Bhagwat Katha Shlok / भागवत कथा श्लोक
भागवत कथा - षष्ठम् स्कंध

सकृन्मनः कृष्णपदारविन्दयो-
र्निवेशितं तद्गुणरागि यैरिह |
न ते यमं पाशभृतश्च तद्भटान्
स्वप्नेपि पश्यन्ति हि चीर्णनिष्कृताः ||
जिनके मनरूपी मघुर-मधुकर एक बार भी भगवान श्री कृष्ण के चरणारविंद रूपी मकरंद का पान कर लिया उन्होंने संपूर्ण प्रायश्चित कर लिया उन्हें स्वप्न में भी यमराज और उनके दूतों का दर्शन नहीं होता,,,
वेद प्रणिहितो धर्मो ह्यधर्मस्तद्विपर्ययः |
वेदो नारायणः साक्षातस्वयम्भूरिति शुश्रुम् ||
वेद विहितत्त्वं धर्मत्वं वेद निषिधत्त्वं अधर्मत्वं || वेद जिसका विधान करता है उसे धर्म कहते हैं और जिसका निषेध करता है उसे अधर्म कहते हैं वेद साक्षात् भगवान नारायण के स्वरूप हैं उनके स्वास् प्रश्वास से प्रगट हुए हैं,,,,
पतितः स्खलितो भग्नः सन्दष्टस्तप्त आहतः |
हरिरित्यवशेनाहं पुमान्नार्ह्रति यातनाम् ||
गिरते समय अंग भंग होने पर और सर्प अदि के डसने पर भी कोई विवसता पूर्वक भगवान का नाम ले लेता है तो वह यम यात्रा का पात्र नहीं होता , जैसे अग्नि का स्पर्श कोई जानकार करें अथवा अनजान में करें अग्नि उसे जला देती है उसी प्रकार भगवान का नाम कोई जानकर अथवा अनजान मे ले पवित्र हो जाता है |
Bhagwat Katha Shlok / भागवत कथा श्लोक
जिह्वा न वक्ति भगवद् गुणनामधेयं |
चेतश्च न स्मरति तच्चरणारविन्दम् |
कृष्णाय नो नमति यच्छिर एकदापि
तानानयध्यमसतो कृतविष्णुकृत्यान् ||
( 6.3.29 )
परंतु जिनकी जिह्वा सदा बकवाद तो करती है परंतु भगवान के मंगलमय नामों का उच्चारण नहीं करती जिनका चित्त संसार में तो रचा बसा रहता है लेकिन भगवान के निर्मल नामो तथा निर्मल चरण अरविंदो का मनन नहीं करता जिनका सिर बड़े-बड़े धनाढ्य के सामने तो झुकता है परंतु भगवान के सामने संत महात्मा गुरुजनों के सामने नहीं झुकता ऐसे पापियों को तुम मेरे पास ले आना बे दंडनीय है यम यातना के पात्र हैं |
अजां मेकां लोहित शुक्ल कृष्णां |
बहवी प्रजाः सृज माना सरूपा: ||
एक माया ही के सत्व रज और तम यह तीन रूप हैं और वह इन्हीं के द्वारा अपने समान अनेकों प्रकार की सृष्टि करती है , परमात्मा ही व्यभिचारणी स्त्री माया का पति है मायावती भगवान |
अहन्यहनि भूतानि गच्छन्ति यममन्दिरं |
शेषा जीवितु मिच्छन्ति किमाश्चर्य मतः परम ||
प्रतिदिन एक और प्राणी मर रहे हैं और दूसरी ओर उन मरते हुए प्राणियों को देखते हुए भी जीव जीने की इच्छा करता है और भोग भोगने में लगा रहता है यही संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य है |
अहो असाधो साधूनां साधुलिङ्गेन नस्त्वया |
असाध्वकार्यर्भकाणां भिक्षोर्मार्गः प्रदर्शितः ||
( 6.5.36 )
नारद तुमने भेष दो साधुओं का धारण कर रखा है परंतु तुम साधु नहीं असाधु हो तुमने मेरे भोले भाले निरपराध बालकों को भिखारी बना दिया मैं तुम्हें श्राप देता हूं आज से एक स्थान पर अधिक देर तक ठहर नहीं सकोगे, देवर्षि नारद ने उस श्राप को स्वीकार किया इसके पश्चात दक्ष प्रजापति ने 60 कन्यायें उत्पन्न की |
Bhagwat Katha Shlok / भागवत कथा श्लोक
दश धर्माय कायेन्दोर्द्विषट् त्रिणव दत्तवान् |
भूताङ्गिरः कृशाश्वेभ्यो द्वे द्वे तार्क्ष्याय चापराः ||
( 6.6.2 )
जिनमें से दस का विवाह धर्म से हुआ, तेरह का विवाह कश्यप के साथ, सत्ताइस का विवाह चंद्रमा से ,भूत- अंगिरा और कृषाष्व के साथ दो दो कन्याओं का तथा तार्क्ष्यनामधारी कश्यप के साथ चार कन्याओं का विवाह हुआ | कश्यप की पत्नी दिति से दैत्यों का जन्म हुआ और अदिति से देवताओं का जन्म हुआ |
ब्रम्हणं ज्ञान सम्पन्नं विष्णोर्भक्तं महात्मनः |
आयान्तं वीक्ष्यनोतिष्ठेत सादुखैः परिभूयते ||
ब्राह्मण विद्वान भगवान के भक्त और संत महात्माओं को आया देख जो खड़ा नहीं होता उनका सम्मान नहीं करता वह दुख को प्राप्त करता है इन्द्र ना तो आसन दिया और न ही उनके सम्मान में खड़ा हुआ जिससे गुरुदेव बृहस्पति रुष्ट हो गए और वहां से अंतर्ध्यान हो गए सभा के पूर्ण होने पर इंद्र को पश्चाताप हुआ वह देवताओं के साथ गुरुदेव की कुटिया में आया और गुरुदेव बृहस्पति को कुटिया में ना देख अपने आप को धिक्कारने लगा--
ये पारमेष्ठ्यं धिषणमधितिष्ठन् न कञ्चन |
प्रत्युत्तिष्ठेदिति ब्रूयुर्धर्मं ते न परं विदु: ||
( 6.7.13 )
जो यह कहता है कि सार्वभौम सिंहासन पर बैठा हुआ सम्राट किसी के आने पर खडा ना हो तो वह वास्तव में धर्म को नहीं जानता |
आचार्यो ब्रम्हणो मूर्तिः पिता मूर्तिः प्रजापतेः |
भ्राता मरुत्पतेर्मूर्तिर्माता साक्षात् क्षितेस्तनुः ||
( 6.7.29 )
आचार्य वेद की मूर्ति है, पिता ब्रह्मा की, भाई इंद्र की और माता साक्षात प्रथ्वी की मूर्ति है , बेटा विश्वरूप दैत्यों ने हमसे हमारा राज्य छीन लिया है इसी दुख से दुखी हो हम आपकी शरण में आए हैं |
पौरोहित्यं याचकत्वं मठाधिपत्य मेव च |
करोति यदि देवोपि श्वान योनि समश्नुते ||
पौरोहिती का काम याचना का काम और मठाधीश का कर्म यदि देवता भी करे तो उसका जन्म स्वान योनि कुत्ते की योनि में होता है |
Bhagwat Katha Shlok / भागवत कथा श्लोक
नरकाय मतिस्तेचेत पौरोहित्यं समाचर |
वर्ष यावत् किमन्येन मठचिन्तां दिनत्रयम् ||
जिसे नर्क में जाने की इच्छा हो वह एक वर्ष के लिए पुरोहिताई का काम कर ले अथवा तीन दिन के लिए मठाधीश बन जाए |
ॐ हरिर्विदध्यान्मम सर्वरक्षां
न्यस्ताङ्घ्रिपद्मः पतगेन्द्रपपृष्ठे |
दरारिचर्मा सिगदेषुचाप-
पाशान् दधानोष्ट गुणोष्टबाहुः ||
भगवान श्रीहरि जिनका चरण कमल गरुण की पीठ पर स्थित है,अणिमादि आठो सिद्धियां जिनकी सेवा कर रही है उन्होंने अपने हाथों हाथों में शंख चक्र गदा ढाल तलवार धनुष बाण और पाश धारण कर रखा है ,ऐसे ओंकार स्वरूप वाले भगवान श्री हरि मेरी सब ओर से रक्षा करें ,जल में जलचर जीवों से मत्स्य भगवान, स्थल में वामन भगवान और आकाश मे त्रिविक्रम भगवान मेरी रक्षा करें ,प्रातः काल हाथ में गदा लिए भगवान केशव ,मध्यान में सुदर्शन चक्र धारी भगवान विष्णु ,सायं कालीन भगवान माधव और रात में भगवान पद्मनाभ मेरी रक्षा करें |
धनानि जीवनंच्चैव परार्थे प्राज्ञ उसृजेत |
सन्निमित्ते वरं त्यागो विनाशे नियतं सती ||
( हितोपदेश )
देवताओं मैं तुम्हारे धर्म की परीक्षा ले रहा था मुझे अपने शरीर से कोई मोह नहीं है क्योंकि धन और जीवन को परमार्थ में लगा देना चाहिए क्योंकि ना चाहे तो भी एक न एक दिन इनका विनाश हो जाना है ,ऐसा कह दधीचि ऋषि ने भगवान का स्मरण करके अपने शरीर का त्याग कर दिया |
Bhagwat Katha Shlok / भागवत कथा श्लोक
अहं हरे तव पादैकमूल-
दासा नुदासो भवितास्मि भूयः |
मनः स्मरेता सुपतेर्गुणांस्ते
गृणीत वाक् कर्म करोतु कायः ||
( 6.11.24 )
न नाकपृष्ठं न च पारमेष्ठयम्
न सार्वभौमं न रसाधिपत्यम् |
न योगसिद्धी रपुनर्भवं वा
समंजस त्वा विरहय्य काङ्क्षे ||
( 6.11.25 )
अजातपक्षा इव मातरं खगाः
स्तन्यं यथा वत्सतराः क्षुधार्ताः |
प्रियं प्रियेव व्युषितं विषण्णा
मनोरविन्दाक्ष दिदृक्षते त्वाम् ||
( 6.11.26 )
ममोत्तमश्लोकजनेषु सख्यं
संसारचक्रे भ्रमतः स्वकर्मभिः |
त्वन्माययात्मात्मजदारगेहे-
ष्वासक्तचित्तस्य न नाथ भूयात ||
( 6.11.27 )
प्रभु मुझ पर ऐसी कृपा कीजिए कि मैं आपके चरण कमलों पर आश्रित रहने वाले भक्तों का सेवक बनू मेरा मन सदा आपके ही चरणों का स्मरण करें वाणी से मै निरंतर आप के नामों का संकीर्तन करूं और मेरा शरीर सदा आपकी ही सेवा में लगा रहे तथा मुझे आपको छोड़कर स्वर्ग ,ब्रह्म लोक, पृथ्वी का साम्राज्य, रसातल का राज्य ,योग की सिद्धि और मोक्ष भी नहीं चाहिए |
प्रभु जैसे पंख विहीन पक्षी दाना लेने गई हुई अपनी मां की प्रतीक्षा करता है | जैसे भूखा बछडा मां के दूध के लिए आतुर रहता है | जैसे विदेश गए हुए पति की पत्नी प्रतीक्षा करती है ठीक उसी प्रकार मेरा मन आपके दर्शनों के लिए छटपटा रहा है |
प्रभु मेरा मेरे कर्मों के अनुसार जहां कहीं भी जन्म हो वहां मुझे आप के भक्तों का आश्रय प्राप्त हो देह गेह में आसक्त विषयी पुरुषों का संग मुझे कभी ना मिले इस प्रकार भगवान की स्तुति कर वृत्रासुर ने त्रिशूल उठाया और इंद्र को मारने के लिए दौड़ा इंद्र ने वज्र के प्रहार से वृत्रासुर की दाहिनी भुजा काट दिया भुजा के कट जाने पर क्रोधित हो वृत्तासुर अपने बाएं हाथ से परिघ उठाया और इंद्र पर ऐसा प्रहार किया कि इंद्र के हाथ से वज्र गिर गया यह देख इंद्र लज्जित हो गया क्योंकि इंद्र का वज्र वृत्रासुर के पैरों के पास गिरा था |
Bhagwat Katha Shlok / भागवत कथा श्लोक
अहो दानव सिद्धोसि यस्य ते मतिरीदृशी |
भक्तः सर्वात्मनात्मानं सुह्रदं जगदीश्वरम् ||
अहो दानव राज तुम सिद्ध पुरुष हो जो तुम्हारी भगवान में इस प्रकार की धृण बुद्धि है ,इस प्रकार की भक्ति तो बड़े-बड़े योगियों को भी प्राप्त नहीं होती |
सैय्यावस्त्रं चन्दनं चारुहास्यं वीणा वाणी शोभमाना च नारी |
न भ्राजन्ते छुत्पिपाशा तुराणां सर्वारम्भातण्डुलः प्रस्तमूलाः ||
परंतु जैसे उत्तम बिस्तर ,वस्त्र, चंदन, मधुर मुस्कान, वाणी से युक्त शोभित नारी भी जैसे भूखे व्यक्ति की भूख नहीं मिटा सकती ऐसे ही समस्त ऐश्वर्य होने पर भी संतान के ना होने से यह धन ऐश्वर्य मुझे सुख नहीं पहुंचा रहे इसलिए कृपा करके आप मुझे संतान प्रदान कीजिए |
यथा प्रयान्ति संयान्ति स्त्रोतो वेगेन वालुकाः |
संयुज्यन्ते वियुज्यन्ते तथा कालेन देहिनः ||
जैसे जल के बेग से बालू के कड़ आपस में एक दूसरे से मिलते और बिछड़ते रहते हैं इसी प्रकार समय के प्रवाह से प्राणियों का भी मिलना और बिछड़ना होता रहता है |
कस्मिञ्जन्मन्यमी मह्यं पितरो मातरोभवन् |
कर्मभिर्भ्राम्यमाणस्य देवतिर्यङ्नृयोनिषु ||
देवर्षि अपने कर्मों के अनुसार मेरे ना जाने कितने जन्म हुए हैं और उनमें से न जाने कितनी बार यह मेरे माता-पिता हुए और ना जाने कितनी ही बार में इनका माता-पिता हुआ |
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