यौवनं धनसम्पतिः/yauvanam dhana sampatih shloka niti

यौवनं धनसम्पतिः/yauvanam dhana sampatih shloka niti

यौवनं धनसम्पतिः/yauvanam dhana sampatih shloka niti

यौवनं धनसम्पतिः प्रभुत्वमविवेकिता।

एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्टयम् ||८||


प्रसंग:- अनर्थकारणानि उपदिशति-


अन्वयः - यौवनं, धनसम्पत्तिः प्रभूत्वम, अविवेकिता (एतन्मध्ये) एककम् अपि अनर्थाय (भवति) यत्र चतुष्टयं तत्र किमु ।।८||

 

व्याख्या- यौवनं = युवावस्था, धनसम्पत्तिः = द्रव्यवैभवम्, प्रभुत्वं -- स्वामित्वं, अविवेकता = विचारशून्यत्वम्, एतेषां मध्ये एकैकम, अपि = पृथक-पृथक स्थितम्, एकम एकमपि, अनर्थाय भवति= अनर्थमेव जनयति, यत्र = पुरुषे पुनश्चतुष्टयं एकत्रितं भवति तत्र किमु? = किं वक्तव्यम् । तथाविधः पुरूषस्तु अनर्थानामाकर एव भवतीति भावः ।।८।


भाषा - जवानी, द्रव्यवैभव, स्वामित्व और विचारशून्यता, इन चारों में स्वतन्त्र एक-एक भी अनर्थ का कारण हो जाता है, जहां चारों एक साथ हो वहां की बात ही क्या है? अर्थात वहाँ तो अनर्थ होगा ही।।८ || 

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यौवनं धनसम्पतिः/yauvanam dhana sampatih shloka niti


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