bhagwat puran in sanskrit with hindi translation
- भागवत पुराण - दुतीय स्कन्ध के श्लोक
वरीयानेष ते प्रश्नः कृतो लोकहितं नृप |
आत्मवित्सम्मतः पुसां श्रोतव्यादिषु यः परः ||
राजन तुमने लोकहित के लिए बड़ा उत्तम प्रश्न पूछा है आत्म ज्ञानी महापुरुष ऐसे प्रश्न की बड़ी प्रशंसा करते हैं शास्त्रों में अनेकों बातें करने एवं सुनने की बताई गई है परंतु जिन्हे आत्म तत्व तत्व का ज्ञान नहीं है |
ऐसी अज्ञानी जो घर गृहस्थी में फंसे हुए हैं जिनकी रात्रि सोने में अथवा स्त्री प्रसंग में व्यतीत हो जाती है और दिन कुटुंब के भरण पोषण के लिए धन की चिंता में व्यतीत हो जाता है वह प्रतिक्षण मृत्यु की ओर अग्रसर होते हुए भी चेतते नहीं है|
bhagwat puran shlok in sanskrit
तसमाद्भारत सर्वात्मा भगवानीश्वरो हरिः |
श्रोतव्यः कीर्तितव्यश्च स्मर्तव्यश्चेच्छताभयम् ||
परीक्षित जो अभय पद को प्राप्त करना चाहते हैं ऐसे पुरुषों को सदा सर्वदा सर्वात्मा भगवान श्री हरि की ही कथा का श्रवण करना चाहिए उनके ही नामों का कीर्तन करना चाहिए और उनका ही स्मरण करना चाहिए मनुष्य जन्म का परम लाभ यही है कि अंत समय में भगवान नारायण की स्मृति बनी रहे परीक्षित इसलिए ही जो निर्वित्ति पारायण महापुरुष है वह सदा सर्वदा भगवान श्रीहरि के ही गुणों में रमे रहते हैं |
bhagwat puran in sanskrit with hindi translation
पातालमेतस्य हि पादमूलं
पठन्ति पार्ष्णिप्रपदे रसातलम् |
महातलं विश्वसृजोथ गुल्फौ
तलातलं वै पुरुषस्य जघें ||
पाताल विराट भगवान के तलवे हैं रसातल पंजे हैं महातल एड़ी के ऊपर की गांठ है तलातल पिंडलियां है सुतल घुटने हैं वितल और अतल दोनों जघांयें हैं | नाभि तक नाभि से नीचे का स्थान नाभि भुवर्लोक छातीस्वर्ग लोक है गला महर लोक है मुख जनलोक है |
ललाट तपो लोक है और मस्तक सत्यलोक है| ब्राह्मण विराट भगवान के मुख हैं छत्री भुजाएं हैं वैस्य जघां है़ और शूद्र भगवान के चरण है इस प्रकार संपूर्ण ब्रह्मांड भगवान का ही स्वरुप है इसलिए सर्वत्र भगवान का ही दर्शन करें संसारिक पदार्थों के लिए अधिक परिश्रम ना करें क्योंकि भाग वसात उनकी प्राप्ति स्वतः ही हो जाएगी |
bhagwat puran shlok in sanskrit
आयुः कर्म च वित्तं च
विद्या निधन नेव च |
पञ्च्यैतान्यपि सृज्यन्ति
गर्भस्थस्यैव देहिनः ||
आयु विद्या धन मृत्यु और कर्म इन पांचों का निर्माण गर्भ में ही हो जाता है |
सत्यां क्षितौ किं कशिपोः प्रयासै
र्बाहौ स्वसिद्धे ह्युपबर्हणैः किम् |
सत्यञ्जलौ किं पुरुधान्नपात्र्या
दिग्वल्कलादौ सति किं दुकूलैः ||
यदि पृथ्वी पर सोने से काम चल जाता है तो गद्दे के लिए पलंग के लिए प्रयास करने की क्या आवश्यकता है | भुजाओं के होते हुए तकिए की क्या आवश्यकता अंजलि के होते हुए बहुत से पात्र एकत्रित करने की क्या आवश्यकता और चीर वतकल पहन कर काम चल जाता है तो अनेकों वस्त्रों से क्या प्रयोजन |
bhagwat puran shlok in sanskrit
चीराणि किं पथि न सन्ति दिशन्ति भिक्षां
नैवाङ्घ्रिपाः परभृतः सरितोप्यशुष्यन् |
रुद्धा गुहाः किमजितोवति नोपसन्नान्
कस्माद् भजन्ति कवयो धनदुर्मदान्धान् ||
क्या मार्ग में चीरवत्कल नहीं पड़े रहते क्या वृक्षों ने हमें फल फूल की भिक्षा देना बंद कर दिया है क्या नदियों का जल सूख गया है क्या शरणागत की रक्षा करना पालन करना भगवान ने बंद कर दिया है|
bhagwat puran in sanskrit with hindi translation
अकामः सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधीः |
तीव्रेण भक्तियोगेन यजेत पुरुषं परम् ||
कोई कामना हो अथवा ना हो तथा समस्त कामनाओं की इच्छा हो अथवा मोक्ष की इच्छा हो तो तीव्र भक्ति योग से भगवान श्रीकृष्ण की उपासना करें--
श्वविड्वराहोष्ट्रखरैः संस्तुतः पुरुषः पशुः |
न यत्कर्णपथोपेतो जातुनाम गदाग्रजः ||
परीक्षित- जिसने कभी भी इस जीवन में भगवान श्री कृष्ण के मधुर लीलाओं का श्रवण नहीं किया वह मनुष्य कुत्ते ,सूकर, ऊंट और गधे के समान है |bhagwat puran shlok in sanskrit
नम: परस्मै पुरुषाय भूयसे
सदुद्भवस्थाननिरोध लीलया |
गृहीत शक्तित्रितयाय देहिना
मन्तर्भवायानुपलक्ष्य वर्त्मने ||2,4,12
मैं उन परम पुरुष भगवान जो इस जगत की उत्पत्ति पालन और संघार की लीला के लिए ब्रह्मा विष्णु और शिव इन तीनों रूप को धारण करते हैं जो समस्त प्राणियों में अंतर्यामी रूप से विराजमान है उन परम ब्रह्म परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूं |
यत्कीर्तनं यत्स्मरणं यदीक्षणम्
यद्वन्दनं यच्छ्रवणं यदर्हणम् |
लोकस्य सद्यो विधुनोति कल्मषं
तस्मै सुभद्रश्रवसे नमो नमः ||2,4.15
जिन भगवान श्री हरि का कीर्तन स्मरण दर्शन वंदन श्रवण और पूजन प्राणियों के कल्मष को पापों को शीघ्र ही नष्ट कर देता है,उन पवित्र कीर्ति भगवान को मैं बारंबार नमस्कार करता हूं |
bhagwat puran in sanskrit with hindi translation
नारायण परा वेदा देवा नारायणाग्ङजा |
नारायणपरा लोका नारायण परा मखा ||
नारायणपरो योगो नारायण परम तपः |
नारायण परं ज्ञानम नारायण परा गतिः ||
वेद, देवता ,लोक,यज्ञ ,योग, तपस्या, ज्ञान और गति सबका पर्यावसान भगवान नारायण में ही है उन भगवान नारायण की इच्छा जब-- ~एकोहं बहुस्यामः~
एक से बहुत होने की हुई तो उन्होंने माया से अपने स्वरूप में काल कर्म और स्वभाव को स्वीकार किया|
ना भारती मेङ्ग मृषोपलक्ष्यते
न वै क्वचिन्मे मनसो मृषा गतिः |
न मे हृषीकाणि पतन्त्यसत्पथे
यन्मे हृदौत्कण्ठवता धृतो हरिः ||
( 2,6,33 )
नारद इन्ही भगवान नारायण के ध्यान में मग्न रहता हूं जिसके कारण मेरी वाणी कभी असत्य भाषण नहीं करती, मेरा मन कभी असत्य संकल्प नहीं करता और मेरी इंद्रियां कुमार्ग में नहीं जाती | bhagwat puran in sanskrit with hindi translation
अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् यत् सदसत् परम् |
पश्चादहं यदेतच्च योवशिष्येत सोस्म्यहम् ||
ब्रह्मा जी इस जगत की सृष्टि से पूर्व केवल मैं ही था मेरे अलावा और कुछ नहीं था इस जगत के रूप में मैं ही विद्यमान हूं और जब यह जगत नहीं रहेगा तब केवल मैं ही रहूंगा |ऋतेर्थं यत् प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि |
तद्विद्यादात्मनो मायां यथा भासो यथा तमः ||
वास्तविक वस्तु उस परमात्मा को छोड़कर जिस की प्रतीति होती है उस आत्म तत्व परमात्मा की प्रतीति नहीं होती उसे माया कहते हैं| जैसे आकाश में चंद्रमा एक है परंतु आंख के सामने उंगली रखने पर वह दो प्रतीत होते हैं और आकाश में तारों के मध्य राहु नामक ग्रह विद्यमान हैं परंतु वह दिखाई नहीं देता इसी प्रकार चराचर जगत में परमात्मा विद्यमान हैं परंतु उसका ज्ञान नहीं होता |यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु |
प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम् ||
जैसे प्राणियों के छोटे बड़े शरीर में आकाश आदि पंचमहाभूत प्रविष्ट होते हैं और पहले से ही विद्यमान रहने के कारण प्रविष्ट नहीं भी होते ऐसे ही ब्रह्मा जी प्राणियों के शरीर में आत्म रूप से मैं सदा प्रविष्ट हूं और मेरे अतिरिक्त कोई दूसरी वस्तु है ही नहीं इसलिए मैं उस में प्रविष्ट नहीं हूं|एतावदेव जिज्ञास्यं तत्वजिज्ञासुनात्मनः |
अन्वयव्यतिरेकेभ्यां यत् स्यात सर्वत्र सर्वदा ||
यह ब्रह्म नहीं यह ब्रह्म नहीं इस प्रकार निषेध की पद्धति से अथवा यह ब्रह्म है यह ब्रह्म है इस प्रकार ब्रह्म है इस प्रकार अनवय की पद्धति से यही सिद्ध होता है की सर्वदा सब जगह है वह ब्रह्म विद्यमान है |जो परमात्म तत्व को जानना चाहते हैं उन्हें केवल इतना ही जानने की आवश्यकता है | bhagwat puran in sanskrit with hindi translation
अत्र सर्गो विसर्गश्च स्थानं पोषणमूतयः |
मन्वन्तरेशानुकथा निरोधो मुक्तिराश्रयः ||
सर्ग ,विसर्ग ,स्थान ,पोषण, ऊति, मन्वंतर, ईशानु कथा ,निरोध, मुक्ति और आश्रय |तृतीय स्कंध को सर्ग कहते हैं-- इसमें सूक्ष्म सृष्टि का वर्णन किया गया है |चतुर्थ स्कंध को विसर्ग कहते हैं --ब्रह्मा जी से लेकर चराचर जगत की सृष्टि विसर्ग है |पंचम स्कंध को स्थान कहते हैं-- प्रतीक्षण विनाश की ओर बढ़ने वाली सृष्टि को एक मर्यादा में स्थिर रखने से भगवान की जो श्रेष्ठता सिद्ध होती है उसे स्थान कहते हैं |छठमें स्कंध को पोषण कहते हैं-- भगवान की अपने भक्तों पर अहैैतुक कृपा ही पोषण है| सातमें स्कंध को ऊति कहते हैं-- जीवों की बे वासनाएं जो उन्हें कर्म बंधन में डाल देती हैं उन्हें ऊति कहते हैं | आठवें स्कन्ध को मन्वंतर कहते हैं---मन्वंतर के अधिपति जो मनु राजा पालन रूप सुधर्म का अनुष्ठान करने वाले हैं उसे मन्वंतर कहते हैं |नवमें स्कंध को ईषानु कथा कहते हैं--- भगवान और भगवान के भक्तों की विविध आख्यानों को ईशानुकथा कहा गया है | दशम स्कंध निरोध है----जब भगवान योग निद्रा का आश्रय ले सयन करना चाहते हैं उस समय जीव अपनी उपाधियों के साथ प्रभु में लीन हो जाता है वही निरोध है| 11 में स्कंध को मुक्ति कहते हैं------मुक्तिर्हित्वान्यथारूपं स्वरूपेण व्यवस्थितिः ||
अनात्म भाव का परित्याग और अपने वास्तविक स्वरूप परमात्मा में स्थित होना ही मुक्ति हैैऔर बारहवें स्कन्ध को आश्रय कहते हैं ------इस जगत की उत्पत्ति और प्रलय जिस तत्व से प्रकाशित होता है वह परम ब्रह्म ही सबका आश्रय है | bhagwat puran in sanskrit with hindi translation
- आप के लिए यह विभिन्न सामग्री उपलब्ध है-
भागवत कथा , राम कथा , गीता , पूजन संग्रह , कहानी संग्रह , दृष्टान्त संग्रह , स्तोत्र संग्रह , भजन संग्रह , धार्मिक प्रवचन , चालीसा संग्रह , kathahindi.com
आप हमारे whatsapp ग्रुप से जुड़ने के लिए यहाँ क्लिक करें- click here

हमारे YouTube चैनल को सब्स्क्राइब करने के लिए क्लिक करें- click hear
bhagwat puran in sanskrit with hindi translation