कई दंडाधिकारी उनके चरणों में नतमस्तक हैं |
इति तृतीयो अध्यायः

( अथ चतुर्थो अध्यायः )

दक्ष के द्वारा भगवान की स्तुति और भगवान का प्रादुर्भाव- श्री शुकदेव जी बोले परीक्षित जब प्रचेताओं ने वृक्षों की कन्या मारीषा से विवाह किया उससे उन्हें एक पुत्र की प्राप्ति हुई जिसका नाम हुआ दक्ष था, प्रजा के सृष्टि के लिए उसने अघमर्षण तीर्थ में जाकर तपस्या की, हंसगुह्य नामक स्तोत्र से भगवान की स्तुति की जिससे प्रसन्न होकर भगवान उसके सामने प्रकट हो गए और बोले दक्ष मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूँ, यह पंचजन्य प्रजापति की कन्या अस्क्नि है तुम इसे पत्नी के रूप में स्वीकार करो जिससे तुम बहुत सी प्रजा उत्पन्न कर सकोगे , इतना कह भगवान अंतर्धान हो गए |
इति चतुर्थो अध्यायः

( अथ पंचमो अध्यायः )

नारद जी के द्वारा दक्ष पुत्रों की विभक्ति तथा नारदजी को दक्ष का श्राप- श्री शुकदेव जी बोले दक्ष ने असिक्नि के गर्भ से दस हजार पुत्र पैदा किए, यह सब हर्यश्व कहलाए ये सब नारायणसर नामक तीर्थ में जाकर तपस्या करने लगे तो नारद जी आए और बोले हर्यश्वो तुम सृष्टि रचना के लिए तप कर रहे हो, क्या तुमने पृथ्वी का अंत देखा है, क्या तुम जानते हो एक ऐसा देश है जिसमें एक ही पुरुष है, एक ऐसा बिल है जिससे निकलने का रास्ता नहीं है, एक ऐसी स्त्री है जो बहूरूपड़ी है, एक ऐसा पुरुष है जो व्यभिचारिणी का पति है, एक ऐसी नदी है जो दोनों ओर बहती है , ऐसा घर है जो पच्चीस चीजों से बना है, एक ऐसा हंस है जिसकी कहानी बड़ी विचित्र है, एक ऐसा चक्र है जो छूरे और वज्र से बना है जो घूमता रहता है इन सब को जब तक देख ना लोगे कैसे सृष्टि करोगे ? हर्यश्व नारद जी की पहेली को समझ गए कि उपासना के योग्य तो केवल एक नारायण ही है वह उस परमात्मा की उपासना कर परम पद को प्राप्त हो गए | 

दक्ष को मालूम हुआ तो उसे बड़ा दुख हुआ उसने एक हजार पुत्रों को जन्म दिया और वह भी तपस्या करने गए नारद जी के उपदेश से उन्होंने भी बड़े भाइयों का अनुसरण किया, तब दक्ष को बड़ा क्रोध आया उसने नारद जी को श्राप दे दिया तुम कहीं भी एक जगह पर नहीं टिक सकोगे, संसार में घूमते रहोगे | इससे नारद जी बड़े प्रसन्न हुए |
इति पंचमो अध्यायः

( अथ षष्ठो अध्यायः )

दक्ष की साठ कन्याओं का वंश वर्णन- अपने ग्यारह हजार पुत्रों के विरक्त हो जाने पर दक्ष ने अपनी भार्या से साठ कन्याएं पैदा की इनको उन्होंने दस धर्म को, तेरह कश्यप को, सत्ताइस चंद्रमा को, दो भूतों को, दो अंगिरा को, दो कृश्वास को, शेष तार्कक्ष्य नाम धारी कश्यप को ही ब्याह दी इनकी संतानों से सृष्टि का बहुत विस्तार हुआ |
इति षष्ठो अध्यायः

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( अथ सप्तमो अध्यायः )

बृहस्पति जी के द्वारा देवताओं का त्याग और विश्वरूप को देवगुरु के रूप में वरण- श्री शुकदेव जी बोले परीक्षित त्रिलोकी का ऐश्वर्य पाकर देवराज इंद्र को घमंड हो गया था, इसलिए वे मर्यादाओं का उल्लंघन करने लगे | 

एक समय की बात है जब देवराज इंद्र अपनी सभा में ऊंचे सिंहासन पर अपनी पत्नी सची देवी के साथ बैठे थे तभी गुरु बृहस्पति वहां आ गए उन्हें देख इन्द्र ना तो खड़ा हुआ ना ही उनका कोई सम्मान किया,  यह देख बृहस्पति जी वहां से चुपचाप चल दिए कुछ देर बाद इंद्र को चेत हुआ, उन्होंने बृहस्पति को ढुड़ावाया पर वह कहीं नहीं मिले, इस पर इंद्र को बड़ा दुख हुआ इस बात का पता राक्षसों को लग गया उन्होंने देवताओं पर चढ़ाई कर दी और उन्हें भगा दिया | 

सब देवता ब्रह्मा जी की शरण में गए ब्रह्मा जी ने पहले तो उनसे बहुत बुरा भला कहा और फिर कहा जाओ शीघ्र ही त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप को अपना गुरु बनाओ, सभी देवता विश्वरूप के पास पहुंचे और उन्हें अपना पुरोहित बना लिया, विश्वरूप ने ब्रम्हविद्या के द्वारा देवताओं का स्वर्ग उन्हें दिला दिया |
इति सप्तमो अध्यायः
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( अथ अष्टमो अध्यायः )

नारायण कवच का उपदेश- विष्णु गायत्री में भगवान के तीन नाम प्रधान हैं-

नारायण विद्महे वासुदेवाय धीमहि तन्नो विष्णु प्रचोदयात ||

नारायण वासुदेव और विष्णु इन तीनों के तीन मंत्र ओम नमो नारायणाय अष्टाक्षक मंत्र, ओम नमो भगवते वासुदेवाय द्वादश अक्षर मंत्र , तीसरा ॐ विष्णवे नमः षडाक्षर मंत्र इन तीनों मंत्रों के एक-एक अक्षर का अपने अंगों में न्यास करें फिर अन्य नाम जो कवच में है उन नामों को अपने अंगों में रक्षा के लिए प्रतिष्ठित करें यह भगवान के नामों का बड़ा उत्तम कवच है |
इति अष्टमो अध्यायः

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( अथ नवमों अध्यायः )

विश्वरूप का वध वृत्रासुर द्वारा देवताओं की हार भगवान की प्रेरणा से देवताओं का दधीचि ऋषि के पास जाना- श्री शुकदेव जी बोले विश्वरूप के तीन सिर थे एक से देवताओं का सोम रसपान करते, दूसरे से सुरा पान करते, तीसरे से अन्न खाते थे | वे यज्ञ के समय उच्च स्वर से देवताओं को आहूति देते और चुपके से राक्षसों को भी आहुति देते क्योंकि उनकी माता राक्षस कुल की थी |.

जब इंद्र को इस बात का पता चला उन्होंने वज्र से विश्वरूप के तीनों सिर काट दिए जिससे उन्हें ब्रहम हत्या का दोष लगा | उसे उन्होंने चार हिस्सों में एक जल को दूसरा पृथ्वी को तीसरा वृक्षों को चौथा स्त्रियों को बांट दिया |

 जब  विश्वरूप के पिता को मालूम हुआ तो उन्होंने एक तामसिक यज्ञ किया है, इंद्र शत्रु तुम्हारी अभिवृद्धि हो और शीघ्र ही तुम अपने शत्रु को मार डालो यज्ञ के बाद अग्नि से एक भयंकर दैत्य पैदा हुआ उसका नाम था वृत्तासुर उसने त्रिलोकी को अपने वश में कर लिया, उससे घबराकर सब देवता भगवान की शरण में गए , भगवान बताये तुम दधीचि के पास जाओ और उनसे उनकी हड्डियों की याचना करो उसी से वज्र बनाकर वृत्त्तासुर से युद्ध करो, तब वह राक्षस मारा जाएगा |

इति नवमो अध्यायः

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[ षष्ठम स्कन्ध ]

( अथ दशमो अध्यायः )

देवताओं द्वारा दधीचि ऋषि की अस्थियों से वज्र निर्माण और वृत्तासुर की सेना पर आक्रमण- भगवान की ऐसी आज्ञा सुन देवता दधीचि ऋषि के पास पहुंचे और उनसे उनकी अस्थियों की याचना की, ऋषि ने भगवान की आज्ञा जान योगाग्नि से अपना शरीर दग्ध कर अपनी अस्थियां देवताओं को दे दी | देवताओं ने उससे अनेक शस्त्रों का निर्माण किया और वृत्रासुर पर टूट पड़े | 

शत्रुओं ने भी खूब बांण बरसाए पर वे देवताओं को छू भी नहीं सके तो राक्षस सेना तितर-बितर होने लगी तो वृत्रासुर अपने सैनिकों को कहने लगा सैनिकों जिसने संसार में जन्म लिया है अवश्यंभावी है कि वह मरेगा फिर ऐसा मौका क्यों खोते हो वीरगति को प्राप्त होकर स्वर्ग प्राप्त करोगे |
इति दशमो अध्यायः

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( अथ एकादशो अध्यायः )

 वृत्रासुर की वीर वाणी और भगवत प्राप्ति- बृत्रासुर ने देखा कि उसकी सेना रोकने पर भी नहीं रुक रही है, उसने अकेले ही देवसेना का मुकाबला किया एक हुंकार ऐसी लगाई जिससे सारी देवसेना भयभीत होकर गिर गई और उसे रौदनें लगा, इंद्र ने उसे रोका तो एरावत को गिरा दिया और स्वयं भगवान की प्रार्थना करने लगा-
अहं हरेतव पादेक मूल दासानुदासो भवितास्मि भूयः |
मनः स्मरेतासुपते र्गुणास्ते गृणीत वाक् कर्म करोतु कायः ||
 हे प्रभु आप मुझ पर ऐसी कृपा करें अनन्य भाव से आपके चरण कमलों के आश्रित सेवकों की सेवा करने का मुझे मौका अगले जन्म में प्राप्त हो , मेरा मन आपके मंगलमय गुणों का स्मरण करता रहे और मेरी वाणी उन्हीं का गान करे | शरीर आपकी सेवा में लग जाए |
इति एकादशो अध्यायः

( अथ द्वादशो अध्यायः )

वृत्रासुर का वध- वृत्रासुर बड़ा वीर है और भगवान का भक्त भी वह भगवान की प्रार्थना कर युद्ध में वीरगति को प्राप्त होना चाहता था ताकि वह भगवान को प्राप्त हो सके , युद्ध में उसने इंद्र को निशस्त्र कर दिया पर उसे मारा नहीं इंद्र वज्र उठाकर अपने शत्रु को मार डालो इन्द्र ने गदा उठाकर बृत्रासुर पर प्रहार किया और बृत्रासुर का वध कर दिया |
इति द्वादशो अध्यायः

( अथ त्रयोदशो अध्यायः )

इंद्र पर ब्रहम हत्या का आक्रमण- ब्रह्महत्या के भय से इंद्र वृत्रासुर को मारना नहीं चाहता था किंतु ऋषियों ने जब कहा कि इंद्र ब्रहम हत्या से मत डरो हम अश्वमेघ यज्ञ कराकर तुम्हें उससे मुक्त करा देंगे तब इंद्र ने वृत्रासुर को मारा था, जब ब्रह्महत्या इंद्र के सामने आई तो ऋषियों ने उसे अश्वमेघ यज्ञ के द्वारा मुक्त कराया |
इति त्रयोदशो अध्यायः

( अथ चतुर्दशो अध्यायः )

वृत्रासुर का पूर्व चरित्र- राजा परीक्षित बोले- भगवन बृत्रासुर तो बड़ा तामसिक था उसकी भगवान के चरणों में ऐसी बुद्धि कैसे हुई ? शुकदेव जी बोले मैं तुम्हें एक प्राचीन इतिहास सुनाता हूं सूरसेन देश में एक चक्रवर्ती सम्राट चित्रकेतु राज्य करते थे उनके एक करोड़ पत्नियां थी परंतु किसी के भी संतान नहीं थी एक बार अंगिरा ऋषि उनके यहां आए राजा ने उनकी पूजा की ऋषि ने राजा की कुशल पूछी तो चित्रकेतु ने कहा प्रभु आप त्रिकालग्य हैं सब जानते हैं, कि सब कुछ होते हुए भी मेरे कोई संतान नहीं है , कृपया आप मुझे संतान प्रदान करें | इस पर ऋषि त्वष्टा ने देवता का यजन करवाया जिससे उसकी छोटी रानी कृतद्युति को एक पुत्र की प्राप्ति हुई , जिसे सुनकर प्रजा में खुशी की लहर दौड़ गई | 

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रानियों को इससे ईर्ष्या हो गई और उन्होंने समय पाकर बालक को जहर दे दिया पालने में सोते हुए बालक को जब दासी ने देखा वह जोर-जोर रोने लगी उसने उसके रोने की आवाज सुनी कृतद्युति वहां आई और जब देखा कि पुत्र मर गया तो रोने लगी, जब राजा को मालूम हुआ वह भी रोने लगा | तब अंगिरा ऋषि नारद जी के साथ वहां आए |
इति चतुर्दशो अध्यायः

( अथ पंचदशो अध्यायः )

चित्रकेतु को अंगिरा और नारद जी का उपदेश- राजा चित्रकेतु को यों विलाप करते देख दोनों ऋषि उन्हें समझाने लगे राजन इस संसार में जो आता है वह जाता भी अवश्य है, फिर किसी जीव के साथ हमारा कोई संबंध नहीं है, किसी जन्म में कोई बाप बन जाता है कोई बेटा, दूसरे जन्म में वही बेटा बाप और बाप बेटा बन जाता है |इसीलिए शोक छोड़ कर मैं जो मंत्र देता हूं उसे सुनो इससे सात रात में तुम्हें संकर्षण देव के दर्शन होंगे उनके दर्शन से तुम्हें परम पद प्राप्त होगा |
इति पंचदशो अध्यायः

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( अथ शोडषो अध्यायः )

चित्रकेतु को वैराग्य और संकर्षण देव के दर्शन- शुकदेव बोले राजन ! तदन्तर नारद जी ने मृत शरीर में उस जीव को बुलाया और कहा जीवात्मन देखो तुम्हारे लिए यह तुम्हारे माता-पिता दुखी हो रहे हैं, तुम इस शरीर में रहो और उन्हें सुख पहुंचाओ और तुम भी राजा बनकर सुख भोगो | इस पर जीव बोलने लगा--
कस्मिन् जन्मन्यमी मह्यम पितरं मातरोभवन् |
कर्मभि भ्राम्यमाणस्य देवतिर्यन्नृयोनिषु ||
जीव बोला देवर्षि मैं अपने कर्मों के अनुसार देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि योनियों में भटकता रहा हूं यह मेरे किस जन्म के माता-पिता है प्रत्येक जन्मों में रिश्ते बदलते रहते हैं  | ऐसा कह कर चला गया चित्रकेतु को ज्ञान हो गया वह नारद जी के दिए हुए मंत्र का जप करने लगा उसे संकर्षण देव के दर्शन हुए राजा ने उनकी स्तुति की | भगवान बोले-- राजन् नारद जी के इस ज्ञान को हमेशा धारण करें कल्याण होगा |
इति शोडषो अध्यायः

( अथ सप्तदशो अध्यायः )

चित्रकेतु को पार्वती का श्राप- भगवान संकर्षण से अमित शक्ति प्राप्त कर चित्रकेतु आकाश मार्ग में स्वच्छंद विचरण करने लगा , एक दिन वह कैलाश पर्वत पर गया जहां बड़े-बड़े सिद्ध चारणों की सभा में शिवजी पार्वती को गोद में लेकर बैठे थे उन्हें देख चित्रकेतु जोर जोर से हंसने लगा और बोला अहो यह सारे जगत के धर्म शिक्षक भरी सभा में पत्नी को गोद में लेकर बैठे हैं | यह सुन शिवजी तो हंस दिए किंतु पार्वती से यह सहन नहीं हुआ और क्रोध कर बोली रे दुष्ट जा असुर हो जा , चित्रकेतु नें दोनों से क्षमा याचना की और आकाश मार्ग से चला गया |
इति सप्तदशो अध्यायः

( अथ अष्टादशो अध्यायः )

अदिति और दिति की संतानों की तथा मरुद्गणों की उत्पत्ति का वर्णन-- श्री शुकदेव जी बोले राजन दिति के दोनों पुत्र हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यपु को भगवान की सहायता से इंद्र ने मरवा दिए तो अतिदि को इंद्र पर बड़ा क्रोध आया और उसे मरवाने की सोचने लगी, उसने सेवा कर कश्यप जी को प्रसन्न किया और उनसे इंद्र को मारने वाला पुत्र मांगा इस पर कश्यप जी ने उन्हें एक व्रत बताया जिसका नाम है पुंसवन व्रत उसके कुछ कठिन नियमों के साथ संध्या के समय जूठे मुंह बिना आचमन किए बिना पैर धोए ना सोना आदि नियम बताए | 

दिति उसको करने लगी इंद्र को इसका आभास हो गया था वेश बदलकर ब्रह्मचारी का रूप बना दिति की सेवा करने लगा और यह मौका देखने लगा कि कब उसका नियम खंडित हो | एक दिन उसको यह मौका मिल गया दिति संध्या के समय बिना आचमन किये बिना पैरों को धुले सो गई | 

यह देख इन्द्र उसके अंदर गर्भ मे प्रवेश किया और दिति के गर्भ के सात टुकड़े कर दिए तो अलग-अलग जीवित होकर रोने लगे, इस पर इन्द्र सात के सात-सात टुकड़े कर दिए, वह उनच्चास जीवित होकर इंद्र से बोले इंद्र हमें मत मारो हम देवता हैं, इंद्र बड़ा प्रसन्न हुआ अपने भाइयों को साथ ले दिति के गर्भ से बाहर आ गया, दिति ने देखा इंद्र के साथ उनच्चास पुत्र खड़े हैं और पेट में कोई बालक नहीं है | उसे बड़ा आश्चर्य हुआ और इंद्र से बोली बेटा सच सच बताओ यह क्या रहस्य है ? इन्द्र ने सब कुछ सही सही बता दिया और कहा माता अब ये सब देवता हो गए , दिति ने भगवान की इच्छा समझ उनको विदा कर दिया |
इति अष्टादशो अध्यायः

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( अथ एकोनविंशो अध्यायः )

पुंसवन ब्रत की विधि- श्री शुकदेव जी बोले हे राजन पुंसवन व्रत मार्गशीर्ष शुक्ला प्रतिपदा से प्रारंभ होता है , पहले पति की आज्ञा ले मरुद्गणों की कथा सुने फिर ब्राह्मणों की आज्ञा ले व्रत प्रारंभ करें स्नानादि कर लक्ष्मी नारायण की पूजा करें और निम्न मंत्र का जप करें--

ॐ नमो भगवते महापुरुषाय महानुभावाय महाविभूति पतये सहमहाविभूतिभिर्बलि मुपहराणि ||

संध्या के समय इस मंत्र से हवन करे इससे सब प्रकार की सिद्धि प्राप्त होती है |
इति एकोनविंशो अध्यायः
इति षष्ठः स्कन्धः समाप्त



अथ सप्तमः स्कन्ध प्रारम्भ

( अथ प्रथमो अध्यायः )

नारद युधिष्ठिर संवाद और जय विजय की कथा-- परीक्षित बोले- भगवन भगवान की दृष्टि में तो सारा संसार एक है, फिर भी लगता है कि वे देवताओं का पक्ष लेते हैं और राक्षसों को दबाते हैं ऐसा क्यों ? शुकदेव जी बोले राजन यही प्रश्न युधिष्ठिर ने नारदजी से किया था शिशुपाल राक्षस भगवान को गाली देने वाला अंत में भगवान में कैसे लीन हो गया | इस पर नारद जी ने कहा जो उसे तुम ध्यान से सुनो नारद जी बोले भगवान को चाहे कोई भक्ति से याद करें या फिर बैर से भगवान तो सबका उद्धार ही करते हैं |  

फिर शिशुपाल तो भगवान के पार्षद थे, सनकादिक के श्राप से ये राक्षस हुए थे इस पर परीक्षित ने इस कथा को विस्तार से सुनाने की प्रार्थना की तो शुकदेवजी सुनाने लगे | एक समय सनकादि ऋषि बैकुंठ गए उन्हें जय विजय ने रोक दिया जिससे नाराज होकर उन्हें श्राप दिया कि जाओ तुम असुर हो जाओ | जय विजय पहले जन्म में हिरण्याक्ष,हिरण्यकशिपु दूसरे में रावण कुंभकर्ण और तीसरे जन्म में दन्त्रवक्र और शिशुपाल हुए |
इति प्रथमो अध्यायः

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( अथ द्वितीयो अध्यायः )

हिरण्याक्ष के बध पर हिरण्यकश्यपु का अपनी माता को समझाना-- श्री शुकदेव जी बोले परीक्षित ! हिरण्याक्ष को जब भगवान ने मार दिया तब उसकी माता दिति रोने लगी तो उसे सांत्वना देते हुए हिरण्यकशिपु बोला माता मैं मेरे भाई के शत्रु को अवश्य मारूंगा, आप शोक ना करें क्योंकि संसार में जो आता है वह अवश्य जाता है | अनेक उदाहरण देकर उन सब को शांत किया |
इति द्वितीयो अध्यायः

( अथ तृतीयो अध्यायः )

हिरण्यकशिपु की तपस्या और वर प्राप्ति- अपने  भाई के शत्रु पर विजय पाने के लिए हिरण्यकशिपु ने वन में जाकर ब्रह्मा जी की घोर तपस्या की उसके शरीर के मांस को चीटियां चाट गई मात्र हड्डियों के ढांचे में प्राण थे उसकी तपस्या से त्रिलोकी जलने लगी, इंद्रादि देवता भयभीत हो ब्रह्मा जी की शरण में गए और कहा प्रभु हिरण्यकशिपु की तपस्या से हम जल रहे हैं |

 ब्रह्मा जी ने हंस पर सवार होकर हिरण्यकशिपु को दर्शन दिए और उसके शरीर पर जल छिड़क कर उसे हष्ट पुष्ट कर दिया और उससे वर मांगने को कहा हिरण्यकशिपु ने ब्रह्मा जी की स्तुति की और कहा प्रभु यदि आप वरदान देना चाहते हैं तो आप की सृष्टि का कोई जीव मुझे ना मारे, भीतर बाहर, दिन में रात्रि में किसी अस्त्र-शस्त्र से पृथ्वी आकाश में मेरी मृत्यु ना हो |
इति तृतीयो अध्यायः

( अथ चतुर्थो अध्यायः )

हिरण्यकशिपु के अत्याचार और प्रहलाद के गुणों का वर्णन- ब्रह्माजी बोले पुत्र हिरण्यकशिपु यद्यपि तुम्हारे वरदान बहुत दुर्लभ है तो भी तुम्हें दिए देता हूं | वरदान देकर ब्रह्माजी अंतर्धान हो गए और हिरण्यकशिपु अपने घर आ गया और अपनी शक्ति से समस्त देवता और दिगपालों को जीत लिया, यज्ञो में देवताओं को दी जाने वाली आहुतियां छीन लेता था , शास्त्रीय मर्यादाओं का उल्लंघन करता था, उससे घबराकर सब देवताओं ने भगवान से प्रार्थना की भगवान ने आकाशवाणी की देवताओं निर्भय हो जाओ मैं इसे मिटा दूंगा समय की प्रतीक्षा करो | हिरण्यकशिपु के चार पुत्र थे उनमें प्रहलाद जी सबसे छोटे ब्राह्मणों और संतों के बड़े भक्त थे अतः हिरण्यकशिपु शत्रुता रखने लगा |
इति चतुर्थो अध्यायः

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( अथ पंचमो अध्यायः )

हिरण्यकशिपु के द्वारा प्रहलाद जी के वध का प्रयत्न-- प्रहलाद जी दैत्य गुरु शुक्राचार्य के आश्रम में पढ़ते थे एक बार हिरण्यकशिपु अपने पुत्र प्रह्लाद को गोद में लेकर पूछने लगा तुम्हें कौन सी बात अच्छी लगती है |
त्साधु मन्येसुरवर्य देहिनां सदासमुद्विग्न धियामसद्ग्रहात् |
हित्वात्मपातं गृहमन्धकूपं वनं गतो यद्धरि माश्रयेत ||
प्रहलाद जी बोले- पिता जी संसार के प्राणी मैं और मेरे मन के झूठे आग्रह में पडकर सदा ही अत्यंत उद्विग्न रहते हैं , ऐसे प्राणी के लिए मैं यही ठीक समझता हूं कि वे अपने अद्यः पतन के मूल कारण घास से ढके हुए अधेंरे कुएं के समान इस घर गृहस्ती को छोड़कर वन में चला जाए और भगवान श्री हरि की शरण ग्रहण करे |
प्रहलाद जी की ऐसी बातें सुनकर हिरण्यकशिपु जोर से हंसा और कहा गुरुकुल में कोई मेरे शत्रु का पक्षपाती रहता दिखता है | शुक्राचार्य जी से कहा इसका पूरा ध्यान रखा जाए गुरुकुल में प्रहलाद जी को समझाया जाबे और कुछ दिन बाद हिरण्यकशिपु ने फिर प्रहलाद जी से पूछा तो प्रह्लाद जी ने कहा--
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् |
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ||
पिताजी भगवान की कथाओं को श्रवण करना, उनके नाम का कीर्तन करना, हृदय में उनका स्मरण करना, उनके चरणों की सेवा करना, उनकी अर्चना, उनकी वंदना, दास्य और सखा भाव से पूजा करना और अंत में पूर्ण रूप रूप समर्पण हो जाना यह नव प्रकार की भक्ति की  जाए, यह सुन हिरण्यकशिपु क्रोध से आग बबूला हो गया और प्रहलाद को गोद से उठाकर जमीन पर पटक दिया और कहा ले जाओ इसे मार डालो | शण्डामर्क उसे पुनः आश्रम ले गए और शक्ति के साथ उसे समझाने लगे|
इति पंचमो अध्यायः

( अथ षष्ठो अध्यायः )

प्रहलाद जी का असुर बालकों को उपदेश- प्रहलाद जी को आश्रम में लाकर संडा मर्क उन्हें पढ़ाने लगे , एक दिन शण्डामर्क के कहीं चले जाने पर प्रहलाद जी दैत्य बालकों को पढ़ाने लगे |
पढ़ो रे भाई राम मुकुंद मुरारी
चरण कमल मुख सम्मुख राखो कबहु ना आवे हारी
कहे प्रहलाद सुनो रे बालक लीजिए जन्म सुधारी
को है हिरण्यकशिपु अभिमानी तुमहिं सके जो मारी
जनि डरपो जडमति काहू सो भक्ति करो इस सारी
राखनहार तो है कोई और श्याम धरे भुजचारी
सूरदास प्रभु सब में व्यापक ज्यों धरणि में वारी |
प्रहलाद जी की शिक्षा सुन दैत्य बालक उनसे बोले प्रहलाद जी हम लोगों ने गुरु पुत्रों के अलावा किसी दूसरे गुरु को नहीं देखा फिर यह सब बातें आप कहां पढे हैं ? हमने तो आपको अन्यत्र कहीं जाते हुए भी नहीं देखा, ना कहीं पढ़ते ! कृपया हमारा संदेह दूर करें |
इति षष्ठो अध्यायः

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( अथ सप्तमो अध्यायः )

प्रहलाद जी द्वारा माता के गर्भ में प्राप्त हुए नारद जी के उपदेश का वर्णन- शुकदेव बोले राजन दैत्य बालकों  के इस प्रकार पूंछने पर पहलाद जी बोले- मेरे पिताजी जिस समय तपस्या करने गए थे तब मौका देख इंद्र ने दैत्यों पर चढ़ाई कर दी और सब राक्षसों को मार कर भगा दिया साथ ही मेरी माता को बंदी बना लिया | जब इंद्र उसे पकड़ कर ले जा रहा था वह विलाप कर रही थी, रास्ते में नारद जी उसे मिले इंद्र से बोले महाभाग इसे कहां ले जा रहे हो यह निरपराध है इसे छोड़ दो , इंद्र बोला इसके गर्भ में देवताओं का शत्रु है इसके जन्म के बाद बालक को मार देंगे और इसे छोड़ देंगे , इस पर नारद जी बोले इसके गर्भ में परमात्मा का भक्त है इसे श्री तत्काल छोड़ दो इस पर इंद्र ने उसे छोड़ दिया नारद जी उसे अपने आश्रम मे ले गए और जब तक वहां रही जब तक मेरे पिता तपस्या कर नहीं आ गए ,नारद जी ने उन्हें भागवत धर्म की शिक्षा दी जिसे मैंने गर्भ में ही सुना , वही ज्ञान मैंने तुम्हें सुनाया है |
इति सप्तमो अध्यायः

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( पंचम स्कन्ध )( अथ अष्टमो अध्यायः )

नरसिंह भगवान का प्रादुर्भाव हिरण्यकश्यप का वध ब्रह्मादिक देवताओं द्वारा भगवान की स्तुति- प्रहलाद जी की बात सुन सब दैत्य बालक भगवान के भक्त बन गए और गुरु जी की शिक्षा का सब ने बहिष्कार कर दिया तब तो गुरु पुत्र घबराए और जाकर हिरण्यकशिपु को सब कुछ बता दिया , हिरण्य कश्यप ने प्रहलाद जी को मरवाने के अनेक उपाय किए हाथी के पैरों से कुचल वाया पहाड़ से गिराया काले सांपों से डसवाया अग्नि में जलाया किंतु प्रहलादजी को कुछ भी नहीं हुआ अन्त में हाथ में तलवार ले कहने लगा मूर्ख अब बता तेरा राम कहाँ है प्रह्लादजी बोले मेरा राम आप में मेरे में आपकी तलवार में सर्वत्र है। हिरण्य कशिपु बोले क्या इस खंभे मे तेरा राम है तो प्रह्लादजी ने कहा अवश्य है इस पर दैत्य ने खंभे पर जोर से प्रहार किया तो एक भयंकर शब्द हुआ खंभे को फाड़कर नृसिंह भगवान प्रकट हो गए आधा शरीर सिंह का आधा मानव का हिरण्य कशिपु को पकड़ लिया महल के द्वार पर बैठकर उसे अपने पैरों पर लिटा लिया और कहने लगे बोल मैं श्रृष्टि का जीव हूँ मेरे पास कोई अस्त्र-शस्त्र है दिन है अथवा रात तुम आकाश में हो या धरती पर हिरण्य कशिपु ने भगवान को आत्म समर्पण कर दिया उसके पेट को फाड़कर उसे समाप्त कर दिया किन्तु भगवान का क्रोध शान्त नहीं हुआ क्रोध शान्त करने के लिए उनके सामने जाने की किसी की हिम्मत नही हो रही थी ब्रह्मादिक देवताओं ने उनकी दूर से ही प्रार्थना की।
इति अष्टमोऽध्यायः

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[ अथ नवमोऽध्यायः ]

ब्रह्मादिक देवता ओं ने देखाकि भगवान का क्रोध शान्त करने के लिए उनके पास जाने की कोई हिम्मत नहीं कर रहा है तब उन्होंने प्रह्लादजी को भगवान के पास भेजा वे सहज गति से गये और जाकर भगवान की गोद में बैठ गये भगवान अपनी जीभ से चाट ने लगे और बोले
वासनी से बांधि के अगाध नीर बोरि राखे
तीर तरवारनसों मारि मारि हारे है
गिरि ते गिराय दीनो डरपे न नेक आप
मद मतवारे भारे हाथी लार डारे हैं।
फेरे सिर आरे और अग्नि माहि डारे
पीछे मीड गातन लगाये नाग कारे हैं।
भावते के प्रेम मेमगन कछु जाने नाहि
ऐसे प्रहलाद पूरे प्रेम मतवारे है।
(2) बोले प्रभु प्यारे प्रिय कोमल तिहारे अंग
असुरनने मार्योमम नाम एक गाने में।
गिरि ते गिरायो पुनि जलमे डुबायो हाय
अग्नि में जलायो कमी राखि ना सताने में।
उरसे लगाय लिपटाय कहे बार बार
करुणा स्वरुप लगे करुणा दिखाने में।
मंजुल मुखारविन्द चूमि चूमि कहे प्रभो
क्षमा करो पुत्र मोहि देर भइ आने में।
भगवान देर से आने के लिए अपने भक्त से क्षमा मांग रहे हैं। प्रहलादजी भगवान की स्तुति करते हैं
प्रतद् यच्छ मन्युमसुरश्च हतस्त्वयाद्य
मोदेत साधुरपि वृश्चिक सर्प हत्या।।
लोकाश्च निर्वृतिमिताः प्रतियन्ति सर्वे
रूपं नृसिंह विभयाय जनाः स्मरन्ति।।
जिस दैत्य को मारने के लिए आपने क्रोध किया था वह मर चुका है। अब भक्त जन आपके शान्त स्वरुप का दर्शन करना चाहते है अत: क्रोध का शान्त करें भक्तजन भय नाश के लिये आपके इस स्वरुप का स्मर्ण करेग भगवान बोले प्रहलाद तुम्हारा कल्याण हो मैं तुम्हारे उपर बहत प्रसन्न हू अतः तुम जो चाहो वरदान माँग लो।
इति नवमोऽध्यायः

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[ अथ दशमोऽध्यायः ]

प्रहलादजी के राज्याभिषेक और त्रिपुरदहन की कथा-
यदि रासीश मे कामान् वरांस्त्वं वरदर्षभ।
कामानां हृद्यसंरोहं भवतस्तु वृणे वरम् ।।
प्रहलादजी बोले यदि आप मुझे वर देना चाहते हैं तो यह दीजिए कि मेरे हृदय में कामना का कोई बीज न रहे। भगवान बोले भक्त प्रहलाद तुम्हारा कल्याण हो तुम मेरे प्रिय भक्त हो अभी संसार के ऐश्वर्य भोग कर तुम मेरे लोक को आवोगे। प्रहलादजी बोले मुझे एक वरदान और दीजिए
वरं वरय एतत् ते वरदेषान्महेश्वर
यदनिन्दत् पितामे त्वामविद्वां स्तेज ऐश्वरं।।
विद्धामर्षाशय: साक्षात् सर्वलोक गुरुं प्रभुम्
भ्रातृ हेति मृषादृष्टिस्त्वद्भक्ते मयिचाघवान्।।
तस्मात् पिता मे पूयेत दुरन्ताद् दुस्तरादधात्
पूतस्तेषांगसंदृष्टस्तदा कृपण वत्सल।।।
मेरे पिता ने आपकी बड़ी निन्दा की है उसे क्षमा कर दें एवमस्तु कह कर भगवान ने प्रहलादजी को अपने पिता की अंतेष्ठि की आज्ञा दी ओर प्रहलादजी ने पिता का अंतिम संस्कार किया प्रहलादजी को सुतल लोक का राज्य देकर भगवान अंतर ध्यान हो गए। नारदजी से युधिष्ठिरजी ने प्रश्न किया प्रभो भगवान शिव ने कैसे त्रिपुर दहन किया बतावें इस पर नारदजी बोले राजन् एक समय सब राक्षस स्वर्ग की कामना से मय दानव की शरण में गए मय ने उन्हें तीन विमान बनाकर दिए विमान क्या तीन पुर ही थे सब राक्षस उन में बैठ आकाश से अस्त्र शस्त्रों की वर्षा करने लगे घबरा कर देवता भगवान शिव की शरण गए शिवजी ने तान बाण छोड़कर तीनो पुरों का संहार कर दिया मयदानव ने सब राक्षसों को अमृत कुंड में लाकर डाल दिए और सबको जीवित कर दिया शिवजी उदास हए और भगवान नारायण को याद किया भगवान गाय का रूप धारा कर सब अमृत को पी गए और सारे राक्षस मारे गए।

 

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इति दशमोऽध्यायः


( श्री राम देशिक प्रशिक्षण केंद्र )

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[ अथ एकादशोऽध्यायः ]

मानवधर्म वर्णधर्म और स्त्रीधर्म का निरूपण-नारदजी बोले राजन् धर्म के तीस लक्षण बताये गए हैं सत्य दया तपस्या शौच तितिक्षा उचित विचार संयम अहिंसा ब्रह्मचर्य त्याग स्वाध्याय सरलता संतोष संत सेवा इत्यादि ये सब मानव धर्म हैं। पढ़ना-पढ़ाना यज्ञ करना कराना दान लेना दान देना ये छ: कर्म ब्राह्मण के हैं क्षत्रिय का धर्म है रक्षा करना कृषि गो रक्षा व्यवसाय ये वैश्य का धर्म है सब की सेवा करना शूद्र का धर्म हैं। पति की सेवा करना उसके अनुकूल रहना यह स्त्री धर्म है।
इति एकादशोऽध्यायः

[ अथ द्वादशोऽध्यायः ]

ब्रह्मचर्य और वानप्रस्थ आश्रमों के नियम-ब्रह्मचारी गुरु कुल में निवास कर इन्द्रियों का संयम करे गुरु की आज्ञा में रहे त्रिकाल संध्या करें भिक्षा से जीवन यापन करें। गृहस्थ धर्म के बाद पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुक्त होने पर वानप्रस्थ लेना चाहिए घर से दूर किसी पवित्र स्थान में रहकर सलोन वृत्ति से जीवन यापन करते हुए भगवान का भजन करें।
इति द्वादशोऽध्यायः

[ अथ त्रयोदशोऽध्यायः ]

यतिधर्म का निरुपण और अवधूत प्रहलाद संवाद-अपेक्षा न रखकर पृथ्वी पर विचरण करे एक कोपीन लगावे दण्ड आदि धर्म चिह्नों के अलावा कोई वस्तु न रखें यही सन्यास धर्म है इस संदर्भ में एक दत्तात्रेय और प्रह्लादजी का आख्यान है। एक समय प्रहलादजी कही भ्रमण कर रहे थे रास्ते में उन्हें धरती पर पड़ा एक अवधूत मिला जिसके शरीर पर केवल एक कोपीन थी न बिस्तर न तकिया प्रहलादजी ने उन्हें प्रणाम किया और उनसे उनका परिचय जानना चाहा दत्तात्रेय बोले जब भूमि सोने के लिए है हाथ का सिराना है कोई दे देता है तो खा लेता हूँ। वर्ना आनंद से भजन करता हूँ यहि संन्यास धर्म है।
इति त्रयोदशोऽध्यायः

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[ अथ चतुर्दशोऽध्यायः ]

ग्रहस्थ धर्म संबंधी सदाचार-
इति चतुर्दशोऽध्यायः

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[ अथ पंचदशोऽध्यायः ]

गृहस्थों के लिए मोक्ष धर्म का वर्णन-
इति पंचदशोऽध्यायः
इति सप्तम स्कन्ध समाप्त


अथ अष्टम स्कन्धः प्रारम्भ

[ अथ प्रथमोऽध्यायः ]

मनवन्तरों का वर्णन-
इति प्रथमोऽध्यायः

[ अथ द्वितीयोऽध्यायः ]

ग्राह के द्वारा गजेन्द्र का पकडा जाना-
इति द्वितीयोऽध्यायः

[ अथ तृतीयोऽध्यायः ]

गजेन्द्र द्वारा भगवान की स्तुति और उसका संकट से मुक्ति
नमो भगवते तस्मै यत एत चिदात्मकम्।
पुरुषयादि बीजाय परेशायाभि धीमहि।।
यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयं।
योअस्मात परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयंभुवं ।।
गजेन्द्र बोले जो प्रकृति के मूल कारण हैं और सबके हृदय मे पुरुष रूप में विराजमान हैं एवं समस्त जगत के एक मात्र स्वामी हैं जिनके कारण इस संसार मे चेतना का विस्तार होता है मैं उन भगवान को नमस्कार करता हूँ और उनका ध्यान करता हूँ यह संसार उन्हीं में स्थित है उन्ही की सत्ता से प्रकाशित हो रहा हैं वे ही उसमें व्याप्त हो रहे हैं और स्वयं हि उसके रूप में प्रकट हो रहे है ये सब होने पर भी वे संसार ओर उसका मूल प्रकृति से परे हैं उन स्वयं प्रकाश स्वयं सिद्ध सत्तात्मक भगवान की मै शरण ग्रहण करता गजेन्द्र की स्तुति सुन और उसे संकट में देख भगवान गरुड़ पर सवार होकर वहां चल दिए जब गजेन्द्र ने देखा आकाश से भगवान आ रहे है उसने एक पुष्प लिया और सूंड से उसे भगवान को अर्पित किया यह देख भगवान गरुड को छोड दौड़ पड़े सुदर्शन चक्र से ग्राह का मस्तक अलग कर दिया और गज को पकड़ बाहर खेंच लिया।
इति तृतीयोऽध्यायः

[ अथ चतुर्थोऽध्यायः ]

गज और ग्राह का पूर्व चरित्र तथा उनका उद्धार-गज भी राजा इन्द्र द्म्न थे अगस्त्य ऋषि को देख खड़े नही हुए अत: उनके शाप से हाथी बनगएथे दोनो भगवान को प्रणाम कर अपने लोक को चले गए
इति चतुर्थोऽध्यायः


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[ अथ पंचमोऽध्यायः ]

देवताओं का ब्रह्माजी के पास जाना और ब्रह्मा कृत भगवान की स्तुति-परीक्षित बोले प्रभो देवताओं ने समुद्र मंथन कैसे किया यह सुनावें।श्रीशुकदेवजी बोले एक समय इन्द्र एरावत पर बैठ कर कही जा रहे थे रास्ते मे दुर्वासा जी का आश्रम था उधर से इन्द्र को जाते देख ऋषि ने उन्हें एक माला पहना दी इन्द्र ने माला का सम्मान न करते हुए उसे ऐरावत को पहना दी उसने उतार कर पैरों से कुचल दी यह देख दुर्वासा ने इन्द्र को शाप दिया तू श्री हीन हो जा यह देख राक्षससों ने इन्द्र पर चढाई कर दी और स्वर्ग छीन लिया देवता इधर उधर घूमने लगे सब मिल ब्रह्माजी के पास गए ब्रह्माजी उनके साथ भगवान की प्रार्थना की।
इति पंचमोऽध्यायः

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[ अथ षष्ठोऽध्यायः ]

देवताओं और देत्यों का समुद्र मंथन का उद्योग-शुकदेवजी बोले राजन् ब्रह्माजी की प्रार्थना सुन भगवान वही प्रकट होगए और बोले
अरयोअपि हि सन्धेया: सति कार्यार्थ गौरवे।
अहिमूषक वद् देवा ह्यर्थस्य पदवीं गतेः।।
देवताओं अभी काल तुम्हारे अनुकूल नहीं है। समय की प्रतिक्षा करो जैसे-चूहा और सर्प ने संधी की थी एसे असुरों से संधी कर लो और मिल कर समुद्र मंथन कर अमृत प्राप्त करो भगवान ऐसा कह कर अंतर्ध्यान हो गए ओर इन्द्र स्वर्ग में बलि के पास गए और संधी का प्रस्ताव रखा और समुद्र मंथन की बात कहीं जिसे बलि ने स्वीकार कर लिया समुद्र मंथन की तैयारी होने लगी दैत्य देवता मिलकर पहले मदराचल पर्वत उठाने गए तो वह इतना भारी था कि उनमें से कई अंग भंग हो गए किंतु उसे उठा नही पाए तब भगवान ने लीला पूर्वक उठा कर उसे गरुड़ पर रख लिया और समुद्र के पास लाकर उतार दिया।
इति षष्ठोऽध्यायः

[ अथ सप्तमोऽध्यायः ]

समुद्र मंथन का आरंभ और भगवान शंकर का विषपानश्रीशुकदेवजी बोले-मदराचल पर्वत को लेकर जब उसे समुद्र में छोड़ा वह डूबने लगा भगवान ने कच्छप अवतार लेकर उसे धारण किया वासुकी नाग का नेता बनाया गया समुद्र मंथन प्रारंभ हुआ।
निर्मथ्य मानादु दधेर भूद्विषं।
महोल्वणंहाल हलाहलमग्रतः।।
सम्भ्रान्त मीनोन्मकराहिकच्छपात्।
तिमिद्विपग्राह तिमिगिला कुलात्।।
सर्व प्रथम उससे हलाहल जहर निकला जो संसार को जलाने लगा प्रजा पतियों ने भगवान शिव की स्तुति की शिवजी ने भगवान को स्मर्ण कर समस्त जहर के तीन आचमन कर गए सब की पीडा मिट गई।
इति सप्तमोऽध्याय:

[ अथ अष्टमोऽध्यायः ]

समुद्र से अमृत प्रकट होना और भगवान का मोहिनि अवतार ग्रहण करना-
रंजयंती दिश: कान्त्या विद्युत् सौदामनी यथा।।
पश्चात् साक्षात् श्री महालक्ष्मी प्रकट हुई दिशायें बिजली की तरह चमक उठी इन्द्र ने उन्हे स्वर्ण सिंहासन पर विराजमान किया स्वर्ण कलशों से उनका अभिषेक किया उन्होने एक माला ली और चारों ओर देखकर भगवान के गले मे डाल दी पश्चात् वारुणी देवी निकली जिसे देख राक्षस मोहित होगए वह उन्हे देदी गइ उसके पश्चात श्रीधन्वन्तरि अमृत कलश लेकर निकले जिसे देख कर राक्षस उनके हाथ से अमृत कलश छीन कर ले भगे।
इति अष्टमोऽध्यायः

[ अथ नवमोऽध्यायः ]

मोहनी रूप से भगवान के द्वारा अमृत बाँटना
इति नवमो अध्यायः

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[ अथ दशमोऽध्यायः ]

देवासुर संग्राम-श्रीशुकदेवजी बोले-परीक्षित्! सांपों को दूध पिलाने से कोई लाभ नही ऐसा विचार भगवान ने राक्षसों को अमृत नहीं दिया भगवान से विमुख कोई अलभ्य वस्तु प्राप्त कर भी कैसे सकता हैं। देवताओं को अमृत पिलाकर भगवान अन्तर्ध्यान हो गए। जब राक्षसों ने देखा कि उनके साथ धोखा हुआ है उन्होने अपने शस्त्र उठा लिए और देवताओं पर टूट पडे भयंकर देवासुर संग्राम होने लगा देवताओं ने एक तो अमृत पी लिया था दूसरे भगवान की कृपा प्राप्त थी राक्षसों का संहार करने लगे भगवान स्वयं इस युद्ध में राक्षसों को मारने लगे।
इति दशमोऽध्यायः

[ अथ एकादशोऽध्यायः ]

देवासुर संग्राम की समाप्ति-देवासुर संगाम मे कभी देवता विजयी होते थे तो कभी राक्षस दोनों और से ही माया का सहारा ले रहे थे जब राक्षसों का अत्याधिक संहार होने लगा तो वहां नारदजी आए और बोले भगवान द्वारा रक्षित देवताओं अब इन राक्षसों को मत मारो और युद्ध बन्द कर दो नारदजी के कहने से दोनों और से युद्व बन्द हो गया।
इति एकादशोऽध्यायः

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[ अथ द्वादशोऽध्यायः ]

मोहिनी रूप को देख कर महादेवजी का मोहित होना-एक समय महादेवजी ने जब यह सुना कि भगवान ने मोहिनी रूप धारण कर देवताओं को अमृत पिला दिया तो उस रूप के दर्शन करने की इच्छा सेले क्षीर सागर पहंचे भगवान ने उनका स्वागत किया और अंत मे महादेवजी ने अपना अभिप्राय भगवान के सामने प्रकट किया भगवान बोले वह रूप तो कामी पुरुषों के लिए है फिर भी कभी दिखाउगाँ कह उन्हें विदा किया जब वे वहां से लौट रहे थे रास्ते मे एक सुन्दर उपवन दिखाई पड़ा वह अत्यन्त रमणीय था वहां एक सुन्दर स्त्री अपने हाथ की गेंद उछाल कर खेल रही थी उसके झीने वस्त्र हवा के झोकों से उड़-उड़ जा रहे थे। महादेवजी उसके पीछे दौड़ पडे वे भूल गए कि मेरे साथ मेरा परिवार भी है आगे आगे वह स्त्री पीछे-पीछे महादेवजी कभी दूर तो कभी दो अंगुल की दूरी पर रह जाय पर उसे पकड नही पाए काफी प्रयत्न के बाद आखिर उसे पकड लिया इतने में भगवान अपने असली रूप में आ गए शिवजी बहत लज्जित हए और भगवान के चरण पकड लिए भगवान ने उठाकर हृदय से लगा लिया।
इति द्वादशोऽध्यायः

[ अथ त्रयोदशोऽध्यायः ]

आगामी सात मन्वन्तरों का वर्णन श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित! अब तक हम छ: मनुओं का वर्णन कर चुके हैं अब सातवें मनु का सुनो इनका नाम है श्राद्वदेव ये विवश्वान-सूर्य-के पुत्र थे श्राद्धदेव के दस पुत्र इक्ष्वाकु आदि थे इन्द्र हुए पुरन्दर सप्तऋषि हुए विश्वामित्र जमदग्नि भारद्वाज गौतम अत्रिी वशिष्ठ और कश्यप इस मनवन्तर मे कश्यपजी की पत्नि अदिति से भगवान वामन का अवतार हुआ वर्तमान मे इनका कार्य काल चल रहा है। अब आगे आने वाले सात मनुओं के बारे मे सुनो आठवें मनु होगें सावर्णि उनके पुत्र होगें निर्भोक आदि इन्द्र बनेगें वैरोचन पुत्र बलि वामन भगवान ने इनसे तीन पैर पृथ्वी मागी थी इस मन्वन्तर के सप्त ऋषि होगे गालव दीप्तिमान आदि। नवें मनु होगें दक्षसावर्णि अद्भुत नामके इन्द्र होगें। दसवें मनु होगें ब्रह्मसावर्णि हविश्मान आदि सप्तऋषि होगें इन्द्र का नाम होगा शम्भु ग्यारहवें मनु होगें धर्मसावर्णि इनके पुत्र होगें सत्य धर्म आदि अरुणादि सप्तऋषि होगें वैधृत नामके इन्द्र होगें। बरहवें मनु होगें रुंद्र सावर्णि ऋतधामा इन्द्र होगें। तेरहवें मनु होगें देव सावर्णि इन्द्र होगा दिवस्पति। चोदहवें मनु होगें इन्द्र सावर्णि इन्द्र होगा शुचि। ये चोदह मनु भूत वर्तमान और भविष्य तीनो काल मे चलते रहते हैं।
इति त्रयोदशोऽध्यायः

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[ अथ चतुर्दशोऽध्यायः ]

मनु आदि के प्रथक प्रथक कर्मों का निरुपण-1. मनु, 2. मनुपुत्र, 3. इन्द्र, 4. देवता, 5. सप्तऋषि मंडल। ये पांचों भगवान के संरक्षण मे त्रिलोकी के शासन का संचालन करते हैं मनु सर्वोपरि शासनाध्यक्ष है उनके पुत्र उनके कार्य में सहयोगी हैं इन्द्र कार्यवाहक शासनाध्यक्ष हैं जो मनु की देख रेख मे कार्य करते है।
देवता इन्द्र के मंत्री मण्डल के सदस्य है जिन्हे अलग अलग विभागों की जिम्मेदारी इन्द्र ने बांट रखी है।
सप्तऋषिमंडल न्यायाधीश मंडल है-सुपीरियम कोर्ट
यदि इन्द्रादि देवता अपने कार्य मे विफल रहते हैं तो सप्त ऋषि मडल उसमे हस्तक्षेप करता है।
इति चतुर्दशोऽध्यायः

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[ अथ पंचदशोऽध्यायः ]


राजा बलि की स्वर्ग पर विजय-
बले: पदत्रयं भूमेः कस्माद्धरि याचत।
भूत्वेश्वरः कृपण व्रल्लब्धार्थोअपि बबन्धतम्।।
राजापरीक्षित बोले-प्रभो भगवान हरि ने बलि से तीन पैर पृथ्वी कैसे मागी और फिर उसे बांधा क्यों कृपाकर इसे समझावें। श्रीशुकदेवजीबोले-परीक्षित! जब देवासुर संग्राम मे बलि मारे गए तो शुक्राचार्यजी ने उन्हे अपनी संजीवनी विद्या से जीवित कर लिया और उससे एक विश्वजित नामक यज्ञ कर वाया जिससे दिव्य रथ प्रकट हुआ जिसमें कवच अस्त्र शस्त्र रखे थे बलि ने कवच पहना रथ में सवार हुआ शुक्राचार्यजी ने उन्हे एक शंख दिया सेना लेकर अमरावति को चारों ओर से घेर लिया बलि ने शंख बजाया देवतागण भयभीत हो गुरु शरण मे गए बृहस्पतिजी बोले देवताओं अभी समय आपके पक्षमे नही है भृगुवंशी ब्राह्मणों की पूर्णकृपा उन पर है तुम सामना नही कर सकते अत: कहीं जाकर छुपजावो और समय की प्रतिक्षा करो देवता स्वर्ग छोड़कर चले गए बलि स्वर्ग का राज्य करने लगा उस समय बलि से सौ अश्वमेघ यज्ञ करवाये।
इति पंचदशोऽध्यायः

[ अथ षोडषोऽध्यायः ]

कश्यपजी के द्वारा अदिति को पयोब्रत का उपदेश-
एवं पुत्रेषु नष्टेषु देवमातादितिस्तदा
हृते त्रिविष्टपे दैत्यैः पर्यतप्यदनाथ वत।।
एकदा कश्यपस्तस्या आश्रमं भगवान गात
निरुत्सवं निराननदं समाधेर्विरतश्चिरात्।।
शुकदेवजी वर्णन करते हैं जब देव माता अदिति ने अपने पुत्रों को अनाथ होकर इधर-उधर भटकते देखा तो वह बडी दुखी हुई एक दिन उसके आश्रम में कश्यप पधारे वे अभी-अभी समाधि से उठे थे उनकी पत्नि अदिति दीनभाव से बोली प्रभो दिति के पुत्रों ने मेरे पुत्रों का स्वर्ग छीन लिया वे इधर उधर भटक रहे हैं। अत: कोई उपाय बतायें जिससे मेरे पुत्रों का स्वर्ग उन्हें मिल जावे कश्यपजी बोले तुम्हे एक व्रत बताता हूँ
फाल्गुनस्यामले पक्षे द्वादशाहं पयोव्रतः।
अर्चयेदरविन्दाक्षं भक्त्या परमयान्वितः।।
यह पयोव्रत नामक व्रत है फाल्गुन शुक्ल पक्षमे प्रतिपदासे द्वादशी पर्यन्त भगवान नारायण की उपासना करे केवल दूध पीकर रहे।
इति षोडषोऽध्यायः

[ अथ सप्तदशोऽध्यायः ]

भगवान का प्रकट होकर अदिति को वरदान- अदिति ने श्रद्धा पूर्वक उस व्रत को किया तो प्रसन्न होकर शंख चक्र गदा पद्म धारी भगवान प्रकट हो गए अदिति उनकी प्रार्थना करने लगी।
यज्ञेश यज्ञपुरुषाच्युत तीर्थपाद
तीर्थश्रवः श्रवण मंगल नामधेय।।
आपन्न लोक बृजिनो पशमोदयाद्य
शंन: कृधीश भगवन्नसि दीननाथः।।
आप यज्ञों के स्वामी हैं स्वयं यज्ञ भी आप ही हैं आपके चरणों का सहारा लेकर संसार से तर जाते है। आपका यश कीर्तन भी संसार से तारने वाला है आपके नामो का श्रवण मात्र से ही कल्याण हो जाता है आदि पुरुष जो आपकी शरण मे आ जाता है उसकी सारी विपत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं आप दीनों के स्वामी हैं हमारा कल्यण कीजिए। भगवान बोले मैं जानता हूं कि तुम अपने पुत्रों के लिए दु:खी हो मैं शीघ्र ही तुम्हारे गर्भ से अवतार लेकर देवताओं के कार्य को करुंगा तुम निश्चिन्त होकर मेरा ध्यान करो तभी अदिति भगवान के ध्यान में लीन हो गई।
इति सप्तदशोऽध्यायः

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[ अथ अष्टादशोऽध्यायः ]

वामन भगवान का प्रकट होकर राजा बलि की यज्ञशाला मे पधारना
श्रोणायां श्रवण द्वादश्यां मुहूर्तेभिजिति प्रभुः।
सर्वे नक्षत्र ताराद्या श्चक्रुस्तजन्म दक्षिण।।
शुकदेवजी बोले-ब्रह्माजी के प्रार्थना करने पर साक्षात भगवान अदिति के सामने प्रकट हो गए। चतुर्भुज रूप में शंख चक्र गदा पद्म धारण किए थे कश्यप अदिति के देखते-देखते उन्होंने ब्रह्मचारी का रूप धारण कर लिया। उनका यज्ञोपवीत संस्कार हुआ सविता ने गायत्री का उपदेश किया बृहस्पति ने यज्ञोपवीत कश्यपजी ने मेखला दी वामन भगवान वहां से बलि के यज्ञ में प्रस्थान कर गए। भगवान को आते देख ऋत्विज गण सोचने लगे क्या ये सूर्य भगवान यज्ञ देखने आ रहे है सहसा उन्होंने यज्ञ मंडप मे प्रवेश किया बलि ने आसन देकर चरण धोए और बोला आज मेरा घर पवित्र हो गया आपको क्या चाहिए हाथी घोड़े गांव या ब्राह्मण कन्या जो आप मांगोगे वही दूगां।
इति अष्टादशोऽध्यायः

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[ अथ एकोनविंशोऽध्यायः ]

भगवान वामन का तीन पग पृथ्वी मागना बलि का वचन देना और शुक्राचार्यजी का उन्हें रोकना-श्रीशुकदेवजी बोले-परीक्षित्! बलि के ऐसे वचन सुन भगवान वामन बोले-बलि आपने जो कहा वह आपके कुल के अनुकूल है आपके कुल में ऐसा कोई नहीं हुआ जो दान के लिए मना कर दे प्रहलाद जी का सुयश संसार मे छा रहा है और आपके पिता विरोचन जानते हुए भी कि यह दान माँगने वाला इन्द्र है और छल कर रहा है अपनी आयु का दान उसे दे दिया इसलिए मैं जानता हूँ कि तुम मुझे दान अवश्य दोगे मुझे आप केवल मेरे अपने पैरों से तीन पग पृथ्वी दीजिए। बलि बोले ब्रह्मचारी! तुम बात तो वृद्धों जैसी करते हो और माँगने मे बिल्कुल बच्चे हो मैं त्रिलोकी पति तुम्हे एक द्वीप भी दे सकता हूं वामन बोले यह कामना तो तब भी पूरी नही होती मैं सन्तोषी ब्राह्मण हूं मुझे तीन पग भूमि से अधिक कुछ नही चाहिए। बलि बोले ठीक है जैसी आपकी इच्छा कह संकल्प के लिए तैयार होगए तभी शुक्राचार्यजी बोले बलि सावधान जिसे तुम दान देने जा रहे हो वह साक्षात् विष्णु हैं तुम्हारा सब कुछ छीन लेगे अपने वादे से मुकर जावों क्योंकि जहाँ वृत्ति छिनती हो वहां झूठ बोलने का कोई दोष नहीं होता।
इति एकोनविंशोऽध्यायः

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[ अथ विंशोऽध्यायः ]

भगवान वामनजी का विराट रूप होकर दो ही पग मे पृथ्वी और स्वर्ग को नाप लेना-बलि बोले गुरुजी यह सत्य है कि वृत्ति नष्ट हो रही हो तो झूठ बोलने का कोई दोष नहीं पर जब वे भगवान ही हैं तो सब कुछ उन्हीं का तो है वे चाहे जैसे ले सकते हैं फिर दान के लिए क्यों मना करूं मैं अवश्य दूगा बलि बड़ा प्रसन्न है उसकी माता भी प्रसन्न है और कहती है। भली भई जो ना जली वेरोचन के साथ। मेरे सुत के सामने कृष्ण पसारे हाथ।। बलि की एक बेटी थी रत्न माला भगवान के स्वरुप पर मोहित हो कहने लगी मेरे भी ऐसा सुन्दर बालक हो जिसे मैं स्तन पान कराउं भगवान बोले द्वापर मे तू पूतना बनना तब तेरा स्तन पान करूंगा। बलि ने संकल्प हाथ में ले लिया और छोड दिया।
तद् वामनं रूपम वर्धताद्भुतं
हरेरनन्तस्य गुण त्रयात्मकम्।।
भूः खं दिशो द्यौर्विवरा:पयोधय
स्तिय॑न्नृदेवा ऋषयो यदासत।।
इसी बीच भगवान ने अपने स्वरुप को इतना बढाया कि समस्त त्रिलोकी में भगवान ही नजर आए उन्होंने एक पग मे भू लोक को नाप लिया दूसरे चरण ब्रह्म लोक में पहुंच गया।
इति विंशोऽध्यायः

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[ अथ एकोविंशोऽध्यायः ]

बलि का बांधा जाना-ब्रह्मलोक में भगवान के चरण को आया देख ब्रह्माजी ने भगवान के चरण को धोया और उस जल को अपने कमंडलु में रख लिया वही पतित पावनी गंगा पृथ्वी पर आकर सब को पवित्र कर रहीपूजा कर ब्रह्माजी बड़े प्रसन्न हुए उसी बीच जामवंत ने भगवान की सात प्रदक्षिणा की भगवान ने बलि को नाग पाश में बांध लिया और कहा-
पदानि त्रीणि दत्तानि भूमेर्मह्यं त्वयासुर।
द्वाभ्यां क्रान्ता मही सर्वा तृतीयमुप कल्पय।।
राक्षसराज तुमने मुझे तीन पग भूमि देने का संकल्प किया था मैंने दो पग मे तेरे समस्त राज्य को नाप लिया अब बता तीसरा पैर कहा रखू अब तुझ नरक जाना पड़ेगा यह दृश्य रत्न माला देख रही थी पहले भगवान को पुत्र रूप में देख रही थी पिता को नाग पाश में बंधा देख बोली ऐसे पुत्र को जहर दे दे इस पर भगवान बोले तू स्तनों से जहर लगा के आएगी मैं उसे भी पी जाउंगा।

 

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इति एकोविंशोऽध्यायः

[ अथ द्वाविंशोऽध्यायः ]

बलि केद्वारा भगवान की स्तुति और भगवान का उस पर प्रसन्न होना-
यद्युत्तमश्लोक भवान् ममेरितं
वचोव्यलीकं सुरवर्य मन्यते।
करोम्य॒तं तन्न भवेत् प्रलम्भनं
पदंतृतीयं कुरु शीर्ण मे निजम्।।
बलि बोले-प्रभो यह सही है कि आपने दो चरणों में ब्रह्म लोक पर्यन्त नाप लिया किंतु अभी नापने के लिए जगह शेष है तीसरा चरण मेरे मस्तक पर रख दें हम संसार के अज्ञानी जीव आपकी महिमा कैसे समझे बडे-बडे ऋषि भी आपकी माया से मोहित हो जाया करते है बलि इस प्रकार कह रहे थे कि वहां प्रह्लाद जी आ गए वे बोले प्रभो आपने अच्छा किया इसे बड़ा अभिमान हो गया था अभिमानी को दण्ड देना भी आप की कृपा ही है इतने में ब्रह्माजी कुछ कहना चाहते वहां बलि की पत्नि विंध्यावलि आ गई और कहने लगी प्रभो आप संसार के कर्ता-धर्ता और संहर्ता है मैं आपको प्रणाम करती हूं ब्रह्माजी बोले स्वामी आपने इस पर कृपा करी है जो इसे अपनाया है अब इसे आप छोड़ दे क्योंकि इसने आप को आत्म समर्पण कर दिया है भगवान बोले मै इस पर प्रसन्न हूं इसे सुतल लोक का राज्य देता हू बलि जावो आनंद पूर्वक सुतल लोक में रहो मैं हमेशा तुम्हारे पास रहूगा।
इति द्वाविंशोऽध्याय

[ अथ त्रयोविंशोऽध्यायः ]

बलि का बन्धन से छूट कर सुतल लोक को जाना-श्रीशुकदेवजी बोले राजन् भगवान ने बलि का बन्धन खोल दिया और वह सुतल लोक चला गया इस प्रकार भगवान ने स्वर्ग का राज्य बलि से लेकर इन्द्र को दे दिया प्रह्लादजी ने भगवान की प्रार्थना की तथा शुक्राचार्यजी ने भगवान की प्रार्थना की तब भगवान ने उन्हे बलि के यज्ञ को पूर्ण करने की आज्ञा दी यज्ञ पर्ण हआ ब्रह्मादि देवताओं ने भगवान का अभिषेक किया और उन्हे उपेन्द्र का पद दिया और भगवान अन्तर ध्यान हो गए।
इति त्रयोविंशोऽध्याय:

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[ अथ चतुविंशोऽध्यायः ]

भगवान के मत्स्यावतार की कथा-श्रीशुकदेवजी बोले-राजन! एक हजार दिव्य वर्षों का ब्रह्माजी का एक दिन होता है और उतनी ही बडी रात्रि-रात्री में जब बृह्मा शयन करते हैं तभी ब्राह्मी प्रलय होती है। एक समय की बात है जब द्रविड़ देश का राजा सत्यव्रत कृतमाला नदी में स्नान कर तर्पण कर रहा था। उसकी अंजली मे छोटी सी मछली का बच्चा आ गया दयावश उसे राजा ने अपने कमंडलु में डाल लिया जो घर आतेआते इतना बढ़ गया कि कमंउलु भर गया राजा ने उसे तालाब में डाल दिया जब तालाब भी भर गया तब उसे समुद्र में डालते हुए राजा बोले मत्स्य रूप में मोहित करने वाले आप कौन देव हैं। भगवान बोले आज के सातवें दिन ब्राह्मी प्रलय होगी उस समय तुम्हें समुद्र में एक नाव मिलेगी तुम समस्त जीवों के बीजों को लेकर नाव में बैठ जाना इतना कह भगवान अन्तर्ध्यान हो गए ब्राह्मी निषा आई ब्रह्माजी को नींद आने लगी तो चारों वेद उनके मुख से निकल बाहर आ गए जिन्हें हयग्रीव राक्षस चुरा कर ले गया उसे मारने के लिए ही भगवान ने मत्स्यावतार धारण किया निषा प्रलय हुइ एक नाव जिसका रस्सा मत्स्य के सींग में बंधा था आई जिसका प्रतिक्षा सत्य ब्रत कर रहे थे वे उसमें बैठ गए निषा पर्यन्त उसमे घूमत रही जब निषा समाप्त हई भगवान ने हयग्रीव को मार वेद ब्रह्माजा का ५ दिए सत्य ब्रत को सातवे वैवस्वत मनु घोषित कर दिए।
इति चतुविंशोऽध्यायः
इति अष्टम स्कन्ध समाप्त
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अथ नवम स्कन्ध प्रारम्भ

[ अथ प्रथमोऽध्यायः ]

वैवस्वत मनु के पुत्र सुद्युम्न की कथा-श्रीशुकदेवजी बोलेपरीक्षित! अब तुम्हे सातवें वैवस्वत मनु का वंश सुनाते है सूर्य पुत्र श्राद्वदेव ही वैवस्वत मनु थे श्राद्धदेव की पत्नि श्रद्धा के जब कोई संतान नहीं हुई कुलगुरु वशिष्ठजी ने संतान के लिए मित्रवरुण नामक यज्ञ करवाया। श्रद्धा चाहती थी कि उसके कन्या हो अत: होता के पास जाकर प्रणाम पूर्वक बोली मुझे कन्या चाहिए होता ने वषट कार मंत्र की आहूति दी होता के इस विपरीत कर्म से यज्ञ के उपरान्त एक कन्या का जन्म हुआ इसका नाम इला हुआ राजा ने गुरुजी से कहा यह पुत्र के स्थान पुत्री कैसे हो गई। गुरुजी बोले हो सकता है रानी के मन मे ऐसा हो वशिष्ठ जी ने योग बल से कन्या को पुत्र बना दिया जिसका नाम सुद्युम्न हुआ। ___एक दिन सुद्युम्न घोड़े पर सवार होकर शिकार के लिए गया वह बहुत दूर निकल गया और एक ऐसी जगह पहुंच गया जहां जाते ही वह स्त्री बन गया उसके साथी भी स्त्री बन गए उधर से बुधजी की सवारी आ रही थी उन्होंने देखा कि एक सुन्दर स्त्री आ रही है। उससे विवाह कर लिया जिससे पुरुरवा नामक पुत्र हुआ जब राजा को मालुम हुआ कि उसका पुत्र फिर स्त्री बन गया वशिष्ठ जी ने शिवजी की प्राथना की तो शिवजी बोले यह एक माह स्त्री एक माह पुरुष रहेगा परीक्षित ने पूछा उस बन मे जाने पर वह स्त्री कैसे हो गया इस पर शुकदेवजी ने बताया कि एक समय शिव पार्वती वहां एकान्त विहार कर रहे थे वहाँ कोई आ गया जिससे उनकी क्रीडा में विघ्न हो गया अत: पार्वती ने शाप दिया जो यहां आएगा स्त्री हो जाएगा बहुत काल राज्य करके सुद्युम्न अपने पुत्र पुरुरवा को राज्य देकर आप वन में चले गए।
इति प्रथमोऽध्यायः

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[ अथ द्वितीयोऽध्यायः ]

पृषध्र आदि मनु के पांच पुत्रों का वंश-

इति द्वितीयोऽध्यायः

[ अथ तृतीयोऽध्यायः ]

च्यवनऋषि और सुकन्या का चरित्र-श्रीशुकदेवजी बोले राजन् मनु के एक पुत्र थे शर्याति उनके सुकन्या नामकी एक कन्या थी एक दिन राजा शर्याति सुकन्या के साथ च्यवन ऋषि के आश्रम पर पहुच गए पर वहाँ इधरउधर ढूंढने पर भी ऋषि नही मिले सुकन्या सखियों के साथ घूमती हुई वहा पहुची जहां एक मिट्टी का डूमला था जिसमें कोई दो चीजें चमक रही थी कौतुहल वश सुकन्या ने उन्हें एक कांटे से बांध दिया उससे रक्त की एक धारा बह निकली वह घबराई हुई पिता के पास पहुंची वहां सबके पेट फुल रहे थे न जाने किस देव का अपराध हुआ है सुकन्या ने आप बीती बताई सब लोग वहाँ गए मिट्टी के ढेर से च्यवन ऋषि को निकाला भयभीत हो शांति ने सुकन्या च्यवन ऋषि को ब्याह दी और अपने घर आ गए सुकन्या उनका सेवा करती रही इधर से अश्विनी कुमार आ निकले वे सुकन्या से बोल इन्द्र ने हमारा यज्ञ भाग बन्द कर दिया है यदि उसे आप दिला दें तो हम ऋषि का नेत्र प्रदान कर सकते हैं सुकन्या ने विश्वास दिलाया अश्विनी कुमारों ने ऋाप के नेत्र ठीक कर उन्हें युवा बना दिया एक दिन अपनी पुत्री को देखने शर्याति उधर आ निकले एक युवा पुरुष के साथ अपनी कन्या को देख वे बड़े नाराज दए जब ज्ञात हआ कि वे ही च्यवन ऋषि हैं वे बड़े प्रसन्न हुए सुकन्या ने अपने पिता यज्ञ करनेवाले थे को कह कर अश्विनी कुमारों को यज्ञ भाग दिला दिया।
इति तृतीयोऽध्यायः
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[ अथ चतुर्थोऽध्यायः ]

नाभाग और अम्बरीष की कथा-श्रीशुकदेवजी कहते है-परीक्षित! मनु के एक पुत्र थे नभग उनके पुत्र थे नाभाग वे जब ब्रह्मचर्य व्रत पूर्ण कर घर लौटे तो पिता की संपत्ति तो शेष भाई बाँट चुके थे भाईयों से जब अपने हिस्से के बारे मे पूछा तो भाईयों ने केवल पिताजी को ही उनके हिस्से में दिया। __ यह जान वह पिताजी के पास गया पिता ने कहा कोई बात नहीं तुम आगीरस गोत्र के ब्राह्मण जहाँ यज्ञ कर रहे है वहाँ जावो यज्ञ में उनका सहयोग करो वे यज्ञ पश्चात् बचा हुआ धन तुमको दे देगें उसने वैसा ही किया और यज्ञ में बचा हुआ धन उसे मिल गया वह उसे लेकर जब चलने लगा तो उत्तर दिशा से एक काला पुरुष आया और कहने लगा यज्ञ में बचा हुआ। ____धन मेरा होता है प्रमाण मे आप अपने पिता से पूछ लो वह पिता के पास गया और उस पुरुष की कही हुई बात उनसे पूछी पिता बोले सही है बचा हुआ भाग शिवजी का होता है वह शीघ्र यज्ञ स्थल पर पहुंचा और धन शिवजी के चरणों में रख दिया शिवजी ने प्रसन्न होकर वह धन नाभाग को दे दिया।

 

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नाभाग के पुत्र थे अम्बरीष वे परमात्मा के बड़े भक्त थे एक समय ऋषि दुर्वासा उनके यहाँ आये राजा ने उनका स्वागत किया ऋषि ने स्नान के बाद भोजन के लिए कहा वे स्नान के लिए चले गए राजा के निर्जला एकादशी के पारणा खोलने का दिन था त्रयोदशी लगने वाली थी पारणा खोलने का समय निकले जा रहा था ऋषि लोग नही आए तो ब्राह्मणों की आज्ञा से तीन आचमनी भगवान का चरणा मृत लेकर पारणा खोल लिया दुर्वासा जान गए उन्होने क्रोधित हो एक कृत्या अम्बरीष पर छोड़ी जो राजा को खाने दौड़ी इतने में श्री सुदर्शनजी आ गए कृत्या के टुकड़े-टुकड़े कर दुर्वासा के पीछे हो गए दुर्वासा डरकर ब्रह्माजी की शरण में गए।
ब्रह्मोवाचस्थानं मदीयं सहविश्व मेतत्
_क्रीडावसाने द्विपरार्ध संज्ञे।
भ्रूभंग मात्रेण हि संदिधक्षो:
कालात्मनो यस्य तिरोभविष्यति।।
ब्रह्माजी बोले मेरी केवल दो परार्ध आयु उन भगवान के पलक झपकते. ही पूर्ण हो जाती है उनके भक्त द्रोह से बचाने की हमारी क्षमता नही है। दुर्वासा दौड कर शिवजी के पास गए
वयंन तात प्रभवाम भूम्नि
यस्मिन् परेंअन्ये अप्यज जीवकोशाः।
भवन्ति काले न भवन्ति हीदृशाः
सहस्रशो यत्र वयं भ्रमामः।
शिवजी बोले जिनकी श्रृष्टि मे हम जैसे हजारों शिव ब्रह्मा घूम रहे है उनके भक्त का अपराध करने वाले की मैं रक्षा नहीं कर सकता। दुर्वासा हताश हो भगवान की शरण मे गए सुदर्शन उनका पीछा कर रहा था।
अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतन्त्र इवद्विज
सधुभिर्ग्रस्त ह्रदयो भक्तैर्भक्त जनप्रियः।।
भगवान बोले दुर्वासाजी मैं स्वतन्त्र नही हूं मैं तो भक्तों के अधीन है मेरा ह्रदय उन्होने जीत रखा है।
पद-
मैं तो हूं भक्तन को दास भक्त मेरे मुकुट मणी
मोकू भजे भजू मै वाकू हूं दासन को दास
सेवा करे करूं मै सेवा हो सच्चा विश्वास
यही तो मेरे मन मे ठनी झूठा खाउं गले लगाउं
नही जाति को ज्ञान चार विचार कछु नही देखू देखू
मैं प्रेम समान भगत हित नारी बनी पग चापूं
और सेज बिछाउ नोकर बनू हजाम हांकू
बैल बनू गड वारो बिन तनखा रथवान
अलख की लखता बनी अपनोपरण बिसार के
भगतन को परण निभाउं सधु जाचक बनू कहे तो
बेचे तो बिक जाउं और क्या कहुं मै घणी
गरुड छोड बैकुण्ठ त्याग के नंगे पैरों धाउं
जहां जहां भीड पडे भगतनपर तह तह दोडा जाउं
खबर नही करुं अपनी जो कोई भगती करे कपट से
उसको भी अपनाउ साम दाम अरु दण्ड भेद से
सीधे रस्ते लाउं नकल से असल बनी जो कुछ बने सो बन रही
कर्ता मुझे ठहरावे नरसी हरि चरननकोचेरो
ओर न शीश नवावे पतिव्रता एक धणी
इति चतुर्थोऽध्यायः
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[ अथ पंचमोऽध्यायः ]

दुर्वासाजी की दुःख निवृति-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते हैं कि परीक्षित इस प्रकार भगवान के भी मनाकर देने पर दुर्वासा भयभीत हो । अम्बरीष की शरण में गए और जाकर उनके चरणों में गिर गए अम्बरीष ने उठाकर हृदय से लगा लिए और सुदर्शनजी की स्तुति कर ने लगे।
सुदर्शन नमस्तुभ्यं सहस्राराच्युत प्रिय।
सर्वास्त्रघातिन् विप्राय स्वस्ति भूया इडस्पते।।
सुदर्शनजी शान्त हो गए और दुर्वासाजी के दुःख की निवृति हो गई और बोले धन्य हैं आज भगवान के भक्तों की महिमा देखी अम्बरीष दुर्वासा भगे थे तब से वही खड़े थे भोजन भी नही किया था पहले दुर्वासाजी की पूजा की उनके कारण से उन्हें जो पीड़ा हुई उसकी क्षमा याचना की फिर उन्हें भोजन करा कर विदा किया और स्वयं ने भोजन किया।
इति पंचमोऽध्यायः

[ अथ षष्ठोऽध्यायः ]

इक्ष्वाकु के वंश का वर्णन मान्धाता और सौभरी ऋषि की कथा-सप्तम वैवस्वत मनु के पुत्र इक्ष्वाकु के वंश में एक राजा युवनाश्व हुए उनके कोई सन्तान न होने पर उन्होंने बन मे जाकर ऋषियों से पुत्र प्राप्ति के लिए इन्द्र देवता का यज्ञ कर वाया एक दिन रात्रि में राजा को प्यास लगी इधर उधर कही जल नहीं मिला तो उन्होने यज्ञ मंडप मे एक घड़े में अभिमंत्रित जल रखा था उसे पी लिया प्रात: ऋषियों को घड़ें में जल नहीं मिला तो पूछने पर राजा ने बताया कि जल तो वह पी गया तब तो ऋषियों ने कहा राजा अब तो तुम्हे गर्भ धारण करना पडेगा राजा ने गर्भ धारण किया समय पर उसके पेट को चीर कर बालक को निकाल लिया किंतु उसे दूध कौन पिलावे इन्द्र ने उसके मुँह में अपनी अमृत मयी अगुंली दे दी और कहा मान्धाता मैं तुम्हारी धाय हूं उसका नाम मान्धाता हुआ वे बड़ें प्रतापी चक्रवर्ती राजा हुए। उनके पचास कन्याऐ थी। एक दिन सौभरी ऋषि के मन में गृहस्थ पालन की इच्छा हुई वे विवाह के लिए मान्धाता राजा के पास गए और जाकर उनसे एक कन्या की याचना की मान्धाता ने शाप के भय से मना तो नहीं किया किंतु कहा तुम्हे कोई कन्या पसंद कर ले उसे ले लो सौभरी ने योग बल से अपना शरीर दिव्य बना लिया और कन्याओं के महल मे प्रवेश किया उन पचासों ने ही ऋषि के गले में माला डाल दी सौभरी उन्हें लेकर अपने आश्रम चले गए।
इति षष्ठोऽध्यायः

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[ अथ सप्तमोऽध्यायः ]

राजा त्रिशंकु और हरिश्चन्द्र की कथा-श्रीशुकदेवजी बोले राजन् मान्धाता के वंश में राजा सत्यव्रत हुए इन्हें ही त्रिशंकु भी कहते है एक बार राजा सत्यव्रत अपने गुरु वशिष्ठ से बोले मैं सशरीर स्वर्ग जाना चाहता हूं इस पर वशिष्ठजी ने ऐसा करने से इन्कार कर दिया तब ये विश्वामित्र जी के पास गए उन्होंने उसे सशरीर अपने तप बल से स्वर्ग भेज दिया। देवताओं ने उसे वहां से धकेल दिया जब वह गिरने लगा विश्वामित्रजी ने अपने तप बल से बीच में ही रोक दिया वह आज भी बीच में उल्टा लटक रहा है। त्रिशंकु के पुत्र हरिश्चन्द्र हुए इनके कोई सन्तान नही थी अत: उन्होंने वरुण देवता से प्रार्थना की और कहा यदि मेरे पुत्र हुआ तो उसी से आपका यजन करुंगा हरिश्चन्द्र को पुत्र हो गया तब वरुण देवता आए और उनसे अपना बलिदान मागा हरिश्चन्द्र उसे पहले दस दिन बाद फिर दांत निकल ने पर ऐसे टालते रहे जब रोहित को यह मालूम हुआ वह जंगल में भग गया।

 

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वरुण ने नाराज हो हरिश्चन्द्र को महोदर रोग से ग्रसित कर दिया जब रोहित को यह मालूम हुआ वे एक यज्ञ पशु शुन शेप को खरीद कर पिता को दे दिया हरिश्चन्द्र ने उसे वरुण को देकर रोग से छुटकारा पाया।
इति सप्तमोऽध्यायः
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[ अथ अष्टमोऽध्यायः ]

सगर चरित्र-
सगर के एक रानी से साठ हजार पुत्र थे दूसरी रानी से एक ही पुत्र था असमंजस राजा सगर ने कई अश्वमेध यज्ञ किए इन्द्र उनके यज्ञ का घोड़ा चरा कर ले गया उसके साठ हजार पुत्र घोड़ा खोजते हुए कपिल मुनी के आश्रम मे पहुँचे जहां घोडा बंधा था। घोड़े को देख कर वे मुनी को भलाबुरा कहने लगे जब मुनी की आंखे खुली सबके सब जलकर भस्म हो गए जब वे नही लौटे तो सगर ने असमंजस के पुत्र अंशुमान को घोडा खोजने भेजा वह अपने चाचाओं के चरण चिह्न पर कपिल आश्रम पहुचे वहां घोड़ा बंधा था और साठ हजार राख की ढेरियां देखी वह समझ गया मेरे चाचा भस्म हो गए मुनी को प्रणाम किया और अपना परिचय दिया मुनी बोले घोड़े के बारे में हम कुछ नहीं जानते अपना घोड़ा लेजावो तुम्हारे चाचाओं का उद्धार गंगाजी से होगा
इति अष्टमोऽध्यायः

[ अथ नवमोऽध्यायः ]

भागीरथ चरित्र और गंगावतरण-श्रीशुकदेवजी बोले परीक्षित अपने चाचाओं के उद्वार के लिए गंगाजी को पृथ्वी पर लाने के लिए अंशुमान ने तपस्या की किंतु वह अपने इस कार्य मे सफल नहीं हुए तब उनके पुत्र दिलाप ने भी अपने पिता का अनुसरण करते हुए तपस्या की किंतु वे भी सफल नही हुए तब उनके पुत्र भगीरथ ने भी घोर तपस्या की गंगा उन पर प्रसन्न हुइआर प्रकट होकर बोली मैं तुम पर प्रसन्न हँ वरदान माँगो इस पर भगीरथ ने उनसे अपने साथ पृथ्वी पर आने की प्रार्थना की गंगा बोली जब मैं पृथ्वी पर गिरुगी तो मेरे वेग को कौन धारण करेगा इस पर भगीरथ बोले भगवान शिव आपके वेग को धारण करेगें गंगा प्रसन्न हो शिवजी के मस्तक पर गिरी शिवजी ने उसे अपनी जटा में बाँध लिया और उसमें से तीन बूंद छोडी जो तीन धाराओं मे विभक्त हो गई एक अलका पुरी होती हुई आई अत: उसका नाम अलख नन्दा हुआ दूसरी मंदाकिनी दोनों रुद्र प्रयाग में आकर एक हो गई तीसरी भगीरथी जो देव प्रयाग में आकर अलख नन्दा से मिल गइ इस तरह पूर्ण गगा समस्त भारत का सिंचन करते हुए गंगा सागर मे जहां सागर पुत्रों की भस्मी पड़ी थी को सींचती हुइ समुद्र में मिल गई।
इति नवमोऽध्यायः

 

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[ अथ दशमोऽध्यायः ]

भगवान श्रीराम की लीलाओं का वर्णन
खट्वांगाद् दीर्घबाहुश्च रघुस्तस्मात् पृथुश्रवाः।
अजस्ततो महाराजस्तस्माद् दशरथोअभवत्।।
शुकदेव बोले मनु पुत्र इक्ष्वाकु के वंश मे खटांग के दीर्घबाहु उनके रघु उनके पृथुश्रवा उनके अज और अज के महाराजा दशरथ हुए इनके तीन रानियां थी जिनके यहां साक्षात् भगवान अपने अंशों सहित राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुध्न के रुप में प्रकट हुए राम, लक्ष्मण ने ऋषि विश्वामित्र के साथ जाकर उनके यज्ञ की रक्षा की वारों भाईयों ने जनकपुर में जाकर जनक की पुत्रियों से विवाह किया। __राजा दशरथ ने सब प्रकार योग्य अपने जेष्ठ पुत्र राम को राजा बनाने का विचार किया किन्तु भरत की माता कैकेयी भरत को राजा बनाना चाहती थी उसने राजा दशरथ से अपने पुराने धरोहर दो वरदान मांग लिए जिसमें एक में भरत को राज्य दूसरे में राम को चौदह वर्ष का बन वास माँग लिया राम चौदह वर्ष के लिए लक्ष्मण और सीता के साथ बन में गए भरत शत्रुघ्न ननिहाल थे राम के बन गमन से दुखी दशरथ का स्वर्गवास हो गया भरत भी राज्य स्वीकार नहीं किया।
वे रामजी को मनाने वन में गए किन्तु राम नहीं लौटे बल्कि उन्हें चौदह वर्ष राज्य संभाल ने को कहा वन मे राम को शूर्पणखा मिली लक्ष्मण ने उसके नाककान काट लिए जिसके कारण रावण सीता का हरण कर ले गए राम रावण का हो संग्राम हुआ जिसमें राक्षसों सहित रावण मारा गया चौदह वर्ष पश्चात् राम सीता लक्ष्मण के साथ वापस अयोध्या आ गए। रामजी का राज्याभिषेक हुआ।
इति दशमोऽध्यायः

[ अथ एकादशोऽध्यायः ]

भगवान श्रीरामकी शेष लीलाओं का वर्णन-भगवान श्रीराम धर्मपूर्वक अयोध्या का राज्य करने लगे उन्होने कई यज्ञ किए एक बार जन आलोचना के कारण सीता को बन मे भेज दिया सीता गर्भवती थी उसने बालमीक आश्रम मे लव कुश को जन्म दिया एक बार रामजी ने अश्वमेध यज्ञ किया यज्ञ का घोड़ा छोडा गया रक्षा के लिए शत्रुध्न साथ थे घोड़ा घूमता हुआ बालमीक आश्रम के समीप पहुंचा वहां लव-कुश ने घोड़ा पकड़ लिया शत्रुध्न के साथ संग्राम हुआ शत्रुध्न बंदी बना लिए गए लक्ष्मण भरत एक-एक करके बंदी बना लिए गए तब रथ में सवार हो राम स्वयं युद्व में आए और लव-कुश से युद्ध करने लगे लव कुश का युद्ध कौशल देख राम चकित रह गए ओह! ये किस के बालक है इतने मे सीता वहाँ आ गई और उसने रामजी को देखा लव-कुश को युद्ध से रोक दिया बालमीकी जी भी आ गए उन्होंने दोनों ओर का परिचय कराया और साता सहित दोनों पुत्रों को रामजी को सौंप दिया किंतु सीता अयोध्या नहीं गई वह इस प्रतिक्षा में थी कि राम को उनकी अमानत दोनों पुत्र दे दे सो देकर वह सबक देखते-देखते पृथ्वी में समाहित हो गई रामजी बड़ें दुखी हुए और सरयू का चारों भाई भी विमानों में बैठ कर अपने लोक को पहुंच गए।

 

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इति एकादशोऽध्यायः

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[ अथ द्वादशोऽध्यायः ]

इक्ष्वाकु वंश के शेष राजाओं का वर्णन-मनु पुत्र इक्ष्वाकु का वंश बड़ा ही पवित्र है इसमें बड़े-बड़े प्रतापी राजा हुए उनका वंश अब तक भी चल रहा है क्यों न हो जहाँ साक्षात् रामजी प्रकट हुए हों।
इति द्वादशोऽध्यायः

[ अथ त्रयोदशोऽध्यायः ]

राजा निमि के वंश का वर्णन-इक्ष्वाकु के पुत्र थे निमि एक बार वे वशिष्ठ ऋषि के पास यज्ञ करवाने के लिए आए वशिष्ठजी ने कहा राजन इस समय मैं इन्द्र का यज्ञ कराने जा रहा हूँ उसके बाद आकर आपका यज्ञ कराउगाँ और वे इन्द्र का यज्ञ कराने चले गए निमि ने विचार किया कि क्षण भंगुर संसार है कल रहें न रहें उन्होंने अन्य आचार्य से यज्ञ करवा लिया जब वशिष्ठजी इन्द्र का यज्ञ करा कर लौटे तो देखाकि निमि यज्ञ करा चुके तो उन्होने उसे शाप दिया कि तुम्हारा देहपात हो जाय निमि ने भी वशिष्ठजी को शाप दिया तुम्हारा भी देहपात हो जावे वशिष्ठजी ने अपना शरीर छोड़ दिया और मित्रवरुण के द्वारा उर्वशी के गर्भ से जन्म लिया निमि ने भी शरीर छोड़ दिया और ब्राह्मणों की आज्ञा से सब प्राणियों के नेत्रों में निवास किया उनके वंश में अनेक राजा हुए जो मिथिला में रहने के कारण मैथिल कहलाए।

 

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इति त्रयोदशोऽध्यायः

[ अथ चतुर्दशोऽध्यायः ]

चन्द्र वंश का वर्णन-भगवान विष्णु की नाभी से कमल-कमल से ब्रह्मा उनसे अत्रि और अत्रि से चन्द्रमा का जन्म हुआ चन्द्रमा बड़े बलवान थे उन्होंने एक बार बृहस्पतिजी की पत्नि तारा का हरण कर अपने पास रख लिया बृहस्पति और चन्द्रमा के बीच घोर युद्ध हुआ चन्द्रमा की ओर से शुक्राचार्य ओर राक्षस भी लड़ने लगे उधर बृहस्पतिजी की ओर से देवताभी युद्ध करने लगे अन्त में ब्रह्माजी ने आकर युद्ध बंद करा दिया और तारा बहस्पतिजी को दिला दी वह गर्भवती थी उससे बुध का जन्म हुआ जो तारा के कहने से चन्द्रमा को दे दिया बुध से इला के गर्भ से पुरुरवा का जन्म हुआ पुरुरवा बड़े वीर थे उनके द्वारा उर्वशी के गर्भ से छः पुत्र हुए।

इति चतुर्दशोऽध्यायः

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[ अथ पंचदशोऽध्यायः ]

ऋचीक जमदग्नि ओर परशुरामजी का चरित्र-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते है कि पुरुरवा के छ: पुत्र थे। आयु, श्रुतायु, सत्यायु, रथ, जय और विजय इनमें विजय के वंश में एक राजा हुए कुश इनके चार पुत्र थे उनमें से कुशाम्ब के गाधी हुए। गाधी के एक पुत्री थी सत्यवति जो ऋचीक ऋषि को ब्याही थी जब सत्यवती को कोई सन्तान न थी तब उसने पति से प्रार्थना की कि उसके तथा उसकी माता के लिए पुत्र प्राप्ति का कोई उपाय करे ऋषि ने दो चरु तैयार किए एक सत्यवति के लिए दूसरा उसकी माँ के लिए ओर स्नान करने चले गए पीछे से सत्यवति की माँ ने देखा कि ऋषि ने अपने लिए अच्छा बनाया होगा सत्यवति से उसका चरु लेकर अपना उसे दे दिया जब यह ऋषि को मालुम हुआ तो वे बोले यह तो बहुत गलत हो गया अब सत्यवति के क्षत्रिय पुत्र होगा और गाधी के ब्राह्मण सत्यवति बहुत गिड़ गिड़ाई तब ऋषि बोले पुत्र नहीं तो पोत्र अवश्य ही क्षत्रिय स्वभाव का होगा गाधी के यहाँ विश्वामित्रा ऋषि हुए सत्यवति के पुत्र तो जमदग्नि ऋषि हुए पौत्र क्षत्रिय स्वभाव के परशुरामजी हुए रेणुऋषि की पुत्री रेणुका से जमदग्नि का विवाह हुआ। उस समय सहस्रबाहु अर्जुन एक दिन जमदग्नि ऋषि के यहा पहुच गए ऋषि के यहाँ कामधेनु थी ऋषि ने राजा का खूब सत्कार किया राजा ने देखाकि यह सब काम धेनु का प्रभाव है वह कामधेनु को ही छीन कर लेगया जब कही से परशुरामजी आए और उन्हे जब ज्ञात हुआ तो वे जाकर सहस्रबाहु का भुजाओं का छेदन कर सिर घड से अलग कर दिया और कामधेनु को ल आए।
इति पंचदशोऽध्यायः

[ अथ षोडषोऽध्यायः ]

परशुरामजी का क्षत्रिीय संहार
इति षोडषोऽध्यायः

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[ अथसप्तदशोऽध्यायः ]

क्षत्रवृद्ध रजि आदि राजाओं के वंश का वर्णन
इति सप्तदशोऽयाय:

[ अथ अष्टादशोऽध्यायः ]

ययाति चरित्र-श्रीशुकदेवजी कहते हैं कि हे राजा परीक्षित चन्द्र वंश में नहुष पुत्र ययाति राजा हुए है उसी समय दानव राज बृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा गुरु शुक्राचार्यजी की पुत्री देवयानी की सहेली थी दोनों सहेलियां अन्य सखियों के साथ स्नान को गई वहां उन्होने अपने वस्त्र उतार स्नान किया तभी उधर से शिवजी आ निकले सबने दौड़कर अपने-अपने वस्त्र पहिन लिए गलती से शर्मिष्ठा ने देवयानी के वस्त्र पहन लिए इस पर देवयानी बहुत नाराज हुई और शर्मिष्ठा को उल्टा सीधा कहने लगी शर्मिष्ठा ने भी क्रोध में आ देवयानी को निर्वस्त्र कुए में धकेल दिया और घर आ गई उधर से राजा ययाति निकल रहा था कुए में निर्वस्त्र कन्या को देखा उसने अपना डुपट्टा कुए में डाल दिया जिसे देवयानी ने पहन लिया राजा ने देवयानी का हाथ पकड़ कुएं से निकाल लिया और चलने लगा तो देवयानी राजा से बोली राजा स्त्री का हाथ जो पुरुष एक बार पकड़ लेता है उसे छोडता नहीं राजा ने कहा आप ब्राह्मण हैं मैं एक क्षत्रिय यह उल्टा विवाह संभव नही देवयानी बोली मुझे शाप हैं मेरा विवाह ब्राह्मण कुल में नही होगा राजा बोले क्या आपके पिता इसे स्वीकार करेगें देवयानी ने कहा अवश्य करेगें यह बात जब शुक्राचार्यजी को मालुम हुई वे राजा बृषपर्वा पर बहुत नाराज हुए और शर्मिष्ठा को दासी बनाकर देवयानी का विवाह ययाति से कर दिया देवयानी के दो पुत्र हुए यदु और तुर्वसु किन्तु शर्मिष्ठा के भी तीन पुत्र हो गए द्रय, अनु और पुरु यह बात जब शुक्राचार्यजी को मालुम हुई कि ययाति शर्मिष्ठा को भी पत्नि मानता है और उसके भी बच्चे हैं बहुत नाराज हुए और ययाति को शाप दिया तू वृद्ध हो जा ययाति ने जब क्षमा याचना की तो वे बोले कोई पुत्र तुम्हे अपनी जवानी दे दे तो ले लो इस पर ययाति ने सबसे बड़े पुत्र यदु को अपनी जवानी देने को कहा तो वे इन्कार हो गए तब छोटे पुत्र पुरु ने स्वीकार कर लिया ययाति युवा हो गए विषय भोगों मे लिप्त हो गए।

 

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इति अष्टादशोऽध्यायः

[ अथ एकोनविंशोऽध्यायः ]

ययाति का गृहत्याग-श्रीशुकदेवजी बोले राजन् विषय भोगों में लिप्त राजा ययाति को एक दिन ज्ञान हुआ कि मैं कितना इन्द्रिय लोलुप हूं दूसरे की दी हुई जवानी से संसार के भोगों को भोग रहा हूं उसने देवयानी को बुलाकर कहा प्रिये तुम्हे एक कहानी सुनाता हूँ। एक जंगल में एक बड़ा हृष्ट पुष्ट बकरा था घूमते-घूमते वह एक कुए के पास गया वहा उसने कुएं में पड़ी एक बकरी को देखा वह बड़ा कामी था उसने उस बकरी को अपनी पत्नी बनाना चाहा वह कुऐं के बराबर एक गड्ढा खोदने लगा और बकरी को कुऐं से निकाल लिया और उसे अपनी पत्नी बना लिया और उसके साथ विषयों को भोगता रहा जंगल में उसे और भी बकरिया मिली वह उनके साथ भी भोग भोगने लगा किंतु उसकी तृप्ति नही हुई। प्रिये मेरी भी वही स्थिति है मैं संसार के भोगों में डूबा हुआ हूं अब मुझे इनसे वैराग्य हो गया है यह कह कर ययाति वन में भजन करने चला गया।
इति एकोनविंशोऽध्याय

[ अथ विंशोऽध्यायः ]

पुरु के वंश राजा दुष्यन्त और भरत के चरित्र का वर्णन श्री शुकदेव जी कहते है कि ययाति पुत्र पुरु के वंश में हुए थे दुष्यन्त एक बार वे वन भ्रमण के लिए गए थे एक ऋषि के आश्रम पर पहुंचे वहां एक सुन्दर स्त्री बैठी थी जिसे देख दुष्यन्त मोहित हो गए और उससे बोले देवी आप कौन हैं इस वन में अकेली क्या कर रही हैं। वह बोली मेरा नाम शकुन्तला है विश्वामित्र की पुत्री मेनका के गर्भ से जन्मी कण्वऋषि के, द्वारा पालित हूँ।
मैं यही आश्रम में रहती हूं आप मेरे अतिथि हैं भोजन करें विश्राम करे राजा ने भोजन कर वहीं रात्रि निवास किया रात्रि में शकुन्तला दुष्यन्त ने गंधर्व विवाह कर सहवास किया जिससे शकुन्तला गर्भवति हो गई समय पाकर उसके एक पुत्र हुआ कण्व ने उसका नाम भरत रखा भरत के कई पुत्र थे किन्तु योग्य न होने के कारण उन्होंने वृहस्पति और उतथ्य के पुत्र भारद्वाज को गोद ले लिया तथा भारद्वाज के पुत्र मन्यु को राजा बना भरत वन में भजन करने को चले गए।
इति विंशोऽध्यायः

[ अथ एकविंशोऽध्यायः ]

भरत वंश का वर्णन राजा रन्ति केव की कथा-श्रीशुकदेव जी बोले मन्यु के पांच पुत्र हुए बृहत्क्षत्र जय महावीर नर गर्ग नर के वंश में न्तिदेव हुए वे जो मिल जाय उसमें संतोष करने वाले थे एक बार वे अड़तालीस दिन तक भोजन नहीं मिला उनपचासवें दिन जब थोडा मिला और सब लोग बाँटकर उसे खाने लगे एक भिक्षुक आ गया उन्हें भोजन उसे दे दिया और जब जल पीने लगे तब एक प्यासा आ गया और जल भी उसको दे दिया और भूखे प्यासे रह गए। यह सब भगवान की माया थी भगवान उनके सामने प्रकट हो गए मन्यु पुत्र बृहक्षत्र का पुत्र हुआ हस्ति जिसने हस्तिनापुर बसाया।
इति एकोविंशोऽध्यायः

[ अथ द्वाविंशोऽध्यायः ]

पांचाल कोरव और मगध देशीय राजाओं का वंश वर्णन-मन्युवंश में दिवोदास के वंशसे पांचाल वंश में द्रुपद की पुत्री द्रोपदी हुई। सुधन्वा के वंश में जरासंध आदि मगध देशीय राजा हुए हस्ती के वंश में शान्तनु आदि कोरव वंशीय राजा हुए।
इति द्वाविंशोऽध्यायः

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[ अथ त्रयोविंशोऽध्यायः ]

अनु द्रयु तुर्वसु और यदुके वंश का वर्णन-ययाति पुत्र यदु का वंश बड़ा ही पवित्र हैं जहाँ साक्षात् परमात्मा श्री कृष्ण अवतरित हुए।
इति त्रयोविंशोऽध्याय

[ अथ चतुर्विशोऽध्यायः ]

यदुवंश में यात्वत पुत्र अंधक के वंश में देवक ओर उग्रसेन हुए देवक के देवकी नामक पुत्री ओर उग्रसेन के कंस का जन्म हुआ इसी वंश में विदुरथ के पुत्र शूरसेन के पुत्र हुए वसुदेव और एक कन्या पृथा कुंती भोज के गोद चले जाने से उसका नाम कुन्ती हो गया।
इति चतुर्विंशोऽध्यायः
इति नवम स्कन्ध संपूर्ण:
अथ दशम स्कन्ध प्रारम्भ

[ अथ प्रथमोऽध्यायः ]

भगवान के द्वारा पृथ्वी को आश्वासन वसुदेव देवकी का विवाह और कंस के द्वारा देवकी के छः पुत्रों की हत्या-श्रीशुकदेवजी बोले परीक्षित् उस समय लाखों दैत्यों के दल ने घमंडी राजाओं का रुप धारण कर अपने भारी भार से पृथ्वी को आक्रान्त कर रखा था। उससे त्राण पाने के लिए वह ब्रह्माजी की शरण में गई उस समय उसने गो रूप धारण कर रखा था उसने ब्रह्माजी को अपना कष्ट सुनाया ब्रह्माजी उसे ले शिवादि देवताओं के साथ क्षीर समुद्र पर पहुंचे और पुरुष सूक्त से भगवान की स्तुति की तो आकाशवाणी हुई वसुदेवजी के घर भगवान अवतार लेगे सब देवता ब्रज में अवतरित होकर उन्हें सहयोग करें स्वयं शेषजी बड़े भाई के रूप में तथा उनकी आद्य शक्ति भी अवतरित होगें। एक बार उग्रसेन पुत्र कंस ने अपनी चचेरी बहिन देवकी का विवाह वसुदेवजी के साथ किया जब वह उसे रथ में बैठा कर पहचाने जा रहा था तभी आकाश वाणी हुई अरे कंस जिसे तू पहुंचाने जा रहा है उसका आठवां पुत्र तेरा काल होगा। आकाश वाणी सुनते ही कंस ने तलवार खेचली केश पकड़ देवकी को नीचे खेंच लिया और मारने को उद्यत हो गया। वसुदेवजी ने कंस को समझाया ओर कहा देवकी के जितनी भी संताने होगी जन्मते ही तुम्हें दे दूगाँ कंस ने देवकी को छोड़ दिया और वसुदेव देवकी को जेल में डाल दिया जेल में ही उने छः पुत्र हुए जिन्हें कंस ने मार दिया।

 

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इति प्रथमोऽध्यायः

[ अथ द्वितीयोऽध्यायः ]

भगवान का गर्भ प्रवेश और देवताओं द्वारा गर्भ स्तुतिश्रीशुकदेवजी बोले सातवें गर्भ में स्वयं शेषजी थे जिन्हें योग माया ने रोहिणी के गर्भ में पहुंचा दिया। आठवें गर्भ मे स्वयं भगवान आए देवता लोग उनकी स्तुति करने लगे,
प्रार्थना
(1) आवोमन मोहना आवो नन्द नन्दना
गोपी जन प्राण धन राधा उर चन्दना।। कैसे तुम गणिकाके अवगुण विसारेनाथ
कैसे तुम भीलनी के झूठेवेर खावणा।। कैसे तुम द्वारका मे द्रोपदी की टेर सुनी
कैसे तुम गज काज नंगे पैर धावना।। कैसे तुम सुदामा के छिनमे दरिद्र हरे
वैसे उग्रसेन जी को बन्धन से छुडावोना।। जैसे तुम भारतमें भीष्म को प्रण रायो
वैसे वसुदेवजी के वनधन छुडावना।।
प्रार्थना
(2) यह विनय जग कार से अवतार लो अवतार लो
यह प्रार्थना सरकार से अवतार लो अवतार लो प्रभु सुनिए करुण पुकार को अवतारलो अवतार लो
आवो जगत उद्धार को अवतार लो अवतार लो सर्वत्र स्वार्थ अनीति है नही धर्म कर्म मे प्रीति है
भूले हैं प्राणाधारको अवतार लो अवतार लो बढ रहा अत्याचार है मचरहा हाहा कार है
अब हरन भूमि भारको अवतार लो अवतार लो गायें धरणी पर कट रही अरु धर्म संस्कृति मिटरही
करो घ्वंस पापा चार को अवतारलो अवतारलो सर्वत्र सद्व्यवहार हो हरि भक्ति का विस्तार हो
धरि सगुन वपु साकार को अवतार लो अवतार लो
सत्यव्रत सत्यपरं त्रिसत्यं सत्यस्य योनि विहितंच
सत्यस्य सत्यमृत सत्य नेत्रं सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्ना।
इति द्वितीयोऽध्यायः

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[ अथ तृतीयोऽध्यायः ]

भगवान श्रीकृष्ण का प्राकट्य-
तमद्भुतं बालक मम्बुजेक्षण चतुर्भुज शंख गदायुदायुधम्।
श्रीवत्स लक्ष्मं गलशोभि कोस्तुभं पीताम्बरं सान्द्रपयोद सोभग।।
महार्ह वैदूर्य किरीट कुण्डल त्विषा परिष्वक्त सहस्र कुन्तलं।
उददाम कान्च्यांगद कंकणादिभि विरोच मानं वसुदेव ऐक्षत।।
शंख चक्र गदा पद्म धारण कर चतुर्भज रूप में वसुदेव देवकी को दर्शन दिए। वसुदेव देवकी ने उनकी प्रार्थना की।
विदितोअसि भवान् साक्षात् पुरुषः प्रकृतेः परः।
केवलानुभवानन्द स्वरुप: सर्व बुद्धिदृक।।
वसुदेवजी बोले प्रभो मैं समझ गया आप प्रकृति से परे साक्षात् भगवान हैं आपका स्वरुप केवल आनंद और अनुभव है आप सब बुद्वियों के साक्षी हैं।
देवक्युवाचरूपं यत् तत् प्राहुरव्यक्त माद्यं ब्रह्म ज्योतिर्निगुणं निर्विकारं।
सत्तामात्रं निर्विशेषं निरीहं सत्वं साक्षाद् विष्णुरध्यात्म दीपः।।
देवकी बोली प्रभो वेदों ने आपके जिस रूप को अव्यक्त और सब का कारण बताया है। जो ब्रह्म ज्योति स्वरूप समस्त गुणों से रहित और विकार हीन हैं जिसे विशेषण रहित अनिर्वचनीय कहा गया है वही बुद्धि आदि के प्रकाशक विष्णु आप स्वयं हैं।
त्वमेव पूर्वसर्गेअभूः पृश्नि: स्वायम्भुवे सति।
तदाय सुतपा नाम प्रजापतिरकल्मषः।।
भगवान बोले देवी स्वायम्भुव मनवन्तर मे तुम पृश्नि और वसुदेवजी सुतपा थ तुमने मेरी घोर तपस्या की थी और मेरे प्रसन्न होने पर तुमने मेरे समान पुत्र मागा था इसलिए मैं आया हूं देवकी बोली हमने तो पुत्र मांगा था आप तो बाप दादा बनकर आए हो क्योंकि बालक तो छोटा सा दो हाथ वाला होता है। भगवान बोले मैं छोटा शिशु तो हो जाउंगा पर तुम्हें मुझे गोकुल पहुचाना पड़ेगा।
इत्युक्त्वाअसीद्धरिस्तूष्णीं भगवानात्म मायया।
पित्रोः सम्पश्यतोः सद्यो वभूव प्राकृतः शिशु।।
इतना कह भगवान चुप हो गए और छोटा सा प्राकृत शिशु बन गए वसुदेव देवकी के बेडी हथकडी खुल गए तथा जेल के कपाट भी खुल गए सब पहरे दार सो गए वसुदेव जी ने भगवान को एक टोकने मे रखकर सिर पर रख लिया और गोकुल को प्रस्थान किया। आकाश मे बादल छा गए हल्की-हल्की बूंदे गिरने लगी शेषजी ने अपने फन से भगवान के उपर छाया कर ली। यमुना में प्रवेश किया तो यमुना भगवान के चरण स्पर्श के लिए उपर उठने लगी वसुदेवजी घबराये भगवान ने अपना चरण नीचे बढ़ा दिया यमुना चरण स्पर्शकर शान्त हो गई वसुदेवजी गोकुल पहुचे वहां यशोदा सो रही थी पास ही एक छोटी सी बालिका सो रही थी। वसुदेवजी बालक को वहा सुला बालिका को ले मथुरा आगए बेडी हथकडी वापस लग गए। भगवान बन्धन खुलवाते है माया बन्धन करती है।
इति तृतीयोऽध्यायः

[ अथ चतुर्थोऽध्यायः ]

कंस के हाथ से छूट योग माया का आकाश में जाकर भविष्य वाणी करना-श्रीशुकदेवजी बोले राजन् जेल के कपाट ताले बन्द हो गए पहरे दार जग गए बालक के रोने की आवाज आई पहरे दार दौड़ पडे कंस को सूचना की लडखडाता कंस आया देवकी बोली भैया यह अंतिम एक बालिका है इसे छोड़ दो कंस पहले तो घबराया यह काल की जगह कालिका कहाँ से आ गई फिर देवकी के हाथ से छीन पत्थर पर पछाड ने लगा तो वह हाथ में से छूटकर आकाश में उड़ गई और बोली अरे कंस तू मुझे क्या मारेगा तुझे मार ने वाला वृज में पैदा हो गया है। कंस घबराया तत्काल आपत कालीन मंत्री मंडल की बैठक बुलाई कंस को निश्चिन्त करते हुए मंत्री मडल ने निर्णय लिया कि वज के कल प्रात: होते ही छ: माह तक के बालकों को समाप्त कर दिया जावे।
इतिचतुर्थोऽध्यायः

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[ अथ पंचमोऽध्यायः ]

गौकल मे भगवान का जन्म महोत्सव-श्रीशुकदेवजी बोले परीक्षित् वसदेवजी जब बालक को सुला बालिका को लेकर चले गए तब भी यशोदा को पता नही चला कि उसके बालक हुआ है या बलिका प्रात: नन्दजी की बड़ी बहिन सनन्दाजी ने देखाकि यशोदा के पास एक सुन्दर बालक सो रहा है उन्होंने कहा अरी यशोदा देख तेरे एक बालक हुआ है और तुझे खबर भी नहीं क्षण भर में यह बात हवा की तरह सारे बृज में फैल गई नन्द बाबा ने ब्राह्मणों को बुला कर स्वस्ति वाचन करवाया और उन्हें खूब दान दिया बृजवासी दौड़ पड़े नाचते गाते नन्द के द्वार बधाई लेकर पहुंचने लगे नन्द के यहां बडा उत्सव हुआ।
बधाई
बजत बधाइ धुनि छाइ तिहुं लोकन मे
आनन्द नगर के बजत सुर तालकी सुत को जन्म सुनि मुनि देवन आनन्द भयो
दुन्दुभि बाजे पुष्प बरसत रसाल की फुले सब गोपी गोप आज आनन्द उमंग
गेपिन नवेली सुधि भूली आज काल की बृज मे बृजचन्द भयो
यशोदा फरचंद भयो नन्द के आनन्द भयो जय कन्हैया लाल की
बधाई
अनोखो जायो ललना मैं वेदन मे सुन आई
मथुरा में याने जन्म लियो है गोकुल में झूले पलना
लेवसुदेव चले गोकुल को याके चरण पखारे जमना
काहे को याको बन्यो पालनो काहे के लागे फुदना
अगर चन्दन को बन्यो पालनो रेशम के लागे
फुदना दधि माखन को कीच मच्यो है दास भागवत शरणा
इति पंचमोऽध्यायः

[ अथ षष्ठोऽध्यायः ]

श्रीशुकदेवजी वर्णन करते हैं कि पहले दिन उत्सव मनाकर दूसरे दिन प्रात: नन्द तो कंस का कर देने तथा उसे पुत्र जन्म की खुश खबर देने मथुरा चले गए और पीछे से कंस की भेजी पूतना गोकुल पहुंची उसने एक सुन्दर गोपी रूप धारण कर नन्द भवन में प्रवेश किया और सीधे वहाँ पहुंची जहाँ लाला सो रहा था उसने झट लाला को गोद में उठाया और अपना जहर भरा स्तन उसके मुँह मे दे दिया भगवान ने स्तन को जोर से पकड़ लिया दूध के साथ उसके प्राण भी पी गए वह अपने असली रूप में आ गई और बाहर गलियारे में धडाम से जाकर गिर गई ओर समाप्त हो गई इसी बीच नन्द बाबा कंस को कर देकर वसुदेव जी के पास पहुंचे व समाचार जाने वसुदेव जी बोले शीघ्र जावो बृज मे उत्पात हो रहे हैं नन्द बाबा शीघ्र गोकुल पहुचे और देखाकि मीलों लम्बा चौड़ा पूतना का शरीर गलियारे में पड़ा है और लाला उसके वक्षस्थल पर खेल रहा है यशोदा ने दौड़कर लाला को गोद में उठा लिया और गो पुच्छ से झाडा लगाया पूतना के शरीर के टुकड़े-टुकडे कर उसे दूर ले जाकर जला दिया उसमें से सुगंध निकली भगवान ने उसका स्तन पान जो कर लिया था।
इति षष्ठोऽध्यायः

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[ अथ सप्तमोऽध्यायः ]

शकट भंजन और तृणावर्त उद्धार-श्रीशुकदेवजी बोले एक समय भगवान का नक्षत्रोत्सव मनाया जा रहा था भगवान का पलना एक छकडे के नीचे बांध रखा था नन्द यशोदा अतिथी सेवा में व्यस्त थे छकडे में एक शकटा सुर नाम का दैत्य छकड़े का रूप बनाकर बैठ गया वह भगवान को मारना चाहता था भगवान ने एक लात मार कर छकडा उलट दिया और शकटासुर समाप्त हो गया भगवान का पलना एक तरफ पड़ा है यशोदा ने लाला को उठा लिया सब सोचने लगे यह छकडा कैसे उलट गया और यह लिस कौन है यशोदा ने लाला को सुला दिया तभी तृणावर्त राक्षस बबंडर का रूप धारण कर लाला को उड़ाकर ले गया भगवान ने आकाश में ही उसे दबाकर समाप्त कर दिया उसका शरीर कई योजन लंबा चौडा धरती पर गिरा उसकी छाती पर लाला खेल रहा है सब ने आश्चर्य किया अरे देखो यह राक्षस हमारे लाला को उडाकर ले गया था। नारायण ने ही इसकी रक्षा की है यशोदा ने दौड़कर लाला को उठा लिया।
इतिसप्तमोऽध्यायः

[ अथ अष्टमोऽध्यायः ]

नामकरण संस्कार और बाललीला-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते हैं एक समय वसुदेवजी के कुल पुरोहित गर्गाचार्यजी गोकुल में आए नन्द जी ने उनका स्वागत किया ओर कहा प्रभो भले पधारे अब आप कृपाकर दोनों लालाओं का नाम करण कर दें गर्गाचार्य बोले बहुत अच्छा और गो शाला में जाकर नाम करण करने लगे।
अयंहि रोहिणि पुत्रो रमयन सुहृदो गुणे
रामइति बलाधिक्या बलं विदुः
यदूनामपृथग्भावात् संकर्षण मुशनपुत
गर्गजी बोले यह जो रोहिणिजी का पुत्र है इसका नाम राम है बल में अधिक होने से इसे बलराम कहेगें।
दूसरा जो सांवला-सांवला है इसका नाम कृष्ण होगा कभी इसने वसुदेवजी के यहां जन्म लिया था अत: इसे वासुदेव भी कहेगे नाम करण संस्कार कराकर गर्गाचार्यजी को विदा किया। गर्गाचार्यजी को विदा करते ही भगवान के दर्शन करने के लिए शिवजी ने यशोदा के द्वार पर अलख जगाया यशोदाजी भिक्षा लेकर निकली मोती भरा थाल शिवजी बोले--
द्वार यशोदा के ठाडे भोले बाबा
दिखलादे मेया मोहे मुरली वाला भिक्षा लेके जावो बाबा लाल डर जायेगा
भेष तुम्हारा लख लाल घबरायेगा भेष तुम्हारो लागे सबसे निराला-दिखलादे
भिक्षा नही लूगां मैया दर्शन का प्यासा आया हूं दूर से मै लेकर के आशा
अंधेरे मे कहीं नही दिखता उजारा-दिखलादे

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शिवजी ने यशोदा से बहुत प्रार्थना की किंतु उन्हेंलाला के दर्शन नहीं कराये निराश हो शिवजी एक पेड के नीचे जाकर बैठ गए और परमात्मा का ध्यान करने लगे प्रभो क्या निराश लौटावोगें दर्शन नहीं दोगे इतने में भगवान जोर जोर से रोने लगे यशोदा कभी दूध पिलाती कभी खिलौना देती पर भगवान रोने से बन्द नही हुए तो यशोदा कहने लगी लाला पै कोई जादू टोना कर दियो है। काहूसी ने मार दियो री टोना मेरो मचल्यो श्याम सलोना भूलगइ मैने नाहि लगायो माथे बीच ढिठोना रोय रोय रुदन करे मेरो बालो फेंक दिए खिलोना दूध नपिए लालो दहीन खावे ना खावे माखन लोना रुठ धरणी पर लोट गयो अरु लग्यो जोर से रोना पहलेहि मैने कही श्यामसों सखियन संग नाचोना बुरी नजर है इन सखियन की बरजे से बरज्योना एक सखी बोली मैया अभी अभी जो बाबा आए थे मुझे तो यह उन्ही का चमत्कार लगता है यशोदा बोली सखी जल्दी जावो उस बाबा को लेकर आवो एक सखी दौड़कर गइ पास ही बैठे बाबा को लेकर आ गई। भगवान ने शिवजी को दर्शन दिए और रोना बन्द कर दिया शिवजी के मन में इच्छा हुई कि दर्शन तो हो गए अब चरण स्पर्श और हो जाता तो अच्छा होता ज्योंहि शिवजी मुडे भगवान फिर रोने लगे यशोदा बोली बाबा लाला फिर रोने लगा मैया ऐसा कर इस लाला के चरण को मेरे सिर पर घुमादे फिर लाला कभी नहीं रोयेगा यशोदा ने भगवान के चरण को शिवजी के मस्तक पर रख दिया शिवजी धन्य हो गए। जब राम कृष्ण कुछ बड़े हो गए ओर घुटरन चलने लगे शोभित कर नवनीत लिए। घुटरन चलत रेणु तन मण्डित मुख दधिलेप किए। चारु कपोल लोल लोचन छवि मृगमद तिलक दिए। लट लटकन मनु मत्त मधुप गन मादक मधुहि पिए कठुला कण्ठ बज्र केहरि नख राजत रुचिर हिए धन्य सूर एको पल या सुख का शत कल्प जिए अब तो भगवान थोड़े और बड़े हो गए खड़े होकर ठुमक-ठुमक कर चलने लगे माता ने उनके पैरों में पैंजनी पहनादी और सखियां उन्हें नचाने लगी
बाजी बाजी ललाकी पैंजनियां
छूमूछम छननन छुमछुम छननन यशोदा लाल को चलना सिखावत
अगुंली पकड कर दो जनिया पीत झगुलिया तन पहिरावत
टोपी लगावत लटकनियां नन्द बाबा सों बाबा कहत है
तीन लोक के वे धनिया शिव ब्रह्मा जाको पार न पावे
ताहि नचावत ग्वालनियां
एक दिन भगवान रोने लगे यशोदा उन्हें गोद में लेकर मनाने लगी किसी भी तरह नही माने तो माता ने उन्हें चन्द्रमा दिखाकर बोली देख आकाश में कितना सुन्दर खिलौना है तू उसके साथ खेल तो भगवान ने तो जिद कर ली मुझे चन्द्र खिलोना लाकर दो।
इति अष्टमोऽध्यायः

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[ अथ नवमोऽध्यायः ]

श्रीकृष्ण का उखल से बांधा जाना-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते है एकदिन यशोदाजी भगवान को गोद में लेकर स्तनपान करा रही थी कि भगवान बोले मैया अपको दूध प्यारो है या मैं मैयाबोली लाला तेरे उपर तो लाखों-लाखों गायों का दूध न्योछावर है इतने मे चूल्हे पर दूध उफनता नजर आया तो यशोदा ने झटसे लाला को नीचे उतार दूध संवार ने चली गई भगवान ने सोचा अभी-अभी तो मैया लाखों गायों का दूध मेरे पर न्योछावर कर रही थी और अभी मुझे नीचे डालकर दूध सवारने चली गई। आज मैया को सबक सिखाना है वैसे भी माखन चोरी लीला तो करनी ही है क्यों नहीं घर से ही शुरु किया जावें भगवान ने एक पत्थर उठाया और बड़ी मथानी जो दही से भरी थी को तोड़ दिया पूरे आँगन में दही का कीच मच गया माखन की कमोरी लेकर बाहर आ गए।स्वयं माखन खाने लगे और ग्वालों को बांटने लगे इतने में मैया ने आकर देखा कि पूरे आँगन में दही फैल रहा है और माखन की कमोरी भी नही है बाहर आकर देखा कन्हैया सबको माखन खिला रहा है मैया को देखते ही भगवान मारे डर के कमोरी छोड़कर भग गए पीछे-पीछे यशोदा पकड़ ने को भग रही है थोडी दूर जाकर भगवान को पकड़ लिया अब तुझे उखल से बांधूगी और बांधने लगी किंतु रस्सी दो अंगुल छोटी पड़ गई कई घरों से रस्सी मगाई लेकिन पूरी नहीं हुई अन्त में माता को परेशान देख भगवान बंध गए मैया ने भगवान को उखल से बांध दिया ओर अपने घर धंधे में लग गई बलरामजी आए और बोले करोड़ों बज्रों को तोड़ने वाले इस छोटीसी रस्सी को नही तोड़ सकते इसे तोड़कर मुक्त हो जावो भगवान बोले दादा यह प्रेम की डोरी है इसे मैं नहीं तोड़ सकता।
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