यदा किंचिज्ज्ञोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवं
तदा सर्वज्ञोऽसमीत्यभवदवलिप्तं मम मनः ।
यदा किंचित्किंचिद्बुधजनसकाशादवगत
तदा मूर्खोस्मीति ज्वर इव मदो मे व्यपगतः ॥[ 8 ]
यदा किंचिज्ज्ञोऽहं द्विप इव श्लोकार्थ-
जब मैं बिल्कुल ही अज्ञानी था तब मैं मदमस्त हाथी की तरह अभिमान मे अंधे होकर अपने आप को सर्वज्ञानी समझता था। लेकिन विद्वानो की संगति से जैसे-जैसे मुझे ज्ञान प्रप्त होने लगा मुझे समझ मे आ गया की मैं अज्ञानी हूँ और मेरा अहंकार जो मुझपर बुखार की तरह चढ़ा हुआ था उतर गया।
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