अन्यच्च अत्युत्कटैरिहत्यैस्तु /anyacha atyutkatai shloka niti

 अन्यच्च अत्युत्कटैरिहत्यैस्तु /anyacha atyutkatai shloka niti

अन्यच्च अत्युत्कटैरिहत्यैस्तु /anyacha atyutkatai shloka niti

अन्यच्च-अत्युत्कटैरिहत्यैस्तु पापपुण्यैः शरीरभृत् ।

प्रारब्धं कर्म विच्छिद्य भुङ्क्ते तत्तत्फलं द्रुतम् ।।२०।।


प्रसंग:- अत्रकृतानां पापपुण्यानामेव फलदायकत्वमिति ब्रबीति


अन्वयः- शरीरभृत्, अत्युत्कटैः, इहत्यैः, पापपुण्यैः, प्रारब्धं कर्म विच्छिद्य तत्तत्फलम् भुङ्क्ते।।२०।।


व्याख्या- शरीरं बिभर्तीति शरीरभृत् = देहधारी पुरुष: अति उत्कटानि अत्युकटानि तैः अत्युत्कटैः = अत्युग्रैः इह भवानि इहत्यानि तैः इहत्यैः = इह जन्मानि कृतैः, पापानि च पुण्यानि च पापपुण्यानि तैः पापपुण्यैः = दुष्कृतसुकृतैः प्रारब्धं-समारब्धं कर्म, विच्छिह्य-निर्भिद्य, द्रुतं-शीघ्रम् एव तेषां तेषां फलानां समाहारः तत्तफलम्=पापपुण्यकर्मजन्यफलम् भुङ्क्ते-अनुभवति।।।


भाषा - देहधारी पुरूष इस जीवन में किये गये अत्युग्र पाप और पुण्यों से प्रारब्ध कर्म को काटकर शीघ्र ही पाप और पुण्य के फल को भोगता है।

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