Shrimad Bhagwat Puran Shlok
सप्तमः स्कन्ध
परीक्षित सुकदेव जी से प्रश्न करते हैं- कि हे भगवन भगवान तो समदर्शी है फिर वे देवताओं का पक्ष लेकर असुरों का वध बार-बार क्यों करते हैं ,श्री सुकदेव जी कहते हैं परीक्षित तुम्हारा कथन सत्य है भगवान स्वभावत: गुण से रहित हैं परंतु जब भगवान को सत्व गुण की वृद्धि करनी होती है ,तब वे देवताओं का पक्ष लेते हैं |
गोपियों ने प्रेम से ,कंस ने भय से, शिशुपाल दंत वक्र आदि राजाओं ने द्वेष से ,यदुवंशियों ने संबंध से ,आप लोगों ने स्नेह से हम लोगों ने भक्ति से अपना मन भगवान में लगा रखा है |
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पिताजी सदा भगवान की कथा का श्रवण करना उनके नामों का कीर्तन करना पूजा करना स्मरण करना चरण सेवा करना वंदना करना उनके प्रति दासता से और सत्यव्रत तथा अपना सर्वस्व भगवान नारायण के चरणों में समर्पित कर देना भगवान कि इस प्रकार की नवधा भक्ति को ही सर्वश्रेष्ठ अध्ययन समझता हूं |
न मत्प्रणीतं न पपप्रणीतं
सुतो वदत्येष तवेन्द्रशत्रो |
नैसर्गिकीयं मतिरस्य राजन्
नियच्छ मन्युं कददाः स्म मा नः ||
( 7.5.28 )
महाराज इसे यह शिक्षा हमने नहीं दी है यह इसकी जन्मजात बुद्धि है, इसलिए हमे क्षमा कीजिए हिरण्यकशिपु ने प्रहलाद से कहा जब तुझे यह शिक्षा गुरु पुत्रों से प्राप्त नहीं हुई तो कहां से हुई है ,,
मतिर्न कृष्णे परतः स्वतो वा
मिभोभिपद्येत गृहव्रतानाम् |
महीयसां पादरजोभिषेकं
निष्किञ्चनानां न वृतीत यावत् ||
पिता जी जब तक प्राणी महापुरुष की चरण धूलि से स्नान नहीं कर लेता तब तक उसकी बुद्धि अपने या किसी के समझाने पर भी भगवान के चरणों में नहीं लगती ,,,
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यदि मैंने सर्वत्र सब में भगवान विष्णु का ही दर्शन किया हो तो यह गुरु पुत्र जीवित हो जाएं प्रहलाद जी की इस प्रार्थना से संडामर्क पुनः जीवित हो गए |
मित्रों यह मनुष्य शरीर अत्यंत दुर्लभ है और सदा रहने वाला भी नहीं है इसलिए कुमार अवस्था से ही भगवान का भजन करना चाहिए ,इन्द्रियों से प्राप्त होने वाले सुख तो किसी भी योनि में प्राप्त हो सकता है इसलिए सुख देने वाले उन भोगों की प्राप्ति के लिए प्रयास करने की जरूरत नहीं है |
निष्कपट भाव से गुरु की सेवा करने से जो कुछ भी प्राप्त हो उसे भगवान के श्री चरणों में समर्पित करने से महापुरुषों का सत्संग करने से भगवान की आराधना उनकी कथाओं में श्रद्धा उनके चरण कमलों का ध्यान उनका पूजन और उनके गुणों का उनके नामों का कीर्तन करने से भगवान श्री हरि शीघ्र ही प्रसन्न हो जाते हैं |
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न केवलं मे भवतश्च राजन
सवै बलं बलिनां चापरेषाम् |
परेडवरेडमी स्थिर जङ्गमां ये
ब्रह्मादयो येन वशं प्रणीताः ||
पिता जी वे नारायण न केवल मेरे अपितु आपके भी बल हैं | एक तिनके से लेकर ब्रह्माजी तक संपूर्ण चराचर जगत उन्हीं के अधीन है |हिरण्यकशिपु कहा तेरा वह नारायण कहां रहता है, प्रह्लाद ने कहा वह सब जगह रहता है |
क्वाहं रजः प्रभव ईश तमोन्धिकेस्मिन्
जातः सुरेतरकुले क्व तवानुकम्पा |
न ब्राम्हणो न तु भवस्य न वै रमायाः
यन्तेर्पिता शिरसि पद्मकरः प्रसादा ||
प्रभु कहां तो रजोगुण तमोगुण से युक्त असुर के वंश में उत्पन्न हुआ हूं मैं और कहां आपकी करुणा कृपा आपने जो अपनाकर कमल मेरे सिर पर रख दिया है, यह सौभाग्य ब्रह्मा जी शंकर जी और आपकी प्राण वल्लभा मां लक्ष्मी को भी प्राप्त नहीं हुआ | मैं धन्य हूं ||
हे देवर्षि मैं आपसे मनुष्य के वर्ण एवं आश्रमों के धर्मों को सुनना चाहता हूं जिनका पालन करने से मनुष्य परम पुरुष परमात्मा को प्राप्त कर लेता है |देवर्षि नारद कहते हैं- धर्मराज, ब्राह्मण,क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र यह चार वर्ण होते हैं |
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इंद्रियों का समन मन का दमन, तपस्या, पवित्रता ,संतोष ,क्षमा, सरलता, ज्ञान ,दया भाव ,भगवान की भक्ति और सत्य का पालन करना यह ब्राह्मणों के लक्षण है | सूरता और वीरता, तेजरूपिता,त्याग तथा ब्राह्मणो का सम्मान करना तथा देश की रक्षा करना क्षत्रियों का धर्म है |
बहुत से शिष्य शिष्यायें ना बनाएं अधिक ग्रंथों का अध्ययन ना करें बड़े-बड़े मंचों से व्याख्या ना दे और ना ही आश्रम आदि बनाए | प्रतिदिन ओंकार का जप करें |
जितने में पेट भर जाए जितने में परिवार का निर्वाह हो जाए उतने ही धन का संग्रह करना चाहिए इससे अधिक धन को जो अपना मानते हैं वह चोर है दंड के अधिकारी हैं |
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