अनिष्टादिष्टलाभेऽपि /anishta dishta labhepi shloka niti

अनिष्टादिष्टलाभेऽपि /anishta dishta labhepi shloka niti

अनिष्टादिष्टलाभेऽपि /anishta dishta labhepi shloka niti

अनिष्टादिष्टलाभेऽपि न गतिर्जायते शुभा।

यत्रास्ते विषसंसर्गोऽमृतं तदपि मृत्यवे ।।२।।


प्रसंग:- अनिष्ट संसर्गाद् दुर्गतिः भवतीति कथयति-


अन्वयः- अनिष्टाद् इष्टलाभे अपि शुभा गतिः न जायते, यत्र विषसंसर्ग: आस्ते तद् अमृतम् अपि मृत्यवे (भवति) |


व्याख्या- अनिष्टात्-अहितकरात् इष्टलाभे-हितकरवस्तुलाभे अपि शुभा-शोभना, गतिः परिणामः न जायते, यत्र यस्मिन् अमृते, विषसंसर्गः = विषसंयोगः आस्ते, तदपि अमृतं मृत्यवे-नाशाय एवेत्यर्थः ।।२।।


भाषा- अनिष्ट वस्तु से यदि कुछ लाभ हो तो उसका परिणाम अच्छा नहीं होता है जैसे जिस अमृत में विष मिला रहता है वह अमृत भी मृत्यु कारक ही होता है।।२।।

 नीति संग्रह- मित्रलाभ: के सभी श्लोकों की लिस्ट देखें नीचे दिये लिंक पर क्लिक  करके। -clickNiti Sangrah all Shloka List

अनिष्टादिष्टलाभेऽपि /anishta dishta labhepi shloka niti

 

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