barhapidam natvar vapu /बर्हापीडं नटवरवपुः
बर्हापीडं नटवरवपुः कर्णयोः कर्णिकारं
विभ्रद वासः कनककपिशं वैजयन्तीं च मालाम् |
रन्ध्रान वेणोरधर सुधया पूरयन् गोपवृन्दै
र्वन्दारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद गीतकीर्तिः
भगवान श्रीकृष्ण ग्वाल वालों के साथ वृंदारण्य में प्रवेश कर रहे हैं, उनके सिर में मयूर का प्रच्छ है, एक बार भगवान श्री कृष्ण और राधा रानी के मयूर के मध्य नृत्य प्रतिस्पर्धा हुई श्री कृष्ण ऐसे नाचे की राधा रानी का मोर प्रसन्न हो गया उसने अपना एक पंख गिरा दिया |श्रीकृष्ण ने उसे वत्सार समझ अपने मस्तक में धारण कर लिया और तभी से श्रीकृष्ण मयूर पिक्ष धारण करने लगे | उनके कानों में पीला पुष्प शोभायमान हो रहा है |
यहां श्लोक मे ( कर्णयोः ) शब्द द्विवचन का प्रयोग किया गया है तात्पर्य है, कान तो दो हैं परंतु पुष्प एक है | यह पुष्प संकेत पुष्प है प्रातः काल जब श्रीकृष्ण गोचारण के लिए जाते हैं उस समय गोपियों के मन में जिज्ञासा होती है, आज श्री कृष्ण किस दिशा की ओर जाएंगे |
barhapidam natvar vapu /बर्हापीडं नटवरवपुः
चम्पा वर्णौ राधिका भ्रमर श्याम को दास |
मातृ भाव हिम जानिके भ्रमर न आवे पास |
इसलिए श्रीकृष्ण पीतांबर धारण करते हैं, गले में वनमाला धारण कर रखी है |
वनमाला किसे कहते हैं ?
तुलसी कुन्द मन्दार पारिजात सरोरुहैः |
पञ्चभिः ग्रथिता मालावनमालाप्रकीर्तितः |
तुलसी, कुंद, मंदार, परिजात और कमल इन पांच पुष्पों से वरमाला बनती है | श्रेष्ठ नर के समान भगवान श्री कृष्ण का सुंदर वेष है अथवा नट और वर के समान श्री कृष्ण का स्वरूप है नट वियोग श्रृंगार का प्रतीक है और वर संयोग का प्रतीक है दोनों विरुद्ध धर्मी हैं एक स्थान पर नहीं रह सकते परंतु ईश्वर का लक्षण ही है--विरुद्ध धर्मास्ययत्वं ईश्वरत्वं |
जहां दो विरोधी धर्म एक ही स्थान पर हों उसे ईश्वर कहते हैं | श्री कृष्ण बांसुरी के छिद्रों को अपने अधरा मृत से पूर्ण कर रहे हैं | और विषयानंद जिनके सामने फीके पड़ जाए उसे वेणू कहते हैं , ग्वाल बाल पीछे-पीछे कृष्ण की कीर्ति का गान कर रहे हैं , आज यह वृंदावन धाम श्री कृष्ण के चरण चिन्हों के कारण बैकुंठ से भी श्रेष्ठ बन गया है |barhapidam natvar vapu /बर्हापीडं नटवरवपुः
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