F bhagwat puran shlok - bhagwat kathanak
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  • भागवत पुराण - तृतीय  स्कन्ध के श्लोक 
यदा तू राजा स्वसुतानसाधून्
              पुष्णन्नधर्मेण विनष्टदृष्टिः |
भ्रातुर्यविष्ठस्य सुतान् विबन्धून्
               प्रवेश्य लाक्षाभवने ददाह ||
परीक्षित जिस समय अंधे राजा धृतराष्ट्र पुत्र मोह में अंधे हो रहे थे वह अन्याय पूर्वक अपने पुत्रों का पालन पोषण कर रहे थे उस समय उन्होंने निरपराध महाराज पांडु के पुत्रों को जो सब तरह से योग्य थे उन्हें लाक्षा भवन में जलाकर मारना चाहा परंतु पांडव विदुर जी की सहायता से वहां से निकलने में सफल हुए मार्ग में हिडिंब से भीमसेन का युद्ध हुआ।



इन्द्रप्रस्थं यमप्रस्थं अवन्तिवारुणावतम् |
देहिमे चतुरग्रामान पञ्चमंहस्तिनापुरम् ||
पांडव पहला गांव इंद्रप्रस्थ ( दिल्ली से लेकर संपूर्ण हरियाणा मांग रहे हैं ) दूसरा गांव यमप्रस्थ ( राजस्थान से लेकर संपूर्ण मरूभूमि ) तीसरा अवंती ( उज्जैन से लेकर संपूर्ण मध्यप्रदेश और दक्षिण भारत ) वरुणावर्त ( काशी से लेकर संपूर्ण उत्तर प्रदेश ) और पांचवा गांव है ( हस्तिनापुर से लेकर संपूर्ण उत्तराखंड )


यत्र योगेश्वरः कृष्णः यत्र पार्थो धनुर्धरः |
तत्र श्रीर्विजयो मूर्तिः ध्रुवानीतिर्मतिर्मम् ||
जहां योगेश्वर श्रीकृष्ण और गांडीव धारी अर्जुन हैं विजय वहीं है |

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त्यजेत एकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत |
ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथ्वीं त्यजेत  ||
यदि एक व्यक्ति के त्याग से कुल की रक्षा हो रही है तो उसका त्याग कर देना चाहिए गांव के लिए कुल का और नगर के लिए गांव का भी क्या कर देना चाहिए| 


दुर्भगो बत लोकोयं यदवो नितरामपि |
ये संवसन्तो न विदुर्हरिं मीना इवोडुपम् ||
विदुर जी यह लोक भाग्य हीन है और उसमें भी यदुवंशी तो नितांत अभागे हैं जो श्री कृष्ण के साथ रहते हुए भी उन्हें पहचान नहीं सके | जैसे अमृत में चंद्रमा के समुद्र में रहते हुए मछलियां उसे नहीं पहचान पाती |


सुखाय कर्माणि करोति लोको 
         न तैः सुखं वान्यदुपारमं वा |
विन्देत भूयस्तत एव दुखं 
         यदत्र युक्तं भगवान् वदेन्नः ||
मुनिवर संसारी प्राणी सुख की प्राप्ति के लिए कर्म करते हैं परंतु उन्हें सुख नहीं मिलता सुख के स्थान पर और दुख बढ़ जाता है इस विषय में क्या करना चाहिए मैंत्रेय मुनि ने कहा विदुर जी आपने लोकमंगल के लिए बहुत ही उत्तम प्रश्न पूछा है |

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त्वमेकः सर्वभूतानां जन्मकृद वृत्तिदः पिता |
अथापि नः प्रजानां ते शुश्रूषा केन वा भवेत ||
आप प्राणियों को जन्म तथा आजीविका देने वाले पिता है आज्ञा करिए हम आपकी क्या सेवा करें


चत्वारि खलु कार्याणि सन्ध्या काले विवर्जयेत |
आहारं मैथुनं निद्रां स्वाध्यायञ्च चतुर्थकम्  |
शाम के समय भोजन स्त्री प्रसंग सोना और पढ़ना नहीं चाहिए महर्षि कश्यप के इस प्रकार समझाने पर भी दिति नहीं मानी उनके वस्त्रों को पकड़ लिया महर्षि कश्यप ने दिति के इस दुराग्रह को देखा तो दैव को प्रणाम किया और उनकी इच्छा को पूर्ण कर स्नान आचमन प्राणायाम कर भगवान का ध्यान करने लगे |


नाहं तथाद्मि यजमानहविर्विताने 
                श्च्योतदघृतप्लुतमदन हुतभुङमुखेन |
यदब्राम्हणस्य मुखतश्चरतोनुघासं 
                 तुष्टस्य मय्यवहितैर्निजकर्मपाकैः ||
यजमानों के द्वारा बड़े-बड़े यज्ञों में दी हुई आहुति से मैं उतना प्रसन्न नहीं होता जितना कि घी से युक्त पदार्थों को ब्राह्मणों को खिलाने से प्रसन्न होता हूं इस प्रकार भगवान ने ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन किया 


स्वायम्भुवस्य च मनोर्वंशः परम सम्मतः |
कथ्यतां भगवन यत्र मैथुनेनैधिरे प्रजा:  ||
 मुनिवर आप परम आदरणीय श्री स्वयंभू मनु के वंश का वर्णन कीजिए ,जिसमें मैथुन धर्म से प्रजा की सृष्टि हुई थी |

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तथा स चाहं परिवोढुकामः 
           समानशीलां गृहमेधधेनुम्  |
उपेयिवान्मूल मशेषमूलं  
           दुराशयः कामदुघाङ्घ्रिपस्य ||
प्रभु आपके चरण समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं मेरा हृदय काम से कलुसित है | मैं अपने अनुरूप स्वभाव वाले गृहस्थ धर्म में सहायक शीलवती कन्या से विवाह करने की इच्छा से आपके चरणों की शरण में आया हूं , प्रभु आप मेरी इस कामना को पूर्ण कीजिए ऋषि कर्दम के इस कामना को भगवान नारायण ने सुना तो उनकी आंखों से अश्रु बिंदु निकलकर पृथ्वी में गिर गया | जिससे बिंदु सरोवर तीर्थ प्रकट हुआ |


तुष्टोहमद्य तव मानवि मानदायाः
             शुश्रूषया परमया परया च भक्त्या |
यो देहिनामयमतीव सुह्रत्स्वदेहो 
              नावेक्षितः समुचितः क्षपितु ं मदर्थे ||
हे मनु नंदिनी देवहूति प्राणियों को अपना शरीर अत्यंत प्यारा होता है | परंतु तुमने अपने शरीर की परवाह है ना करके मेरी जो सेवा की है उससे में प्रसन्न हो गया तुम्हारी जो इच्छा हो वह मुझ से मांग लो देवहूति ने कहा प्रभु विवाह के समय आपने जो प्रतिज्ञा की थी उसे पूर्ण करो |


निर्विण्णा नितरां भूमन्नसदिन्द्रियतर्षणात |
येन सम्भाव्यमानेन प्रपन्नान्धं तमः प्रभो ||
प्रभो इन इंद्रियों के विषय लालसा को पूर्ण करते करते मैं थक गई हूं | और अज्ञान अंधकार में पड़ी हुई हूं इसलिए प्रकृति और पुरुष के विवेक के लिए मैं आपकी शरण में आई हूं |


योग आध्यात्मिकः पुसां मतो निः श्रेयसाय मे |
अत्यन्तोपरतिर्यत्र   दुःखस्य च  सुखस्य   च  ||
माताजी सुख और दुख की आत्यन्तिक निवृत्ति का एकमात्र साधन है , आध्यात्मिक योग--


चेतः खल्वस्य बन्धाय मुक्तये चात्मनो मतम् |
गुणेसु सक्तं बन्धाय रतं वा पुंसि मुक्तये   ||
माता जी यह चित ही बंधन और मोक्ष का एकमात्र कारण है | जब यह मन गुणो में विषयों में आसक्त हो जाता है तो बंधन का हेतु होता है | और जब यही मन परमात्मा में अनुरक्त हो जाता है तो मोक्ष का कारण बन जाता है | 



तितिक्षवः कारूणिका सुह्रदः सर्वदेहिनाम् |
अजातशत्रवः शान्ताः साधवः साधुभूषणाः ||
तितिक्षु ( परम सहनशील ) अहैतुक करुणा कारक समस्त प्राणियों के प्रति सौहार्द रखने वाले शत्रुता से रहित परम शांत साधु पुरुष प्रतिदिन मेरी कथाओं का गान करते हैं जिसका श्रवण करने से संसार की आसक्ति छूट जाती है और मुझ में प्रेम उत्पन्न हो जाता है |


काचित्त्वय्युचिता भक्तिः कीदृशी मम गोचरा |
यया पदं ते निर्वाण मंजसान्वाश्नवा अहम्  ||
प्रभो मुझ जैसी अबला स्त्री के लिए आपकी किस प्रकार की भक्ति उचित है जिसको करने से मै सफलता से निर्वाण पद को प्राप्त कर सकूं |


पंचभिः पंचभिर्ब्रह्म चतुर्भिर्दशभिस्तथा |
एतच्चतुर्विंशतिकं गणं प्राधानिकं विदुः ||

माताजी- पृथ्वी , जल , तेज , वायु , आकाश यह पंचमहाभूत | शब्द , स्पर्श , रूप , रस , गंध ये पांचतन्मात्राएं |
मन , बुद्धि , चित्त और अहंकार ये चार अंतःकरण |


सञ्चिन्तयेद्भगवतश्चरणारविन्दं
         वज्राङ्कुशध्वजसरोरुहलाञ्छनाढ्यम् |
उत्तुंगरक्तविलसन्नखचक्रवाल 
         ज्योत्स्नाभिराहतमहद्धृदयान्धकारम् ||
सर्वप्रथम भगवान के चरण कमलों का ध्यान करें भगवान के चरण वज्र , अंकुश , ध्वजा और कमल के चिन्ह से युक्त हैं | उनके चरण कमलों में जो लाल लाल नखचंद्रिका है वह साधकों के द्वारा ध्यान करने से ह्रदयान्धकार को नष्ट कर देती है |


अभिसन्धाय यो हिंसां दम्भं मात्सर्यमेव वा |
संरम्भी भिन्नदृग्भावं मयि कुर्यात्स तामस ः ||
जो पुरुष हिंसा दंभ और मात्सर्य भाव रख कर मेरी भक्ति करता है , वह तामस भक्त हैं |
जो यश और ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए भजन करता है वह राजस भक्त हैं |
और जो पापों के नाश के लिए तथा पूजन भजन करना कर्तव्य है इस दृष्टि से मेरा भजन करते हैं वह सात्विक भक्त हैं |


सालोक्य सार्ष्टि सामीप्यसारूप्यैकत्वमप्युत |
दीयमानं न गृह्णन्ति विना मत्सेवनं जनाः ||
मुझे छोड़कर सालोक्य , सार्ष्टि , सामीप्य , सारूप्य और सायूज्य इन पांच प्रकार के मोक्ष को भी नहीं चाहता , वह भक्त निर्गुण भक्त है | 


गृहेषु कूट धर्मेषु दुःख तन्त्रेष्वतन्द्रितः |
कुर्वन्दुःख प्रतीकारं सुखवन्मन्यते गृही ||
माताजी देह और गेह में आसक्त पुरुष जब कभी भी जिस किसी प्रकार का दुख का प्रतिकार करने  मे सफल हो जाता है , तो उसे ही सुख मान बैठता है |


सोहं वसन्नपि विभो बहुदुःखवासं 
        गर्भान्न निर्जिगमिषे बहिरन्धकूपे |
यत्रोपयातमुपसर्पति देवमाया 
        मिथ्यामतिर्यदनु संसृतिचक्रमेतद ||
प्रभो यद्यपि इस गर्भ में अनेकों प्रकार के दुख हैं तथापि मैं यहां से बाहर निकलना नहीं चाहता क्योंकि बाहर निकलते ही आपकी माया घेर लेती है , जिसके कारण बारंबार संसार चक्र में पडना पड़ता है |  परंतु प्रभु इस बार मेै जन्म लेकर आप का भजन कर ऐसा प्रयास करूंगा कि मुझे पुनः इस गर्भ मे ना आना पड़े |


सङ्गं न कुर्यात्प्रमदासु जातु 
          योगस्य पारं परमारुरुक्षुः |
मत्सेवया प्रतिलब्धात्मलाभो
           वदन्ति या नुरयद्वारमस्य ||
माताजी जो योग के परम पद को प्राप्त करना चाहते हैं उन्हें कभी भी स्त्रियों का संग नहीं करना चाहिए |
कपिल भगवान ने जब इस प्रकार का उपदेश दिया माता देवहूति के अज्ञान का पर्दा समाप्त हो गया , उन्होंने कपिल भगवान को प्रणाम किया और ब्रह्म स्वरूप को प्राप्त हो गई |



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