आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्या• श्लोकार्थ aasamaho charanrenu jushamahm sya shlok

आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्या श्लोक- 
आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्या श्लोकार्थ aasamaho charanrenu jushamahm sya shlok
आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्या वृन्दावने किमपि गुल्मलतौषधीनाम् । 
या दुस्त्यजं स्वजनमार्यपथं च हित्वा भेजुर्मुकुन्दपदवीं श्रुतिभिर्विमृग्याम् ॥
(श्रीमद्भा० १० । ४७ । ६१ ) 

आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्या श्लोकार्थ- 
मेरे लिये तो सबसे अच्छी बात यही होगी कि मैं इस वृन्दावनधाममें कोई झाड़ी, लता अथवा ओषधि-जड़ीबूटी ही बन जाऊँ ! अहा ! यदि मैं ऐसा बन जाऊँगा, तो मुझे इन वजाङ्गनाओंकी चरणधूलि निरन्तर सेवन करनेके लिये मिलती रहेगी इनकी चरण-रजमें स्नान करके मैं धन्य हो जाऊँगा। धन्य हैं ये गोपियाँ । देखो तो सही, जिनको छोड़ना अत्यन्त कठिन है, उन स्वजन-सम्बन्धियों तथा लोकवेदकी आर्य-मर्यादाका परित्याग करके इन्होंने भगवान्की पदवी, उनके साथ तन्मयता, उनका परम प्रेम प्राप्त कर लिया है। औरोंकी तो बात ही क्या-भगवद्वाणी, नहीं-नहीं, उनकी निःश्वासरूप समस्त श्रुतियाँ, उपनिषदें भी अबतक भगवान्के परम प्रेममय स्वरूपको ढूँढ़ती ही रहती हैं, प्राप्त नहीं कर पातीं। 



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